महान दानी, सेवा भावी एवं संस्था शिल्पी बावा गुरमुख सिंह

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मनमोहन कुमार आर्य

                देहरादून का प्रसिद्ध वैदिक साधन आश्रम तपोवन, नालापानी रोड, देहरादून जब तक रहेगा, इसके संस्थापक बावा गुरमुख सिंह जी और उनके प्रेरक महात्मा आनन्द स्वामी जी के नाम को अमर रखेगा। बावा गुरमुख सिंह जी का जन्म अमृतसर में एक सिख परिवार में पिता प्रद्युम्न सिंह जी के यहां हुआ था। आपके जन्म का गांव अमृतसर से लगभग 50 किमी. दूरी पर ‘गोइन्दवाल’ है। पिता एवं परिवारजनों ने आपका नाम ‘गुरमुख सिंह’ रखा। बावा जी के परिवार का सम्बन्ध पंजाब के सिख गुरुओं की तीसरी पीढ़ी के गुरु श्री अमरदास जी से है जिन्होंने अपने तप, त्याग, सेवा से उच्च आदर्श उपस्थित किये हैं।

      आपने आरम्भिक शिक्षा अपने कस्बे के निकट प्राप्त की और उसके बाद आप क्वेटा (पाकिस्तान) में अपने पिाजी के कपड़े के व्यापार की देखरेख का काम करने लगे। आपके पिता का कपड़ा बनाने का कारखाना था। आपके इस उद्योग में ‘जहाज मार्का क्रेप-खद्दर’ बनता था। कपड़े का यह ब्रांड देश-विदेश में प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय था और इसकी बहुत बिक्री हुआ करती थी। देश के सभी भागों के अतिरिक्त आपका बनाया हुआ वस्त्र इराक, मलेशिया, सिंगापुर, ईरान व अफ्रीका आदि देशों को भी भेजा जाता था।  

                आपने अपने पूज्य पिता श्री प्रद्युम्नसिंह जी की स्मृति में सन् 1938 में पांच लाख रुपये देकर एक ट्रस्ट की स्थापना की थी। इस ट्रस्ट से 60 से अधिक शिक्षण संस्थायें तथा कई अस्पताल चलते थे जो वर्तमान के राज्यों पंजाब, हिमाचल और हरयाणा आदि में स्थित थे। आपके द्वारा मुम्बई तक में शिक्षा संस्थायें स्थापित की गई थीं। आपके इस ट्रस्ट के माध्यम से हजारों अनाथों, विधवाओं तथा निर्धनों की आर्थिक सहायता भी की जाती थी जिससे ट्रस्ट साधारण लोगों में प्रसिद्धि को प्राप्त हो गया था।

                बावा गुरमुख सिंह जी यद्यपि सिख परिवार में जन्में थे परन्तु आप ऋषि दयानन्द की विचारधारा और आर्यसमाज के दीवानें थे। आपने अनेक आर्यसमाजों के भवन निर्माण के लिये दिल खोल कर आर्थिक अनुदान दिया। आपने अमृतसर के लोहगढ़ आर्यसमाज के निर्माण में भी सर्वाधिक आर्थिक सहायता दी थी। जब इस समाज के निर्माण का प्रस्ताव हुआ तो आपने घोषणा की कि सभी लोग मिलकर जितना धन संग्रह करेंगे उतना धन मैं अकेले अपनी ओर से आर्यसमाज का भवन निर्माण करने के लिए दूंगा। भवन बनना आरम्भ हुआ तो आपने और अधिक उदारता का परिचय देते हुए आपको जितना धन देना था उसका भी दुगुना धन देकर सबको आश्चार्यान्वित कर दिया। आपने इस भवन के विषय में कई स्वप्न संजोए थे। एक था कि आर्यसमाज मन्दिर भव्य बनना चाहिये। इतना बड़ा उद्योग सम्भालते हुए भी अमृतसर समाज के भवन को आपने स्वयं वहां खड़े होकर पूरी श्रद्धा व समर्पण भावना से बनवाया। भवन निर्माण का सभी काम आपकी देखरेख में होता था।

                बावा गुरमुख सिंह की उदारता का एक उदाहरण यह भी है कि बावाजी ने महात्मा आनन्द स्वामी जी को उन दिनों एक लाख रुपया वेद प्रचार कार्यों के लिये दिया था। बावा जी उदार हृदय के महामना थे। उनका दूसरा गुण था कि पद व प्रतिष्ठा से दूरी व वैराग्य। आप आर्यसमाज के एक जुझारु नेता भी थे। आप जीवन भर पद व प्रतिष्ठा से दूर रहे। आप स्वामी श्रद्धानन्द जी और उससे पूर्व पं. लेखराम जी के द्वारा विधर्मियों व स्वजनों की शुद्धि के आत्मना समर्थक थे। बतातें हैं कि जब आर्यसमाज शुद्धि तथा दलितोद्धार आदि समाज सुधार के कार्य आरम्भ करता था तो आप दिल खोल कर आर्थिक सहायता देते थे। स्वदेशी चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद में भी आपकी गहरी रुचि थी। आपने आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति पर अनुसंधान व गवेषणा के केन्द्रों को सहायता देने के साथ आयुर्वेदिक चिकित्सालयों की स्थापनाओं में भी सहयोग दिया था।

                यज्ञ अग्निहोत्र आर्यसमाज की संसार को अनुपम देन है जो वायु से दुर्गन्ध व प्रदुषण को दूर करने के साथ मनुष्यों को आध्यात्मिक एवं कायिक लाभ पहुंचाता है। यज्ञ करना मनुष्य का अनिवार्य कर्तव्य है। जो नहीं करता वह पाप करता है व दुःख पाता है। ऋषि दयानन्द ने लिखा है कि मनुष्य के शरीर के निमित्त से जितना दुर्गन्ध वायु, जल व भूमि आदि में विकार उत्पन्न करता है, उतना व उससे अधिक वायु आदि की शुद्धि प्रत्येक गृहस्थ मनुष्य को अग्निहोत्र यज्ञ करके करनी चाहिये। बावा गुरमुख सिंह जी की यज्ञ-अग्निहोत्र में गहरी रुचि थी। वह यज्ञ करके मानसिक शान्ति व तृप्ति का अनुभव करते थे। एक बार की बात है कि प्रान्त में सूखा पड़ा। वर्षा न होने के कारण किसानों की फसल नष्ट हो गई। किसान और अन्य लोग वर्षा के लिये आकाश की ओर देखते और ईश्वर से प्रार्थना करते कि शीघ्र वर्षा हो। ऐसे समय में बावा जी ने वृष्टि यज्ञ का आयोजन कराया। यज्ञ के प्रभाव से वायुमण्डल में परिवर्तन हुआ। बादल आये और यज्ञ की पूर्णाहुति से पहले ही तेज वर्षा हो गई। इस घटना से बावा जी की यज्ञ में श्रद्धा व विश्वास का अनुमान लगाया जा सकता है। बावा जी का जीवन ही यज्ञमय था। वह वैदिक धर्म के अग्रणीय नेता व प्रेरक जीवन के धनी थे।

                बावा जी मानवता के सच्चे पुजारी थे। आप एक बार कश्मीर गये। वहां आपने गरीबी देखी तो आपका साधु हृदय दया व प्रेम से भर गया। आपने वहां के किसानों व गरीबों को रुपया बांटा। उनकी भावना थी कि कोई मनुष्य भूखा न रहे, सबके घर में पेट भरने के लिए भोजन व अन्न हो। बावा जी व्यापार-मण्डल के सक्रिय सदस्य भी थे। सन् 1942 में इस संगठन ने सरकारी बिक्री कर अधिनियम के विरुद्ध लम्बी हड़ताल की। समस्त पंजाब में हड़ताल की गई। वर्तमान का पाकिस्तान भी तब पंजाब का हिस्सा था। हड़ताल यदि लम्बी चले तो उसमें छोटे व्यापारी टिक नहीं पाते। बावा जी ने इनकी पीड़ा दूर करने के लिये लंगर चलाये। सब जरुरतमंदों तक भोजन पहुंचाने का प्रयास किया। व्यापारियों को आवश्यकता की सामग्री सहित नगद धन भी दिया। आन्दोलन चालीस दिन चला। बावा जी भी इस अवधि में लोगों तक अन्न, धन व आवश्यकता की सामग्री वितरित करते-कराते रहे।

                अखिल भारतीय हिन्दू महासभा का सन् 1945 में एक अधिवेशन अमृतसर में सम्पन्न हुआ। इसकी प्रेरणा आप ने ही की थी। इस सम्मेलन में हिन्दू महासभा के वरिष्ठ नेता डा. गोकुल चन्द नारंग, डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी आदि अमृतसर पधारे थे। इन सभी नेताओं का आतिथ्य बावा गुरमुख सिंह जी ने अपने भव्य एवं विशाल निवास पर ही किया था।

                बंगाल में सन् 1945 में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। वहां के लाखों लोग अन्न के दाने-दाने को तरस गये। हजारों निर्धन आबाल-वृद्ध जन अन्न मिलने की आशा में मर गये। हमने आर्यनेता, सार्वदेशिक सभा के मंत्री और प्रसिद्ध सासंद श्री ओम्प्रकाश पुरुषार्थी से सुना था कि वह भी बंगाल दुर्भिक्ष पीड़ितों की सहायता करने गये थे। एक माता की सुनसान झोपड़ी में पहुंचने पर उसने रो-रो कर अपनी आप-बीती कथा सुनाई थी। उसने उन्हें बताया था कि कई दिनों तक वह भूखी रही। उससे अपनी भूख पर नियंत्रण नहीं हो रहा था। उनके पास एक छोटा बच्चा था। भूख की असहनीय पीड़ा से त्रस्त उस माता ने उस बच्चे को मारकर खा लिया। यह घटना सुनाकर श्री पुरुषार्थी जी ने कहा था कि उस माता से पूछने पर उसने स्वयं स्वीकार किया था कि मांसाहारी संस्कार होने के कारण उससे यह कृत्य हुआ। यदि उसमें मांसाहार के संस्कार न होते तो वह यह दुष्कृत्य न करती। भूख के अनेक कुपरिणामों में एक परिणाम यह भी हो सकता है। ऐसे दुर्भिक्ष में वहां पीड़ितों की सहायता के लिये अनाज भेजने के लिए बावा जी को अंग्रेज सरकार से बुरी तरह से जूझना पड़ा। सरकार रेल के खाली वैगन देने में न-नुकर कर रही थी। बावा जी ने इस पर सरकार को कहा कि आप मुझे बंगाल में अन्न भेजने की अनुमति दे दो। मैं स्वयं सड़क मार्ग से ट्रकों से वहां अन्न पहुंचा दूंगा। बावा जी द्वारा वहां अन्न भेजा गया जिसका वितरण आर्यसमाज के आर्यवीर स्वयंसेवकों व अन्यों ने किया। बावा जी ने जो अन्न भिजवाया वह चार लाख रुपयों से अधिक धनराशि का था। अनुमान कीजिये कि यह धनराशि आज की चार लाख नहीं अपितु उन दिनों की थी जब एक रुपये का 12 सेर गेहूं और 6 सेर बासमती चावल आता था। इसका अर्थ हुआ कि इस धनराशि से 48 लाख सेर गेहूं लिया जा सकता था। किलो में यह 45 लाख किलो अर्थात् 4,500 टन होता है। आज यह धनराशि लगभग साढ़े पांच करोड़ रुपये से अधिक होती है। बावा जी का यह काम किसी महायज्ञ से कम नहीं था। यह तो हमें हजारों महायज्ञों के समान प्रतीत होता है।

                सन् 1947 में देश का विभाजन हुआ। पाकिस्तान से लाखों की संख्या में हिन्दू शरणार्थी अपनी समस्त भौतिक सम्पत्ति वहां छोड़कर, विधर्मियों से लुट-पिट कर और अपने प्रियजनों की जानें गवांकर भारत आये। बावा जी ने इस अवसर पर भी अपने विशाल हृदय का परिचय देते हुए उनके लिये लंगर चलाए, उन्हें वस्त्र दिए, उनके निवास की व्यवस्था की और उनके लिए शिविरों का प्रबन्ध किया। बावा जी ने भारतीय सैनिकों और पुलिस बलों को भी पूरी सहायता दी जिससे हिन्दू शरणार्थी भारत में कुशलतापूर्वक पहुंच सकें।

                भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों मि. जवाहरलाल नेहरु और मियां लियाकत अली के बीच शरणार्थियों की समस्या हल करने के लिये जो बैठक हुई थी वह बावा गुरुमुख सिंह जी के निवास स्थान पर ही हुई थी। सरदार पटेल आदि वरिष्ठ नेता भी शरणार्थियों की वास्तविक स्थिति जानने के लिये बावा जी को ही प्रतिदिन फोन करते थे।

                बावा जी शिक्षा जगत से भी जुड़े रहे। आप दयानन्द ऐंग्लो वैदिक प्रबन्धक ट्रस्ट के आजीवन सदस्य रहे। बहुत से स्कूल व कालेज आपकी सीधी देख-रेख में चलते थे। आपने शिक्षा के प्रचार व प्रसार में लाखों रुपया व्यय किया था। बावा जी को अपने इन समाज सेवा के कार्यों में अपने छोटे भ्राता श्री बावा महाराज सिंह जी का भी पूर्ण सहयोग मिला अन्यथा यह सेवाकार्य सम्भव नहीं था। आपके परिवार में बलिदान व सेवा की परम्परा रही है जिसका संकेत पूर्व किया गया है। आपने मर्यादा पुरुषोत्तम राम के अनुज लक्ष्मण की तरह अपने बड़े भ्राता जी का साथ दिया। जब कभी कोई सज्जन बावा महाराज सिंह जी से संस्थाओं के सहयोग की बात करते थे तो आप कहते थे कि ‘मैं तो भरत की तरह भाई की खड़ाऊवें लेकर गद्दी पर बैठा हूं। यह गद्दी तो मेरे बड़े भाई साहब की है। मैं तो बस सेवक हूं और सेवा करता हूं।’ आप अनुमान कर सकते हैं कि बावा महाराज सिंह जी का जीवन भी भरत की तरह कितना त्याग-तपस्या से युक्त व सेवाभावी रहा होगा? बावा गुरमुख सिंह जी ने जो महान कार्य किये उसमें उनके अनुज व पूरे परिवार का सहयोग प्राप्त था। उनके माता-पिता धन्य हैं जिन्होंने अपनी सन्तानों व परिवार के ऐसे श्रेष्ठ व ऊंचे संस्कार दिये थे।

                ऐसी महान स्मरणीय एवं अनुकरणीय आत्मा बावा गुरमुख सिंह जी द्वारा महात्मा आनन्द स्वामी जी की प्रेरणा पर वर्तमान में करोड़ों रुपये की लगभग 600 बीघा भूमि खरीद कर ‘वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून’ की स्थापना की गई थी और उसके बाद भी उनका सहयोग जारी था। बतातें हैं कि बाद में जमीदारी उन्मूलन प्रथा में सरकार ने लगभग 400 बीघा भूमि अधिकृत कर ली। अब लगभग 200 बीघा भूमि से कम भूमि ही आश्रम के पास है। हम श्रद्धेय बावा जी को अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं और आश्रम की संवृद्धि और सफलता की कामना करते हैं। हमने इस लेख में आश्रम के पूर्व प्रधान श्री यशपाल आर्य जी की सामग्री का उपयोग किया है। हम उनका हृदय से आभार एवं धन्यवाद करते हैं।

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