संदर्भः बीएस-3 वाहनों की बिक्री पर रोक-
प्रमोद भार्गव
सर्वोच्च न्यायालय का फैसला वाहन उद्योगपतियों के लिए बड़ा झटका है, लेकिन वातावरण को प्रदूषण मुक्त बनाए रखने की दृष्टि से पर्यावरण के हित में है। न्यायमूर्ति एमबी लोकुर और दीपक गुप्ता की पीठ ने बेहिचक कहा कि उद्योगों के मुनाफे के लिए लोगों के स्वास्थ्य को संकट में नहीं डल सकते है। दरअसल उद्योग और पर्यावरण के बीच जब भी द्वंद्व छिड़ता है तो अकसर पर्यावरण सरंक्षण के तकाजों की ही बलि चढ़ा दी जाती है। लेकिन इस बार शीर्ष न्यायालय ने कंपनियों की परवाह न करते हुए 1 अप्रैल 2017 से बीएस-3 वाहनों की बिक्री पर रोक लगा दी। अब सिर्फ बीएस-4 वाहन ही बिकेंगे। इस समय कंपनियों के पास बीएस तकनीक से निर्मित करीब सवा 8 लाख वाहन विक्रय के लिए खड़े हुए हैं। रोक के बाद इन्हें खपाना मुश्किल हो गया है। दरअसल कंपनियां इस बहम में थी कि अपने हितों की लाॅबिंग कराकर तय समय सीमा टलवा देंगी। केंद्र सरकार भी कंपनियों के पक्ष में खड़ी थी।
सुप्रीम कोर्ट में कंपनियों के वकील ने अजीब दलील देते हुए कहा कि अप्रैल 2020 से वे सीधे वाहन निर्माण में बीएस-6 तकनीक अपना लेंगे। ये सही है कि अदालत का यह आदेश वाहन उद्योग के लिए बड़ा संकट है, लेकिन इसके लिए खुद कंपनियां ही जुम्मेबार है। केंद्र सरकार ने जनवरी 2016 में ही ऐलान कर दिा था कि एक अप्रैल 2017 से वाहनों में प्रदूषण नियंत्रण का नया मानक बीएस-4 लसगू हो जाएगा। बावजूद कंपनियां बीएस-3 तकनीक वाले वाहनों के निर्माण में लगी रहीं। साफ है, इसके लिए दोषी कंपनियां ही है। जबकि इस तकनीक को अपनाने में उन्हें कोई परेशानी भी नहीं थी। इसीलिए अदालत ने ‘सोसायटी आॅफ इंडियन आॅटो मोबाइल मैन्युफैक्चरर्स‘ की नए प्रतिमान पर अमल टालने का निवेदन ठुकरा दिया। इस बाबत अदालत ने तार्किक सवाल पूछा कि जब कंपनियों को बीएस-3 पर प्रतिबंध लगने की तारिख पूर्व से ज्ञात थी तो फिर उन्होंने इस तकनीक के वाहनों उत्पादन क्यों किया ? इस प्रश्न का सोसायटी के पास कोई उत्तर नहीं था, लिहाजा चुप हो गई। गौरतलब है कि भारत वाहन निर्माण के क्षेत्र में दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा देश है। भारत से जितना प्रदूषण होता है, उसका 50 फीसदी वाहनों से होता है।
औद्योगिक विकास, बढ़ता शहरीकरण और उपभोगक्तावादी संस्कृति, आधुनिक विकास के ऐसे नमूने हैं, जो हवा, पानी और मिट्टी को एक साथ प्रदूषित करते हुए समूचे जीव-जगत को संकटग्रस्त बना रहे हैं। यही वजह है कि आदमी प्रदूषित वायु की गिरफ्त में है। दिल्ली के वायुमंडल में वायु प्रदुषण की मात्रा 60 प्रतिशत से अधिक हो गई है। भारत में औद्योगीकरण की रफ्तार भूमण्डलीकरण के बाद तेज हुई। एक तरफ प्राकृतिक संपदा का दोहन बढ़ा तो दूसरी तरफ औद्योगिक कचरे में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई। लिहाजा दिल्ली में जब शीत ऋृतु दस्तक देती है तो वायुमण्डल में आर्द्रता छा जाती है। यह नमी धूल और धुएं के बारीक कणों को वायुमण्डल में विलय होने से रोक देती है। नतीजतन दिल्ली के ऊपर एकाएक कोहरा आच्छादित हो जाता है। वातावरण का यह निर्माण क्यों होता है, मौसम विज्ञानियों के पास इसका कोई स्पष्ट तार्किक उत्तर नहीं है। वे इसकी तात्कालिक वजह पंजाब एवं हरियाणा में खेतों में जलाए जाने वाले फसल के डंठलों को बताकर जिम्मेबारी से पल्ला झाड़ लेते हैं। यदि वास्तव में इसी आग से निकला धुंआ दिल्ली में प्रदूषण का पर्याय होता तो यह स्थिति चंडीगढ़,अमृतसर,लुधियाना और जालंधर जैसे बड़े शहरों में भी दिखती, लेकिन नहीं दिखी। अलबत्ता इसकी मुख्य वजह हवा में लगातार प्रदूषक तत्वों का बढ़ना है। दरअसल मौसम गरम होने पर जो धूल और धुंए के कण आसमान में कुछ ऊपर उठ जाते हैं,वे सर्दी बढ़ने के साथ-साथ नीचे खिसक आते हैं। दिल्ली में बढ़ते वाहन और उनके सह उत्पाद प्रदूषित धुंआ और सड़क से उड़ती धूल अंधियारे की इस परत को और गहरा बना देते हैं। इस प्रदूषण के लिए बढ़ते वाहन कितने दोषी हैं,इस तथ्य की पुष्टि इस बात से होती है कि दिल्ली में जबं ‘कार मुक्त दिवस‘ आयोजित किया गया था, तब थोड़े समय में वायु प्रदूषण करीब 26 पतिशत कम हो गया था।
कारों समेत कोई भी डीजल वाहन एक समान रूप से प्रदूषण नहीं फैलाते। प्रदूषण की मात्रा वाहन निर्माण की तकनीक और हालात पर निर्भर रहती हैं। इस लिहाज से कारों से फैलने वाले प्रदूषण नियंत्रण के उपाय ज्यादा व्यावहारिक होने जरूरी हैं। वाहनों से होने वाले वायु प्रदूषण को कम करने के मकसद से भारत ने स्टेज एमिशन स्टैंडर्ड यानी बीएस तकनीक से जुड़े मानक तय किए और इन्हें चरणबद्ध तरीके से लागू करने के लिए भारत सरकार ने 2002 में वाहन ईधन नीति घोषित की। बीएस-3 तकनीक से निर्मित वाहन वर्ष 2005 में शुरू हुए। इन्हें 31 मार्च 2017 तक बेचने की अनुमति थी। अब बीएस-4 तकनीक के वाहन ही बेचे जाएंगे। संयुक्त राष्ट्र के उत्सर्जन नियमों के साथ चलने के लिए सरकार का इरादा बीएस-5 को नजरअंदाज कर सीधे बीएस-6 को 2020 में लागू करने की मंशा है। लेकिन कंपनियां जिस तरह से सरकार और अदालत के आदेशों की अवहेलना करने में लगी हैं, उससे लगता है कि सरकार शायद ही 2020 में बीएस-6 वाहन तकनीक लागू कर पाए?
वाहन प्रदूषण की वजह से लोगों में गला,फेफड़ें और आंखों की तकलीफ बढ़ रही हैं। कई लोग मानसिक अवसाद की गिरफ्त में भी आ रहे हैं। हालांकि हवा में घुलता जहर महानगरों में ही नहीं छोटे नगरों में भी प्रदूषण का सबब बन रहा है। कार-बाजार ने इसे भयावह बनाया है। यही कारण है कि लखनऊ, कानपुर, अमृतसर, इंदौर और अहमदाबाद जैसे शहरों में भी प्रदूषण खतरनाक स्तर की सीमा लांघने को तत्पर है। उद्योगों से धुंआ उगलने और खेतों में बड़े पैमाने पर औद्योगिक व इलेक्ट्रोनिक कचरा जलाने से भी इन शहरों की हवा में जहरीले तत्वों की सघनता बढ़ी है। इस कारण दिल्ली दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शामिल है। वैसे भी दुनिया के जो 20 सर्वाधिक प्रदूषित शहर हैं,उनमें भारत के 13 शहर शामिल हैं।
बढ़ते वाहनों के चलते वायु प्रदूषण की समस्या पूरे देश में भयावह होती जा रही है। मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ के लगभग सभी छोटे शहर प्रदूषण की चपेट में हैं। डीजल व घासलेट से चलने वाले वाहनों व सिंचाई पंपों ने इस समस्या को और विकराल रूप दे दिया है। केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड देश के 121 शहरों में वायु प्रदूषण का आकलन करता है। इसकी एक रिपोर्ट के मुताबिक देवास, कोझिकोड व तिरुपति को अपवाद स्वरूप छोड़कर बांकी सभी शहरों में प्रदूषण एक बड़ी समस्या के रूप में अवतरित हो रहा है। इस प्रदूषण की मुख्य वजह तथाकथित वाहन क्रांति है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का दावा है कि डीजल और कैरोसिन से पैदा होने वाले प्रदूषण से ही दिल्ली में एक तिहाई बच्चे सांस की बीमारी की गिरफ्त में हैं। 20 फीसदी बच्चे मधुमेह जैसी लाइलाज बीमारी की चपेट में हैं। इस खतरनाक हालात से रुबरू होने के बावजूद दिल्ली व अन्य राज्य सरकारें ऐसी नीतियां अपना रही हैं, जिससे प्रदूषण को नियंत्रित किए बिना औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन मिलता रहे। इस लिहाज से यह फैसला देश के लिए बेहद अहम है।