यूपीः चौतरफा दबाव में अखिलेश और उनकी सरकार

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संजय सक्सेना

 

समाजवादी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। 2012 के विधान सभा चुनाव में सपा के पोस्टर बाॅय और मौजूदा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तक इससे बच नहीं पाये हैं। शुरूआत के तीन वर्षो तक ‘चाचाओं’ (जिन्हें लोग सुपर सीएम की उपाधि भी देते थे)की दखलंदाजी के चलते अखिलेश अपने हिसाब से सरकार नहीं चला पाये। 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा को मिली करारी शिकस्त के बाद जब ‘चाचाओं’ को बोलती बंद हुई तो ऐसा लगा कि अखिलेश को अब काम की पूरी आजादी मिल गई है। इस दौरान अखिलेश ने कई अहम फैसले भी लिये,लेकिन कुछ मामलों में कोर्ट के भीतर अखिलेश सरकार की किरकिरी भी हुई। अब तो अखिलेश को संगठन के भीतर से चुनौती मिलना शुरू हो गई है। अखिलेश के संघर्ष के दिनों साथियों को किनारे लगाया जा रहा है। यह सब तब हो रहा है जबकि उनके पिता मुलायम सिंह यादव ‘नेताजी’का उनके सिर पर हाथ है। मगर,जब नेताजी के ही इशारे पर टीम अखिलेश पर गाज गिरे तो मामला गंभीर लगता है।नेताजी के कहने पर शिवपाल ने अखिलेश के चहेते  समाजवादी लोहिया वाहिनी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष आनंद भदौरिया और समाजवादी छात्र सभा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष सुनील यादव‘साजन’ को सपा से बाहर का रास्ता दिखाया तो सपा में तूफान आ गया।चर्चा यह भी चल पड़ी कि शिवपाल ने अखिलेश के करीबी नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाने में काफी तेजी दिखाई।राजनैतिक दलों में अमूमन ऐसी तेजी देखने को नहीं मिलती र्है।

बात यहां तक भी सीमित नहीं है।मुलायम ने एक और कड़ा फैसला लेते हुए अपने भाई और लोक निर्माण मंत्री शिवपाल यादव को जिला पंचायत चुनाव की कमान भी सौंप दी। इस पूरे घटनाक्रम के बाद सीएम अखिलेश यादव ने भी अपनी नाराजगी नहीं छिपाई। पहली बार अखिलेश ने उस सैफई महोत्सव में हिस्सा नहीं लिया जो एक तरह से उनके घर का कार्यक्रम माना जाता है। इतना ही नहीं अखिलेश ने गुस्से में आकर अयोध्या में राम मंदिर बनाने की सलाह देने वाले मनोरंजन कर विभाग के सलाहकार ओमपाल नेहरा को भी बर्खास्त कर दिया।ओमपाल, सपा प्रमुख मुलायम के करीबी माने जाते हैं। संभवतः यह पहली बार है जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपने घर में ही घिर गए हैं और उन्हें परिवार की लड़ाई में हार का स्वाद चखना पड़ा है। अखिलेश यादव के बहुत नजदीकी समझे जाने वाले सुनील यादव साजन और आनन्द सिंह भदौरिया को पार्टी विरोध गतिविधियों के लिए सपा से निष्कासित किये जाने के बाद आम चर्चा है कि अखिलेश यादव को सूचना दिए बिना दोनों नेताओं का निष्कासन कर दिया गया और मुख्यमंत्री को अपने नजदीकियों के निष्कासन की जानकारी मीडिया से मिली।

अखिलेश पार्टी के इस कदम से तिलमिला गए। कहाँ तो एक समय में उन्होंने डीपी यादव और बसपा नेता नसीमउद्दीन के भाई जैसे ताकतवर राजनेताओं की पार्टी में एंट्री रोक दी थी, और कहाँ आज मुख्यमंत्री और पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए अपने खासमखास दो नजदीकियों का निष्कासन नहीं रोक पाए। अखिलेश  परिवार में अपने चाचाओं से पहली बार शिकस्त खाए हैं और वो भी ऐसी कि इस पीड़ा से उबरने का कोई रास्ता भी दिखाई नहीं दे रहा।

बहरहाल,अपनी इस स्थिति के लिए अखिलेश यादव भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। एक समय में स्वयं को स्थापित करने के लिए उन्हें अपने कुछ मजबूत साथियो की जरूरत थी, उस समय उन्होंने कम राजनीतिक क्षमता और औसत बुद्धि के कुछ युवाओं की पीठ पर हाथ रखा। ऐसा करना उनकी मजबूरी भी थी क्योंकि पार्टी का पुराना नेतृत्व और कार्यकर्ता उन्हें नेता के रूप में स्वीकारने को तैयार नहीं था (आज भी नहीं है)।चूक यहीं हुई। अखिलेश के अनुभवहीन करीबियों ने पुराने नेतृत्व और कार्यकर्ताओं को अपमानित करना शुरू कर दिया। इसी के चलते पार्टी के भीतर एक ऐसी लॉबी बनती चली गई जिसका जमीन पर कहीं कुछ प्रभाव नहीं था, लेकिन इस लॉबी पर अखिलेश को भरोसा था। आलम यह था कि कई-कई बार के विधायक और तमाम बड़े नेता मुख्यमंत्री से मिलने का समय माँगते रह जाते थे।यह लाॅबी जिसको चाहती वह ही अखिलेश से मिल पाता था।सपा कार्यकर्ताओं में यह अफवाह फैलने लगी कि अखिलेश यादव अपनी टीम को मजबूत कर रहे हैं और पार्टी के पुराने उन संघर्षशील कार्यकर्ताओं की अनदेखी कर रहे हैं, जिन्होंने पार्टी को पूरा जीवन दे दिया।यह बात अखिलेश के चचा शिवपाल यादव को भी रास नहीं आ रही थी।शिवपाल कार्यकर्ताओं का बहुत सम्मान करते हैं और उनके सुख-दुख में खड़े भी रहते हैं। शिवपाल यादव की संगठन के भीतर काफी हनक और धमक है।उनके कहने पर कार्यकर्ता और नेता कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं।

खैर,यह नहीं कहा जा सकता है कि अखिलेश के करीबियों पर जो आरोप लग रहे थे वह गलत थे। मुलायम सिंह यादव तीन बार मुख्यमंत्री बने लेकिन उनसे जुड़ा कोई कार्यकर्ता साल भर में करोड़पति नहीं पाया,जबकि अखिलेश की करीबियों की साल भर में ही करोड़ो की हैसियत हो गई।यह लोग मंहगी गाड़ी से चलते हैं तो नोएडा-दिल्ली के पाँच सितारा होटलों के दरवाजे इनके लिये हमेशा खुले रहते थे।

कहा तो यह भी जाता है कि अखिलेश की इस नासमझी का खमियाजा सपा को लोकसभा चुनाव में भी भुगतना पड़ा था। अखिलेश से नाराज पार्टी के पुराने कार्यकर्ताओं ने लोकसभा चुनाव में हिसाब बराबर कर लिया। इसके बाद भी मुख्यमंत्री के व्यवहार में कोई खास तब्दीली नहीं आई। वह लगातार पार्टी के कार्यकर्ताओं और नेताओं से दूर ही रहे। वहीं दूसरी तरफ चर्चा यह भी चल पड़ी कि अखिलेश यादव की टीम जानबूझकर मुलायम सिंह यादव और पार्टी के अन्य नेताओं की प्रतिष्ठा को न केवल धूमिल कर रही है बल्कि सैफई यादव कुनबे के बीच गलतफहमियाँ भी पैदा कर रहे है।यहां तक कहा जाने लगा कि मुलायम सिंह यादव, अपने मुख्यमंत्री बेटे को काम नहीं करने दे रहे हैं।उधर, अखिलेश के करीबियों द्वारा उन्हें लगातार समझाया जा रहा था कि 2012 में सपा की सरकार उनके करिश्माई व्यक्तित्व की वजह से बनी, इसमें मुलायम सिंह यादव को कोई रोल नहीं था। भले ही ये बातें सही न हों, लेकिन इन चर्चाओं ने अखिलेश को कमजोर किया। अखिलेश के करीबी यहीं नहीं रूके हद तो तब हो गई जब यह लोग पार्टी के अधिकृत प्रत्याशियों(स्थानीय चुनावों में) के विरोध को हवा देने लगे।इन नेताओं के पार्टी से निकाले जाने के बाद अखिलेश की आंखे खोलने का काम पार्टी के  शीर्ष नेताओं पर डाला गया तो अखिलेश को हकीकत समझते देर नहीं लगी।

जाहिर है, अखिलेश यादव ने जो बोया, उसे ही काटा है। यह सवाल तो मुख्यमंत्री को स्वयं से भी करना चाहिए कि वो व्यक्ति उनका नजदीकी कैसे है, जो पार्टी के हितों के विरुद्ध कार्य कर रहा है या वो कार्यकर्ता उनका कैसा हितैषी है, जो पार्टी के फैसले के खिलाफ खुलेआम बगावत कर रहा है ? कुल मिलाकर सपा बर्बादी के मुहाने पर खड़ी है, जिससे बचने का रास्ता फिलहाल अखिलेश यादव को ही निकालना है, अगर यह संदेश जा रहा है कि मुख्यमंत्री पुराने कार्यकर्ताओं और नेतृत्व की तौहीन और अनदेखी कर रहे हैं,तो यह अखिलेश के राजनैतिक स्वास्थ्य के लिए अच्छे लक्षण नहीं हैं।अखिलेश समय रहते चेत गये यह स्वयं अखिलेश और पार्टी के लिये काफी शुभ संकेत है।

बात अखिलेश सरकार के कामकाज की कि जाये तो अखिलेश सरकार का करीब पौने चार साल का सफर काफी उतार चढ़ाव से भरा रहा। इन पौने चार  सालों में सरकार ने कई घोषणाएं कीं। इसमें कुछ पूरी हुईं, तो कई अभी भी या तो अधूरी हैं या फिर शुरू ही नहीं हो पाई हैं।अपने कार्यकाल के दौरान अखिलेश सरकार ने अल्पसंख्यकों को कई सौगातें दीं। फिर चाहे बात ‘हमारी बेटी, उसका कल’ योजना की हो या फिर मदरसों के आधुनिकीकरण योजना हो।बात बिजली की कि जाये तो अखिलेश सरकार के लिए बिजली आपूर्ति  सबसे बढ़ी चुनौती रही। ये चुनौती सिर्फ अखिलेश सरकार के ही सामने नहीं आई बल्कि यूपी की हर सरकार के सामने आई है।वर्तमान समय में प्रदेश बिजली मांग का आधा भी उत्पादन नहीं कर रहा है। ऐसे में बिजली की खपत कम करने से लेकर चोरी रोकना सरकार और विभाग दोनों के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है। कई बार इसके लिए अभियान भी चलाया गयाए लेकिन न तो लाइन लॉस में कमी आई और न ही बिजली चोरी रुकी। नतीजतन अखिलेश सरकार का चार वर्ष का कार्यकाल खत्म होने  के बाद भी लोगों को महंगी बिजली के साथ कटौती की दोहरी मार झेलनी पड़ रही है।बिजली आपूर्ति की समस्या को दूर करने के लिए प्रदेश में ऊर्जा विभाग के निर्देश पर पॉवर कॉरपोरेशन ने दो बार बिजली चोरी रोको अभियान चलाया। इसका उद्देश्य बिजली चोरी रोकने के साथ ही लाइन लॉस कम करना और उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ाना था। दो बार चले इस अभियान में करीब चालीस लाख नए उपभोक्ता जोड़े गए। दावा किया गया कि जो लोग बिजली चोरी कर रहे थे। वह अब उपभोक्ता बन गए है। इन सबके बावजूद आंकड़ों को देखें तो बिजली चोरी और लाइन लास 27 फीसदी से सिर्फ दो फीसद ही कम हुआ।

इसी प्रकार अखिलेश सरकार स्वास्थ्य के क्षेत्र में सुधार और बुनियादी जरूरतों को मजबूत करने के लिए लगातार प्रयास कर रही।मुफ्त दवाएं, कम दाम पर एक्स-रे और पैथोलॉजी जांच की व्यवस्था में अखिलेश सरकार ने काफी सुधार के प्रयास किये  है,लेकिन जमीनी स्तर पर इसका प्रभाव देखने को नहीं मिल रहा है।सरकार ने जांचे तो सस्ती कर दी हैं,लेकिन जब सुविधाएं ही नहीं होंगी तो मरीज जांच कैसे करायेगा।मरीजों को जांच से लेकर इलाज तक के लिये लम्बी वेटिंग का इंतजार करना पड़ता है।सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की कमी स्थायी समस्या बनी हुई है। यूपी की आबादी तकरीबन 21 करोड़ है। इसे देखते हुए सरकार ने 2015.16 के बजट में दवाओं के लिए 587 करोड़, उपकरणों की खरीद के लिए 225 करोड़, निर्माण कार्यों के लिए 394 करोड़ और जिलों में 100 बेड अस्पताल के लिए 50 करोड़ आवंटन हुए हैं।वहीं,ऐसे मंडल मुख्यालय जहां, मेडिकल कॉलेज नहीं है वहां 300 बेड के अस्पताल के लिए 25 करोड़ और परिवार कल्याण के लिए 5840 करोड़ के बजट का आवंटन हुआ है।मगर जो हालात हैं उसको देखते हुए यह सुविधाएं काफी कम हैं।

प्रदेश में बिगड़ी कानून व्यवस्था भी एक बड़ी समस्या बनी हुई है। अखिलेश सरकार प्रदेश में महिला सुरक्षा और महिलाओं के सशक्तिकरण के बारे में हमेशा दावे करती नजर आई कि प्रदेश में महिलाओं की स्थिति में सुधार हुआ है। लेकिन, मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान रेप, बदायूं कांड, मोहनलालगंज कांड, आशियाना कांड समेंत कई घटनाएं है जो सरकार के दावों की पोल खोलती है।इसी तरह से साम्प्रदायिक मोर्चे पर भी सरकार को नाकामी झेलना पड़ रही है। किसानों की बदहाली,बुंदेलखंड की समस्या,मोदी सरकार के साथ खराब होते संबंध का यूपी के विकास पर पड़ता प्रभाव अखिलेश सरकार और समाजवादी पार्टी के लिये परेशानी का सबब बने हुए हैं।अदालतें और नौकरशाही भी सरकार के लिये एक बड़ी समस्या बनी है।अखिलेश नौकरशाहों को अपने हिसाब से नहीं चला पा रहे हैं तो कई ब्यूरोक्रेट्स बगावत पर भी उतारू हैं।अदालत में  अखिलेश सरकार की लगातार फजीहत हो रही है।उनकी सरकार के लिये लोकायुक्त का मसला गले की फांस बन गया है।अखिलेश सरकार से हाईकोर्ट तो नाराज चल ही रहा था,सुप्रीम कोर्ट की नजरों में भी अखिलेश सरकार की छवि धूमिल हुई है। इससे पूर्व नोयडा अथार्रिटी के मुख्य अभियंता यादव सिंह और यूपीपीएससी के चेयरमैन अनिल यादव सहित तमाम मामलांे में कोर्ट अखिलेश सरकार को आईना दिखा चुकी है। राज्य सूचना आयुक्तों की चयन प्रक्रिया को लेकर भी हाईकोर्ट में मामला चल रहा है।राज्य मुख्य सूचना आयुक्त के पद पर आईएएस अधिकारी जावेद उस्मानी की नियुक्ति जिस तरह से की गई उसको लेकर हाईकोर्ट सतुष्ट नहीं नजर आ रहा है। बात यूपीपीएससी के चेयरमैन अनिल यादव की कि जाये तो उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष अनिल कुमार यादव की बर्खास्तगी केे आदेश  इलाहाबाद हाईकोर्ट  मुख्य न्यायाधीश डी.वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा की बेंच जारी किए हैं। बेंच ने अनिल कुमार यादव की नियुक्ति को अवैध करार दिया था।इसी प्रकार नोयडा अथार्रिटी के मुख्य अभियंता यादव सिंह करोड़ों रुपये के भ्रष्टाचार के आरोपों में सीबीआई जांच के घेरे में आए। यादव सिंह पर सरकारी मेहरबानी लगातार बनी रही।                                                                                                           समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता आजम खान के खिलाफ भी लाभ के दोहरे पद पर बैठे होने के आरोप में घिरे हुए हैुं।अखिलेश सरकार द्वारा कुछ आईएएस अधिकारियों को सचिव के पद पर सेवा विस्तार दिये जाने का मामला भी हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में लम्बित है।राज्य सरकार ने बिना केन्द्र की अनुमति के इन अधिकारियों का सेवा विस्तार किया था जो नियमानुसार सही नहीं है।

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मूल रूप से उत्तर प्रदेश के लखनऊ निवासी संजय कुमार सक्सेना ने पत्रकारिता में परास्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद मिशन के रूप में पत्रकारिता की शुरूआत 1990 में लखनऊ से ही प्रकाशित हिन्दी समाचार पत्र 'नवजीवन' से की।यह सफर आगे बढ़ा तो 'दैनिक जागरण' बरेली और मुरादाबाद में बतौर उप-संपादक/रिपोर्टर अगले पड़ाव पर पहुंचा। इसके पश्चात एक बार फिर लेखक को अपनी जन्मस्थली लखनऊ से प्रकाशित समाचार पत्र 'स्वतंत्र चेतना' और 'राष्ट्रीय स्वरूप' में काम करने का मौका मिला। इस दौरान विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे दैनिक 'आज' 'पंजाब केसरी' 'मिलाप' 'सहारा समय' ' इंडिया न्यूज''नई सदी' 'प्रवक्ता' आदि में समय-समय पर राजनीतिक लेखों के अलावा क्राइम रिपोर्ट पर आधारित पत्रिकाओं 'सत्यकथा ' 'मनोहर कहानियां' 'महानगर कहानियां' में भी स्वतंत्र लेखन का कार्य करता रहा तो ई न्यूज पोर्टल 'प्रभासाक्षी' से जुड़ने का अवसर भी मिला।

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