न्यायालय से मिली ग्रामसभा को शक्ति
संदर्भ:- वेदांता समूह को बाक्साइट खनन में झटका –
प्रमोद भार्गव
वेदांता जैसी खनिज उत्खनन की बहुराष्ट्रीय कंपनी और ओड़ीसा राज्य सरकार को शायद पहली बार अहसास हुआ है कि पंचायत राज और ग्रामसभा के अधिकारों की कितनी अहम भूमिका ग्राम विकास में अतंनिर्हित है। पंचायत और वनाधिकार कानून की यह न्यायिक व्याख्या ऐसी राज्य सरकारों के लिए एक सबक है, जो इन कानूनों को ताक पर रखकर देश की प्राकृतिक खनिज संपदाओं को खुले हाथ लुटाने में लगी हैं। इस दृष्टि से ओड़ीसा की नियमगिरी की पहाडि़यों पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बाक्साइट के उत्खनन प्रक्रिया पर जो रोक लगार्इ है, उसे पूंजीवादी समर्थक विधायिका व कार्यपालिका में न्यायालय का अनावश्यक हस्तक्षेप कह सकते हैं, लेकिन यहां गौरतलब है कि न्यायालय ने खुद व्यापार की कोर्इ नर्इ कानूनी संहिता रची है, बलिक अदालत ने पहले से ही प्रचलन में आए ‘पंचायती राज अनुसूचित क्षेत्र विस्तार अधिनियम ;पेसा और आदिवासी एवं अन्य वनवासी भूमि अधिकार अधिनियम ;वनाधिकार कानून में तय मानदण्डों के आधार पर ही अपना फैसला दिया है। अदालत ने तो सिर्फ यह रेखांकित किया है कि इन कानूनों के तहत आदिवासी क्षेत्रों में स्थानीय खनिज संपदाओं के उपयोग के संबंध में ग्रामसभाएं पूरी तरह अधिकार संपन्न है और उनकी अनुमति के बिना कोर्इ कंपनी या राज्य सरकार बेज़ा दखल नहीं दे सकती ? साथ ही, कार्यपालिका ग्रामसभा के निर्णय को मौके पर पालन कराने के लिए बाध्यकारी है।
न्यायमूर्ति आफताब आलम, केएस राधाकृष्णन और रंजन गोगोर्इ की खंडपीठ ने आदिवासियों के जमीन से जुड़े अधिकार सुनिश्चित करने के साथ ही, उनके दैवीय आस्था से जुड़े सवालों का निर्धारण करने का अधिकार भी ग्रामसभा को दिया है। इस नाते नियमगिरी पहाडि़यों की परंपरागत मान्यता के अनुसार नियमगिरी की चोटियों को आदिवासी ‘देवी का प्रतिरुप मानते हैं। जाहिर है, उनकी इस मान्यता पर उच्च्तम न्यायालय ने मोहर लगा दी है। यानी लंदन के अनिल अग्रवाल के वेदांता समूह को मिले खनन के अधिकार पर ग्रहण लगने जा रहा है। वैसे भी अब जमीन पर सामुदायिक हक किसका हो यह फैसला भी ग्रामसभा लेगी। नियमगिरी की ये पहाडि़यां जहां धरातल पर घने वनों से आच्छादित हैं, वहीं इनके गर्भ में समाए 8 करोड़ टन बाक्साइट को निकालकर वदांता की मालामाल हो जाने की मंशा थी। ये पहाडि़यां रायगढ़ और कालाहांड़ी जिलों में फैली हुर्इ हैं। लांजीगढ़ गांव में वेदांता समूह ने एल्यूमीनियम रिफायनरी लगार्इ हुर्इ है। वेदांता ने जब 2009 में सीमांकन के लिए सर्वेक्षण की कोशिश की थी तो क्रोधित आदिवासियों ने इनके वाहन में आग लगा दी थी। तब से यहां के स्थानीय निवासी किसी बाहरी व्यकित को इन पहाडि़यों पर चढ़ने नहीं देते।
दरअसल शीर्ष न्यायालय ने यह फैसला, ओड़ीसा खनिज निगम की उस याचिका पर दिया है, जिसमें वेदांता समूह की स्टारलाइट इंडस्टीज को मिली खनिज उत्खनन लीज को भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने रदद कर दिया था। वेदांता की प्रस्तावित 1.7 अरब डालर की बाक्साइट खनन परियोजना को खारिज करने की हिम्मत केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने दिखार्इ थी। हालांकि यह दुर्लभ फैसला 2010 में राहुल गांधी के दखल के बाद संभव हुआ था। लीज रदद करने का आधार आदिवासियों के अधिकारों का उचित निस्तारण नहीं करना बताया था। इसी अनदेखी का हवाला नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट तथा राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य एनसी सक्सेना की अध्यक्षता में गठित वन सलाहकार समिति ने भी दिया था। दरअसल राहुल गांधी के हस्तक्षेप के चलते वन मंत्रालय ने वन अधिकार अधिनियम की परिभाषा विस्तृत कर दी थी। इस परिवर्तन के अनुसार दो तरह के लोगों को संरक्षण मिलना तय हुआ। इनमें एक, वह अनुसूचित जाति है, जो परंपरागत तौर से जंगलों में रहते चले आ रहे हैं। मसलन जो जंगलों के मूल निवासी हैं। दूसरे वे लोग हैं, जो 5 दिसंबर 2005 से पहले तीन दषकों से जंगलों में निवास करते चले आ रहे हैं अथवा अपनी आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर हैं। मंत्रालय ने इस कानून को परिभाषित करते हुए यह भी रेखांकित किया है कि इन संरक्षित लोगों को केवल उसी स्थिति में हटाया जा सकता है, जब ये किसी राष्ट्रीय उधान या अभयारण्य की सीमा में आवास कर रहे हों ? यह अच्छी बात है कि नियमगिरी में कोर्इ उधान अथवा अभयारण्य नहीं है। इस दूरगामी फैसले का असर पास्को की इस्पात और झारखण्ड में सेल की चिरियाखान परियोजनाओं के भविश्य पर भी पड़ना तय है। शीर्ष न्यायालय इसके पहले 2009 में अरावली पर्वत श्रृंखलाओं में खनन पर रोक लगा चुका है। हाल ही में कर्नाटक के बेल्लारी, तुमकुर और चित्रांगदा जिलों में लौह अयस्क उत्खनन के 50 पटटे भी अदालत ने रदद किए हैं।
इस सिलसिले ओड़ीसा की राज्य सरकार की पक्षपाती भूमिका का भी उल्लेख करना जरुरी है, क्योंकि नवीन पटनायक सरकार यहां वेदांता के हित में कमोबेश लठैत की भूमिका में रही है। दरअसल शुरुआत में राज्य सरकार और वेदांता समूह के बीच कालाहांड़ी में लगाए जा रहे इस संयंत्र के लिए उधम का करार 74 और 26 फीसदी हिस्सेदारी की शर्त पर हुआ था। इस करार की हिस्सेदारी को अज्ञात व संदिग्ध कारणों से महज एक दिन में बदलकर 49 और 51 फीसदी कर दिया गया। साथ ही उत्खनन में कोर्इ कानूनी बाधा उत्पन्न न हो इस नजरिये से राज्य सरकार ने अदालत में दलील दी थी कि नियमगिरी समेत राज्य की समूची वन व खनिज संपदा पर उसका अधिकार है। लिहाजा कहां खुदार्इ की जाए और कहां नहीं इसका हक सिर्फ प्रदेश सरकार को है। इस दलील के जवाब में अदालत ने कहा, वन व खनिज संपदाओं पर सरकार का हक, केवल बतौर टस्टी है। इस नाते उनका दायित्व बनता है कि वे व्यापक लोक-कल्याण का दृष्टिकोण अपनाएं।
अदालत के इस लोकतांत्रिक एवं जनहितैशी कानून-सम्मत फैसले से इस अवधारणा को शक्ति मिली है कि जिन मूल निवासियों के संसाधनों पर परियोजनाएं स्थापित होनी हैं, उन्हें लगाने या न लगाने का अधिकार पंचायत अधिनियम में दर्ज ग्रामसभाओं को है। ग्रामसभाएं निर्णय लेने को पूरी तरह स्वतंत्र हैं। निश्चित ही यह लोक-कल्याणकारी निर्णय ग्रामीण जनसमूहों में चेतना का आधार बनेगा और ग्राम विकास में ग्रामसभा की भूमिका मजबूत होगी। साथ ही इस ऐतिहासिक फैसले के परिप्रेक्ष्य में राज्य सरकारों और उधोगपतियों को यह संदेश लेने की जरुरत है कि वे अब अपेक्षाकृत ज्यादा मानवीय और समावेषी विकास की पक्षधर दिखें ? तभी विकेंद्रीकृत पंचायती राज प्रणाली में कानून की सार्थकता सिद्ध होगी।
प्रमोद भार्गव