न्याय की अधूरी आस-अरविंद जयतिलक

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lawसमझना कठिन है कि जब न्याय मिलने में हो रही देरी से जनमानस क्षुब्ध है, अदालतों की साख पर सवाल उठ रहे हैं, अपराधियों और भ्रष्टाचारियों का हौसला बुलंद है, अदालतों में मुकदमों का बोझ बढ़ता जा रहा है, ऐसे समय में न्यायपालिका मुख्य न्यायधिशों और मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में ट्रायल कोर्ट में पांच साल के भीतर मुकदमों का निपटारा का भरोसा देकर किस तरह शीघ्र और सस्ता न्याय देने की उम्मीद जगायी है? जब ट्रायल कोर्ट में ही मुकदमें के निपटारे में पांच साल लग जाएंगे और उपरी अदालतों में कितना समय लगेगा इसका कोई भरोसा नहीं तो फिर शीघ्र न्याय मिलने की उम्मीद कैसे की जाए? क्या उचित नहीं होता कि न्यायपालिका कुछ ऐसे मामलों को छोड़कर जिनके निस्तारण में ज्यादा समय लग सकता है, के अलावा उन अन्य छोटे मामलों को एक-दो साल में निपटाने का भरोसा देती? लेकिन उसने इस पर गौर क्यों नहीं फरमाया यह आश्चर्यजनक है। अदालतों में ऐसे करोड़ों मामले हैं जिन्हें सहमति के आधार पर निपटाया जा सकता है, बस व्यवहारिक रास्ता अपनाने की जरुरत है। याद होगा गत वर्ष सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस आरएम लोढ़ा ने सुझाव दिया था कि अदालतों को साल में ३६५ दिन खुलना चाहिए। मुकदमों का बोझ घटाने के लिए इससे बेहतर तरीका और नहीं हो सकता। उन्होंने तर्क भी दिया कि जब वे पटना हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस थे तब पटना उच्च न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालयों ने सफलातपूर्वक यह प्रयोग किया और उसके बेहतर परिणाम देखने को मिले। लेकिन जिस तरह पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय के एक न्यायाधीश ने गुड फ्राइडे के दिन न्यायाधिशों के सम्मेलन पर सवाल उठाया उससे संभावना कम ही है कि न्यायपालिका जस्टिस आरएम लोढ़ा के सुझाव पर गौर किया जाएगा। हालांकि एक सच्चाई यह भी है कि अदालतों के पास संसाधनों की कमी है जिससे त्वरित न्याय में बाधा आ रही हैं। उचित होगा कि केंद्र व राज्य सरकारें अदालतों को संसाधनों से लैस करें और रिक्त पड़े पदों को भरें। किसी से छिपा नहीं है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय में ही ६० हजार से अधिक मुकदमें लंबित हैं। इसी तरह उच्च न्यायालयों में तकरीबन ४४ लाख और जिला अदालतों में २.७ करोड़ से अधिक मुकदमें लंबित हैं। इसका मुख्य कारण अदालतों में न्यायाधिशों की कमी, लंबित प्रकरणों की संख्या में सतत वृद्धि, प्रकरण के निस्तारण में लगने वाला अंतहीन समय, ढांचागत सुविधाओं का अभाव और न्यायधिशों की नियुक्ति में देरी है। पिछले दिनों देश के कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने आम जनता को त्वरित न्याय दिलाने के लिए अदालतों में रिक्त पड़े पदों को शीघ्र भरने की प्रतिबद्धता जतायी। लेकिन यह प्रतिबद्धता कब पूरी होगी कहना मुश्किल है। गौरतलब है कि देश के उच्च न्यायालयों में न्यायाधिशों के कुल ९०६ पद सृजित हैं जिनमें से २६३ पद खाली हैं। इसी तरह निचली अदालतों में न्यायाधिशों के ४००० से अधिक पद रिक्त हैं। सर्वोच्च न्यायालय में भी निर्धारित ३१ न्यायाधीश नहीं हैं। स्वाभाविक है कि जब न्यायाधिशों के पद रिक्त रहेंगे तो मुकदमों का बोझ बढ़ेगा ही। याद होगा गत वर्ष पहले भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश अल्तमस कबीर ने सभी उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायधिशों को ताकीद किया था कि वह अपनी राज्य सरकारों से अधीनस्थ अदालतों में जजों की संख्या दोगुनी करने का निर्देश दें। लेकिन विडंबना कि इस दिशा में उचित पहल नहीं हुई। बहुत पहले उच्चतम न्यायालय ने सुझाव दिया था कि १० लाख लोगों पर कम से कम ५० न्यायाधीश होना चाहिए। लेकिन आज की तारीख में १० लाख लोगों पर न्यायाधिशों की संख्या सिर्फ १५ है। २०११ तक न्यायधिशों के कुल १८,८७१ पद मंजूर थे। लेकिन आज जब देश की जनसंख्या सवा अरब के उपर पहुंच चुकी है तो स्वाभाविक रुप से उस अनुपात में न्यायाधिशों और अदालतों की संख्या में वृद्धि होनी चाहिए। लेकिन विडंबना है कि केंद्र एवं राज्य सरकारें अभी तक इस दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रयास नहीं की हैं। यह दर्शाता है कि सरकारें आमजन को शीघ्र एवं सस्ता न्याय दिलाने की चाहे जितनी जुगाली करें लेकिन जमीनी सुधार को लेकर गंभीर नहीं है। अभी पिछले वर्ष ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार को ताकीद किया कि वह राज्य में १४०२७ अदालतें गठित करें। बेंच ने अदालतों के गठन की कार्यवाही का समय भी तीन माह मुकर्रर किया। गौरतलब है कि उसने यह आदेश एक याचिका पर दिया जिसमें महिलाओं पर हो रहे अपराधों की सुनवाई में न्यायाधिशों की कमी के कारण हो रही देरी और परेशानी की बात उठायी गयी थी। आज के दिन यूपी में २३ लाख से अधिक मुकदमें लंबित हैं जिनमें १० लाख मुकदमें तो सिर्फ उच्च न्यायालय के दोनों बेंच (इलाहाबाद और लखनऊ) में ही लंबित हैं। अगर उत्तर प्रदेश सरकार इस दिशा में कदम उठाती है तो उसे ७० हजार से अधिक कर्मचारियों और तकरीबन १४००० हजार न्यायाधिशों की नियुक्ति करनी होगी। निश्चित रुप से इससे मुकदमों को निपटाने में आसानी होगी। राज्यों में अदालतों की संख्या में वृद्धि के अलावा शीघ्र न्याय के लिए त्वरित न्यायालय के गठन की भी बेहद आवश्यकता है। सन् २००० में ५०२ करोड़ रुपए की लागत से जिला स्तर पर १७३४ फास्ट ट्रैक अदलतों की घोषणा हुई। उसके अपेक्षित परिणाम भी देखने को मिले। लेकिन विडंबना कि धन के अभाव में इसे बंद कर दिया गया। अगर फास्ट ट्रैक अदालतों का पुनर्गठन होता है तो निश्चित रुप से मुकदमों का बोझ कम होगा और लोगों को शीघ्र न्याय मिलेगा। लंबित मामलों को निपटाने के लिए अन्य तरीकों पर भी विचार की जरुरत है। उदाहरण के तौर पर अमेरिका के पेंसिलवेनिया में देर रात्रि तक न्यायालय चलते हैं। हालांकि भारत के लिए यह विचार इसलिए नया नहीं है कि २००६ में गुजरात में इस तरह का प्रयोग हो चुका है। अहमदाबाद में आयोजित १७ सांध्यकालीन अदालतों में महज ४५ दिनों में ही १६००० से अधिक मामलों की सुनवाई हुई। अगर पूरे देश में यह व्यवस्था लागू हो तो बेहतर परिणाम आ सकते हैं। लंबित मामलों को निपटारे के लिए दिसंबर २००७ में पंचायत स्तर पर मोबाइल अदालतों की भी स्थापना हुई। पहली मोबाइल अदालत हरियाणा के मेवात जिले में गठित हुई। इस पहल को व्यापक आयाम दिए जाने की जरुरत है। लोगों को त्वरित और सस्ता न्याय दिलाने के लिए न्यायतंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को भी दूर करने की जरुरत है। यह किसी से छिपा नहीं है कि न्यायिक तंत्र भी भ्रष्टाचार से अछूता नहीं रह गया है। आए दिन न्यायधिशों पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगते रहते हैं। अभी गत वर्ष ही कोलकाता हाईकोर्ट के न्यायाधीश सौमित्र सेन को भ्रष्टाचार के आरोप में अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। उन पर आरोप था कि उन्होंने १९९३ में सेल और शिपिंग कारपोरेशन से जुड़े एक विवाद में बतौर रिसीवर के खाते से पैसा निकाल अपने निजी फायदे के लिए एक कंपनी में निवेश किया। जस्टिस दिनाकरन पर भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे। इसी तरह १९९५ में बांबे उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एम भट्टाचार्य को पश्चिम एशिया के एक प्रकाशक से रॉयल्टी के रुप में ८० हजार डॉलर लेने के कारण इस्तीफा देना पड़ा। जस्टिस शमित मुखर्जी को डीडीए घोटाले में नाम आने पर पद त्यागना पड़ा। उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश वी रामास्वामी को अपने पद और सरकारी धन के दुरुपयोग के आरोप में महाभियोग का सामना करना पड़ा। गाजियाबाद पीएफ घोटाले में ३६ न्यायाधिशों के लाभान्वित होने की बात देश-दुनिया के सामने उजागर हो चुकी है। अभी पिछले साल ही आंध्रप्रदेश में सीबीआई के एक विशेष जज पर दस करोड़ रुपए लेकर जमानत देने का आरोप लगा। ऐसे अनेक उदाहरण है जिससे न्यायिक तंत्र की प्रतिष्ठा धुमिल हुई है। याद होगा दो साल पहले देश के पूर्व न्यायाधीश भरुचा ने उच्च न्यायालयों में २० फीसदी जजों के भ्रष्ट होने की बात कही। जून २०११ में उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा ने भी कहा कि उच्च न्यायपालिका में संदिग्ध निष्ठा वाले कुछ व्यक्ति पहुंच गए हैं। अगर यह सच है तो बेहद शर्मनाक है। अब समय आ गया है कि भारतीय न्यायपालिका अपनी विश्वसनीयता और कार्यकुशलता पर उठ रहे सवालों को लेकर सिर्फ चिंता ही व्यक्त न करे बल्कि अदालतों का बोझ कम करने और लोगों को शीघ्र एवं सस्ता न्याय दिलाने की दिशा में ठोस पहल करे।

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