अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
(वाल्मीकि रामायण)
लंका विजयोपरांत लंका के वैभव और बनावट देख वहीं रहने के लक्ष्मण जी के आग्रह पर भगवान राम यही उत्तर तो देते हैं ” लक्ष्मण! यद्यपि यह लंका सोने की बनी है, फिर भी इसमें मेरी कोई रुचि नहीं है। (क्योंकि) जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान है “। उसी जन्मभूमि को पाने और अपने ही जन्म स्थान को सिद्ध करने के लिये भगवान राम को शताब्दियों का संघर्ष करना पड़ा, बाल रामलला को स्वंय कानूनी कार्यवाहियों का सामना करते हुये उन्हें भारतवर्ष की न्यायपालिका में यह सिद्ध करना पड़ा कि इसी अयोध्या नगरी में उसने जन्म लिया था, जिसके लिये वो परम वैभवशाली लंका नगरी का त्याग करके आये थे।
आश्चर्य है न जिस देश के कण-कण में राम व्याप्त हैं, जहाँ प्रत्येक भारतवासी अभिवादन में राम-राम कहनें से लेकर राम नाम सत्य है से अपनी जीवनलीला समाप्त करता है ।जिस देश की पहचान ही राम है उसे प्रमाणित करना पड़ा कि ये अयोध्या भूमि ही उसका जन्मस्थान है। मात्र न्यायपालिकाओं की लड़ाई ही नहीं अनेक रक्तरंजित संघर्षों और असंख्य जीवनों की आहुति के पश्चात उस नन्हें रामलला को न्याय मिला है जिसका संपूर्ण जीवन ही न्याय का पर्याय था।
पाँच अगस्त का ये ऐतिहासिक दिवस जब भारतवर्ष के प्रधानमंत्री भूमिपूजन कर शिलादान कर रहे होंगे तब संपूर्ण भारत की भावनाओं का ज्वार उस समुद्र की लहरों को बांधने के समान असाध्य होगा जिसे बांधने स्वंय श्रीराम को धनुष उठाना पड़ा ।
आखिर ऐसा क्या है जो आज के इस दिवस को भव्य और दिव्य बनाने के साथ-साथ हर भारतवासी का मन और देश का कोना- कोना उत्साह और उर्जा से भर रहा है, रक्षापर्व के स्थान पर दीपोत्सव मनाया जा रहा है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार राम वनगमन पश्चात अयोध्या लौटे थे और सम्पूर्ण अयोध्या नगरी दीपों से झिलमिला उठी थी।ठीक वैसा ही दृश्य आज होगा जब केवल दियों में डाले गये तेल और वाती से प्रकाश न होगा अपितु हर भारतवासी की आँखों की कोरो में झिलमिला आये भावनाओं के अश्रु बिंदु सूर्य के तेज और चंद्रमा की शीतलता को समाहित कर इस विश्व को प्रकाशित कर रहे होंगे। कोरोना के चलते हर भारतीय सशरीर अवश्य अयोध्या की पावन धरती पर न पहुंचे किंतु हर एक का मन उन क्षणों का साक्षी होगा जब सवा सौ करोड़ देशवासियों की और से प्रधानमंत्री जी भूमिपूजन की विधियों का निर्वहन करते हुये श्लोक-
……….नामाहं पृथिवीमातुः ऋणं अपाकर्त्तुं तां
प्रतिस्वकर्तव्यं स्मर्तुं। अस्याः निकृष्टसंस्कार- निस्सारणार्थं श्रेष्ठसंस्कार स्थापनार्थंन्च देवपूजनपूर्वकं *सराष्ट्रजनाः श्रृद्धापूर्वकं भूमिपूजनं वयं करिष्यामहे। ( *श्लोक में स्वजनों किंतु यहाँ तो सम्पूर्ण राष्ट्र की भावनाएं साथ) का वाचन करेंगे तो समस्त भारतीयों के हस्तकमलो और मन मानस का प्रतिनिधित्व कर रहे होंगे।
अयोध्या संघर्ष के पांच सौ वर्ष- पांच अगस्त भूमि पूजन की यह तिथि और दिवस अपने में एक बड़ा संघर्ष और साधना समाहित किये हुये है। जनमानस की आस्था का केन्द्र अयोध्या नगरी को भगवान श्रीराम के पूर्वज विवस्वान (सूर्य) पुत्र वैवस्वत मनु ने बसाया था, तभी से इस नगरी पर सूर्यवंशी राजाओं का राज महाभारत काल तक रहा, और इसी नगरी में प्रभु श्रीराम का अपने पिता राजा दशरथ के महल में जन्म हुआ। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में जन्मभूमि की तुलना दूसरे इन्द्रलोक से की है। महर्षि वाल्मीकि अयोध्या का वर्णन करते हुये लिखते हैं-
कोसल नाम मुदितः स्फीतो जनपदो महान।
निविष्टः सरयू तीरे प्रभूतधनधान्यवान।।
वर्णन है कि भगवान श्रीराम के जल समाधि लेने के पश्चात अयोध्या कुछ काल के लिये कांतिहीन सी हो गयी थी, किंतु उनकी जन्मभूमि पर बना महल वैसे का वैसा ही था।भगवान श्रीराम के पुत्र कुश ने एक बार पुनः राजधानी अयोध्या का पुनर्निर्माण कराया। इस निर्माण के बाद सूर्यवंश की अगली ४४पीढियों तक इसका अस्तित्व अंतिम राजा, महाराज बृहदवल तक अपने चरमोत्कर्ष पर रहा। कौशलराज बृहदवल की मृत्यु महाभारत युद्ध में अर्जुन पुत्र अभिमन्यु के हाथों होती है। महाभारत युद्ध के पश्चात अयोध्या पुनः वीरान सी हो जाती है किंतु श्री राम जन्मभूमि का अस्तित्व फिर भी बना रहा।
अयोध्या नगरी का आगे उल्लेख मिलता है कि ईसा के लगभग १०० वर्ष पूर्व उज्जैन के चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य एक दिन आखेट करते-करते अयोध्या पंहुच गये, शारीरिक थकान होने के कारण अयोध्या में सरयू नदी के किनारे एक आम के वृक्ष के नीचे वे अपनी सेना सहित विश्राम करने लगे। उस समय यहाँ घना जंगल हो चला था और बसाहट भी कम हो गयी थी। महाराज विक्रमादित्य को इस भूमि में कुछ चमत्कार दिखाई देने लगे।तब उन्होंने खोज करना आरंभ किया और निकटस्थ योगियों व संतों से जानकारी में उन्हें ज्ञात हुआ कि यह श्रीराम की अवध भूमि है। उन्हीं संतों के निर्देशानुसार उन्होंने यहाँ भव्य मंदिर के जीर्णोद्धार के साथ ही कूप,सरोवर, महल आदि बनवाये। ऐसा बताया जाता है कि उन्होंने श्री राम जन्मभूमि पर श्यामवर्ण कसौटी पत्थरों वाले ८४ स्तंभों पर विशाल मंदिर का निर्माण करवाया था। इस मंदिर की भव्यता और दिव्यता देखते ही बनती थी।
विक्रमादित्य के बाद के राजाओं ने समय-समय पर इस मंदिर की देख-रेख की। उन्हीं में से एक शुंग वंश के प्रथम शासक पुष्यमित्र शुंग ने भी मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। पुष्यमित्र का एक शिलालेख अयोध्या से प्राप्त हुआ था जिसमें उसे सेनापति कहा गया है तथा उसके द्वारा दो अश्वमेघ यज्ञों के किये जाने का वर्णन भी मिलता है। अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गुप्तवंशीय चंद्रगुप्त द्वित्तीय के समय और तत्पश्चात लंबे समय तक अयोध्या गुप्त साम्राज्य की राजधानी थी। गुप्तकालीन महाकवि कालिदास ने अयोध्या का रघुवंश महाकाव्य में अद्भुत वर्णन किया है।
इतिहासकारों के अनुसार ६०० ईसा पूर्व अयोध्या एक महत्वपूर्ण व्यापार केन्द्र बन गया था। इस स्थान को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति ५वी शताब्दी में ईसा पूर्व तब मिली जब यह एक प्रमुख बौद्ध केंद्र के रुप में विकसित हुआ। उस समय इसका नाम साकेत था। चीनी यात्री फाहयान ने यहाँ देखा कि अनेक बौद्ध मठों का रिकॉर्ड सुरक्षित रखा गया है। यहाँ पर ७ वी शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग आया था। उसके अनुसार यहाँ २० बौद्ध मंदिर थे जिनमें लगभग ३००० भिक्षु रहते थे। वह अपने यात्रा वृतांत में स्पष्ट वर्णन करता है कि यहाँ अयोध्या में हिन्दुओं का एक प्रमुख भव्य मंदिर है, जहाँ प्रतिदिन हजारों की संख्या में हिंदु तीर्थयात्री दर्शन करने के लिये आते है। यहाँ मैं स्पष्ट कहना चाहती हूँ कि इसके अतिरिक्त बौद्ध धर्म का अयोध्या में अन्य कोई वर्णन नही रहा।अतः जो लोग बौद्ध धर्म के नाम पर विद्वैश और वैमनस्य फैलाकर इस भूमि पर बौद्ध मंदिर के होने का अभियान चला रहे हैं एकबार चीनी यात्रियों ह्वेनसांग और फाह्यान के यात्रा वृत्तांतों का ध्यान से अध्ययन कर लें।
इसके बाद ईसा की ११ वी शताब्दी में कन्नौज नरेश जयचंद यहाँ आया और उसने मंदिर पर लगे सम्राट विक्रमादित्य के प्रशस्ति शिलालेखों को निकलवाकर अपना नाम लिखवा दिया। पानीपत के युद्ध के बाद जयचंद का भी अंत हो गया। अब भारत पर विदेशी आक्रांताओं का आक्रमण और बढ़ गया ।आक्रमणकारियों ने काशी, मथुरा के साथ ही अयोध्या में भी लूटपाट की और पुजारियों की हत्या कर मूर्तियों को खंडित करने का क्रम जारी रखा। किंतु १४वी शताब्दी तक वे अयोध्या में राम मंदिर को तोड़ने में सफल नहीं हो पाये।
विभिन्न आक्रमणों और आघातों के बाद भी सभी झंझावातों को सहते हुये श्री राम जन्मभूमि पर बना भव्य मंदिर १४ वीं शताब्दी तक अपना अस्तित्व बचाये रहा। कहा जाता है कि सिंकदर लोदी के शासनकाल के समय भी यहाँ मंदिर मौजूद था। १४वीं शताब्दी में भारत पर मुगलों का अधिकार हो गया और उसके बाद ही श्री राम जन्मभूमि एवं अयोध्या को नष्ट करने के लिये अनेक अभियान चलाये गये। अंततः १५२७-२८ में इस भव्य मंदिर को तोड़ दिया गया और उसके स्थान पर बाबरी ढांचा खड़ा किया गया।
कहा जाता है कि मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के एक सेनापति ने बिहार विजय अभियान के समय अयोध्या में श्रीराम के जन्मस्थान पर स्थित भव्य और प्राचीन मंदिर को तोड़कर एक मस्जिद बनवाई थी, जो १९९२ तक विद्यमान रही।
बाबरनामा के अनुसार १५२८ में अयोध्या पड़ाव के दौरान बाबर ने मस्जिद निर्माण का आदेश दिया था। अयोध्या में बनाई गई मस्जिद में खुदे दो संदेशो से इसका संकेत भी मिलता है।इसमें एक संदेश विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिसका सार है, जन्नत तक जिसके न्याय के चर्चे हैं ऐसे महान शासक बाबर के आदेश पर दयालु मीर बकी ने फरिश्तों की इस जगह को मुकम्मल कर दिया। यह थी चोरी और ऊपर से सीनाजोरी जिसका खामियाजा वर्षों तक भारतवासी भोगते आयें हैं।
कहीं-कहीं यह भी कहा जाता है कि अकबर और जहांगीर के शासनकाल में हिंदुओं को चबूतरे के रुप में सौंप दी गई थी किंतु क्रूर आततायी औरंगजेब ने अपने पूर्वज बाबर के सपने को पूरा करते हुये यहाँ भव्य मस्जिद का निर्माण कर उसका नाम बाबरी मस्जिद रख दिया था।
श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन:- असंख्य हिंदुओं के आराध्य भगवान राम और आस्था के केन्द्र श्रीराम जन्मभूमि स्थान के विधर्मियों द्वारा विध्वंस को भला हिंदु समाज कैसे सहता ? अनेक संघर्ष छोटे और बड़े स्वरूपों में चलते रहे और लगातार पाँच सौ वर्षो से हर मन मानस यही स्वप्न संजोता कि अपने जीवन में वह श्री रामलला को अपने भव्य मंदिर में विराजमान होते हुये देखे किंतु दुर्भाग्य अनेक पीढियां ये स्वप्न अपने मन में संजोये ही चली गयी। मुगल गये अंग्रेज आये, अंग्रेज गये अपने आये किंतु रामलला अपना स्थान न पा पाये। ये हिंदु समाज की कायरता थी ,सहिष्णुता थी,सहनशीलता थी या किसी चमत्कार की प्रतिक्षा थी,बहरहाल जो भी हो किंतु विश्व के एकमात्र सार्वभौमिक सत्य कि श्रीराम की जन्मस्थली अयोध्या है, उस सत्य को भी सत्य सिद्ध होने संघर्ष करना पड़ा।
अब उस घटना का उल्लेख जिस घटना ने रामजन्म भूमि आंदोलन को एक नयी दशा और दिशा दी और ये पूरा विवाद कोर्ट पहुंचा सुप्रीम कोर्ट का एतिहासिक निर्णय भी इसी घटना पर आया था।
जब अचानक एक सुबह अयोध्या में गूंजा “भए प्रकट कृपाला”
२२ दिसंबर १९४९ की रात मे एक ऐसी घटना होती है जिससे दिल्ली तक हड़कंप मच जाता है। कुछ युवाओं की टोली ने मस्जिद के प्रांगण में भगवान राम की मूर्तियों को देखा और बताया कि मस्जिद में भगवान प्रकट हुये हैं अगली सुबह पूरी अयोध्या में खबर फैल जाती है कि बाबरी मस्जिद में प्रभु श्रीराम प्रकट हुये हैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिमहा राव ने अपनी पुस्तक “अयोध्या ६ दिसंबर १९९२” में इस घटना के संबंध में लिखी गई एफ.आई. आर.का उल्लेख किया है। एस.एच.ओ. रामदेव दुवे ने एफ आई आर में लिखा कि रात में ५०-६० लोग ताला तोड़कर दीवार फांदते हये मस्जिद में घुस गये।वहां उन्होंने श्री रामचन्द्र जी की मूर्ति की स्थापना कीः इतनी भीड़ के आगे सुरक्षा इंतजाम नाकाफी साबित हुये।
लिब्रहान आयोग मे भी लिखा गया था कि काँस्टेबल माता प्रसाद ने थाना इंचार्ज राम दुवे को इस घटना के बारे में जानकारी दी। और अगली सुबह अयोध्या वासी बाबरी मस्जिद में मूर्ति प्रकट होने की खुशी में भये प्रकट कृपाला गा रहे थे।
सत्ता के गलियारों में मच गया था हड़कंप:- सुबह होते ही जिस तेजी से ये खबर अयोध्या में फैली उतनी ही तेजी से दिल्ली पंहुच गई। तब प्रधानमंत्री थे पंडित जवाहर लाल नेहरु और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे गोविंद बल्लभ पंत। तब देश को आजादी तो मिल गई थी किंतु संविधान अभी लागू नहीं हुआ था। धर्म निरपेक्षता अभी संवेधानिक ढांचे में नहीं थी।
लेकिन बिना किसी दुविधा के नेहरु ने पंत से सात कर अयोध्या में पूर्व स्थिति बहाल करने को कहा। फौरन ऊपर से आदेश आया, लेकिन उस समय फैजाबाद के डीएम के के नायर ने उसे मानने से ही इनकार कर दिया। ऐसा करने पर उन्होंने कानून-व्यवस्था और बिगड़ने का हवाला दिया, साथ ही उन्होंने यह सुझाव भी दे डाला कि बेहतर होगा अगर इसका निपटारा अब कोर्ट करे। सरकार को भी उनका सुझाव सही लगा और इस तरह ये मामला कोर्ट में पहुंच गया।
पूजा जारी रखने के लिए कोर्ट चले गए परमहंस
16 जनवरी 1950 को सिविल जज की अदालत में हिंदू पक्ष की ओर से मुकदमा दायर कर जन्मभूमि पर स्थापित भगवान राम और अन्य मूर्तियों को न हटाए जाने और पूजा की इजाजत देने की मांग की गई। दिगंबर अखाड़ा के महंत रहे परमहंस भी मूर्ति न हटाने और पूजा जारी रखने के लिए कोर्ट चले गए।कोर्ट ने उन्हें इसकी इजाजत दे दी। कई वर्षों बाद 1989 में जब रिटायर्ड जज देवकी नंदन अग्रवाल ने स्वयं भगवान राम की मूर्ति को न्यायिक व्यक्ति करार देते हुए नया मुकदमा दायर किया तब परमहंस ने अपना केस वापस कर लिया।
आगे की अदालती कार्यवाही और कारसेवकों पर किये गये मुलायम सरकार के बर्बरता पूर्ण अत्याचार, रथयात्रा, शिलापूजन हर घटना सभी के समक्ष आज भी जीवंत है तो लेख की व्यापकता को न बढाते हुये पाँच अगस्त की ये जो स्वर्णिम भोर जिसकी प्रतिक्षा में असंख्य आँखें पथरा गई थी, उस ऐतिहासिक पल का भावविभोर हो अभिनंदन करते हुये कुछ नाम अवश्य उल्लेखित करना चाहूंगी जो इस भूमिपूजन की वास्तविक नींव के पत्थर रहे।
शरद कोठारी और रामकुमार कोठारी, वासुदेव गुप्ता, राजेन्द्र धरकार, रमेश पांडेय जैसे अनेक हुतात्मा कारसेवक जिन्होंने 1989 और 1992 के आंदोलन में अपने प्राणों की आहुति दी। राम मंदिर आंदोलन की अगुवाई करने वाले दाऊ दयाल खन्ना, राजमाता विजया राजे सिंधिया, परमहंस रामचंद्र, महंत अवैद्यनाथ, स्वामी वामदेवजी महाराज, प.पू. रज्जू भैय्या, मोरोपंत पिंगले, प.पू. कुपसी सुदर्शन, अशोक सिंहल जी, आचार्य गिरिराज किशोर, ओंकार भावे, मफल सिंहं, जगद्गुरू पुरूषोत्तमाचार्य, महेश नारायण सिंह, श्रीषचन्द्र दीक्षित, ठाकुर गुरजन सिंह, ओम प्रकाश जी, बीएल शर्मा “प्रेम”, देवकीनंदन अग्रवाल जी सहित असंख्य जीवन जो आज के दिवस की नींव के पत्थर बने।अनेक ऐसे नाम जो इस एतिहासिक दिवस को प्रत्यक्ष अपनी आँखों से निहारेंगे लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, साध्वी ऋतंभरा जी,उमा भारती जी ,बाबा सत्यनारायण मौर्य और भी असंख्य सौभाग्यशाली जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रुप से अयोध्या भूमि से जुड़कर स्वंय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ इस संघर्ष को साधना में परिलक्षित होने के साक्षी बन रहे।
आज का दिवस वास्तव में भारतवर्ष के आत्मगौरव और परम वैभव पर पहुंचने के स्वप्न को साकार करने का दिवस है।सवा सौ करोड़ भारतीयों की आस्था, धैर्य, प्रतिक्षा,तपस्या के फलीभूत होने का दिवस है। जाग्रत आँखों से साकार होते स्वप्न के साक्षी बनने का दिवस है।
इति शुभम…..