बाजीराव मस्तानी से मिलते सबक

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bajirao-mastaniडॉ. मयंक चतुर्वेदी
इतिहास समय-समय पर सबक सिखाता है। इतिहास बार-बार दोहराया भी जाता है। जो इस इतिहास से सीख लेकर आगे के निर्णय लेते हैं, निश्चित ही वह जाति, धर्म, संप्रदाय, समूह या अकेला मनुष्य ही क्यों न हो, प्रकृति उसका साथ देती हुई दिखाई देती है। किंतु विरोध करने या इतिहास को हल्के में लेने वाले लोग कब स्वयं ही इतिहास बन जाते हैं, वस्तुत: यह पता ही नहीं चलता है। यहां यह बात कहने का आशय इतनाभर है कि हिन्दू समाज आज भी अपने इतिहास से कुछ सीखना नहीं चाहता, क्योंकि जो लोग हिन्दू समाज के हित में अच्छा कार्य कर रहे हैं, उन्हें कोई अन्य नहीं, बल्कि सर्वप्रथम स्वयं हिन्दू समाज के लोग ही संदेह की दृष्टि से देखते हैं। साम्प्रदायिकता-असहिष्णुता के आरोप लगने के साथ उन पर भगवाकरण तक के आरोप बिना सोचे-समझे लगा दिए जाते हैं।

इस दिशा में हाल ही में फिल्मकार-निर्देशक संजय लीला भंसाली की राजनीतिक पृष्ठभूमि में रची गई फिल्म बाजीराव मस्तानी हम सभी से बहुत कुछ कहती है। यह फिल्म कई मायनों में अहम् है, जिसे लेकर कहना होगा कि प्रत्येक हिन्दू को यह फिल्म एक बार अवश्य देखना चाहिए। भले ही किसी की रुचि इस बात में हो या न हो कि वे किसी प्रेम कहानी के आधार पर बनी फिल्म में रुचि रखते हैं। वास्तव में यह ऊपर से देखने पर दो अलग-अलग धर्मों में पले-बड़े प्रेमियों की प्रेम गाथा पर आधारित फिल्म दिखाई देती है, किंतु यह दो प्रेमियों के इतर इतिहास का वह कड़वा सच भी सभी के सामने प्रकट करती है, जो कि आज भी हिन्दू समाज की कमजोरी बनी हुई है।

यह कहा जा सकता है जब से हिन्दू धर्म का प्रादूर्भाव हुआ है, इसकी परंपरा के निर्वहन और सतत् इसके विकास की नौका को खैने का कार्य यहां पुरोहित या पाण्डित वर्ग करता रहा है। उसने समय-समय पर धर्मार्थ हेतु अपने प्राणों की आहूती भी दी है, इसका इतिहास साक्षी है। आज लाख कमियां आ जाने के बाद भी यह पुरोहित वर्ग घर-घर पूजा जाता है, तो इस पूजन के पीछे उनके पुरखों का त्याग पूर्ण इतिहास है। लेकिन जब यही त्याग समय के साथ अहंकार में बदल गया, जिसने कि अपनी प्रगति की मानसिकता को संकुचित कर लिया, तब उसका दुष्परिणाम हमें बाजीराव-मस्तानी फिल्मों के जरिए पर्दे पर स्पष्ट नजर आता है।

यह कहा नहीं जा सकता कि कितने ऐसे उदाहरण मिलें, लेकिन सच यही है कि जब खोजा जाएगा तो इतिहास में अनगिनत बाजीरावों के नाम दर्ज मिलेंगे जो अपने वक्त के सताए हुए थे। यह त्रासदी किसी ओर ने नहीं, स्वयं उन्हीं के परिजनों द्वारा दी गई थी। युद्ध के मैदान में ये सभी बाजीराव बड़े से बड़ा युद्ध सहजता से जीत गए लेकिन अपने ह्दय से विवश यह अपने मन का और पारिवारिक द्वन्द का युद्ध कभी नहीं जीत पाए।

बाजीराव वल्हाड़ जैसा योद्धा जिसकी तलवार में बिजली सी हरकत और इरादों में हिमालय की अटलता, चितपावन कुल के ब्राह्मणों का तेज और आंखों में एक ही सपना कि दिल्ली के तख्त पर लहराता हुआ ध्वज भगवा हो और समस्त हिन्दुस्तान का एक हिन्दू शासक हो। जिसने कुशल नेतृत्व, बेजोड़ राजनीति और अकल्पनीय युद्ध कौशल से दस सालों में आधे हिंदुस्तान पर अपना कब्जा जमा लिया हो। आखिर वह भी अपनों से हार ही गया। इसका उस समय से लेकर आज तक भयावह परिणाम यह हुआ कि वक्त ने उन्हें तो बिखेरा ही, उनसे जुड़ा हिन्दू समाज भी समय-समय पर बिखरता रहा है तथा यह प्रक्रिया सतत् जारी है।

वस्तुत: यह फिल्म बाजीराव मस्तानी अपने समय का ही नहीं आज की हकीकत भी प्रत्येक हिन्दू के सामने जिजीविषा के साथ रखती है। वह सीधे तौर पर संकेत ही नहीं देती, समझाती भी है कि अरे ! हिन्दुओं परस्पर आरोप-प्रत्यारोप से मुक्त होओ और सुधर जाओ, नहीं तो यह प्रकृति और तुम्हारे ही आस-पास की व्यवस्था ही तुम्हारा अस्तित्व समाप्त कर देगी। ऐसा कहने के पीछे वाजिब तर्क यह है कि हिन्दू समाज आज भी सबसे ज्यादा धर्म और जाति बंधन की संकुचित मानसिकता से ग्रस्त है। पढ़ा लिखा हिन्दू भी इसके बंधन से मुक्त नहीं हो पा रहा है।

यह कहा जाए कि संजय लीला भंसाली ने इस फिल्म के माध्यम से 21 वीं सदी में अपने समय के सामाजिक, वैचारिक और धार्मिक मुद्दों को लेकर विमर्श का आकाश तैयार किया है तो गलत न होगा।  इस फिल्म के सीधे सटीक संवाद एवं प्रसंग संवेदनशील प्रत्येक हिन्दू को यह सोचने पर विवश करते हैं कि हमारा समाज कितना सिकुड़ा हुआ है। यहां प्रश्न प्रति-प्रश्न मौजूद हैं कि हिन्दू समाज कब इस संकुचन से बाहर आएगा। बाजीराव का पक्ष कहने भर को मराठा राजनीति का एक ऐतिहासिक प्रसंग है, किंतु वास्तव में यह हमारे संपूर्ण समाज की यथार्थता का वर्णन करता है।

इतिहास बताता है कि किस तरह हिन्दुओं के शीर्ष कर्ता-धर्ताओं ने गलत निर्णय लेकर अपने धर्म को ही लांक्षित करने और सबसे ज्यादा ठेस पहुंचाने के साथ हानि पहुंचाई है। मस्तानी एक हिन्दू पिता की पुत्री थी, फिर भी वह हिन्दू समाज में सहज स्वीकार्य नहीं। इतिहास के आईने में देखें तो मां रुहानी बेगम पर्शियन और पिता ओरछा नरेश महाराजा छत्रसाल राजपूती सुन्दरता, वीरता और शौर्य की ऐतिहासिक मिसाल थे। इस संदर्भ में एतिहासिक शोध पर भी नजर डाली जा सकती है। डॉ. भगवान दास का शोध-प्रबंध  ‘‘महाराज छत्रसाल’’ बताता है कि पर्शिया की कलाकार रुहानी बेगम कला प्रदर्शन करने भारत आई थी। मुगल दरबार में नाच-गाना पेश करने के बाद वह ओरछा पहुंची, जहां महाराज छत्रसाल उसके रूप -सौंदर्य एवं कला से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उसे उप पत्नी बना अलग महल में उसी सम्मान के साथ रखा, जैसा सम्मान वे अपनी हिन्दू पत्नी को देते थे।

रुहानी बेगम से महाराज छत्रसाल को शमशेर खां, खानजहां और मस्तानी नाम से तीन संतानें हुईं। मस्तानी का लालन-पालन इस्लाम और हिन्दू दोनों धर्मों के बीच हुआ। उस पर अपने पिता के कारण श्रीकृष्ण भक्ति का प्रभाव था, क्यों कि छत्रसाल प्रणामी सम्प्रदाय के अनुयायी होने से कृष्ण भक्त थे। अत: मस्तानी भी कृष्ण जन्म पर उपवास रख पूजा करती थी। इतिहास यह प्रमाणित करता है कि वह भी अपने पिता की तरह प्रणामी सम्प्रदाय की कृष्ण भक्त थी।

मस्तानी छत्रसाल की लाड़ली बेटी थी। उसे उन्होंने घुड़सवारी और युद्ध कला में पारंगत किया था। इसी युद्ध कला से आगे बाजीराव प्रभावित हुआ और उसने मस्तानी के पिता को बंगश के आक्रमण के वक्त सैन्य सहायता कर बड़े संकट से उबारा। जब जीत जाने के बाद पेशवा के सम्मान में मस्तानी ने आपना नृत्य प्रस्तुत किया तब बाजीराव उसके रूप सौदर्य को देखकर अभीभूत हो उठा। छत्रसाल के सामने बाजीराव ने मस्तानी से विवाह का प्रस्ताव रखा। जिसे महाराज और रुहानी बेगम ने सहर्ष स्वीकार्य कर लिया।

इतिहासकार प्रमोद ओक का कहना है कि पेशवा घराने के दिवंगत पुरुष -महिलाओं के टांक (ताम्रपत्र पर उकेरे चित्र) को देवालय में रख पूजा की जाती थी। मस्तानी का टांक भी देवालय में मिला है। अत: इस आधार पर कहा जा सकता है कि वह बाजीराव की विधिवत विवाहित पत्नी थी। किंतु साथ में एतिहासिक सत्य यह भी है कि पेशवा परिवार और पूना के ब्राह्मणों को जब पता चला बाजीराव ने मुसलिम नाम वाली मस्तानी को अपनी सह धर्मिणी बना लिया है तथा उसे लेकर वह पूना आ रहा है तो वहां कोई इस बात को पचाने को तैयार नहीं था कि एक मुस्लिम मां की कोख से पैदा हुई लडक़ी को भले ही फिर उसके पिता हिन्दू हों और न केवल हिन्दू अपने समय में देश के श्रेष्ठ शूर वीरों में से एक हों को कैसे ब्राह्मण परिवार स्वीकार्य कर सकता है। हवा यहां तक चली कि क्यों न बाजीराव को समाज से बहिष्कृत कर दिया जाए। लेकिन यह बाजीराव की बहादुरी थी कि उसने अपने समय के सभी द्वंदों को स्वीकार्य करते हुए मस्तानी को पूना में अपने परिवार के अंदर सम्मान दिलाने के लिए अंत तक संघर्ष किया।

इतिहास हमें बताता है कि भले ही जीवन के अंत तक उसे इस काम में सफलता नहीं मिली, बाजीराव की मां राधाबाई ने मस्तानी के महल पर पहरा बैठा उसे कैद कर लिया । बाजीराव को देशधर्म की याद दिलाकर रण में भेज दिया गया, किंतु सच यही है कि उसने मस्तानी को याद करते हुए मध्यप्रदेश की धरती पर अपने प्राण त्याग दिए। रावेरखेड़ी मे नर्मदा किनारे महान प्रेमी, वीर पेशवा का अंतिम संस्कार कर समाधि बना दी गई। पेशवा की मृत्यु का समाचार पाकर मस्तानी ने भी पाबल में प्राण त्याग दिए। एक प्रेमकथा का यह त्रासद अंत है। लेकिन इस प्रेमी युगल का यह अंत आज भी हिन्दुओं को कई सबक सिखा रहा है। यह बताता है कि अपने जाति बंधन से जितनी जल्दी हिन्दू समाज मुक्त होगा उतना ही उसके लिए हितकर है। दु:ख इस बात का है कि इस घटना के कई सालों बाद भी आज बहुतायत ब्राह्मण कट्टर, रुढि़वादी और धर्मान्ध हैं, जो कि  कहीं न कहीं हिन्दू समाज की अवनति का कारण भी है।

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मयंक चतुर्वेदी मूलत: ग्वालियर, म.प्र. में जन्में ओर वहीं से इन्होंने पत्रकारिता की विधिवत शुरूआत दैनिक जागरण से की। 11 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय मयंक चतुर्वेदी ने जीवाजी विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के साथ हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर, एम.फिल तथा पी-एच.डी. तक अध्ययन किया है। कुछ समय शासकीय महाविद्यालय में हिन्दी विषय के सहायक प्राध्यापक भी रहे, साथ ही सिविल सेवा की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों को भी मार्गदर्शन प्रदान किया। राष्ट्रवादी सोच रखने वाले मयंक चतुर्वेदी पांचजन्य जैसे राष्ट्रीय साप्ताहिक, दैनिक स्वदेश से भी जुड़े हुए हैं। राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखना ही इनकी फितरत है। सम्प्रति : मयंक चतुर्वेदी हिन्दुस्थान समाचार, बहुभाषी न्यूज एजेंसी के मध्यप्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं।

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