भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अठारहवीं शताब्दी के शुरु में ही हुई दो लड़ाइयाँ अपना ऐतिहासिक महत्व रखती हैं । इन दोनों लड़ाईयों ने पश्चिमोत्तर भारत में विदेशी मुग़ल वंश के कफ़न में कील का काम किया । ये लडाईयां थीं पंजाब में सरहिन्द और गुरदास नंगल की लडाई । इन दोनों लड़ाईयों का नेतृत्व बंदा सिंह बहादुर ने किया । बंदा सिंह बहादुर को इस संग्राम के लिए गुरु गोविन्द सिंह ने तैयार किया था । मध्य एशिया से आए मुग़ल वंश ने भारत पर क़ब्ज़ा करने की शुरुआत 1526 में की थी । जिन दिनों इस वंश के बाबर ने हिन्दोस्तान पर हमला किया था , उन्हीं दिनों भारत में एक ऐतिहासिक गुरु परम्परा प्रारम्भ हुई थी , जिसके वानी गुरु नानक देव थे । उसी गुरु परम्परा के दशम गुरु श्री गोविन्द सिंह हुए ।
गुरु गोविन्द सिंह जी का जन्म 1666 में हुआ था और लक्ष्मण देव ( जो कालान्तर में बंदा सिंह बहादुर के नाम से विख्यात हुए) का जन्म 1670 ( मृत्यु 9 जून 1716) में हुआ था । गोविन्द राय का जन्म उस पाटलिपुत्र में हुआ था , जहाँ से शताब्दियों पहले अशोक महान की सेनाएँ निकलीं थीं और लक्ष्मण देव का जन्म उस जम्मू कश्मीर में हुआ था , जहाँ से सम्राट ललितादित्य ने कभी सांस्कृतिक भारत का स्वप्न देखा था । लक्ष्मण देव का जन्म राजौरी में हुआ था । लक्ष्मण देव और गोविन्द सिंह जी का आपस में कोई पारिवारिक सम्बंध नहीं था , लेकिन कालान्तर में दोनों का ऐसा सम्बंध विकसित हुआ जिसने भारत का इतिहास बदल दिया ।
लेकिन इस इतिहास को जानने से पहले भारत में विदेशी मुग़ल वंश के बारे में लाभदायक होगा । भारत में मुग़ल वंश का क़ब्ज़ा मध्य एशिया के बाबर (1483-1530) के हमले से शुरु हुआ था । बाबर के हमले से पहले दिल्ली पर अफ़ग़ानिस्तान के इब्राहीम लोदी का राज चल रहा था । अफ़ग़ानी लोदियों में फूट पड़ गई थी । इब्राहिम लोदी के परिवार के एक दौलत खान लोदी ने इब्राहिम लोदी को शासन च्युत करने के लिए मध्य एशिया से बाबर को हमले के लिए निमंत्रण भेजा । बाबर इस अवसर की तलाश में ही था । समरकन्द में वह तीसरी बार हार चुका था । पानीपत के स्थान पर 1526 को लोदी और बाबर की सेना का भयंकर युद्ध हुआ । इब्राहिम लोदी की पराजय हुई और बाबर ने जीत हासिल की । भारत भूमि से एक विदेशी शासन का अन्त हुआ और दूसरे विदेशी शासन का प्रारम्भ हुआ ।
लेकिन इसके साथ ही मुग़ल वंश को भारत से उखाड़ फेंकने का संघर्ष भी उसी समय शुरु हो गया था । अगले साल ही 1527 में राजस्थान के राणा सांगा ने आगरा के पास खानवा गाँव में बाबर की विदेशी सेना को ललकारा । भयंकर युद्ध हुआ । भारत माता का दुर्भाग्य ही कहना होगा की राणा सांगा पराजित हो गए और विदेशी साम्राज्य की जड़ें जमने लगीं । इसे ईश्वरीय संकेत ही कहा जाना चाहिए कि उत्तरी भारत के कुछ हिस्से पर क़ब्ज़ा जमा लेने के चार साल बाद ही 1530 में बाबर की मौत हो गई । लेकिन इसी बीच बाबर के क़ब्ज़े में पेशावर से लेकर आगरा तक का सारा इलाक़ा आ चुका था । इसमें उस समय का पूरा पंजाब व दिल्ली आगरा आता है । लेकिन दस साल बाद ही हुमांयू को भारत से भागना पडा । एक दूसरी विदेशी ताक़त अफगानों ने अपनी पूर्व स्थिति को प्राप्त करने की कोशिश की । लेकिन दस साल बाद 1555 में हुमांयू इरानी सहायता से फिर भारत में घुसने में कामयाब हो गया । लेकिन 1556 में उनकी मौत हो गई । उनके मरने पर अकबर (1556-1605) ने उसके उत्तराधिकारी के रूप में भारत पर उज्बेकों का क़ब्ज़ा जारी रखा । लेकिन मुग़ल सत्ता को एक बार फिर चुनौती मेवाड़ की ओर से ही मिली । 1576 में महाराणा प्रताप के नेतृत्व में अकबर की सेना को चुनौती दी गई । हल्दीघाटी की लड़ाई के नाम से विख्यात इस युद्ध ने अकबर को चैन से नहीं बैठने दिया । महाराणा प्रताप की शौर्य कथा लोक गाथाओं में बदल गई । अकबर को लम्बे काल तक राजस्थान के अनेक हिस्सों में विद्रोहों से जूझते रहने पडा । 1597 में महाराणा प्रताप की मौत हुई तो अकबर चैन से बैठ सका । अकबर के बाद मुग़ल वंश की पताका जहांगीर (1605-1627) के हाथ में आ गई ।
अब एक बार फिर उस दश गुरु परम्परा की बात जिसका ज़िक्र हमने उपर किया है । 1469 में भारत भूमि पर गुरु नानक देव का जन्म हुआ था । 1526 में जब बाबर अपनी सेना लेकर अफ़ग़ानिस्तान को पार करता हुआ पंजाब की ओर बढ़ा तो गुरु नानक देव जी ने इसके दूरगामी दुष्परिणामों को देख लिया था और इसे हिन्दुस्तान पर हमला घोषित कर भविष्य की रणनीति का संकेत भी दे दिया था । सत्रहवीं शताब्दी के शुरु में ही बाबर के उज्बेक वंश की चौथी पीढ़ी ने भारत के कुछ हिस्सों की सत्ता सँभाली तो उधर गुरु नानक देव जी द्वारा स्थापित गुरु परम्परा के पाँचवें गुरु श्री अर्जुन देव जी गद्दीनशीन हुए । अर्जुन देव जी के नेतृत्व में भारत नई अँगड़ाई ले रहा था । जहांगीर ने गद्दी पर बैठते ही अपना पहला प्रहार किया । गुरु अर्जुन देव जी को 1606 में मुग़ल वंश ने शहीद कर दिया । अब विदेशी मुग़ल वंश को भारत से बाहर निकालने का एक नया मोर्चा पंजाब में शुरु हो गया था । अभी तक यह लड़ाई राजस्थान के रेगिस्तानों में ही लडी जा रही थी । जैसे जैसे मुग़ल वंश की सेनाएँ भारत में आगे बढ़ती जा रहीं थीं वैसे वैसे उनके ख़िलाफ़ संघर्ष भी फैलता जा रहा था । सत्रहवीं शताब्दी के मध्य तक आते आते मुग़ल वंश की कमान औरंगज़ेब (1658-1707) ने संभाल ली । लेकिन इस शताब्दी के मध्यकाल तक मुग़लों के विरोध के भी अनेक मोर्चे खुल चुके थे । पंजाब में हिन्द की चादर गुरु तेगबहादुर ने इस का विरोध किया तो औरंगज़ेब ने उन्हें दिल्ली में शहीद करवा दिया । उधर असम को औरंगज़ेब की सेनाएँ घेरे हुए थीं । भारत का उत्तर पूर्व ख़तरे में था । यहाँ मुग़ल वंश की ताक़त को असम सेनापति लचित बडफूकन ने ब्रह्मपुत्र की लहरों पर सरायघाट में 1671 में औरंगज़ेब की सेना को शिकस्त दी । उधर दक्षिण में शिवाजी महाराज ( 1630-1680) ने मुग़ल वंश को गहरी शिकस्त दी और 1674 में मुग़ल वंश की विजय पताका का उपहास करते हुए अपना राज्याभिषेक किया । मुग़ल सत्ता का व्यवहारिक अन्त महाराष्ट्र में हो गया था । औरंगज़ेब ने किसी तरह पंजाब में क़िला बचाए रखने का प्रयास किया । उसने हिन्द की चादर गुरु तेग़ बहादुर जी को 1675 में शहीद करवा दिया । हिन्द की चादर के सुपुत्र श्री गुरु गोविन्द सिंह जी ने 1699 में शिवालक की उपत्यकाओं में एक राष्ट्रीय सम्मेलन कर ख़ालसा पंथ की स्थापना कर दी । यही ख़ालसा पंथ कालान्तर में मुग़ल वंश का काल सिद्ध हुआ ।
गुरु गोविन्द सिंह जी ने पंजाब में मुग़ल वंश की नींव को हिला दिया था । बाबर से शुरु हुआ मुग़ल वंश औरंगज़ेब तक आते आते लड़खड़ाने लगा था । पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों दिशाओं में उसे घेर लिया गया था । अंतिम प्रहार गुरु गोविन्द सिंह जी ने किया । मुग़ल वंश का पतन शायद कहीं पहले हो जाता , लेकिन घर के जयचन्दों ने लड़ाई को लम्बी खींच दिया । इन संघर्षों का ही परिणाम था कि औरंगज़ेब की मौत के बाद लाल क़िले की सत्ता कमज़ोर होती गई । औरंगज़ेब की मौत के बाद गुरु गोविन्द सिंह जी भी उसी ओर प्रस्थान कर गए थे जहाँ शिवाजी ने मुग़ल सत्ता को परास्त कर दिया था । आगे की लड़ाई जारी रखने के लिए उन्हें किसी योग्य पात्र की तलाश थी । बंदा बहादुर गुरु जी की उसी तलाश का उत्तर था ।
पंजाब में मुग़ल वंश की सत्ता के दो बड़े केन्द्र सरहिन्द और लाहौर थे । सरहिन्द का नबाव वज़ीर खान बहुत ही ज़ालिम और खूंखार था । उसने गुरु गोविन्द सिंह जी के दो अबोध पुत्रों को दीवारों में चिनवा कर शहीद कर दिया था । वह केवल शासक नहीं था बल्कि भारतीयों को बलपूर्वक अपने मज़हब इस्लाम में दीक्षित करके सबसे बड़ा ग़ाज़ी भी बना हुआ था । मध्य एशिया के इन मुग़ल शासकों को पंजाब के मैदानों में पहली बार चुनौती ख़ालसा पंथ ने दी थी जिसका निर्माण गोविन्द सिंह जी ने 1699 में शिवालक की उपत्यकाओं में किया था । इधर पंजाब में गुरु गोविन्द सिंह जी का ख़ालसा मुग़ल साम्राज्य को चुनौती देकर राष्ट्र मुक्ति का रास्ता तलाश रहा था उधर नांदेड में गोदावरी के तट पर माधोदास दास अपनी तपस्या में लीन इस नश्वर संसार से अपनी मुक्ति का रास्ता तलाश रहा था । राजौरी से चला लक्ष्मण देव ही गोदावरी तट पर तपस्या में लीन माधोदास था । गुरु गोविन्द सिंह जी भी यात्रा करते हुए नांदेड पहुँचे । पता चला गोदावरी के तीर पर माधोदास सन्यासी तपस्या कर रहा है । महाराष्ट्र में दोनों की भेंट गोदावरी के तट पर सितम्बर 1708. में हुई । गुरु जी ने माधोदास दास को स्व मुक्ति के स्थान पर राष्ट्र मुक्ति का मंत्र दे दिया । तुम अपनी मुक्ति तलाश रहे हो उधर पूरा देश आततायियों के अत्याचारों से त्रस्त है । उसे इस समय उचित नेतृत्व की आवश्यकता है । मानो माधो दास को मंत्र मिल गया हो । मध्य एशिया से आकर भारत पर राज्य कर रहे मुग़लों के अत्याचारों से साधारण जन की मुक्ति का मंत्र । गुरु जी ने अपने शिष्यों का दरबार बुलाया । उन्होंने माधोदास वैरागी को बंदा बहादुर बना दिया । गुरु जी ने माधोदास दास को पंजाब चले जाने की सलाह दी जहाँ राष्ट्र मुक्ति का यज्ञ हो रहा था और ख़ालसा अपने प्राणों की आहुति उसमें डाल रहे था । उस यज्ञ की ज्वाला मंद न पड जाए , यही माधो दास को देखना था । स्वतंत्रता की ज्वाला को निरन्तर प्रज्वलित किए रहना । इससे पहले महाराष्ट्र में आने से पहले गुरु जी 1705 में औरंगज़ेब के नाम जफरनामा लिख कर आए थे । जफरनामा यानि विजय का पत्र । गुरु जी ने जफरनामा के माध्यम से एक प्रकार से भविष्यवाणी कर दी थी अब मुग़ल वंश की पराजय ज़्यादा दूर नहीं है । बंदा बहादुर को अब उसी भविष्यवाणी को पूरा करना था । सितम्बर 1708 के अन्त में माधो दास जो अब बंदा बहादुर बन गया था , गुरु जी का आशीर्वाद प्राप्त करके पश्चिमोत्तर की ओर चल पडा , जहाँ उसे मुग़ल वंश के शासन का अन्त करना था । स्वतंत्रता की उस चिन्गारी को सुलगाए रखना था जिसे गुरु गोविन्द सिंह जी ने अपने समस्त परिवार की आहुति देकर जलाया था । उधर सरहिन्द का नबाब वज़ीर खान भी चुप नहीं बैठा था । वह दक्षिण भारत में भी गुरु जी की पदचापों को कान लगाए सुन रहा था । उधर गुरु जी ने बंदा बहादुर को पंजाब की ओर प्रस्थान करवाया , इधर सरहिन्द के नबाब के भेजे पठान गुरु जी के पास नान्देड पहुँच गए । उन्होंने धोखे से गुरु जी पर उस समय घातक शस्त्र प्रहार किया जब वे तपस्या में लीन थे । यही प्रहार अन्ततः प्राणलेवा सिद्ध हुआ । 7 अक्तूबर 1708 के दिन भारत के आकाश से एक सूर्य अस्त हो गया । इस सूर्य के अस्त होने की सूचना बंदा बहादुर को मिली । वह अभा नान्देड से बहुत दूर नहीं गया था । उसका चित्त दोलायमान हो गया । वापिस जाकर अपने गुरु के पार्थिव शरीर को श्रद्धा सुमन अर्पित करे या फिर पीछे मुड़ कर न देखे । आगे बढता जाए , उस कार्य की पूर्ति के लिए जिसे गुरु जी उसे सौंप कर परलोक को प्रस्थान कर गए थे । चरैवेति चरैवेति ।
मुग़ल वंश के शासक औरंगज़ेब की भी मौत हो चुकी थी । उसका उत्तराधिकारी बहादुर शाह प्रथम (1707-1712) दिल्ली के लाल क़िले से मध्य एशिया का परचम ज़िन्दा रखे हुए था । उसे भी सूचना मिल चुकी थी कि गोदावरी तट का साधक गुरु जी की प्रेरणा से अब राष्ट्र साधक बन गया था और स्थान स्थान पर लोगों के हाथों में स्वतंत्रता की मशाल थमाता हुआ उत्तर-पश्चिम की ओर अग्रसर है । मुग़ल रास्ते में ही बंदा बहादुर को पकड़ लेना चाहते थे ताकि स्वतंत्रता की आग जन जन के सीने में न धडक उठे । उधर बंदा बहादुर भी दिल्ली से बचता हुआ पंजाब की ओर बढ़ रहा था ताकि सरहिन्द से मुग़ल सत्ता उखाड़ तक लाल क़िले को घेरा जाए । सरहिन्द की धरती बंदा बहादुर की प्रतीक्षा कर रही थी । यहीं गुरु जी के दो सुपुत्रों ने अन्याय और मतान्तरण का विरोध करते हुए आत्माहुति दी थी । बंदा बहादुर को मुग़ल गुप्तचरों को धोखा देते हुए किसी भी क़ीमत पर सरहिन्द की धरती पर नबाब वज़ीर खान की बलि देकर धरती माँ का कर्ज चुकाना था । बंदा बहादुर महाराष्ट्र से राजस्थान के रास्ते से होता हुआ हिसार पहुँच ही गया । राजस्थान में पहले ही विदेशी मुग़ल शासकों के ख़िलाफ़ विद्रोह की चिन्गारियां सुलग रहीं थीं । इसलिए राजस्थान के रेगिस्तानों में सुरक्षित रहना मुश्किल नहीं था । यही कारण था कि बंदा बहादुर को नान्देड से हिसार तक पहुँचने में एक साल लग गया । लेकिन इसका लाभ भी हुआ । महाराष्ट्र से पंजाब तक हल्ला पड़ गया कि मुग़ल वंश की क़ब्र पंजाब के मैदानों में तैयार हो गई है । बंदा बहादुर हिसार होते हुए , टोहाना, सोनीपत, कैथल, सामाना और सढौरा तक आ पहुँचा । इन सभी स्थानों का राज्य उसने अपने अधीन कर लिया । मुग़ल शासकों द्वारा अपने समर्थकों को दी गई जिमींदारियां समाप्त कर दीं । ज़मीन उसी की जो उसे जोतेगा । मुग़ल सत्ता के अधिकारियों को पदच्युत कर नये अधिकारी नियुक्त किए । यह बंदा बहादुर प्रभाव ही था कि डाके और राहजनी समाप्त हो गई । मुग़ल सत्ता से लड़ने के इच्छुक युवक दूर दूर से खिंचे आने लगे । मुग़ल सत्ता के प्रतीक सरहिन्द पर हमला करने से पहले बंदा बहादुर को शक्ति का संचय करना था । उसने सढौरा से लगभग पाँच कोस दूर , नाहन नगर के दक्षिण में शिवालक की उपत्यकाओं में मुखलीसर नामक स्थान पर फरवरी 1710 में अपनी राजधानी स्थापित की । बंदा बहादुर ने इसका नामकरण लोहगढ किया । लोहगढ का दुर्ग पर्वत शिखर पर स्थित था । जल्दी ही लोहगढ विदेशी सत्ता के विरोध का प्रतीक बन गया । दोनों ओर से तैयारियाँ होने लगीं ।
बंदा बहादुर को अन्ततः सरहिन्द में ही मुग़ल सल्तनत से दो दो हाथ करने थे । इसलिए वह अपनी मुक्ति का मोह छोड़ कर राष्ट्र मुक्ति के लिए इस नए रास्ते का पंथिक बना था । दिन रात इसी की तैयारियों में लगा रहता ।नबाब वज़ीर खान ने भी हवा को सूंघ लिया । हवा ही बताने लगी थी कि इस बार का मुक़ाबला अभूतपूर्व होगा । उसने भी मुक़ाबला करने के लिए तैयारियाँ शुरु कर दीं । अल्लाह हू अकबर के नारों से आकाश गूँजने लगा ।
उधर बंदा बहादुर के बारे में भी जन उत्साह बढ़ता जा रहा था । जन जन में चर्चा हो रही थी । बंदा बहादुर को कोई नहीं मार सकता । वह चाहे तो पूरी सेना को अदृष्य कर दे । जब चाहे अपने पक्ष में भूत प्रेतों को बुला ले । वायु देवता उसके संकेत पर चलते हैं । उसकी इच्छा हो तो क्षण भर में अंधड़ आ जाए । दिन में अंधेरा हो जाए । वह चाहे तो वज़ीर खान को कुत्ता बना कर दरबाजे पर बाँध ले । अस्त्र शस्त्र तो उसके पास से गुज़र नहीं सकता । ज़ाहिर है कि मुग़ल सेना में बंदा बहादुर की अलौकिक शक्तियों को लेकर भय उत्पन्न होता । बंदा बहादुर ने लगभग तीन महीने अपने प्रशासन को स्थापित करने में लगाए । अब वह और समय नहीं गँवा सकता था । उसे अपने लक्ष्य को भेदना था , जिसके लिए वह गोदावरी तट से चल कर शिवालक की उपत्यकाओं में पहुँचा था । सरहिन्द विजय का जयघोष बंदा बहादुर ने कर दिया था । वह अपनी जन सेना लेकर सरहिन्द की ओर चल पडा । सरहिन्द से बीस किलोमीटर पहले चप्पडचिडी नामक स्थान पर वज़ीर खान की सेना से मुक़ाबला हुआ । 12 मई 1710 का दिन था । चप्पडचिडी की धरती पर उस दिन इतिहास रचा गया । दो जिन लड़ाई चली और उसका अन्त 14 मई को नबाब वज़ीर खान की मौत में हुआ । नबाब के मरते ही मुग़ल सेना में भगदड़ मंच गई और उसके पैर उखड़ गए । बंदा बहादुर को फ़तह हासिल हुई । एक सैनिक वज़ीर खान का सिर काट कर भाले पर लगा कर हाथी के हौदे पर जा बैठा । विजयी सेना जयघोष करती हुई सरहिन्द की ओर बढ़ चली । शाम होते होते विजयी सेना सरहिन्द के दरवाज़े तक पहुँच गई । अगले दिन दोपहर होते होते सरहिन्द के दरवाज़े टूट गए और २८ परगना वाले इस प्रान्त पर बंदा बहादुर का क़ब्ज़ा हो गया । मुग़ल सत्ता का अन्त हुआ । बंदा बहादुर ने प्रान्त का प्रशासन चलाने के लिए अनेक अधिकारी नियुक्त किए और स्वयं लोहगढ को वापिस चला गया । 14 मई 1710 से सरहिन्द स्वतंत्र हुआ और वहीं से शुरु हुई बंदा बहादुर की लाहौर को भी स्वतंत्र करवा लेने की रणनीति । वह अपनी जन सेना लेकर जून 1710 को लाहौर की ओर चल पडा । मलेरकोटला, मोरिंडा , होशियारपुर, जालन्धर , बटाला , अमृतसर, से होता हुआ , सब स्थानों से मुगलसत्ता का अन्त करता हुआ बंदा बहादुर लाहौर के दरवाज़ों तक पहुँच गया । लाहौर का सूबेदार उस समय सैयद वंश का इस्लाम खान था । सैयद लोग भारत में इस्लाम स्थापित करने के लिए अरब से आए थे और यहाँ मुग़लों से मिल गए थे । उसने लाहौर शहर के तमाम दरवाज़े बंद करवा दिए थे । बंदा बहादुर ने लाहौर की घेराबन्दी कर दी । लाहौर के अन्दर तो बंदा बहादुर दाख़िल नहीं हो सका लेकिन शहर की दीवारों से बाहर इस्लाम खान का शासन व्यवहारिक रूप से समाप्त हो गया था । लाहौर से दिल्ली के बीच का सारा इलाक़ा स्वतंत्र हो चुका था ।
लेकिन इसके साथ ही दिल्ली में मुग़ल सल्तनत के लिए ख़तरे की घंटी बजने लगी थी । दिसम्बर 1710 तक बहादुर शाह ने बंदा को पकडने के लिए आदेश जारी कर दिए । लेकिन बंदा बहादुर था कि उसका कुछ पता नहीं चल रहा था । क्या धरती निगल गई ? आम जनता में तो पहले ही बंदा बहादुर की अलौकिक शक्तियों की प्रसिद्धि थी । बंदा बहादुर की तलाश पंजाब के मैदानों में हो रही थी लेकिन वे अपने पुश्तैनी इलाक़ों में चले गए थे । वे पहाड़ के भीतर चले गए थे । वहाँ उन्होंने विवाह कर लिया था । वे अब गृहस्थी जीवन में चले गए थे । एक बेटे के पिता बन गए थे । लेकिन आख़िर वे कब तक शिवालक की पहाड़ियों में गुमनाम जीवन जीते रहते । वे वापिस रणक्षेत्र में आ गए । इस बार उन्होंने अपना मोर्चा गुरुदासपुर के पास गुरुदासपुर नंगल नामक स्थान पर लगाया । सरहिन्द के बाद अब गुरुदासपुर नंगल में भारत का नया इतिहास लिखा जाने वाला था ।
उधर दिल्ली के तख़्त पर 1713 में फारुख सियार बैठा , इधर गुरुदासपुर नंगल में हवाएँ आग उगलने लगीं । स्थान स्थान से स्वतंत्रता सेनानी गुरुदासपुर नंगल में एकत्रित होने लगे । मुग़ल सेनाओं ने गुरुदासपुर नंगल को घेर रखा था । बंदा बहादुर ने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपना लिया था । थोड़ी सी संख्या में बंदा के सैनिक बाहर निकलते । अचानक मुग़ल सेना पर धावा बोलते । जब तक मुग़ल सेना कुछ समझ पाती तब तक वे अपना काम पूरा कर ग़ायब हो जाते । अनेक बार अफ़वाह उड़ती कि बंदा बहादुर एक साथ ही कई स्थानों पर देखें गए । मुग़ल सेना के होश फ़ाख्ता हो जाते । उधर दिल्ली से आदेश आता , किसी भी तरह बंदा को ज़िन्दा या मुर्दा पकड़ कर पेश किया जाए । आठ मास तक लुका छिपी का यह खेल चलता रहा । घेरा सख़्त होता जा रहा था । उसके कुछ साथी साथ छोड़ कर चुपचाप वहाँ से चले भी गए । नवम्बर 1715 तक तिलें के अन्दर सैनिकों के भूखे मरने की नौबत आ गई । आर पार की स्थिति हो गई थी । बंदा बहादुर ने 17 दिसम्बर को क़िले के दरवाज़े खोल दिए । अंतिम लड़ाई लड़ी गई । दोनों पक्षों के अनेक लोग मारे गए । मुग़ल सेना ने दो सौ सैनिकों को बंदी बना लिया । बंदा बहादुर को ज़ंजीरों में जकड़ दिया गया । सिक्खों के सिर काट कर नेजों पर लहराए जाने लगे । ज़ंजीरों में बँधे हुए लगभग सात सौ का यह क़ाफ़िला बंदा बहादुर समेत लाहौर से होता हुआ दिल्ली की ओर चल पडा । तीन सौ कटे हुए सिर छकडों में लाद कर साथ ले जाए जा रहे थे । 29 फरवरी 1716 को यह क़ाफ़िला दिल्ली पहुँचा । कई दिन तक इन बंदियों का सार्वजनिक क़त्लेआम होता रहा । मुग़ल शासकों ने इन बंदियों को बचने के लिए मुसलमान बन जाने का विकल्प दिया । लेकिन सभी ने मरना क़बूल किया पर इस्लाम स्वीकार करना नहीं ।
अन्त में 9 जून 1716 को बंदा बहादुर को ज़ंजीरों में बाँध कर लाया गया । उनका पिंजरा हाथी पर रखा हुआ था । उसकी गोद में उनका चार साल का बेटा अजय सिंह था । मुग़ल सैनिकों ने अजय को मार कर उसका जिगर बंदा बहादुर के मुँह में डाल दिया । उनकी आँखें निकाल ली गईं । फिर एक एक कर उनके शरीर के अंग काट डाले गए । फिर चमड़ी उतारी गई । अन्त में उनका शीश काट दिया । स्वतंत्रता के इतिहास के एक और अध्याय का अन्त हो गया ।
स्वतंत्रता संग्राम के इस अध्याय को बीते आज तीन सौ साल हो गए हैं । चप्पडचिडी की लड़ाई ने मुग़ल साम्राज्य की कब्र खोद दी थी । लेकिन छोटी चप्पडचिडी और बड़ी चप्पडचिडी में उस अध्याय का कोई निशान नहीं बचा था । पंजाब सरकार ने भारतीय इतिहास के इस स्वर्णिम अध्याय को अमर करने के लिए विजय स्तम्भ का निर्माण किया और उसका 30 नबम्वर 2011 को उद्घाटन किया ।