भाजपा और संगमा के वैचारिक ध्रुव

राष्ट्रपति चुनावों को लेकर राजग और विशेषतः भाजपा की स्थिति जिस प्रकार की बनी है उससे भारतीय राजनीति का एक नया और विशिष्ट मुखडा उजागर होता है. जो मुखडा उजागर हुआ है वह यह कि राजनैतिक दलों को न सिर्फ अपनी दलगत विशेषताओं के साथ बढ़ना होगा व दलगत चिन्ताओं व हितों को सरंक्षित करना होगा बल्कि उन्हें राष्ट्रीय विषयों पर अपनी वैचारिक व सैद्धांतिक प्रतिबद्धता दलगत हितों से ऊपर उठकर सकारात्मकता के साथ ठोस ढंग से प्रदर्शित करनी होगी. राष्ट्रपति जैसे महत्वपूर्ण, संवेदनशील और गरिमामय पद के लिये अमर्यादित वातावरण में अगंभीर रीति नीति से प्रत्याशी की घोषणा या उसका विचार भी किसी छोटे मोटे राजनैतिक दल से तो अपेक्षित होता किन्तु भाजपा जैसे बड़े,महत्वकांक्षी और वैचारिक धरातल वाले दल से कदापि नहीं. कहना न होगा कि भाजपा नेतृत्व ने पिछ्ले दिनों आयोजित मुम्बई की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में प्रधानमन्त्री पद की दावेदारी से लेकर राष्ट्रपति पद में प्रत्याशी की घोषणा और अहमदाबाद से लेकर दिल्ली तक चली बैनर पास्टर की लड़ाई तक के घटनाक्रम में जिस प्रकार के सतही , अनावश्यक तेजगति किन्तु तेजविहीन , अनुभवहीन और “नेता तो है किन्तु नायक नहीं” सदृश आचरण को दर्शाया है वह भाजपा के पक्षधरों और शुभचिन्तको के माथे पर चिंता की गहरी लकीरें बना गया है.

क्या ही उत्तम होता कि सम्पूर्ण राजग के साथ बैठकर भाजपा व्यवस्थित रीति नीति से अपना प्रत्याशी तय करती और योजना न. एक दो तीन को बनाकर एक कुशल ,कुशाग्र और कूटनीतिज्ञ की भाँति रणक्षेत्र में उतरती और अपने मूलभूत सिद्धांतों और मान्यताओं से कदम ताल मिलाते हुए अपनी योजनाओं को रणक्षेत्र में उतारती ! इस पूरे उपक्रम और पराक्रम के पश्चात जीत या हार जो भी मिलता उसे लोकतांत्रिक यज्ञ के प्रसाद की भांति ग्रहण करती. यहाँ तो यह हुआ कि हाथ पल्ले कुछ पड़ा नहीं और चीरहरण करवा लिया वह भी दू:शासन के हाथो से नहीं बल्कि विदुर के हाथों से !!

बड़ा ही प्रसन्नता मिश्रित आश्चर्य शुद्ध फासिस्ट वादी दल शिवसेना के आचरण से हुआ जब उसने बड़ी ही सधी हुई व्यवस्थित चाल चलते हुए प्रणब मुखर्जी का समर्थन यह कहते हुए कह दिया कि राष्ट्रपति चुनाव को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है और इसे लेकर हास्यास्पद स्थितियों का निर्माण नहीं होना चाहिए. ठीक इसी भाँति शिवसेना ने पिछ्ले राष्ट्रपति चुनावों में भी श्रीमती प्रतिभा पाटिल का समर्थन मराठी गौरव के नाम पर करके राजनैतिक बढ़त हासिल कर ली थी! बड़ा ही निराशाजनक वातावरण तब निर्मित हुआ जब भाजपा अचानक सोते से जागकर कभी अब्दुल कलाम जी और कभी संगमा का नाम बोलने बुदबुदाने लगी !! आश्चर्य तब हुआ जब रामजेठमलानी जैसे स्वनामधन्य अधिवक्ता ने स्वमेव अपना नाम राष्ट्रपति पद के लिये हास्यास्पद ढंग से प्रस्तुत कर दिया. भाजपा अध्यक्ष और राजग संयोजक दोनों को ही जैसे किसी ने काठ का घोड़ा बना दिया ;जो आये सवार हो जाए या पूंछ मरोड़ दे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता !!! भाजपा नेतृत्व को यह कल्पना होनी चाहिए यदि देश के शीर्षतम पद पर आसीन व्यक्ति यदि धर्मान्तरित किन्तु आरक्षण की सुविधाओं का लाभ उठाने वाला होगा तो उसकी विचारधारा के तरकश में रखा कोई एक बाण अपप्रासंगिक तो नहीं हो जाएगा ?भाजपा इस प्रकार अपना वैचारिक तरकश एक एक करके खाली तो नहीं कर लेगी ??अपने ही मूलभूत विचारों की ह्त्या का महा दोष क्या वह वहन करने को तैयार है ???

सबसे अधिक लानत मलामत निश्चित तौर पर सबसे बड़े और कैडर बेस विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी की हुई जिसने न सिर्फ प्रत्याशी की घोषणा में विलम्बित ताल को बेढंगा और बेसुरा गाया बल्कि घोर असमय और अमंगलकारी गा लिया और जनमानस से पीठ ठोके जाने और प्रशस्ति की हास्यास्पद आशा भी रखी. भाजपा का यह प्रखर राष्ट्रवादी विचार सदा से संगठन के मातृ विचारों में से एक रहा है “कि वनवासी या आदिवासी से परिवर्तित ईसाइयों को आरक्षण की सुविधाओं का लाभ नहीं मिलना चाहिए. ” किन्तु इस राष्ट्रपति चुनाव में यही पार्टी विथ डिफरेंस का नारा देने वाली भाजपा इस विचार का धुर विरोधी आचरण करती नजर आई. जो संगमा वनवासी से अन्य धर्म में परिवर्तित हुए किन्तु नए धार्मिक विचारों को अपनाने के साथ साथ उन्होंने आदिवासियों को मिलने वाली सुविधाओं का लाभ नही छोड़ा उन्ही संगमा जी के चित्र को भाजपा अपने मुखड़े पर लगाए घुमती और मंच पर नृत्य करते द्रश्यगत हुई. आम भाजपा कार्यकर्ता जो संघ के गलियारों से होकर भाजपा के राजपथों पर जाने की कल्पना करता है उसके लिये यह दृश्य निराशाजनक ह्रदयविदारक और मोह भंग करने वाला है. एक आम भाजपा कार्यकर्ता भाजपा को सिद्धांतों के सशक्तिकरण के मार्ग से होते हुए ही राजपथ पर चलते देखना चाहता है न कि सिद्धांतों को रौंदते ,कुचलते और राजपथ पर दौड़ते हुए. भाजपा के नीति निर्धारकों को इस बात से वास्ता सदैव रखना होगा के चाहे मंदिर मुद्दा हो ,कश्मीर का विषय हो या धर्मान्तरण से जुड़े सैद्धांतिक पक्ष हो भाजपा यदि अपने मूलभूत राष्ट्रीय विचारों और कठोर राष्ट्रवाद की धारणा से तनिक भी दूर होगी तो मतदाताओं को भी अपने से दूर ही पायेगी . सत्ता का मोह भाजपा अवश्य रखे किन्तु सर्वप्रथम अपने पीछे चल रहे जन समूह की पवित्र व चैतन्य भावनाओं से मोह और लगाव उसे रखना ही होगा. और संवेदनशील विषयों में शीघ्रता या तदर्थवाद का विचार रखकर वह सत्ता की पुष्प माला पहन पाएगी या न पहन पाएगी यह तो पता नहीं किन्तु राष्ट्रवादी ताकतें उसे पुष्प की भांति इस भारतमाता के चरणों में निर्ममता से चढा देंगी ;बलिदान कर देंगी यह अवश्य पता है.

3 COMMENTS

  1. भाजपा अगले चुनाव में क्या पक्ष रखकर चुनाव लड़ेगी पता नही ???? इतने बड़े लोकतान्त्रिक देश का विपक्ष (?) राष्ट्रपति जैसे बड़े चुनाव के लिए एक उम्मीदवार नही खड़ा कर सकता क्या ?????
    संगमा को तो मन मसोसकर समर्थन दिया जा रहा है …. दुश्मन का दुश्मन हमारा दोस्त वाली तर्ज़ पर

  2. प्रवीण गुगलानी जी आप यह भूल गए की अवसरवादिता आज के राजनीति की आचाए संहिता में सबसे ऊपर है.गिरगिट की तरह रंग बदलना राजनैतिक दलों के स्वभाव का अहम् पहलू है.वीरेन्द्र जैन जी माफ़ कीजियेगा,सीपीएम भी इससे अलग नहीं है.

  3. सही कहा है। किसी भी राजनीति दल के नेत्रत्व ही नहीं उसके सदस्यों को भी तयशुदा नीति के अनुसार ही आचरण और दावेदारी करना चाहिए। संगठन के मामले में सभी दलों से सीपीएम जैसा आचरण अपेक्षित है

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