अणुव्रत के आदर्शों का हो नया भारत 

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ललित गर्ग-

सत्तर वर्ष पूर्व भारत की स्वतंत्रता के बुनियादी पत्थर पर नव-निर्माण का सुनहला भविष्य लिखा गया था। इस लिखावट का हार्द था कि हमारा भारत एक ऐसा राष्ट्र होगा जहां न शोषक होगा, न कोई शोषित, न मालिक होगा, न कोई मजदूर, न अमीर होगा, न कोई गरीब। सबके लिए शिक्षा, रोजगार, चिकित्सा और उन्नति के समान और सही अवसर उपलब्ध होंगे। आजादी के सात दशक बीत रहे हैं, अब एक बार पुनः नये भारत, स्वर्णिम भारत एवं अणुव्रत के आदर्शों का भारत बनाने के लिये हम तत्पर हो रहे हैं। हमारी जागती आंखों से देखा जा रहा है एक स्वप्न। अहसास कराया जा रहा है स्वतंत्र चेतना की अस्मिता का। आचार्य तुलसी ने भारत की स्वतंत्रता के साथ ही जनता के समक्ष यह स्पष्ट कर दिया कि अंग्रेजों के चले जाने मात्र से देश की सारी समस्याओं का हल होने वाला नहीं है। बाह्य स्वतंत्रता के साथ यदि आंतरिक स्वतंत्रता नहीं जागेगी तो यह व्यर्थ हो जाएगी। प्रथम स्वाधीनता दिवस पर प्रदत्त प्रवचन का निम्न अंश उनकी जागृत राष्ट्र-चेतना का बल सबूत है- ‘‘कल तक तो अच्छे बुरे की सब जिम्मेदारी एक विदेशी हुकूमत पर थी। यदि देश में कोई अमंगल घटना घटती या कोई अनुत्तरदायित्वपूर्ण बात होती तो उसका दोष, उसका कलंक विदेशी सरकार पर मढ़ दिया जाता या गुलामी का अभिशाप बताया जा सकता था। लेकिन आज तो स्वतंत्र राष्ट्र की जिम्मेदारी हम लोगों पर है। स्वतंत्र राष्ट्र होने के नाते जब अच्छे बुरे की सब जिम्मेदारी जनता और उससे भी अधिक जनसेवकों पर है।’’ लेकिन आचार्य तुलसी की इस बात को हमने गंभीरता से नहीं लिया। राष्ट्रनेता और राष्ट्र की जनता दोनों अपने उत्तरदायित्व का ख्याल नहीं रख पायी।  राष्ट्र राजनैतिक दासता से तो मुक्त हो गया है पर उसे मानसिक दासता से मुक्त करना अत्यंत आवश्यक था, देश में स्वस्थ वातावरण बनाने के लिये आचार्य तुलसी ने अणुव्रत आंदोलन का सूत्रपात किया। तभी से आचार्य श्री तुलसी ने अणुव्रत आंदोलन के माध्यम से मानवता की सेवा का व्रत ले लिया। अणुव्रत एक ऐसी मानवीय आचार-संहिता है, जिसका किसी उपासना या धर्म विशेष के साथ संबंध न होकर सत्य, अहिंसा आदि मूल्यों से है। ‘‘अणुबम एक क्षण में करोड़ों का नुकसान कर सकता है तो अणुव्रत करोड़ों का उद्धार कर सकता है’’-आचार्य तुलसी की यह उक्ति अणुव्रत आंदोलन के महत्व को उजागर करती रही है। इस आंदोलन ने भारत की नैतिक-चेतना को प्रभावित कर आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय मूल्यों की सुरक्षा करने का प्रयत्न किया है।
आज हमें अणुव्रत की बुनियाद पर एक ऐसे भारत को निर्मित करना है जो न केवल भौतिक  दृष्टि से ही बल्कि नैतिक दृष्टि से भी सशक्त हो। स्वतंत्रता के सातवें दशक में पहुंचकर पहली बार ऐसा आधुनिक भारत खड़ा करने की बात हो रही है जिसमें नये शहर बनाने, नई सड़कें बनाने, नये कल-कारखानें खोलने, नई तकनीक लाने, नई शासन-व्यवस्था बनाने के साथ-साथ नया इंसान गढ़ने का प्रयत्न हो रहा है। एक शुभ एवं श्रेयस्कर भारत निर्मित हो रहा है।
आखिर नया भारत बनाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? अनेक प्रश्न खडे़ हैं, ये प्रश्न इसलिये खड़े हुए हैं क्योंकि आज भी आम आदमी न सुखी बना, न समृद्ध। न सुरक्षित बना, न संरक्षित। न शिक्षित बना और न स्वावलम्बी। अर्जन के सारे स्रोत सीमित हाथों में सिमट कर रह गए। स्वार्थ की भूख परमार्थ की भावना को ही लील गई। हिंसा, आतंकवाद, जातिवाद, नक्सलवाद, क्षेत्रीयवाद तथा धर्म, भाषा और दलीय स्वार्थों के राजनीतिक विवादों ने आम नागरिक का जीना दुर्भर कर दिया।
हमारी समृद्ध सांस्कृतिक चेतना जैसे बन्दी बनकर रह गई। शाश्वत मूल्यों की मजबूत नींवें हिल गईं। राष्ट्रीयता प्रश्नचिन्ह बनकर आदर्शों की दीवारों पर टंग गयी। आपसी सौहार्द, सहअस्तित्व, सहनशीलता और विश्वास के मानक बदल गए। घृणा, स्वार्थ, शोषण, अन्याय और मायावी मनोवृत्ति ने विकास की अनंत संभावनाओं को थाम लिया।
स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, लेकिन इसका स्वाद हम चख ही नहीं पाए। ऐसा लगता रहा है कि जमीन आजाद हुई है, जमीर तो आज भी कहीं, किसी के पास गिरवी रखा हुआ है। ट्रेन या सड़क दुर्घटनाएं हो या बार-बार आतंकी बम धमाकों से दहल जाना या फिर महिलाओं की सुरक्षा का प्रश्न- चहुं ओर लोक जीवन में असंतोष है, असुरक्षा का भाव है। लोकतंत्र घायल है। वह आतंक का रूप ले चुका है। मुझे अपनी मलेशिया एवं सिंगापुर की यात्रा से लौटने के बाद महसूस हुआ कि हमारे यहां की फिजां डरी-डरी एवं सहमी-सहमी है। कभी पुलिस कमिश्नर तो कभी राजनेताओं ने महिलाओं पर हो रहे हमलों, अत्याचारों के लिये उनके पहनावें या देर रात तक बाहर घुमने को जिम्मेदार ठहराया है, जबकि सिंगापुर एवं मलेशिया में महिलाओं के पहनावें एवं देर रात तक अकेले स्वच्छंद घूमने के बावजूद वहां महिलाएं सुरक्षित हंै और अपनी स्वतंत्र जीवन जीती है। हमें समस्या की जड़ को पकडना होगा। केवल पत्तों को सींचने से समाधान नहीं होगा। ऐसा लगता है कि इन सब स्थितियों में जवाबदेही और कर्तव्यबोध तो दूर की बात है, हमारे सरकारी तंत्र में न्यूनतम मानवीय संवेदना भी बची हुई दिखायी नहीं देती।  संसद में विरोधी पार्टियों के द्वारा बार-बार अवरोध खड़ा कर दिया जाता है, जनता के हितों पर कुछ सार्थक निर्णय लेने के लिये चुनी गयी संसद अपने ही हितों के लिये संसद की कार्यवाही का अवरोध करना, कैसा लोकतांत्रिक आदर्श है? प्रश्न है कि कौन स्थापित करेगा एक आदर्श शासन व्यवस्था? कौन देगा इस लोकतंत्र को शुद्ध सांसंे? जब शीर्ष नेतृत्व ही अपने स्वार्थों की फसल को धूप-छांव देने की तलाश में हैं। जब रास्ता बताने वाले रास्ता पूछ रहे हैं और रास्ता न जानने वाले नेतृत्व कर रहे हैं सब भटकाव की ही स्थितियां हैं।
बुद्ध, महावीर, गांधी, आचार्य तुलसी हमारे आदर्शों की पराकाष्ठा हंै। पर विडम्बना देखिए कि हम उनके जैसा आचरण नहीं कर सकते- उनकी पूजा कर सकते हैं। उनके मार्ग को नहीं अपना सकते, उस पर भाषण दे सकते हैं। आज के तीव्रता से बदलते समय में, लगता है हम उन्हें तीव्रता से भुला रहे हैं, जबकि और तीव्रता से उन्हें सामने रखकर हमें अपनी एवं राष्ट्रीय जीवन प्रणाली की रचना करनी चाहिए।
गांधी, शास्त्री, नेहरू, जयप्रकाश नारायण, लोहिया के बाद राष्ट्रीय नेताओं के कद छोटे होते गये और परछाइयां बड़ी होती गईं। हमारी प्रणाली में तंत्र ज्यादा और लोक कम रह गया है। यह प्रणाली उतनी ही अच्छी हो सकती है, जितने कुशल चलाने वाले होते हैं। लेकिन कुशलता तो तथाकथित स्वार्थों की भेंट चढ़ गयी। लोकतंत्र श्रेष्ठ प्रणाली है। पर उसके संचालन में शुद्धता हो। लोक जीवन में ही नहीं लोक से द्वारा लोक हित के लिये चुने प्रतिनिधियों में लोकतंत्र प्रतिष्ठापित हो और लोकतंत्र में लोक मत को अधिमान मिले- यह वर्तमान समय की सबसे बड़ी अपेक्षा है। इस अपेक्षा को पूरा करके ही हम नया भारत बना सकेंगे।
भारत स्वतंत्र हुआ। आजादी के लिये और आजाद भारत के लिये हमने अनेक सपने देखें लेकिन वास्तविक सपना नैतिकता एवं चरित्र की स्थापना को देखने में हमने कहीं-ना-कहीं चूक की है। आज जो देश की तस्वीर बन रही है उसमें मानवीय एकता, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, मैत्री, शोषणविहीन सामाजिकता, अंतर्राष्ट्रीय नैतिक मूल्यों की स्थापना, सार्वदेशिका निःशस्त्रीकरण का समर्थन आदि तत्त्व को जिस तरह की प्राथमिकता मिलनी चाहिए थी वह नहीं मिली, जो कि जनतंत्र की स्वस्थता के मुख्य आधार हैं। नया भारत को निर्मित करते हुए हमें इन तत्त्वों को जन-जन के जीवन में स्थापित करने के लिये संकल्पित होना होगा। इसके लिये केवल राजनीतिक ही नहीं बल्कि गैर-राजनीतिक प्रयास की अपेक्षा है।
हमारी सबसे बड़ी असफलता है कि हम 70 वर्षों में भी राष्ट्रीय चरित्र नहीं बना पाये। राष्ट्रीय चरित्र का दिन-प्रतिदिन नैतिक हृास हो रहा था। हर गलत-सही तरीके से हम सब कुछ पा लेना चाहते थे। अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए कत्र्तव्य को गौण कर दिया था। इस तरह से जन्मे हर स्तर पर भ्रष्टाचार ने राष्ट्रीय जीवन में एक विकृति पैदा कर दी थी। देश में एक ओर गरीबी, बेरोजगारी और दुष्काल की समस्या है। दूसरी ओर अमीरी, विलासिता और अपव्यय है। देशवासी बहुत बड़ी विसंगति में जी रहे हैं। एक ही देश की धरती पर जीने वाले कुछ लोग पैसे को पानी की तरह बहाएँ और कुछ लोग भूखे पेट सोएं- इस असंतुलन की समस्या को नजरंदाज न कर इसका संयममूलक हल खोजना चाहिए। वर्तमान में आचार्य श्री महाश्रमण के नेतृृत्व में अणुव्रत आन्दोलन इसी काम को अंजाम दे रहा है।
हमारे राष्ट्रनायकों ने, शहीदों ने एक सेतु बनाया था संस्कृति का, राष्ट्रीय एकता का, त्याग का, कुर्बानी का, जिसके सहारे हम यहां तक पहंुचे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदीजी भी ऐसा ही सेतु बना रहे हैं, ताकि आने वाली पीढ़ी उसका उपयोग कर सके। मोदीजी चाहते हैं कि हर नागरिक इस सेतु बनाने के लिये तत्पर हो। यही वह क्षण है जिसकी हमें प्रतीक्षा थी और यही वह सोच है जिसका आह्वान है अभी और इसी क्षण शेष रहे कामों को पूर्णता देने का, क्योंकि हमारा भविष्य हमारे हाथों में हैं। ऐसा करके ही हम अणुव्रत की आधारभित्ति पर नये भारत को निर्मित करने के संकल्प की सार्थकता सिद्ध कर पाएंगे।
अणुव्रत आन्दोलन का 68वां राष्ट्रीय अधिवेशन कोलकता में आचार्य श्री महाश्रमणजी की सन्निधि में 8, 9 एवं 10 सितम्बर 2017 को आयोजित हो रहा है, जब देश की नैतिक एवं अहिंसक शक्तियां जुटेंगी एवं अणुव्रत के आदर्शों पर नया भारत निर्मित करने हेतु सार्थक भूमिकाओं का निर्माण करेंगी। अणुव्रत ने अब तक क्या किया? कितना किया? और कैसे किया? इसका पूरा लेखा-जोखा एकत्रित करना दुःसंभव है। किन्तु इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि मानवीय मूल्यों के संदर्भ में वैचारिक क्रांति की दृष्टि से भारत के धरातल पर यह एक प्रथम उपक्रम है, इस तथ्य से आज किसी को सहमति हो या न हो, पर कोई इतिहासकार जब आजादी के साथ निर्मित हुए भारत एवं सत्तर वर्ष बाद निर्मित होने जारहे नये भारत-स्वर्णिम भारत का इतिहास लिखेगा, तब अणुव्रत का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित होगा।

 

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