अखिलेश का बीस लक्खा निर्णय

 सांसद एवं विधायक निधि : विवेक और विधि का हो सामंजस्य

अखिलेश का बीस लक्खा निर्णय वापिस लेना इस बात का प्रमाण है कि जन भावनाएं मीडिया से ही मुखर व सुफलित होती है.

यह निश्चित ही कथनीय है कि लोकतंत्र की आत्मा में एक गीत निहित होता है जिसे लोकलाज या लिहाज कहा जा सकता है. जो राजनीतिज्ञ जनतंत्र में अन्तर्निहित इस गीत को समझ या गा सकता है केवल वही जन नेता बन सकता है यह भी सुनिश्चित ही है.

हाल ही में लोकतंत्र में अन्तर्निहित इस गीत को सुनने और गाने का एक अच्छा अवसर देखने सुनने में आया है. सन्दर्भ है उत्तरप्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश कुमार के उत्तरप्रदेश शासन द्वारा विधायको को बीस लाख रूपये तक की कार विधायक निधि से खरीदने की सुविधा देने का निर्णय लेने और फिर अतिशीघ्र उस निर्णय को वापिस ले लेने का.

स्वतंत्रता के बाद से अब तक के हमारे साठ वर्षीय लोकतांत्रिक अनुभव में हमें कई शासनाध्यक्षों के विचित्र, तुगलकी व जनविरोधी निर्णयों का कटु अनुभव होता रहा है. किन्तु उन पुराने कटु अनुभवों से यह अखिलेश कुमार वाला अनुभव आमूल भिन्न है. यह सभी जानते है कि सपा शासित उ प्र में नवनियुक्त मुख्यमंत्री अखिलेश कुमार को शानदार बहुमत प्राप्त है. हम यह भी जानते है कि यदि वे अपने इस निर्णय( गलत ही सही )पर टिके रहना चाहते तो उन्हें कोई रोक नहीं सकता था. सामान्यतः एक मुख्यमंत्री या बड़े नेता के निर्णय को बनाए रखने के लिए उस राज्य के समस्त छोटे और बड़े चाटुकार नेताओं की सेना अपने नेता के विवादित निर्णय या व्यक्तव्य के पक्ष में व्यक्तव्य देने खड़ी हो जाती है और इस बात की अशोभनीय होड भी लग जाती है कि कौन चाटुकार सबसे पहले और सबसे अधिक लल्लो चप्पो वाला व्यक्तव्य देगा. उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश कुमार वहाँ के दिग्गज छत्रप मुलायम सिंग के चिरंजीव भी है इस नाते उनके इस निर्णय को यदि वे क्रियान्वित करवाना चाहते तो यह उनके लिए असंभव नहीं था न ही उनके लिए इस निर्णय के पक्ष में व्यक्तव्यों की बाढ़ ले आना असम्भव था किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया. निश्चित ही यह कहा जा सकता है कि अपने एक गलत, जनविरोधी और शोषक निर्णय से बर्बरता पूर्वक जनभावनाओं को कुचलने के बजाय उन्होंने आत्मावलोकन करते हुए या लोकतंत्र के अन्तर्निहित गीत को गाते और सुनते हुए इस निर्णय को वापिस लेने की घोषणा कर दी. इस पुरे प्रसंग में यह कहा जा सकता है कि मुख्यमंत्री उ प्र अखिलेश कुमार ने आत्म समीक्षा करते हुए व् जनभावनाओं का सम्मान करते हुए अपने इस निर्णय को बैकफूट पर ले आये. इस निर्णय से यदि उनके नौनिहाल राजनीतिज्ञ होने का परिचय मिलता है तो ; निर्णय को वापिस लेने से इससे उनके भारतीय लोकतंत्र के ह्रदय को पढ़ने और मन को समझने की दृढ़ की मानसिकता का भी प्रदर्शन होता है.

इस पूरे प्रसंग में विधायक निधि और सांसद निधि के आवंटन में चल रहे अनेकों अंतरविरोधों की चर्चा और चिंतन भी भारतीय राजनीतिज्ञों और विधि विशेषज्ञों को करनी चाहिए. कई अवसरों पर यह देखने में आता है कि विधायक या सांसद निधि का प्रयोग ये निर्वाचित जन प्रतिनिधि चाहकर भी अनेकों जनहित के कार्यों में प्रयोग केवल इसलिए नहीं कर पाते है कि शासकीय दिशानिर्देशों में उस विषय या कार्य का उल्लेख नहीं है. मुझे स्मरण आता है कुछ वर्षों पूर्व के एक प्रसंग का जब किसी नगर के कुछ बुद्धिजीवी अपने क्षेत्र के सांसद के पास उस नगर के ग्रंथालय (लायब्रेरी) के विकास के लिए व पुस्तकों की खरीद के लिए राशि आवंटन हेतु गए तब वे सांसद महोदय चाह कर भी दिशा निर्देश में ग्रंथालय का नाम न होने के कारण ग्रंथालय विकास हेतु राशि आवंटित नहीं कर पाए थे.

यह अवसर इस बात के परिक्षण का भी अवसर है कि किस प्रकार एक शासनाध्यक्ष के किसी निर्णय पर उस राष्ट्र का इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया पुरे राष्ट्र के जन सामान्य का ध्यान आकर्षित कर अत्यंत संक्षिप्त समय में उसके ऊपर एक संवाद सेतु बनवा भी सकता है और उस संवाद सेतु के ऊपर या यूँ कहे कि उससे उपजी भावनाओं के फलितार्थ और निहितार्थ को शासनाध्यक्ष के ह्रदय परिवर्तन के रूप में प्रकट भी करवा सकता है.

यह अवसर इस बात और आवश्यकता की और संकेत भी कर रहा है कि हमें और हमारे विधान को इस विशालकाय संसद और विधायक निधि के सन्दर्भ में सपष्ट रीति नीति तय कर लेना चाहिए. हमें सांसद और विधायक निधि के सन्दर्भों में प्राथमिकताओं और “करो न करो “ की परिभाषाएं भी स्पष्ट करनी चाहिए. किन्तु हम इन अनुभवों से कितना ?किस दिशा में ?? कैसा ??? और क्या सीख पाते है यह हमारे जनसामान्य और परिपक्व होने की और अग्रसर नेताओं के विवेक पर ही निर्भर है.

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