मनमोहन कुमार आर्य,
हम संसार में जीवन व मृत्यु का नियम संचालित होता देखते हैं। प्रतिदिन यत्र-तत्र कुछ परिचित व अपरिचित लोगों की मृत्यृ का समाचार सुनते रहते हैं। हम जब जन्में थे तो हमारे माता-पिता, चाचा, चाची, मौसी, मौसा, मामा-मामी व बुआ-फूफा आदि लोग संसार में थे। हमने उनके साथ समय बिताया है। आज वह सब इस संसार को छोड़कर जा चुके हैं। संसार में जन्म व मरण का जो नियम है, उसी के अनुसार इनकी मृत्यु हुई है और मृत्यु के बाद उनका पुनर्जन्म भी अवश्य हुआ होगा, इसका हमें पूर्ण विश्वास है। वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर हमें यह ज्ञात होता है कि हमारी इस सृष्टि पर मानव जीवन का आरम्भ लगभग 1 अरब 96 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ था। तब से यह जन्म व मृत्यु का चक्र चल रहा है। असंख्य मनुष्य व प्राणी इस अवधि में इस सृष्टि में जन्में व मृत्यु को प्राप्त हुये हैं। आज हमें पूरे विश्व में 200 वर्ष व इससे अधिक आयु का एक भी मनुष्य दिखाई नहीं देता। लगभग 7 अरब से अधिक विश्व की जनसंख्या में सभी मनुष्यों की आयु 200 या 150 वर्ष से कम है। इससे यह सिद्ध होता है कि आज के सभी 7 अरब मनुष्य आने वाले 150 वर्षों में मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे और इनका स्थान नये मनुष्य लेंगे जिनमें से अधिकांश वर्तमान मनुष्य भी हो सकते हैं जिनका पुनर्जन्म होगा। परमात्मा ने समय के साथ जीवात्मा के ज्ञान में विस्मृति होने का जो नियम बनाया है उस कारण से उन्हें इस जन्म में अपने पूर्वजन्म की बातें स्मरण नहीं रहती। पूर्वजन्म में वह किस योनि में तथा सृष्टि के किस ग्रह व प्रदेश में जन्में, पले व मरे थे उसे हम व अन्य सभी भूल चुके हैं।
हम यह निर्भ्रान्त रूप से जानते हैं कि यह संसार परमात्मा के द्वारा रचित व पोषित है। परमात्मा इस संसार की रचना का निमित्त कारण है। यदि वह न होता तो यह संसार भी न होता। परमात्मा ने यह संसार त्रिगुणात्मक सत्, रज व तम गुणों वाली प्रकृति से जीवात्माओं को उनके पूर्व कल्प व जन्मों के शुभ व अशुभ कर्मों का सुख व दुःख रुपी फल देने के लिये बनाया है। सृष्टि की उत्पत्ति, पालन व संहार ईश्वर अनादि काल से करता चला आ रहा है और अनन्त काल तक करता रहेगा। यदि संसार में तीन अनादि पदार्थ ईश्वर, जीवात्मायें और प्रकृति न होते तो यह संसार अस्तित्व में न आता। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, अनादि, नित्य, अनन्त और सृष्टिकर्ता है, इसी कारण उससे यह सृष्टि बनती व चलती है। यदि ईश्वर में यह गुण व कर्म न होते तो भी इस सृष्टि का निर्माण नहीं हो सकता था। ईश्वर आनन्दस्वरूप है अतः उसने अपने किसी प्रयोजन के लिये इस सृष्टि को नहीं बनाया अपितु अपनी शाश्वत् प्रजा जीवात्माओं को अपनी ओर से सुख व ऐश्वर्य आदि प्रदान करने के लिये इस सृष्टि का निर्माण किया है।
संसार में हम कारण व कार्य का सिद्धान्त देखते हैं। इस सृष्टि का उपादान कारण, जिससे यह सृष्टि बनी व रची गई है, प्रकृति है। कोई भी कार्य अनन्त काल तक वर्तमान व विद्यमान नहीं रह सकता। हर रचना की एक कालावधि होती है जिसके बाद उसमें विकार आकर वह नष्ट हो जाया करती है। हमारी सृष्टि और हमारे शरीर प्रकृति के परमाणुओं से बने हैं। यह सौ वर्ष से लेकर बहुत अधिक हुआ तो तीन सौ वर्ष तक ही जीवित रह सकते हैं। इससे अधिक समय तक मानव शरीर विद्यमान नहीं रह सकते। उनकी मृत्यु होना अवश्यम्भावी है। संसार में नियम है कि कारण पदार्थ से कार्य पदार्थों की रचना व उत्पत्ति होती है। उत्पन्न वस्तु समय के साथ पुरानी होती जाती है और नष्ट हो जाती है। गीता में सरल शब्दों में यह कहा गया है कि जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु का होना निश्चित है और जिसकी मृत्यु होती है उसका जन्म होना भी निश्चित है। अतः इस सिद्धान्त व नियम को जानकर हमें अपनी मृत्यु का भी विचार करना चाहिये और यह जानना चाहिये कि कभी किसी समय अचानक व रोग आदि से हमारा देहावसान अवश्य होना है। शास्त्रकारों ने इस मृत्यु के विषय में व्यापक रूप से सभी तथ्यों को सामने रखकर विचार किया है और बताया है कि मनुष्य की मृत्यु कब व कैसे होगी इसे कोई नहीं जान सकता। मनुष्य जो प्राण व श्वास लेते व छोड़ते हैं वह कभी किसी समय भी, आज, अभी व कुछ महीने व वर्षों बाद, इस शरीर को छोड़कर जा सकते हैं। किसी दिन यह प्रक्रिया व घटना अवश्यमेव हमारे साथ भी अवश्य घटेगी। हमारी मृत्यु अधिक दुःखदायी न हो इसका हमें प्रबन्ध करना है। मृत्यु ने महर्षि दयानन्द को उनके बचपन में डराया था जिस कारण उन्होंने जन्म मरण से छूटने व अमर होने का विचार कर इसके लिये प्रयत्न किये और मातृ-पितृ-गृह का त्याग कर देश के उन सभी स्थानों पर गये जहां कोई विद्वान इन प्रश्नों का समाधान कर सकता था। इसी के परिणामस्वरूप वह योगी बने, अपनी आत्मा और ईश्वर का साक्षात्कार किया और मृत्यु के भय व बार-बार के जन्म व मरण से छूटने का रहस्य भी जाना जिसका उन्होंने विस्तार से अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ के नवम समुल्लास में वर्णन किया है जो सत्य व यथार्थ है तथा तर्क से भी सत्य सिद्ध होता है।
हमें भी जन्म व मृत्यु के रहस्य को जानकर मृत्यु के भय जिसे शास्त्रीय भाषा में अभिनिवेश क्लेश कहते हैं, उसको पार करना है। इस विषय को यजुर्वेद के एक मन्त्र ‘वेदाहमेतं पुरुषं महान्तं आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्। तमेव विदित्वा अति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनायः।।’ में ईश्वर द्वारा बताया गया है। मन्त्र का अर्थ है कि मैं इस सृष्टि के रचने व पालन करने वाले महान्तम् पुरुष ईश्वर को जानता हूं। वह ईश्वर सूर्य के समान प्रकाशमान् है तथा अन्धकार से सर्वथा रहित है। उस परमात्मा को ज्ञान–विज्ञान की रीति से निर्भ्रान्तरूप से जानकर और उसकी प्राप्ति के लिये उपासना आदि कर्म करके ही मनुष्य मृत्यु से पार हो सकता है अर्थात् जन्म व मरण से छूट सकता है। महर्षि दयानन्द व उनके अनेक शिष्यों ने इस मन्त्र का अभ्यास कर इसे अपने मृत्यु के समय पर सत्य सिद्ध किया है। मृत्यु के समय वह सन्त, महात्माओं, धार्मिक गुरुओं व मत-प्रवर्तकों की तरह रोये व चिल्लाये नहीं अपितु शान्ति से उन्होंने अपनी आत्मा व प्राणों का उत्सर्ग किया।
हम संसार में जन्म व मृत्यु का निरन्तर होना देखते आ रहे हैं। यह प्रलय काल तक इसी प्रकार से चलना है। जैसा हमसे पूर्व के मनुष्यों के साथ हुआ, कुछ उसी तरह से कुछ समय व वर्षों बाद हमारी भी मृत्यु होनी है। इससे न कोई बचा है और न हम बच सकते हैं। मृत्यु से होने वाले दुःख से बचने का एक ही उपाय है कि हम आत्मा व परमात्मा सहित इस सृष्टि के सत्यस्वरूप को जाने और अपने कर्तव्यों का पालन करें। हमारा कर्तव्य है कि हमारे लिये इस सृष्टि को बनाने व चलाने वाले ईश्वर जिसने हमें मनुष्य जन्म देकर हमें माता-पिता, मित्र व बन्धु आदि सम्बन्धी दिये तथा अनेक प्रकार का ऐश्वर्य व सन्तान आदि का सुख दिया है, हम उसका ध्यान व उपासना योग दर्शन की अष्टांग विधि से करके समाधि को सिद्ध कर ईश्वर का साक्षात्कार करें। उपासना के साथ हमें इस संसार का ऋण भी उतारना है। इसके लिये हमें असत्य को छोड़ कर सत्य का ग्रहण करना है। सत्य का आचरण करते हुए ही हमें ईश्वरोपासना के साथ वायु शुद्धि व सबके परोपकार के लिये अग्निहोत्र यज्ञ करना है तथा परोपकार के सभी प्रकार के कार्य जो हम कर सकते हैं, करने हैं।
उपासना व समाधि अवस्था को प्राप्त मनुष्य मृत्यु के दुःख से पीड़ित नहीं होता। वह उस पर विजय प्राप्त कर लेता है। महर्षि दयानन्द ने अपने व्यापक स्वाध्याय, ज्ञान व चिन्तन से ईश्वर की उपासना से होने वाले लाभों को जाना था। इन लाभों को अन्य लोगों को जताने के लिये उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि ‘जैसे शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत्त हो जाता है, वैसे परमेश्वर के समीप प्राप्त होने से सब दोष दुःख छूट कर परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हो जाते हैं। इसलिये परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिये। इससे इसका फल पृथक् होगा, परन्तु आत्मा का बल इतना बढ़ेगा कि वह पर्वत के समान दुःख प्राप्त होने पर भी न घबरायेगा और सब को सहन कर सकेगा। क्या यह छोटी बात है? और जो परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता, वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है। क्योंकि जिस परमात्मा ने इस जगत् के सब पदार्थ जीवों को सुख के लिये दे रखे हैं, उस का गुण (उपकार) भूल जाना, ईश्वर ही को न मानना, कृतघ्नता और मूर्खता है।’
ईश्वर की उपासना से मनुष्य को शक्ति प्राप्त होती है जिससे वह मृत्यु के दुःख को धैर्यपूर्वक सहन करता हुआ मृत्यु होने पर मोक्ष या पुनर्जन्म लेने के लिये जाता है। उपासना एवं परोपकार करने से मनुष्य को यदि इस जन्म में मोक्ष न भी मिले तो भी उसका भावी जन्म वा पुनर्जन्म मनुष्य योनि में बहुत सुखद स्थितियों में होता है। शास्त्र यह बताते हैं कि जो भी मनुष्य इस संसार जन्मा है उसकी मृत्यु का होना निश्चित वा अवश्यम्भावी है। इस रहस्य व तथ्य को जानकर हमें मृत्यु के दुःख से बचने के उपाय करने चाहिये। ऋषि दयानन्द ने मृत्यु के दुःख से बचने के उपाय बताने के साथ ईश्वरोपासना की सही विधि भी बताई है जिससे मनुष्य की आत्मा की उन्नति व प्रोमोशन होकर वह देव लोग वा मोक्ष में जाती है और यदि उसमें मोक्ष की अर्हता में कुछ न्यूनता होती है तो उसको मुनष्य की श्रेष्ठ योनि में धार्मिक व सज्जन ज्ञानी माता-पिता के यहां पुनर्जन्म मिलता है। हमें अपनी मृत्यु के प्रश्न की उपेक्षा नहीं करनी है अपितु इस पर सम्यक् विचार कर अपने जीवन को ईश्वर के ज्ञान वेद की शिक्षाओं के अनुरूप बनाना है। इससे उत्तम ज्ञान व मृत्यु पर विजय पाने का अन्य कोई मार्ग नहीं है।
आदरणीय मनमोहन जी.
सभी पहलुओं पर प्रकाश डालता आलेख लिखने के लिए धन्यवाद.
मधुसूदन