अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम का अनर्थकारी अभियान

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मनोज ज्वाला

पनी आस्था व निजी विश्वास के आधार पर किसी भी धर्म को मानना अथवा नहीं मानना ‘धार्मिक स्वतंत्रता’ का सामान्य अर्थ है। इसके लिए किसी कानून की आवश्यकता नहीं है। लेकिन अमेरिका चूंकि पूरी दुनिया का स्वघोषित मास्टर है, तो जाहिर है धार्मिक स्वतंत्रता की व्याख्या भी उसे ही करनी होती है। इसलिए ‘मास्टरी धर्म’ के अनुसार इसका अर्थ समझाने के लिए वह ‘अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम’ नामक अपने डंडे से अनर्थ बरपाते रहता है। इस अनर्थकारी अधिनियम के खास निहितार्थ हैं, जिन्हें जानकर आपको दुनिया के तमाम एशियाई देशों सहित भारत से सम्बन्धित समस्त अमेरिकी नीतियां एक गहरे षड्यंत्र का हिस्सा मालूम पड़ेंगी।अमेरिकी शासन का ‘अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम’ जो सन 1998 में पारित हुआ है, तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन पर ईसाई-विस्तारवादी चर्च- मिशनरी संस्थाओं के दबाव से बने कानून का प्रमुख उदाहरण है। इस अधिनियम के तहत कथित तौर पर अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता की निगरानी के लिए अमेरिकी शासन के विदेश मंत्रालय में एक राजदूत की नियुक्ति और अमेरिकी संसद एवं उसके विदेश मंत्रालय व ह्वाइट हाउस को सलाह देने के लिए ‘यूएस कमिशन ऑफ इण्टरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम’ के गठन और राष्ट्रपति की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में एक विशेष सलाहकार की नियुक्ति का प्रावधान है। ये तीनों संस्थान धार्मिक स्वतंत्रता को गैर-ईसाइयों के धर्मान्तरण की आजादी के तौर पर परिभाषित करते हुए धर्मान्तरण में बाधायें खड़ी करने वाले देशों के विरूद्ध अमेरिकी राष्ट्रपति को प्रतिवेदित करते रहते हैं और उन देशों के प्रति अमेरिका की वैदेशिक नीतियों को प्रभावित-नियंत्रित भी करते हैं।

इस कानून के तहत अमेरिकी राष्ट्रपति को ‘धार्मिक स्वतंत्रता’ का हनन करने वाले अर्थात धर्मान्तरण में बाधायें उत्पन्न करने वाले देशों को अमेरिकी सहयोग से वंचित और प्रतिबन्धित कर देने का अधिकार प्राप्त है।’यूनाइटेड स्टेट कमिशन फॉर इण्टरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम’ (यूएससीआईआरएफ) कहने को तो दुनिया के सभी देशों के भीतर धार्मिक स्वतंत्रता की समीक्षा करता है, किन्तु उसके निशाने पर गैर-ईसाई देश ही हुआ करते हैं। जिनके बीच गैर-पैगम्बरवादी व मूर्तिपूजक धर्मानुयायी अर्थात हिन्दू और पैगम्बरवाद की बड़ी चुनौती के रूप में हिन्दू-बहुल देश ‘भारत’ मुख्य निशाने पर है।सीधे ह्वाइट हाउस से संचालित यह अमेरिकी आयोग भारत में सक्रिय विभिन्न चर्च-मिशनरियों एवं दलित फ्रीडम नेट्वर्क, ऑल इण्डिया क्रिश्चियन काउंसिल व फ्रीडम हाउस जैसे चर्च-समर्थित एनजीओ और उनके भारतीय अभिकर्ताओं, कार्यकर्ताओं के सुनियोजित संजाल के माध्यम से हिन्दुओं को आक्रामक-हिंसक प्रमाणित करते हुए उनकी तथाकथित आक्रामकता व हिंसा के कारण मुसलमानों-ईसाइयों की धार्मिक स्वतंत्रता के हनन सम्बन्धी मामले रच-गढ़कर उनकी सुनवाई करता है। फिर उन सुनवाइयों के निष्कर्षों के आधार पर अल्पसंख्यकों (मुख्य रुप से ईसाइयों) की धार्मिक स्वतंत्रता (गैर-ईसाइयों के धर्मान्तरण सम्बन्धी गतिविधियों) की रक्षा के लिए अमेरिका से हस्तक्षेप की अनुशंसा करते हुए उसकी वैदेशिक नीतियों को प्रभावित-निर्देशित करता है।

इस अधिनियम से सम्बद्ध अमेरिकी आयोग की हिन्दू-विरोधी धर्मान्तरणकारी करतूतों का समय-समय पर खुलासा होते रहा है।’यूएससीआईआरएफ’ द्वारा वर्ष 2000 में ह्वाइट हाउस को प्रेषित भारत-सम्बन्धी रिपोर्ट में धर्मान्तरित बंगाली हिन्दुओं के प्रत्यावर्तन को नहीं रोक पाने पर वहां की माकपाई सरकार के विरूद्ध शिकायतें दर्ज की गई थीं। साथ ही ईसाइयों के हिन्दू धर्म में वापसी को ‘अंधकार में प्रवेश’ कहते हुए उस पर चिन्ता जाहिर की गई थी। यह आयोग हिन्दू समाज के किसी व्यक्ति द्वारा व्यक्तिगत रूप से किसी गैर-हिन्दू के विरूद्ध की गई हिंसा को भी समस्त ईसाई समाज के विरूद्ध हिन्दुओं की संगठित हिंसा के रूप में बढ़ा-चढ़ाकर प्रतिवेदित करता है। जबकि, हिन्दुओं के विरूद्ध ईसाइयों की संगठित हिंसा को उल्लेखनीय नहीं मानता। वर्ष 2001 में इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में भारत के त्रिपुरा आदि पूर्वांचलीय राज्यों में जहां हिंसक ईसाई संगठन ‘नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा’ (एनएलएफटी) के आतंक से हिन्दुओं का सुनियोजित सफाया होता जा रहा, वहां ‘हिन्दुओं के प्रभुत्व-सम्पन्न’ होने और ‘ईसाइयों के हाशिये पर चले जाने’ को ईसाई-हिंसा का कारण बताते हुए उसे न्यायोचित भी ठहरा दिया। वर्ष 2003 की अपनी रिपोर्ट में आयोग द्वारा भारत के ‘विदेशी आब्रजन अधिनियम’ की यह कहकर आलोचना की गई कि इससे ‘विदेशी ईसाई प्रचारकों का मुक्त प्रवाह’ बाधित होता है।

इसी आयोग के दबाव पर सन 2004 में अमेरिकी कांग्रेस के चार-सदस्यीय प्रतिनिधिमण्डल ने भारत का दौरा किया था। उसके अध्यक्ष जोजेफ पिट्स ने धर्मान्तरण रोकने सम्बन्धी भारतीय कानूनों की आलोचना करते हुए कहा था कि ये कानून मानवाधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रताओं का हनन करने वाले हैं। इस आयोग की ऐसी ही अनुशंसाओं के आधार पर अमेरिका द्वारा सन 2009 में भारत को अफगानिस्तान के साथ विशेष चिन्ताजनक विषय वाले देशों की सूची में शामिल किया गया था। दलितों के हिन्दू धर्म-समाज से जुड़े रहने को ‘गुलामी’ और धर्मान्तरित होकर ईसाई बन जाने को ‘मुक्ति’ बताने तथा इस आधार पर धर्मान्तरण की वकालत करते रहने वाले दलित फ्रीडम नेटवर्क और फ्रीडम हाउस जैसे एनजीओ की पहल पर यह ‘अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग’ हिन्दू समाज की ‘वर्ण-व्यवस्था’ को समाप्त करने और धर्मान्तरण का मार्ग प्रशस्त करने हेतु भारत में अमेरिकी शासन के हस्तक्षेप की सिफारिश करता रहा है। यह आयोग हर साल अमेरिकी कांग्रेस और ह्वाइट हाउस को अपनी रिपोर्ट प्रेषित करता है, जिसमें सुनियोजित ढंग से हिन्दुओं को ईसाइयों के प्रति आक्रामक हिंसक और भारतीय ईसाइयों को तथाकथित हिन्दू-हिंसा -आक्रामकता से आक्रांत व पीड़ित-प्रताड़ित दिखाता-बताता है। 

हाल ही में अमेरिकी विदेश मंत्रालय द्वारा भारत के विरुद्ध ‘इंडिया 2018 इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम रिपोर्ट’ जारी की गई थी। जिसके आधार पर देश की मोदी-सरकार को विपक्षियों-विरोधियों द्वारा घेरा जा रहा था। उस रिपोर्ट में कहा गया था कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत में गोरक्षा के बहाने हिंदू-संगठनों द्वारा गैर-हिन्दू समुदाय के लोगों पर हमले किये जाते रहे हैं। उक्त रिपोर्ट में गृह विभाग के हवाले से अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने कहा है कि वर्ष 2015 से 2017 के बीच भारत में साम्प्रदायिक घटनाएं 9 फीसदी बढ़ गई हैं। रिपोर्ट में यह भी दर्ज है कि भारत के 24 राज्यों में गो-वध प्रतिबंधित कर दी गई है। रिपोर्ट के अनुसार धर्म के नाम पर हत्याओं, हमले, दंगों और भेदभाव से लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंची है। उस रिपोर्ट में भाजपा के कुछ नेताओं पर अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ भड़काऊ भाषण देने का आरोप लगाया गया है। जबकि, ओवैसी जैसे मुस्लिम नेताओं के जहरीले भाषणों को नजरंदाज कर दिया गया है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि कट्टरपंथी हिंदू समूहों की तरफ से अल्पसंख्यक समुदायों, खासतौर पर मुस्लिमों के खिलाफ लगातार हिंसक हमले किए गए और धर्म-परिवर्तन के विरुद्ध हिंसा को अंजाम दिया गया।

रिपोर्ट में कतिपय शैक्षणिक संस्थानों के अल्पसंख्यक दर्जे को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने के सरकारी फैसले को भी अनुचित बताया गया था। इलाहाबाद शहर का नाम ‘प्रयागराज’ कर दिए जाने पर भी आपत्ति जताई गई थी। भारत में धर्मान्तरण के मार्ग में आ रही बाधाओं और छिट-पुट साम्प्रदायिक झड़पों के दौरान हिन्दुओं द्वारा की गई असंगठित हिंसा को भी अल्पसंख्यकों की धार्मिक स्वतंत्रता के संगठित हनन का मामला बना कर उसकी सुनवाई करने वाला यह अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम व अमेरिकी आयोग पाकिस्तान में हिन्दुओं की दुर्दशा पर मौन रहता है। क्योंकि, इसके मुख्य निशाने पर मूर्तिपूजक हिन्दू सबसे पहले हैं। इस्लाम तो पैगम्बरवादी होने के कारण ईसाइयत का हमसफर ही है।

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