– ओंकारेश्वर पांडेय
डॉ. भूपेन हजारिका किसी परिचय के मोहताज नहीं है। स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने गुवाहाटी के एक कार्यक्रम में कहा था – ‘हम असम को भूपेन हजारिका के नाम से जानते हैं।’
भारत के सुप्रसिद्ध लोक गायक भूपेन दा का व्यक्तित्व बहुआयामी था। भूपेन दा अद्भुत आवाज के धनी जन जन में छा जाने वाले एक बेहद लोकप्रिय लोक गायक भर नहीं थे, वे एक बेहद लोकप्रिय गीतकार और संगीतकार भी थे और उतने ही सफल साहित्यकार, पत्रकार, फिल्म निर्देशक, पटकथा लेखक और चित्रकार भी थे। कुल मिलाकर उनका हर रूप अनूठा और अद्वितीय था।
उनके विविध रूपों को आप देखें तो आप पाएंगे कि वे सही मायनों में लोक वैज्ञानिक थे। असम की माटी की सोंधी महक को सुरों में पिरो कर उन्होंने असमिया लोक संगीत को देश-विदेश में प्रचारित किया। वे असम की जनता की चार पीढ़ियों के अविवादित रूप से सबसे चहेते गायक माने जाते हैं। बिहू समारोहों में लोग रात-रात भर बारिश में भींगते हुए उनको गाते हुए देखते-सुनते थे। वे ऐसे विलक्षण कलाकार थे जो अपने गीत खुद लिखते थे, संगीतबद्ध करते थे और गाते थे। उन्हें दक्षिण एशिया के श्रेष्ठतम जीवित सांस्कृतिक दूतों में से एक माना जाता है।
उनके गीतों में असम की संस्कृति और लोक परम्परा के साथ सम-सामयिक समस्याओं की झलक भी मिलती है। वे नदियों में नद असम की जीवन रेखा माने जाने वाले ब्रह्मपुत्र नदी की चौड़ी छाती पर अपने गीतों की स्वर लहरियां बिखेरते अठखेलियां करते हैं, तो उसी प्रवाह और दोगुने प्रभावशाली ढंग से गंगा से भी पूछ बैठते हैं कि – ऐ गंगा बहती हो क्यों?
सोचिये जरा। है किसी में यह अदम्य साहस, दृष्टि और क्षमता कि जीवन दायिनी गंगा से ही यह सवाल पूछ सके ? भूपेन दा ने जीवन के हरेक पहलू को अपने गीतों में पिरोया। भाईचारे की बात की, राष्ट्रीय एकता की बात की और दिलों में मोहब्बत के भाव भी जगाये। भूपेन दा का गीत ‘‘दिल हुम हुम करे” लोगों के दिलों में आज भी बसा हुआ है।
आरोप फिल्म में उनका गीत ‘‘नयनों में दरपन है, दरपन में कोई” सुनिये। अपनी मूल भाषा असमिया के अलावा भूपेन हजारिका हिंदी, बंगला समेत कई अन्य भारतीय भाषाओं में गाना गाते रहे थे। उनहोने फिल्म “गांधी टू हिटलर” में महात्मा गांधी का पसंदीदा भजन “वैष्णव जन” गाया था।
मां कामाख्या व ब्रह्मपुत्र के इस विलक्षण कलाप्रेमी व असमिया और बांग्ला लोक संगीत के विशेष अनुरागी ने 10 साल की उम्र से जो गाना शुरू किया तो 2011 में प्रदर्शित ‘गांधी टू हिटलर’ फिल्म तक लगातार गाते रहे। वक्त ने चाहे उन्हें 1967 से 1972 तक असम विधानसभा का सदस्य बनाया हो, चाहे आज उनके नाम से असम में सबसे लंबा पुल बना दिया गया हो, मगर बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के इस छात्र को उनके चाहने वाले ‘गंगा बहती हो क्यों…’ से ज्यादा जानते हैं तो इसलिए कि वह लोक संगीत के ज्यादा निकट रहे और लोगों के दिलों पर राज करने लगे।
वास्तव में लोकसंगीत उनके जीन में था और मां की लोरियां सुनते सुनते वह परवान चढ़ा था। लोकसंस्कृति के प्रेमी भूपेन दा ने बतौर निर्देशक अपनी पहली असमी फिल्म ‘ऐरा बातोर सुर’ (1956) मंत पहली बार लता मंगेशकर से गवाया था और इस गाने के बाद देखते ही देखते उनकी फिल्म बिक गई थी।
असम रत्न डॉ भूपेन हजारिका ने करीब 13 साल की आयु में तेजपुर से मैट्रिक की परीक्षा पास की। आगे की पढ़ाई के लिए वे गुवाहाटी गए। 1942 में गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज से इंटरमीडिएट किया। 1946 में हजारिका ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में एम ए किया। इसके बाद पढ़ाई के लिए वे विदेश गए। न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय से उन्होंने पीएचडी की डिग्री हासिल की।
असम के तिनसुकिया जिले के सदिया में जन्में भूपेन दा के पिताजी का नाम नीलकांत एवं माताजी का नाम शांतिप्रिया था। उनके पिताजी मूलतः असम के शिवसागर जिले के नाजिरा शहर से थे। दस संतानों में सबसे बड़े, भूपेन हजारिका का संगीत के प्रति लगाव अपनी माता के कारण हुआ, जिन्होंने उन्हें पारंपरिक असमिया संगीत की शिक्षा जनम घुट्टी के रूप में दी। बचपन में ही उन्होंने अपना प्रथम गीत लिखा और दस वर्ष की आयु में उसे गाया। उन्होंने असमिया चलचित्र की दूसरी फिल्म इंद्रमालती के लिए १९३९ में बारह वर्ष की आयु मॆं काम भी किया।
भूपेन दा को अनेकों पुरस्कार और सम्मान मिले। उदाहरण के लिए सन 1975 में सर्वोत्कृष्ट क्षेत्रीय फिल्म के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार, 1992 में सिनेमा जगत के सर्वोच्च पुरस्कार दादा साहब फाल्के सम्मान से सम्मानित किया गया। इसके अलावा उन्हें 2009 में असोम रत्न और इसी साल संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड, 2001 में पद्म भूषण जैसे कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से भी उन्हें सम्मानित किया गया। सन 2012 मे भारत सरकार ने उन्हें मरणोपरांत पद्मविभूषण पुरस्कार से नवाजा।
पर सच्चे अर्थों में मानवता के गीतों की रचना व स्वर देकर सबको एक सूत्र में बांधने वाले भूपेन दा को सबसे बड़ा सम्मान देश और दुनिया भर में फैले उनके करोड़ों श्रोताओं, दर्शकों और प्रशंसकों से मिला है और इसीलिए वे हमारे बीच सदा अमर रहेंगे।
आज भूपेन दा की पुण्य तिथि है। उनकी याद शिद्दत से आ रही है। गुवाहाटी में उनके साथ गुजारे चंद लम्हे मेरी जिंदगी के अनमोल पल हैं। मुझे याद है, जब मैं पहली बार उनके पास मिलने गया और उन्हें अपनी संस्था रंगायन का मुख्य संरक्षक बनने का अनुरोध किया, तो न सिर्फ उन्होंने मेरे अनुरोध को सहर्ष स्वीकार कर लिया, बल्कि ढेर सारे सुझाव और पूरा समर्थन देने का आश्वासन भी दे डाला।
उनके स्नेहिल समर्थन से मेरा उत्साह दोगुना हो गया और पहले तो मैंने 1993 में गुवाहाटी में पहला द्विभाषी संगीत समारोह आयाजित किया, जिसमें असमिया और हिंदी (भोजपुरी-मैथिली समेत) के कलाकारों ने कार्यक्रम प्रस्तुत किये और असम के कलाकारों को विद्यापति अवार्ड और बिहार से आये कलाकारों को ज्योति प्रसाद अगरवाला पुरस्कार दिये गये।
भूपेन दा के प्रोत्साहन से हमने गुवाहाटी में एनाजरी यानी समन्वय-94 के नाम से सन 1994 में पहला राष्ट्रीय द्विभाषी (हिंदी और असमिया) लघु नाट्य प्रतियोगिता का आयोजन कर डाला। इस प्रतियोगिता में 14 राज्यों के 28 दलों ने हिस्सा लिया।
कुल करीब 400 कलाकार आये थे। और हमने इस प्रतियोगिता में आने वाले सभी प्रतिभागियों को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार प्राप्त सुप्रसिद्ध लोक गायक डॉ. भूपेन हजारिका (8 सितंबर, 1926- 5 नवम्बर 2011) के हस्ताक्षर से प्रमाण पत्र देने का वादा कर दिया था।
अब मुश्किल ये था कि उन 400 प्रमाण पत्रों पर भूपेन दा के हस्ताक्षर कैसे हों। तब भूपेन दा ने स्वयं कहा कि मेरे हस्ताक्षर का मुहर बनवा लो और सारे प्रमाण पत्रों पर लगाकर दे दो। मेरे पास भूपेन दा का दिया हुआ वह हस्ताक्षर एक अनमोल धरोहर के रूप में मौजूद है।
भारतीय लोक संगीत की इस महान हस्ती भूपेन दा को हार्दिक नमन।