वर्तमान में स्वामी विवेकानन्द के विचारों की प्रासंगिकता

राजेन्द्र चड्ढा

गर्व से कहो हिंदू हैं-इस मंत्र के दृष्टा थे, स्वामी रामकृष्ण परमहंस के

“सप्तर्षि मण्डल के महर्षि” स्वामी विवेकानन्द, जो हमेशा कहा करते थे जब

मनुष्य अपने पूर्वजों के बारे में लज्जित होने लगे तो सोच लो की उनका

अन्त आ गया है। मैं हिन्दू हूँ, मुझे अपनी जाति पर गर्व है, अपने

पूर्वजों पर गर्व है, हम सभी उन ऋषियों की संतान हैं जो संसार में

अद्वितीय रहे । उन्होंने हमें संदेश दिया ”आत्मविश्वासी बनो, अपने

पूर्वजों पर गर्व करो“ जब मनुष्य स्वयं से घृणा करने लगता है, तो समझना

चाहिये कि मृत्यु उसके द्वार पर आ पहुँची।

स्वामीजी के विचार और कार्य व्यर्थ नहीं हुआ । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

के संस्थापक डा. केशव बलिराम हेडगेवार ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया। आज

हिन्दुत्व के प्रति स्वाभिमान का भाव सर्वत्र सर्वव्यापी बन रहा है जबकि

दुर्भाग्य की बात यह है हिंदुस्तान में ही उच्चतम न्यायालय में हिन्दुत्व

शब्द के प्रयोग को भी चुनौती दी जाती है । वह बात अलग है कि उच्चतम

न्यायालय ने इस शब्द के प्रयोग को आपत्तिरहित बताने पर पूरे देश में खुशी

की लहर दौड़ गई जबकि कथित धर्मनिरपेक्ष व्यक्तियों को यह फूटी आंख नहीं

सुहाया । उच्चतम न्यायालय के इस मामले में निर्णय से स्वामी विवेकानन्द

के शब्द अनायास स्मरण हो आते हैं, जब उन्होंने कहा था कि मैं भविष्य नहीं

देखता पर दृश्य अपने मन के चक्षुओं से अवश्य देख रहा हूँ कि प्राचीन

मातृभूमि एक बार पुनः जाग गई है । पहले से भी अधिक गौरव और वैभव से

प्रदीप्त है।

पश्चिमी अंधनुसरण पर चोट

आज चहुंओर, पाश्चात्य के अंधानुकरण की होड़ मची हुई है फिर चाहे वह जीवन

पद्वति हो अथवा विचार मींमासा । इस अंधे अनुकरण पर तीखा प्रहार करते हुए

वे कहते हैं, भारत! यही तुम्हारे लिये सबसे भयंकर खतरा है। पश्चिम के

अंधानुकरण का जादू तुम्हारे सिर पर इतनी बुरी तरह से सवार है कि क्या

अच्छा क्या बुरा उसका निर्णय अब तर्क बुद्धि न्याय हिताहित, ज्ञान या

शास्त्रों के आधार पर नहीं किया जा सकता । बल्कि जिन विचारों के

पाश्चात्य लोग पसंद करें, वही अच्छा है या जिन बातों की वे निंदा करें वह

बुरा है इससे बढ़कर मूर्खता का परिचय कोई क्या देगा। नया भारत कहता है कि

पाश्चात्य भाषा, पाश्चात्य खानपान, पाश्चात्य आचार को अपनाकर ही हम

शक्तिशाली हो सकेंगे। जबकि दूसरी ओर, पुराना भारत कहता है ‘हे मूर्ख,

कहीं नकल करने से भी कोई दूसरों का भाव अपना हुआ ? बिना स्वयं कमाये कोई

वस्तु अपनी नहीं होती क्या सिंह की खाल ओढ़कर गधा भी सिंह बन सकता है ?

आज तक वापमंथी और मैकाले के भक्त स्वामीजी पर हमेशा टीका टिप्पणी करते

रहे, लेकिन अब वे भी विवेकानन्द को अपनी दृष्टि से समझने का प्रयत्न कर

रहे हैं। यह सब करना उनकी मजबूरी बनती जा रही है। विवेकानन्द को पढ़ा

लिखा बेरोजगार, परमहंस को मिर्गी का मरीज और वामपंथी सरकार के राज में

पश्चिम बंगाल में विवेकानन्द के चित्र के स्थान पर जबरदस्ती लेनिन की

प्रतिमा लगवाने वाले वामपंथी ही आज विवेकानन्द के विचारों को समझने का

प्रयत्न कर रहे हैं। पर लगता नहीं कि ये अपनी कूपमंडूक दृष्टि और

कालबाह्य हो चुके सिद्धान्तों से चिपके रहने के कारण विवेकानन्द को समझने

में सफल होंगे । ऐसे में स्वामी विवेकानंद के कृतित्व से परिचित होना

आवश्यक है।

आर्यों के आगमन के सिद्धान्त पर कि आर्य लोग बाहर से आये, जब बताया जा

रहा था तब स्वामीजी ने कहा था कि तुम्हारे यूरोपियों पंडितों का कहना है

कि आर्य लोग किसी अन्य देश से आकर भारत पर झपट पड़े, निरी मूर्खतापूर्ण

बेहूदी बात है । जबकि आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि कपिय भारतीय विद्वान भी

इसी बात की माला जपते हैं, जिसमें वामपंथी बुद्विजीवी सबसे आगे हैं।

विवेकानन्द दृढ़ता से कहते हैं कि किस वेद या सूक्त में, तुमने पढ़ा कि

आर्य दूसरे देशों से भारत में आए ? आपकी इस बात का क्या प्रमाण है कि

उन्होंने जंगली जातियों को मार-काट कर यहाँ निवास किया ? इस प्रकार की

निरर्थक बातों से क्या लाभ । योरोप का उद्देश्य है-सर्वनाश करके स्वयं

अपने को बचाये रखना जबकि आर्यों का उद्देश्य था सबको अपने समान करना या

अपने से भी बड़ा करना। योरोप में केवल बलवान को ही जीने का हक है, दुर्बल

के भाग्य में तो केवल मृत्यु का विधान है इसके विपरीत भारतवर्ष में

प्रत्येक सामाजिक नियम दुर्बलों की रक्षा हेतु बनाया गया है। आज

दुर्भाग्य से वामपंथी बुद्धिजीवी इस सिद्धान्त की आड़ में भारत को तोड़ने

के भरसक प्रयास कर रहे हैं ।

 

“भारत में धर्मान्तरण की दृष्टि से आनेवाले को चेतावनी”

तुम लोगों को प्रशिक्षित करते हो, खाना कपड़ा और वेतन देते हो काहे के

लिये? क्या इसलिए के हमारे देश में आकर पूर्वजों धर्म और सब पूर्वजों को

गालियाँ दें और मेरी निंदा करें? वे मंदिर के निकट जाएं और कहें ”ओ

मूर्ति पूजकों! तुम नरक में जाओगे ! किंतु ये भारत के मुसलमानों से ऐसा

कहने का साहस नहीं कर पातें, क्योंकि तब तलवार निकल आयेगी ! किंतु हिन्दू

बहुत सौम्य है, वह मुस्कुरा देता है यह कहकर टाल देता है, ”मूर्खों को

बकने दो“ यही है उसका दृष्टिकोण । तुम स्वयं तो गालियाँ देने व आलोचना

करने के लिए लोगों को शिक्षित करते हो यदि मैं बहुत अच्छा उद्देश्य लेकर

तुम्हारी तनिक भी आलोचना करूँ, तो तुम उछल पड़ते हो और चिल्लाने लगते हो

कि हम अमेरिकी हैं, हम सारी दुनिया की आलोचना करें, गालियाँ दें, चाहे जो

करें हमें मत छेड़ो हम छूई-मुई के पेड़ हैं।”

तुम्हारे मन में जो आए तुम कर सकते हो लेकिन हम जैसे भी जी रहे हैं, हम

संतुष्ट हैं और हम एक अर्थ में अच्छे हैं। हम अपने बच्चों को कभी भयानक

असत्य बोलना नहीं सिखाते और जब कभी तुम्हारे पादरी हमारी आलोचना करें, वे

इस बात को न भूलें कि यदि संपूर्ण भारत खड़ा हो जाए हिंदू महादधि की

तलहटी की समस्य कीचड़ को उठा कर पाश्चात्य देंशों के मुँह पर भी फेंक दे

तो उस दुव्र्यवहार का लेश मात्रा भी न होगा जो तुम हमारे प्रति कर रहे

हो। हमने किसी धर्म प्रचारक को किसी अन्य के धर्म परिवर्तन के लिये नहीं

भेजा, हमारा तुमसे कहना है कि हमारा धर्म हमारे पास रहने दो।

आज हिन्दू से मुसलमान और ईसाई बनने वाले अपने ही धर्मांन्तरित बंधुओं पर

किसी प्रकार की अयोग्यता आरोपित करना अन्याय होगा। वह भी तब जब उनमें से

अधिकतर तलवार के भय अथवा लोभ के कारण धर्मांतरित हुए हैं । ऐसे में ये

सभी स्वेच्छा से परावर्तन करने के लिए स्वतंत्र है । इस बात को रेखांकित

करते हुए विवेकानंद कहते हैं कि यदि हम अपने बंधुओं को वापस अपने धर्म

में नहीं लेंगे तो हमारी संख्या घट जायेगी। जब मुसलमान पहले पहल यहाँ आये

तो कहा जाता है, मैं समझता हूँ, प्राचीनतम इतिहास लेखक फरिश्ता के प्रमाण

से, कि हिन्दुओं की संख्या साठ-करोड़ थी, अब हम लोग बीस करोड़ हैं फिर

हिंदू धर्म में से जो एक व्यक्ति बाहर जाता है तो उससे हमारा एक व्यक्ति

ही कम नहीं होता बल्कि एक शत्रु भी बढ़ जाता है। उदाहरण के लिए, आज के

संदर्भ में स्वामीजी की बात बिलकुल सत्य लगती है। आज काश्मीर से लेकर

पूर्वांचल के राज्यों में सब कुछ गड़बड़ है और यदि हमने इस उभरते खतरे की

चेतावनी को नहीं समझा तो और भी नुकसान उठाना पड़ सकता है। यह एक ध्रुव

सत्य है कि आज ईसाई और मुस्लिम दोनों ही हिंदू समाज के गरीब लोगों को

लालच देकर येन प्रकारेण धर्मान्तरण में हुए हैं।

विवेकानंद का कहना था कि भारत में एकता का सूत्र भाषा या जाति न होकर

धर्म है। धर्म ही राष्ट्र का प्राण है। धर्म छोड़ने से हिंदू समाज का

मेरूदंड ही टूट जाएगा। इसके लिए, आज वनवासी, गिरीवासी, झुग्गी-झोपड़ी में

रहने वाले बन्धुओं के बीच जाना होगा और उन्हें सत्य से अवगत कराना होगा

कि किस तरह सउदी अरब के पेट्रो डालर के बल पर उन्हें सहायता देने के नाम

पर धर्मांतरण के प्रयास चल रहे हैं।

स्वामीजी के अनुसार, तुम जो युगों तक भी धक्के खाकर अक्षय हो, इसका कारण

यही है कि धर्म के लिए तुमने बहुत प्रयत्न किया था। उसके लिए अन्य सब कुछ

न्यौछावर कर दिया था, तुम्हारे पूर्वजों ने धर्म संस्थापना के लिए मृत्यु

को गले लगाया था। विदेशी विजेताओं ने मंदिरों के बाद मंदिर तोड़े किंतु

जैसे ही वह आँधी गुजरी, मंदिर का शिखर पुनः खड़ा हो गया। यदि सोमनाथ को

देखोगे तो वह तुम्हें अक्षय दृष्टि प्रदान करेगा। इन मंदिरों पर सैकड़ों

पुनरुत्थानों के चिन्ह किस तरह अंकित हैं, वे बार-बार नष्ट हुए खंडहरों

से पुनः उठ खड़े हुए पहले की ही भाँति यही है राष्ट्रीय जीवन प्रवाह। आओ

इसका अनुसाण करें।

आओ! प्रत्येक आत्मा का आह्वान करें उतिष्ठ, जागृत, उठो, जागो और जब तक

लक्ष्य प्राप्त न कर लो कहीं मत ठहरो। दौर्बल्य के मोह जाल से निकलो। सभी

शिक्षित युवकों में कार्य करते हुए उन्हें एकत्र कर लाओ जब हम संगठित हो

जायेंगे, तो घास के तिनकों को जोड़कर जो रस्सी बनती है उससे एक उन्मत्त

हाथी को भी बांध जा सकता है। “उसी प्रकार तुम संगठित होने पर पूरे विश्व

को अपने विचारों से बांध सकोगे।”

1 COMMENT

  1. हम अक्सर विवेकानंद के उन्हीं विचारों का उपयोग करते हैं जो हमारे अहंकार को थप थपाता हो, जो हमारी दीन हीनता एवं पागलपन को छुपाता हो। इससे हमारा जरा भी भला नही होने वाला। उनके उन विचारों का ज़िग्र किया जाना चाहिये जिनसे आग बरसती हो ताकि हमारे कुसंस्कार नष्ट हो सके। मद्रास में दिया गया भाषण उनका सर्वश्रेष्ठ था। जिनमें आत्मा बची है वे उनके भाषण को पढ़कर जाग उठेगी और जो मुर्दे हैं वे माथे पर तिलक मलते रहें।

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