आखिर इस राष्ट्रहित के निर्णय पर आपत्ति क्यों?

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प्रवीण दुबे

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जब देश पर संकट हो, राष्ट्र विघातक शक्तियां विविध तरीकों से देश को खोखला करने में जुटी हों तो राष्ट्रहित में कड़े निर्णय लेना बहुत जरुरी हो जाता है। मंगलवार की रात्रि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश में पांच सौ और एक हजार के नोट बंद करने की घोषणा करके निश्चित ही राष्ट्रहित को प्राथमिकता दी है।
इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि इस घोषणा के बाद कुछ दिनों तक देश में अफरा-तफरी भरा माहौल रह सकता है। लेकिन सरकार ने इससे निपटने के लिए जो तैयारी की है यदि उसे ठीक प्रकार से लागू कर लिया जाता है तो कुल मिलाकर इससे देश के आम नागरिकों को बहुत फायदा होने वाला है।
सबसे ज्यादा तो देश की सुरक्षा में हो रही लगातार सेंधमारी पर भी रोक लगेगी। जैसा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस ऐतिहासिक घोषणा करते वक्त कहा कि देश के लिए देश का नागरिक कुछ दिनों के लिए यह कठिनाई झेल सकता है, मैं सवा सौ करोड़ देशवासियों की मदद से भ्रष्टाचार के खिलाफ इस लड़ाई को और आगे ले जाना चाहता हूं।
नरेन्द्र मोदी के ही शब्दों में ”तो आइए जाली नोटों का खेल खेलने वालों और कालेधन से इस देश को नुकसान पहुंचाने वालों को नेस्तनाबूद कर दें ताकि देश का धन देश के काम आ सके मुझे यकीन है कि मेरे देश का नागरिक कई कठिनाई सहकर भी राष्ट्र निर्माण में योगदान देगा।
इन शब्दों पर यदि गौर किया जाए तो स्वत: इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश नकली करेंसी के हमले और कालेधन की समस्या को लेकर कितने कठिन दौर से गुजर रहा है। इसका तुरन्त समाधान क्या है? यदि जनता का हित सर्वोपरि है तो अब तक पिछली सरकारें जो कुछ करती आई उसे ही चलने दिया जाए और परेशानी का हौव्वा दिखाकर कड़े कदम न उठाए जाएं। दूसरी बात यह कि राष्ट्र पर आ रहे गंभीर संकट का समय रहते समाधान खोजा जाए भले ही देशवासियों को कुछ दिनों की परेशानी का सामना करना पड़े।
इन दोनों ही बातों में प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रहित को सर्वोपरि माना है, कोई भी समझदार और देशभक्त नागरिक इसका विरोध करेगा ऐसा समझ नहीं आता है। ऐसा पहली बार नहीं है जब राष्ट्रहित की खातिर कोई बड़ा निर्णय लिया गया है। यहां यह भी लिखने में कोई संकोच नहीं है कि इस देश के नागरिकों ने हमेशा राष्ट्रहित हेतु लिए कठोर निर्णयों का न केवल स्वागत किया है बल्कि उसमें तन मन धन से सहयोग भी किया है।
जो लोग मोदी के इस निर्णय का विरोध कर रहे हैं उन्हें आंखें खोलकर विश्व बैंक द्वारा जारी किए गए ताजा आंकड़ों पर गौर करना चाहिए जिसमें इंगित किया गया है कि देश में मौजूद कुल जीडीपी का 20.7 प्रतिशत पैसा कालाधन था और आगे इसका आंकड़ा बढ़कर 25 प्रतिशत तक जा पहुंचा। स्थिति कितनी गंभीर है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ग्लोबल फाइनेंसियल इंटीग्रिटी के मुताबिक 2002 से 2011 के बीच 344 बिलियन डॉलर कालाधन भारत से बाहर दूसरे देशों में भेजा जा चुका था। इसके अलावा 2012 में भारत से 94.76 बिलियन डॉलर बाहर भेजे गए थे। आंकड़े बताते हैं कुल 180 देशों में भारत का कालाधन है।
हवाला और अन्य तरीकों से गलत ढंग से कमाया यह काला धन जिस पर सरकार की कोई निगरानी नहीं होती, जिस पर इनकम और बाकी टैक्स नहीं भरे जाते लगातार विदेशी बैंकों तक पहुंचता है। इसका सीधा नुकसान भारत की अर्थव्यवस्था पर तो पड़ता ही है आम नागरिकों के लिए महंगाई जैसी दिक्कतें भी खड़ी होती हैं।
आखिर इतनी भयावह स्थिति पर लगाम लगाने के लिए जो कदम प्रधानमंत्री ने उठाया है उसकी निंदा कैसे की जा सकती है। जो लोग ऐसा कर रहे हैं हो सकता है कहीं न कहीं इस कड़े कदम से उनके व्यक्तिगत हित प्रभावित हुए हैं जिस कारण बौखलाकर इस राष्ट्रहित के निर्णय की निंदा की जा रही है।
एक और महत्वपूर्ण बात यह भी है कि जो पांच सौ और हजार रुपये के नोट प्रचलन में थे उनसे मिलते जुलते नकली नोट छापकर आतंकवादी उनका इस्तेमाल भारत को तहस-नहस करने में कर रहे थे। यह नकली नोट इतनी ज्यादा मात्रा में प्रचलन में आ चुके थे कि इससे भारत की आर्थिक स्थिति तक डांवा-डोल हो रही थी। इसका एकमात्र उपाय था पुराने नोटों को रद्द करके नए नोट प्रचलन में लाए जाएं।
अफसोस की बात है इस कदम को उठाने का साहस पूर्ववर्ती विशेषकर मनमोहन सरकार ने नहीं दिखाया। परिणाम हालात बिगड़ते ही चले गए। इस दृष्टि से भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो साहस दिखाया उसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है। नि:संदेह इस निर्णय के दूरगामी परिणाम बहुत बेहतर निकलेंगे इसमें कोई संदेह नहीं किया जाना चाहिए। आर्थिक विशेषज्ञों की मानें तो इस कदम से बढ़ती महंगाई पर भी लगाम लगेगी, मुद्रा स्फीति नियंत्रण में रहेगी, रुपया मजबूत होगा और सबसे बड़ी बात कि देश का धन देश में ही रखने में मदद मिलेगी साथ ही देश विघातक शक्तियों के मंसूबे ध्वस्त होंगे।

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  1. प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी ने २०१४ में स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से भारत पुनर्निर्माण की रूपरेखा व्यक्त करते उन्होंने करोड़ों लोगों के दिल में आत्मविश्वास जगा दिया है। इसके अतिरिक्त कुल जनसंख्या के अल्पसंख्यक पढ़े-लिखे स्वार्थी लोग तीव्र अभाव-ग्रस्त भारतीय समाज में अराजकता के बीच अनुचित व्यक्तिगत लाभ अथवा विशेषाधिकार के कारण दूसरों के कंधे पर बैठ जीवन यापन कर रहे हैं| उन्हें देश में विकास और उसके सार्वजनिक लाभ अथवा राष्ट्र-प्रेम से कोई दूर का भी संबंध नहीं है| ऐसी अवस्था में इन लोगों को तो उनका “व्यक्तिगत सिंहासन” डोलते दिखाई देता है| बौखलाते केवल विरोध ही उनके चरित्र का अंग बन कर रह गया है| अंधों में इन काने राजाओं की अब अवहेलना करते हुए सामान्य नागरिक में आत्म-सम्मान व व्यक्तिगत गौरव के भाव जगाने होंगे|

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