अनिल अनूप
लोकजीवन में देसी परिवहन के साधनों में ‘बैलगाड़ी’ हमारी परम्परा एवं किसानी संस्कृति का ऐसा मजबूत आधार रही है, जिसके बिना किसान के जीवन की परिकल्पना नहीं की जा सकती। पहर के तड़के बैलगाड़ियों के पहियों से चूं-चूं चर्र-चर्र व बैलों के गले में बजने वाले घुंघरूओं से संगीत की जो स्वर लहरियां कानों में मधुर संगीत घोलती थी आज वो कहीं सुनाई नहीं पड़ती हैं। बैलगाड़ियों में चढ़ने वाले बारातियों के किस्से एवं ठहाके अतीत का हिस्सा बन कर रह गए हैं। लड़की की विदाई के समय पहियों पर पानी डालने की परम्परा जिसकी शुरूआत बैलगाड़ी से हुई, आज आधुनिक रूप धारण कर चुकी है। अतीत से वर्तमान तक हमें पहुंचाने में बैलगाड़ी का जो पारम्परिक इतिहास रहा है उसे किसी भी सूरत में भुलाया नहीं जा सकता। भारत के सभी राज्यों में बैलगाड़ी का प्रयोग किसानी संस्कृति एवं सवारी के रूप में होता रहा है। अनेक स्थलों पर यह परम्परा आंशिक रूप से अब भी कायम है।
अतीत में खो गई बैलगाड़ी
बैलगाड़ी को बनाने वाले काष्ठ कलाकारों ने लोक पारम्परिक परिवहन के इस साधन को विविध स्वरूप प्रदान करने में जो योगदान दिया है वह अब अतीत का हिस्सा बन कर रह गया है, वास्तव में बैलगाड़ी नहीं इससे जुड़ी लोक सांस्कृतिक परम्पराओं एवं किस्सों का अंत हो गया है। मान्यता है कि बैलगाड़ी का चलन ईसा से लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व माना जाता है। लोकजीवन में बैलगाड़ी के जन्म को लेकर प्रचलित है कि भगवान शिव ने इसका निर्माण किया और अपनी सवारी नन्दी को सर्वप्रथम बैलगाड़ी में जोतकर अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। देहात में यह भी मान्यता है कि- बैलगाड़ी का निर्माण विश्वकर्मा भगवान ने भगवान शिव के आशीर्वाद से किया और गौ-माता ने अपने दोनों पुत्रों यानि बैलों को सेवा के रूप में बैलगाड़ी हेतु अर्पित किया।
गाड़ी आल़ा सदा दिवाल़ा
हरियाणवीं जनमानस की जीविका का केन्द्र बिन्दु बैलगाड़ी पर ही आधारित रहा है, क्योंकि बैलगाड़ी में जुतने वाले बैल उसके घर में गाय से मिलते रहे हैं और बैलगाड़ी में प्रयोग होने वाली लकड़ी उसके खेतों में उगने वाले पेड़ों से।
हालांकि बैलगाड़ी को घाटे का सौदे का माना जाता रहा है, लेकिन फिर भी जिस प्रकार किसान खेती करना नहीं छोड़ता, उसी प्रकार वह बैलगाड़ी को रखना भी नहीं छोड़ता?
हरियाणा में बैलगाड़ी को लेकर एक कहावत है, गाड़ी आला सदा दिवाला।
हरियाणवी जनमानस का मूलआधार
बैलगाड़ी हरियाणवीं जनमानस का मूल आधार रही है, यही कारण है कि मध्यवर्गीय परिवारों के लोग जब भी बारात में जाते थे, तो उनकी बारात बैलगाड़ी में ही जाया करती थी। दूल्हे के घर की स्थिति तथा पारिवारिक रसूख का जायजा उसकी बारात में आने वाली बैलगाड़ियों की संख्या से आंका जाता था। लोग बैलगाड़ियों पर सवार होकर मेला देखने जाया करते थे। बैलगाड़ी का ब्यौरा हरियाणवीं लोककथाओं, लोकगीतों, रागनियों आदि सहित अनेक विधाओं में देखने को मिलता है। लोकजीवन में हरियाणा के अलग-अलग स्थलों में गाड़ी बनाने की परम्परा रही है। इसके साथ ही दिल्ली की नांगलोई, उत्तर प्रदेश के नज़ीबाबाद तथा गाजि़याबाद की बैलगाड़ियों का प्रचलन भी हरियाणा में विशेष रूप से रहा है। व्यापारी लोग बैलगाड़ियों के माध्यम से सामान ढोकर अपना व्यापार किया करते थे। यहां पर एक दौर ऐसा भी था, जब सामूहिक रूप में बैलगाड़ियों के माध्यम से व्यापार होता था और इनमें सामान भरकर बैलगाड़ियां समूह के रूप में चलती थीं। सामान से भरी बैलगाड़ियों को लाते तथा ले जाते समय जहां पर भी रात हो जाती थी, तो वहीं पर सारे गड़वाले गाड़ियों को रोककर डेरा डाल लेते थे। ऐसे में, गड़वाले अपना खाना रहबारियों की तरह स्वयं ही तैयार किया करते थे। जिस गांव में गड़वाले डेरा डालते थे, उस गांव के लोग भी उनको विशेष सम्मान देते थे और उन्हें रोटी टुक्का तथा हुक्का पाणी जरूर पूछते थे।
कीकर की लकड़ी का होता है इस्तेमाल
यह प्राय: कीकर की लकड़ी से बनाया जाता है, जो कि बहुत सख्त होती है। इसका आकार तिरछा, डेढ़ फुट ऊंचा, एक फुट लम्बा तथा आधा फुट आधार वाला होता है। बैलगाड़ी की साल की लकड़ी से बनी हुई दो बाजू होती है, जिन्हें फड़ कहा जाता है। इनकी लम्बाई अठारह फुट, चौड़ाई पीछे से छ: इंच और आगे से चार इंच मोटाई होती है। दोनों फड़ों को धुरे पर इस प्रकार रखा जाता है कि गाड़ी का पिछला भाग लगभग छ: फुट चौड़ा बन जाता है और अगले दोनों सिरे आपस में मिल जाते हैं। फिर उनके अगले भाग को ऊंटड़े के ऊपर स्थापित किया जाता है। इसके पश्चात उनके ऊपर एक लकड़ी की पट्टी रखी जाती है। इस पट्टी की लम्बाई एक फुट, चौड़ाई आधा फुट तथा मोटाई चार इंच होती है। इस पट्टी को बैलगाड़ी का मुथापड़ा, तिलसारा या मुखौटा कहा जाता है। इसमें लोहे की कील लगाई जाती है, जो नीचे ऊंटड़े तक जाते हैं। फड़ों पर एक और मोटी पट्टी लगाई जाती है, जिसे पंजाला नादहड़ी कहते हैं। जुआ भी इसी पंजाल़ी के ऊपर स्थापित किया जाता है। बैलगाड़ी का जुआ शहतूत की लकड़ी से बना होता है। इसमें लकड़ी के चार शिलम लगाये जाते हैं। जुए को पंजाल़े/पंजाल़ी के साथ दोनों ओर से सात-सात पिरस की मजबूत रस्सियों से बांध दिया जाता है।
भेरड़े से बनता है स्टैंड
इसके पश्चात एक गोलाकार दो फुट लम्बी और दो फुट मोटी लकड़ी बांधी जाती है, जिसे भेरड़ा कहते हैं। इसे नाक्की (रस्सी) डालकर टिकाणी के साथ बांध दिया जाता है। प्राय: यह शीशम की लकड़ी से बनाया जाता है। भेरड़े के साथ ही बैलगाड़ी का स्टैंड बनाया जाता है, जिसे डही कहा जाता है। यह डही भरमा बांस की दो लाठियों से बनाई जाती है। इन्हें स्थापित करते समय क्रॉस अवश्य बनाया जाता है, ताकि अधिकत्तर भार वहन कर सके और टूटने से बच सके। जहां डही टांगी जाती है, उसे डहीवाणा कहते हैं। जुए तथा भेरड़े को चमड़े की रस्सियों से बांध दिया जाता है, ताकि जुआ मजबूती के साथ बंधा रहे, इन्हें नाक्की या नाड़ी कहते हैं। किसी भी बैलगाड़ी में दो टिकाणी अवश्य होती है। प्रत्येक टिकाणी पांच फुट लम्बी, आधा फुट चौड़ी तथा चार इंच मोटी लकड़ी से बनी होती है। एक टिकाणी पहियों से पहले तथा एक बाद में दोनों फड़ों (आधार) पर स्थापित की जाती है। इसके पश्चात समस्त ढांचा धुरे पर स्थापित किया जाता है, फिर धुरे में दोनों ओर लकड़ी के पहिये डाले जाते हैं। इन टिकाणियों में ही पहियों की नाहरी धोरे लकड़ी से बनी तथा टेढ़ी-मेढ़ी दो पट्टियां लगाई जाती है। इन्हें बैलगाड़ी के बांक कहते हैं। टिकाणियों में लोहे के सुए तथा धुरे में एक कील लगा दी जाती है, ताकि बांक निकल न पाये।
बैलगाड़ी में बांक के बीच में निचली तरफ पहिये की धुरी डलती है, धुरी जिसमें डाली जाती है, उसे आमण कहते हैं। बैलगाड़ी के पंजाले के पीछे तीन फुट लम्बी तथा चार इंच मोटी दो सुराखों वाली एक पट्टी भी लगाई जाती है, जिसे शामणी कहते हैं। दोनों पहियों के अंदर की ओर फड़ों के ऊपर चार फुट लम्बी, आधा फुट चौड़ी तथा चार इंच मोटी एक-एक लकड़ी की पट्टी लगाई जाती है, जिन्हें बांगलवा कहते हैं। बैलगाड़ी के धुरे में दोनों ओर लोहे के मोटे डण्डे लगे होते हैं, जिन्हें लोहधरी कहते हैं। इन लोहधरियों पर देशी मक्खन (टिंडी घी) तथा सण लगाकर पहियों में डाला जाता है, इसे हरियाणवीं लोकजीवन में गाड़ी उगंणा कहते हैं। गाड़ी उंगते समय गाड़ी के नीचे लकड़ी के बने जैक लगाए जाते हैं, जिसे खड़ौंची तथा घड़ौंची के नाम से जाना जाता है। बैलगाड़ी के पहियों के मध्य में लोहे का गोलाकार पतरा लगाया जाता है, जिसे गोलाकार लकड़ी में लोहे के घेरे में लगाया जाता है। लकड़ी के आरे लगाये जाते हैं। इन भोरों को बांधे रखने के लिए पहियों के ऊपरी भाग पर लोहे को हाल या चक्कर चढ़ाया जाता है, जिससे पहिये की मजबूती बनी रहती है। लोकजीवन में लड़कियों को जब बैलगाड़ी में बैठाकर विदा करने की परम्परा रही है।
लड़की की विदाई में बैलगाड़ी
लड़की की विदाई के समय परिवार की महिलाओं द्वारा बैलगाड़ी के पहियों के सेलणे की परम्परा रही है। इसके पीछे वैज्ञानिक तर्क यही है कि लकड़ी पर पानी डालने से यह फूल जाती है और पहिये के ऊपर लगी लोहे की पत्ती से उसकी पकड़ और अधिक मजबूत हो जाती है। इसके पश्चात बैलगाड़ी के ढांचे (बॉडी) का निर्माण किया जाता है। अब फड़ों पर पटड़ी स्थापित की जाती है। एक पटड़ी धुरे के बाद लगाई जाती है, जिसमें रजूड़े लगते हैं। बैलगाड़ी के अंत में डेढ़ फुट लम्बा और चार इंच मोटा लकड़ी का बाम्बू लगता है, जिसे लालवा कहते हैं। इसे रस्सी या बैल से बांधते हैं, जिसे जब बैलगाड़ी खड़ी करनी होती है, यह पीछे लगाया जाता है, फिर बैलगाड़ी में टाटी बिछाई जाती है, जिसे बणसटी तथा पूले के छाबण से भी बनाया जाता है। गाड़ी के दोनों तरफ के हिस्सों पर भी टाटी बणाई जाती है, जो शहतूत की कामचियों तथा देसी कपास की बणसटियों (टहनियों) से बनी होती है। सामान सुरक्षित ढंग से रखा जा सकता है।
बैलगाड़ी के ढांचे (बॉडी) में कईं हिस्से स्थापित होते हैं। सबसे पहले उसकी फड़ों (आधार) की लम्बाई के बराबर दो बाजू तैयार किये जाते हैं, ये साल की लकड़ी से बनाये जाते हैं, इन्हें चन्दोई कहते हैं। यह चन्दोई गाड़ी के अगले भाग से लेकर पीछे तक स्थापित होती है। यह लकड़ी डेगों तथा खूंटों पर टिकती है। इन चन्दोइयों को पीछे से एक लम्बी लकड़ी से जोड़ा जाता है, जिसे शेरू कहा जाता है। आगे से मिलाने वाली लकड़ी को लाठी कहते हैं। इसके ढांचे में चार डेगे तथा खूंटे लगाये जाते हैं, जिनमें लोहे का सरिया लगा होता है। दोनों फड़ों के ऊपर बांस की लम्बी पट्टियां लगाई जाती हैं, जिसे तलसण्डा या छाबड़ा कहते हैं। एक मोटे बांस को फाड़कर धुरे के ऊपर बांध दिया जाता है, जिसे चिपणा कहते हैं। बैलगाड़ी के छोर में दोनों ओर कुल पच्चीस हाथ रस्सी चौड़ाई की ओर तथा चार हाथ रस्सी लम्बाई की ओर बांधी जाती है। बैलगाड़ी की बरहियों में साठ बांस लगते हैं। इसके बाद ढांचे में पीछे की ओर सलीता लगाया जाता है। ढांचे के दोनों तरफ अन्दर की ओर एक बड़ा-सा टाट लगाया जाता है, जो बैलगाड़ी भार ढोने के काम आता हैै। यात्री बैलगाड़ी में गद्देदार घास की टाटी और मोटा कपड़ा खरड़ एवं दौलड़ा भी लगाया जाता है। जिस बैलगाड़ी में सामान ढ़ोते समय तीसरा बैल जोता जाता था उसे बिंडिया बुलध कहा जाता था।
लुप्त हो रही परंपरा
वर्तमान में बैलगाड़ी की परम्परा लुप्तप्राय हो चली है। आज के दौर में बैलगाड़ी अतीत एवं इतिहास का हिस्सा बन कर रह गई है। आधुनिकता की इस चकाचौंध ने लोक पारम्परिक परिवहन के साधन बैलगाड़ी को अतीत का हिस्सा बना कर रख दिया है। वक्त की रफ्तार में यह परंपरा कहीं खो गई है। हालांकि कुछ लोग हैं जो इसे अब भी सहेज कर रखने की कोशिश कर रहे हैं।