“वेदों की अनमोल देन सब सुखों का आधार अग्निहोत्र यज्ञ”

0
249

मनमोहन कुमार आर्य

वैदिक मान्यता के अनुसार मनुष्य जीवन चार आश्रमों में विभाजित है। ये आश्रम हैं ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। एक अरब छियानवें करोड़ से अधिक वर्षों के वैदिक युग में 8 से 12 वर्ष तक की आयु के बच्चे गुरुकुल में अध्ययन हेतु जाते थे। इससे पूर्व का उनका समय माता-पिता के पास ही बीतता था। वर्तमान में तो गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली प्रायः समाप्त ही है। आर्यसमाज के कुछ गुरुकुल देश में चल रहे हैं जहां अध्ययन-अध्यापन की आवासीय व्यवस्था है। वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रम भी समाप्त प्रायः हैं। अतः सभी मनुष्य अपना पूरा जीवन प्रायः घरों में ही व्यतीत करते हैं। हर मनुष्य भोजन करता है जिससे मल-मूत्र बनता है। इससे वायु में दुर्गन्ध वा प्रदुषण उत्पन्न होता है। भोजन की आवश्यकता सभी मनुष्यों को होती है जिसके लिये चूल्हा जलाया जाता है जो कि वायु में आक्सीजन को कम तथा हानिकारक कार्बनडाई-आक्साइड की मात्रा को बढ़ाता है। इसके अतिरिक्त हमें अपने वस्त्रों को भी स्वच्छ करने हेतु जल का प्रयोग करना होता है। इन सब कार्यों से वायु व जल प्रदुषण प्रत्यक्ष रूप से होता है। हम हर क्षण श्वास-प्रश्वास लेते व छोड़ते हैं। इससे भी घर के वातावरण की वायु में आक्सीजन में कमी व कार्बन-डाइ-आक्साइड गैस की मात्रा में वृद्धि होती है। स्नान करने पर भी हम स्वच्छ जल को प्रदुषित करते हैं। इस प्रकार से हम अपने घरों में भी वायु व जल का प्रदुषण करते हैं। प्रदुषण हमारे जीवन व स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होता है। अतः हमारा कर्तव्य हैं कि हमारे निमित्त से जो प्रदुषण होता है उतना व उससे कुछ अधिक हम वायु व जल की शुद्धि का कार्य करें। इस प्रक्रिया को सम्पादित करने का नाम ही अग्निहोत्र-यज्ञ है। इसकी आज्ञा व विधान सृष्टि के आदि ग्रन्थ वेदों में हैं। वेद के मन्त्रों व उनकी शिक्षा के अनुसार ही हम यज्ञ सम्पादित करते हैं जिससे प्रदुषण दूर व कम होकर हम रोगों से बचते हैं और स्वस्थ रहते हैं। हमारे इस कार्य से अन्य लोग भी लाभान्वित होते हैं।

 

यज्ञ में हम हवन-कुण्ड या यज्ञशाला में अग्नि उत्पन्न करने के लिये आम आदि की समिधाओं का प्रयोग करते हैं। यज्ञ का गुख्य द्रव्य गोघृत है। गोघृत के अतिरिक्त कुछ अन्य सुगन्धित पदार्थ, मिष्ट पदार्थं में देशी गुड़ से बनी शक्कर, कुछ लाभकारी वनस्पतियां व ओषधियां तथा पुष्टिकारक शुष्क मेवे आदि पदार्थों की अग्नि में आहुतियां देकर इन पदार्थों को सूक्ष्म बनाकर वायुमण्डल में फैलाते हैं। यज्ञ में जो पदार्थ डाले जाते हैं उन्हें यज्ञ करने से पहले शुद्ध कर लिया जाता है। इनको अग्नि में डालने से यह जलकर भस्म हो जाते हैं जिससे इनका प्रभाव लाल मिर्च की भांति वातावरण में दूर-दूर तक फैल जाता है। गोघृत पुष्टिकारक, आरोग्यदायक, बलवर्धक, आयुवर्धक, विषनाशक आदि अनेक गुणों वाला होता है। हम जानते हैं कि सूक्ष्म पदार्थ में अधिक शक्ति होती है और स्थूल पदार्थों की शक्ति कम होती है। अग्नि में मिर्च डालकर इसका प्रत्यक्ष होता है। ऋषि दयानन्द ने बताया है कि तीव्र अग्नि में जल कर यह सभी पदार्थ अत्यन्त सूक्ष्म व हल्के हो जाते हैं। इन सूक्ष्म पदार्थों की भेदक शक्ति बढ़ जाती है। वायु में मिलकर यह अच्छे परिणाम उत्पन्न करते हैं। पहला परिणाम तो प्रत्यक्ष अनुभव होता है और वह यह है कि दुर्गन्ध का नाश होता है। दुर्गन्ध अनेक रोगों का कारण होता व हो सकता है। इसका अर्थ हुआ कि अग्नि में गोघृत के जलने से वायु का दुर्गन्ध व अन्य दोष दूर होकर वायु ओषधीय गुणों से युक्त होकर स्वास्थ्य के लिए हितकर हो जाती है। ऐसे ही लाभ शक्कर, शुष्क मेवां, सोमलता, गिलोय, गुग्गल आदि ओषधियों के घृत के साथ जलने से भी होते हैं। अतः यज्ञ करना वायु के हानिकारक दोष दूर करने सहित स्वास्थ्य लाभ के लिये भी हितकर होता है।

 

ऋषि दयानन्द जी ने एक वैज्ञानिक बात यह भी लिखी है गृहस्थियों के घरों का वायु आवासों में उपयुक्त वायु प्रवाह के न होने से बाहर नहीं जाता और घर के भीतर ही दूषित होता रहता है। यज्ञ करने से यज्ञ के समीप का वायु गर्म होकर हल्का हो जाता है और छत की ओर ऊपर को जाता है। यह वायु यज्ञीय पदार्थों के गुणों से युक्त भी हो जाता है। इसी प्रकार ऊपर की भारी वायु नीचे आती है और वह भी यज्ञाग्नि के सम्पर्क में आकर हल्की होकर ऊपर को उठती है। इस प्रकार यज्ञ जारी रहने तक यज्ञ की अग्नि के सम्पर्क में आने वाली वायु गर्म होकर हल्की होती जाती है और ऊपर उठती जाती है। ऊपर की हल्की वायु खिड़की व रोशनदानों से बाहर निकल जाती है और बाहर की शुद्ध वायु घर के भीतर प्रवेश करती है। बाहर की वायु भी यज्ञ की अग्नि के सम्पर्क में आकर हल्की होकर बाहर जाती है और वायुमण्डल में फैल कर वायु व आकाशस्थ जल को शुद्ध करती है। इस प्रकार यज्ञ में डाले गये पदार्थ सूक्ष्म होकर वायु में मिलकर दुर्गन्ध का नाश आदि अनेक प्रकार का लाभ पहुंचाते हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि प्रत्येक गृहस्थी को प्रातः व सायं अपने घर के केन्द्रीय स्थान में यज्ञ करके वायु को शुद्ध करना चाहिये जिससे परिवार के सभी लोग श्वांस-प्रश्वांस के लिये शुद्ध वायु प्राप्त कर सकें और वर्तमान में हो रहे रोगों से बच सकें। यह भी ध्यान रखना होता है कि यज्ञ का उपयुक्त समय सूर्यादय व सूर्यास्त के समय व इन दोनों के मध्य का होता है। यज्ञ विषयक ग्रन्थों में लिखा है कि यज्ञ कुण्ड में हम जो आहुतियां देते हैं वह सूर्य की किरणों की सहायता से सूर्य तक पहुंच जाती हैं। इस प्रकार के कथनों में कुछ वैज्ञानिक तथ्य छुपे हो सकते हैं जिसका विज्ञान की दृष्टि से अध्ययन कर सम्बन्धित रहस्यों का पता लगाना चाहिये।

 

यज्ञ में मन्त्रोच्चार कर आहुतियां दी जाती हैं। इसका उद्देश्य वेद मन्त्रों की रक्षा, वेदाध्ययन में रूचि, ईश्वर स्तुति-प्रार्थना-उपासना, यज्ञों से होने वाले लाभों का ज्ञान आदि होता है। यदि हम यज्ञ में मन्त्रोच्चार नहीं करेंगे तो इससे हम वेदों से दूर हो सकते हैं। यज्ञ में मन्त्रोच्चार करने से हम यज्ञ से प्रातः व सायं जुड़े रहते हैं और जो मन्त्र बोलते हैं वह कण्ठस्थ होने से उनकी रक्षा होती है व उनके लाभ विदित होते हैं। वेदमन्त्रोच्चार करने से हम संस्कृत को न जानते हुए भी संस्कृत और वह भी ईश्वर रचित मन्त्रों का पाठ कर पूर्ण न सही अर्ध व न्यून रूप से संस्कृत से जुड़ते हैं। वेद व यज्ञ के मन्त्रों में ईश्वर की स्तुति व प्रार्थनायें हैं। मन्त्रों के उच्चारण से मन्त्र में निहित ईश्वर की स्तुति करने से ईश्वर से मेल होता है तथा प्रार्थना से हमें आध्यात्मिक एवं भौतिक सुखों का लाभ होता है। यज्ञ करने से श्रेष्ठ सन्तानों की प्राप्ति होने सहित निर्धनता भी दूर होती है। कर्मफल सिद्धान्त के आधार पर यज्ञ को लाभकारी सिद्ध किया जा सकता है। यज्ञ पर विचार करते हैं तो यह पुण्य कर्म सिद्ध होता है। यज्ञ से हमें लाभ होता है और दूसरे हमारे मित्र व शत्रु सभी को भी होता है। इससे हम मुक्ति की ओर भी बढ़ते हैं। इसके साथ ही हमारा यह जीवन सुखी होने के साथ भावी जन्म में भी हमारे पुण्यकर्मों के अनुसार हमारी सुख की स्थिति बनती है। यज्ञ से एक लाभ यह भी होता है कि यज्ञ करने से यज्ञ में रूचि उत्पन्न हो जाती है। यज्ञ न करें तो हमें अच्छा नहीं लगता। हमारे संस्कार हमसे यज्ञ कराते हैं। यज्ञ करने से सन्तुष्टि और न करने से मन में असन्तोष होता है। यज्ञ के संस्कार से हमें आर्यसमाज व सार्वजनिक आयोजनों में बड़े यज्ञों में भाग लेने व वहां यजमान बनने का अवसर मिलता है। विद्वानों के प्रवचन सुनने सहित हम उनसे अपनी शंकाओं का समाधान भी कर-करा सकते हैं। यज्ञ की प्रवृत्ति होने से समाज के विद्वानों सहित आर्यसमाज के सत्संगों में आने वाले सज्जन व अनुभवी व्यक्तियों से भी हमारा सम्पर्क व मैत्रीभाव दृण होता है। इससे भी जीवन में अनेक प्रकार से सुख लाभ होते हैं। हम प्रतिदिन यज्ञ व सत्संग में जो समय लगाते हैं उससे कम से कम उस समय तो हम पाप व आलस्य आदि से बच जाते हैं। यह भी कोई छोटी बात नहीं है। यज्ञ करने से हमें ईश्वर की प्रेरणायें प्राप्त होती हैं। हम परोपकार व दान आदि के महत्व से परिचित होते हैं और इन कर्मों को करते भी हैं।

 

यज्ञ करना ईश्वर की वेदाज्ञा है। हमारे सभी ऋषि मुनि व विद्वान पूर्वज यज्ञ किया करते थे। इनके वंशज एवं उत्तराधिकारी होने के कारण हमें श्रेष्ठ कर्म यज्ञ को कर्तव्य भावना व परम्परा के निर्वाह के लिए करना चाहिये। इससे हम रोगों सहित अनेक अज्ञात मुसीबतों वा दुःखों से बचते हैं। कई बार बड़ी दुर्घटना होने पर भी हमें खरोंच तक नहीं आती। लोग कहते हैं कि ऐसा किसी पुण्य कर्म के कारण हुआ है। ईश्वर हर क्षण उपासक व यज्ञकर्ता की रक्षा करते हैं। यह भी बहुत बड़ा लाभ उपासना, स्वाध्याय व यज्ञ से प्राप्त होता है। यज्ञ से हमारा सर्वविध कल्याण होता है। हमें स्वयं भी यज्ञ करना चाहिये और इसका प्रचार कर और अधिक पुण्य का भागी बनना चाहिये।

 

हमने यज्ञ की संक्षिप्त चर्चा की है। जीवन में हमनें यज्ञ पर अनेक ग्रन्थों को पढ़ा है, कुछ विज्ञान भी पढ़ा है और अनेक विद्वानों के प्रवचनों को विगत लगभग आधी शताब्दी से सुनते आ रहे हैं। लेखों व समाचारों के माध्यम से भी हम विद्वानों के प्रवचनों व यज्ञ विषयक विद्वत-चर्चाओं को प्रस्तुत करते रहते हैं। हमें विश्वास है कि यज्ञ से मनुष्य को सर्वविध लाभ होता है। अतः सभी को अवश्यमेव यज्ञ करना चाहिये।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,761 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress