मानसिक स्वासथ्य के प्रति भी सचेत रहें

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बीनू भटनागर

स्वस्थ शरीर मे स्वस्थ मन का निवास होता है ,परन्तु यह भी सही है कि मन अस्वस्थ हो तो शरीर भी स्वस्थ नहीं ऱह पाता। शरीर अस्वस्थ होता है तो उसका तुरन्त इलाज करवाया जाता है ,जाँच पड़ताल होती है, उस पर ध्यान दिया जाता है। दुर्भाग्यवश मानसिक स्वास्थ्य मे कुछ गड़बड़ी होती है तो आसानी से कोई उसे स्वीकार ही नहीं करता ,ना ही उसका इलाज कराया जाता है। स्थिति जब बहुत बिगड़ जाती है तभी मनोचिकित्सक को दिखाया जाता है। आमतौर पर यह छुपाने की पूरी कोशिश होती है कि परिवार का कोई सदस्य मनोचिकित्सा ले रहा है।

शरीर की तरह ही मन को स्वस्थ रखने के लियें संतुलित भोजन और थोड़ा व्यायाम अच्छा होता है। काम, और आराम के बीच ,परिवार और कार्यालय के बीच एक संतुलन बना रहे तो अच्छा होगा ,परन्तु परिसथितियाँ सदा अपने वश मे नहीं होती, इसलियें तनाव तो जीवन मे होते ही हैं। तनाव का असर मन पर होता ही है। अब इससे कैसे जूझना है यह समझना आवश्यक है।

मानसिक समस्याओं को मोटे तौर पर दो श्रॆणियों मे रख सकते हैं। पहली श्रेणी मे परिस्थियों के साथ सामंजस्य न स्थापित कर पाने से उत्पन्न तनाव, अत्यधिक क्रोध ,तीव्र भय अथवा संबन्धों मे आई दरारों से पैदा समस्यायें आती हैं। दूसरी श्रेणी मे मनोरोग आते हैं ,इनका कारण शारीरिक भी हो सकता है और परिस्थितियों का सही तरीके से सामना न कर पाने से भी हो सकता है। इन दोनो श्रेणियों को एक अस्पष्ट सी रेखा ही अलग करती है। तनाव, भय, क्रोध मनोरोगों की तरफ़ ले जा सकते है ,और मनोरोग व्यावाहरिक समस्यायें पैदा करते है। पीड़ित व्यक्ति की मानसिकता का प्रभाव उसके परिवार और सहकर्मियों पर भी पड़ता है।

अस्वस्थ मानसिकता की पहचान भी साधारण व्यक्ति के लियें कुछ कठिन होती है। किसी का मानसिक असंतुलन इतनी आसानी से नहीं पहचाना जा सकता। प्रत्येक व्यक्ति अपने मे अलग अलग विशेषतायें लिये होता है। कोई बहुत सलीके से रहता है तो कोई एकदम फक्कड़। कोई भावुक होता है तो कोई यथार्थवादी। कोई रोमांटिक होता है कोई शुष्क। व्यक्ति के ये गुण दोष उसकी पहचान होते हैं। यदि व्यक्ति के ये गुण दोष एक ही दिशा मे झुकते जायें तो व्यावाहरिक समस्यायें उत्पन्न हो सकती हैं। इन्हें मनोरोग नहीं कहा जा सकता परन्तु इनका उपचार कराना भी आवश्यक है, इन्हें अनदेखा नहीं करना चाहिये।

अस्वस्थ मानसिकता के उपचार के लियें दो प्रकार के विशेषज्ञ होते हैं। क्लिनिकल सायकौलौजिस्ट और सायकैट्रिस्ट। क्लिनिकल सयकौलौजिस्ट मनोविज्ञान के क्षेत्र से आते हैं, ये काउंसैलिग और सायकोथिरैपी मे माहिर होते हैं। ये चेतन ,अवचेतन और अचेतन मन से व्याधि का कारण ढूँढकर व्यावाहरिक परिवर्तन करने की सलाह देते हैं। दूसरी ओर सयकैट्रिस्ट चिकित्सा के क्षेत्र से आते हैं ,ये मनोरोगों का उपचार दवाइयाँ देकर करते हैं। मनोरोगियों को दवा के साथ कउंसैलिंग और सायकोथिरैपी की भी आवश्यकता होती है कभी ये ख़ुद करते हैं, कभी मनोवैज्ञानिक के पास भेजते हैं। क्लिनिकल सयकौलौजिस्ट को यदि लगता है कि पीड़ित व्यक्ति को दवा देने की आवश्यक्ता है तो वे उसे मनोचिकित्सक के पास भेजते हैं। मनोवैज्ञानिक दवाई नहीं दे सकते। अतः ये दोनो एक दूसरे के पूरक हैं, प्रतिद्वन्दी नहीं। आमतौर से मनोवैज्ञानिक सामान्य कुंठाओं, भय, अनिन्द्रा, क्रोध और तनाव आदि का उपचार करते हैं और मनोचिकित्क मनोरोगों का। अधिकतर दोनो प्रकार के विशेषज्ञों को मिलकर इलाज करना पड़ता है। यदि रोगी को कोई दवा दी जाय तो उसे सही मात्रा मे जब तक लेने को कहा जाय लेना ज़रूरी है। कभी दवा जल्दी बंद की जा सकती है कभी लम्बे समय तक लेनी पड़ सकती है। कुछ मनोरोगों के लियें आजीवन दवा भी लेनी पड़ सकती है, जैसे कुछ शारीरिक रोगों के लियें दवा लेना ज़रूरी है, उसी तरह मानसिक रोगों के लियें भी ज़रूरी है। दवाई लेने या छोड़ने का निर्णय चिकित्सक का ही होना चाहिये।

कभी कभी रिश्तो मे दरार आ जाती हैं ,जिनके कारण अनेक हो सकते हैं।आजकल विवाह से पहले भी मैरिज काउंसैलिग होने लगी है। शादी से पहले की रोमानी दुनियाँ वास्तविकता मे बहुत अन्तर होता है। एक दूसरे से अधिक अपेक्षा करने की वजह से शादी के बाद जो तनाव अक्सर होते है, उनसे बचने के लियें ये अच्छा क़दम है। पति पत्नी के बीच थोड़ी बहुत अनबन स्वभाविक है ,परन्तु रोज़ रोज़ कलह होने लगे, दोनो पक्ष एक दूसरे को दोषी ठहराते रहें तो घर का पूरा माहौल बिगड़ जाता है। ऐसे मे मैरिज काउंसलर जो कि मनोवैज्ञानिक ही होते है, पति पत्नी दोनो की एक साथ और अलग अलग काउंसैलिग करके कुछ व्यवारिक सुझाव देकर उनकी शादी को बचा सकते हैं। वैवाहिक जीवन की मधुरता लौट सकती है। अगर पति पत्नी काउंसैलिग के बाद भी एक साथ जीवन नहीं बिताने को तैयार हों तो उन्हें तलाक के बाद पुनर्वास मे भी मनोवैज्ञानिक मदद कर सकते हैं। जीवन की कुँठओं, क्रोध को कोई सकारात्मक दिशा दे सकते हैं। कभी कभी टूटे हुए रिश्ते व्यक्ति की सोच को कड़वा और नकारात्मक कर देते हैं। कोई शराब मे स्वयं को डुबो देता है। अतः समय पर विशेषज्ञ की सलाह लेने से जीवन मे बिखराव नहीं आता।

कुछ लोगों को शराब या ड्रग्स की लत लग जाती है, कारण चाहें जो भी हों उन्हे मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक की मदद व परिवार के सहयोग की आवश्यकता होती है। इलाज के बाद समाज मे उनका पुनर्वास हो सकता है। दोबारा व्यक्ति उन आदतों की तरफ़ न मुड़े, इसके लिये भी विशेषज्ञ परिवार के सदस्यों को व्यवाहरिक सुझाव दते हैं।

बच्चों और किशोरों की भी बहुत सी मनोवैज्ञानिक समस्यायें होती हैं, जिन्हें लेकर उनके और माता पिता के बीच टकराव हो जाता है। यदि समस्या गंभीर होने लगे तो मनोवैज्ञानिक से सलाह लेनी चाहिये। हर बच्चे का व्यक्तित्व एक दूसरे से अलग होता है, उनकी बुद्धि क्षमतायें और रुचियाँ भी अलग होती हैं। अतः एक दूसरे से उनकी तुलना करना या अपेक्षा रखना भी उचित नहीं है। पढाई मे या व्यवहार मे कोई विशेष समस्या आये तो उस पर ध्यान देना चाहिये। यदि आरंभिक वर्षों मे लगे कि बच्चा आवश्यकता से अधिक चंचल है, एक जगह एक मिनट भी नहीं बैठ सकता, किसी चीज़ मे भी ध्यान नहीं लगा पाता और पढाई मे भी पिछड़ रहा है तो मनोवैज्ञनिक से परामर्ष करें, हो सकता है कि बच्चे को अटैंशन डैफिसिट हाइपर ऐक्टिविटी डिसआर्डर हो । इसके लिये मनवैज्ञानिक जाँच होती है। उपचार भी संभव है। यदि बच्चे को बात करने मे दिक्कत होती है ,वह आँख मिला कर बात नहीं कर सकता आत्मविश्वास की कमी हो ,पढाई मे बहुत पिछड़ रहा हो तो केवल यह न सोच लें कि वह शर्मीला है। एक बार मनोवैज्ञानिक से जाँच अवश्य करायें। ये लक्षण औटिज़्म के भी हो सकते है। इसका कोई निश्चित उपचार तो नहीं है, परन्तु उचित प्रशिक्षण से नतीजा अच्छा होता है। डायसिलैक्सिया मे बच्चे को लिखने, पढने मे कठिनाई होती है, उसकी बुद्धि का स्तर अच्छा होता है। इन्हे अक्षर और अंक अक्सर उल्टे दिखाई देते हैं। अगर ऐसे कुछ लक्षण बच्चे मे दिखें तो जाँच करवाये। इन बच्चों को भी उचित प्रशिक्षण से लाभ होता है। बच्चों मे यदि कोई असमान्य लक्षण दिखें तो उन्हें अनदेखा न करें।

क्रोध सभी को आता है ,यह सामान्य सी चीज़ है। कभी कभी किसी का क्रोध किसी और पर निकलता है, अगर क्रोध आदत बन जाये व्यक्ति तोड़ फोड़ करने लगे या अक्रामक हो जाये तो ये सामान्य क्रोध नहीं होगा। जो व्यक्ति किसी मानसिक व्यधि से पीड़ित होता है, वह अक्सर अपनी परेशानी नहीं स्वीकारता। उसे एक डर लगा रहता है कि उसे कोई विक्षिप्त या पागल न समझ ले। उसे और परिवार को समझना चाहिये कि ये धारणा निर्मूल है, फिर भी यदि पीड़ित व्यक्ति ख़ुद मनोवैज्ञानिक के पास जाने को तैयार न हो तो परिवार के अन्य सदस्य उनसे मिलें, विशेषज्ञ कुछ व्यवाहरिक सुझाव दे सकते हैं। यदि मनोवैज्ञानिक को लगे कि दवा देने की आवश्यकता है, तो रोगी को मनोचिकित्सक के पास जाने के लें तैयार करना ही पड़ेगा। मनोवैज्ञानिक असामान्य क्रोध का कारण जानने की कोशिश करते हैं। वे क्रोध को दबाने की सलाह नहीं देते, उस पर नियंत्रण रखना सिखाते हैं। व्यक्ति की इस शक्ति को रचनत्मक कार्यों मे लगाने का प्रयास करते है। क्रोधी व्यक्ति यदि बिलकुल बेकाबू हो जाय तो दवाई देने की आवश्यकता हो सकती है।

जीवन मे बहुत से क्षण निराशा या हताशा के आते हैं, कभी किसी बड़ी क्षति के कारण और कभी किसी मामूली सी बात पर अवसाद छा जाता है। कुछ दिनो मे सब सामान्य हो जाता है। यदि यह निराशा और हताशा अधिक दिनो तक रहे, व्यक्ति की कार्य क्षमता घटे, वह बात बात पर रोने लगे तो यह अवसाद या डिप्रैशन के लक्षण हो सकते हैं। डिप्रैशन मे व्यक्ति अक्सर चुप्पी साध लता है, नींद भी कम हो जाती है, भोजन या तो बहुत कम करता है या बहुत ज़्यादा खाने लगता है। कभी कभी इस स्थिति मे यथार्थ से कटने लगता है। छोटी छोटी परेशानियाँ बहुत बड़ी दिखाई देने लगती हैं। आत्महत्या के विचार आते हैं ,कोशिश भी कर सकता है। डिप्रैशन के लक्षण दिखने पर व्यक्ति का इलाज तुरन्त कराना चाहिये। मामूली डिप्रैशन मनोवैज्ञानिक उपचार से भी ठीक हो सकता है, दवाई की भी ज़रूरत पड़ सकती है। एक और स्थिति मे कभी अवसाद के लक्षण होते हैं कभी उन्माद के,. उन्माद की स्थिति अवसाद के विपरीत होती है। बहुत ज़्यादा और बेवजह बात करना इसका प्रमुख लक्षण होता है। व्यक्ति कभी अवसाद कभी उन्माद से पीड़त रहता है। इस मनोरोग का इलाज पूर्णतः हो जाता है। इस रोग को मैनिक डिप्रैसिव डिसआर्डर या बायपोलर डिसआर्डर कहते हैं।

भय या डर एक सामान्य अनुभव है, अगर ये डर बहुत बढ़ जायें तो इन असामान्य डरों को फोबिया कहा जाता है। फोबिया ऊँचाई, गहराई, अँधेरे, पानी या किसी और चीज़ से भी हो सकता है। इसकी जड़े किसी पुराने हादसे से जुड़ी हो सकती हैं ,जिन्हें व्यक्ति भूल भी चुका हो। उस हादसे का कोई अंश अवचेतन मन मे बैठा रह जाता है। फोबिया का उपचार सायकोथैरेपी से किया जा सकता है। डर का सामना करने के लियें व्यक्ति तैयार हो जाता है।

कभी कभी जो होता नहीं है वह सुनाई देता है या दिखाई देता है। ये भ्रम नहीं होता मनोरोग होता है जिसका इलाज मनोचिकित्सक कर सकते है। इसके लिये झाड़ फूंक जैसी चीज़ो मे समय ,शक्ति और धन ख़र्च करना बिलकुल बेकार है।

एक रोग होता है, ओबसैसिव कम्पलसिव डिसआर्डर ,इसमे व्यक्ति एक ही काम को बार बार करता है, फिर भी उसे तसल्ली नहीं होती। स्वच्छता के प्रति इतना सचेत रहेगा कि दस बार हाथ धोकर भी वहम रहेगा कि अभी उसके हाथ गंदे हैं। कोई भी काम जैसे ताला बन्द है कि नहीं ,गैस बन्द है कि नहीं ,दस बीस बार देखकर भी चैन ही नहीं पड़ता। कभी कोई विचार पीछा नहीं छोड़ता। विद्यार्थी एक ही पाठ दोहराते रह जातें हैं ,आगे बढ ही नहीं पाते परीक्षा मे भी लिखा हुआ बार बार पढते हैं, अक्सर पूरा प्रश्नपत्र हल नहीं कर पाते। इस रोग मे डिप्रैशन के भी लक्षण होते हैं। रोगी की कार्य क्षमता घटती जाती है। इसका उपचार दवाइयों और व्यावाहरिक चिकित्सा से मनोचिकित्सक करते हैं। अधिकतर यह पूरी तरह ठीक हो जाता है।

एक स्थिति ऐसी होती है जिसमे व्यक्ति तरह तरह के शकों से घिरा रहता है। ये शक काल्पनिक होते हैं, इन्हें बढा चढा कर सोचने आदत पड़ जाती है। सारा ध्यान जासूसी मे लगा रहेगा तो कार्य क्षमता तो घटेगी ही ये लोग अपने साथी पर शक करेते रहते हैं ,कि उसका किसी और से संबध है। इस प्रकार के पैरानौइड व्यवहार से घर का माहौल बिगड़ता है। कभी व्यक्ति को लगेगा कि कोई उसकी हत्या करना चाहता है ,या उसकी सम्पत्ति हड़पना चाहता है। यदि घर के लोग आश्वस्त हों कि ये शक बेबुनियाद हैं ,तो उसे विशेषज्ञ को ज़रूर दिखायें।

कभी शारीरिक बीमारियों के कारण डिप्रैशन हो जाता है। कभी उन्हें बढा चढाकर सोचने और उनकी चिन्ता करते रहने की आदत पड़ जाती है,’ ज़रा सा सर मे दर्द हुआ कि लगेगा दिमाग़ मे ट्यूमर है। इसको हायपोकौंड्रिया कहते हैं। इसका भी इलाज मनोवैज्ञानिक से कराना चाहिये।

कुछ मनोरोग भोजन की आदतों से जुड़े होते हैं। बहुत से पतला होने के बावजूद भी अपना वज़न कम रखने की चिन्ता मे घुले रहते हैं। ऐनोरौक्सिया नरसोवा मे व्यक्ति खाना बेहद कम कर देता है, उसे भूख लगनी ही बन्द हो जाती है। बार बार अपना वज़न लेता है। डिप्रैशन के लक्षण भी होते है। बुलीमिया नरसोवा मे भी पतला बने रहने की चिन्ता मनो विकार का रूप ले लती है। खाने के बाद अप्राकृतिक तरीको से ये लोग उल्टी और दस्त करते हैं । ये मनोरोग कुपोषण की वजह से अन्य रोगों का कारण भी बनते हैं अतः इनका इलाज कराना बहुत ज़ूरूरी है, अन्यथा ये घातक हो सकते हैं। बेहद कम खाना अनुचित है तो बेहद खाना भी ठीक नहीं है,कुछ लोग केवल खाने मे सुख ढूढते हैं। वज़न बढ जाता है ,इसके लियें मनोवैज्ञानिक कुछ उपचारों का सुझाव देते हैं। अनिन्द्रा, टूटी टूटी नींद आना या बहुत नींद आना भी अनदेखा नहीं करना चाहिये। ये लक्षण किसी मनोरोग का संकेत हो सकते हैं। बेचैनी, घबराहट यदि हद से ज़्यादा हो चाहें किसी कारण से हो या अकारण ही उसका इलाज करवाना आवश्यक है। इसके साथ डिप्रैशन भी अक्सर होता है।

कभी कभी व्यक्ति को हर चीज़ काली या सफ़ेद लगती है ,या तो वह किसी को बेहद पसन्द करता है या घृणा करता है। कोई कोई सिर्फ़ अपने से प्यार करता है, वह अक्सर स्वार्थी हो जाता है।ये दोष यदि बहुत बढ़ जायें तो इनका भी उपचार मनोवैज्ञानिक से कराना चाहिये, नहीं तो ये मनोरोगों का रूप ले सकते हैं।

एक समग्र और संतुलित व्यक्तित्व के विकास मे भी मनैज्ञानिक मदद कर सकते हैं। भावुकता व्यक्तित्व का गुण भी है और दोष भी ,किसी कला मे निखार लाने के लियें भावुक होना जरूरी है, परन्तु वही व्यक्ति अपने दफ्तर मे बैठकर बात बात पर भावुक होने लगे तो ये ठीक नहीं होगा। इसी तरह आत्मविश्वस होना अच्छा पर है परन्तु अति आत्म विश्वास होने से कठिनाइयाँ हो जाती हैं.

मनोविज्ञान व्यवहार का विज्ञान है, यदि स्वयं आपको या आपके प्रियजनो को कभी व्यावाहरिक समस्या मालूम पढे तो अविलम्ब विशेषज्ञ से सलाह लें। जीवन मे मधुरता लौट आयेगी।

2 COMMENTS

  1. ऐसा विचारणीय व् उल्लेखनीय लेख देने के लिए प्रवक्ता और लेखिका को बधाई .

  2. बीनू भटनागर जी सबसे पहले तो इस विषय पर इतने सरल और व्यावहारिक अंदाज में लिखने के लिए आभार! दूसरे प्रस्तुत लेख में आपने जो कुछ लिखा है, वह जनहित में बहुत ही उपयोगी और बहु उपयोगी है! बेशक लेख लम्बा होने के कारण हो सकता है कि कुछ पाठक पढने का साहस न कर पायें, लेकिन जो भी पढेंगे उन्हें, पढ़कर बहुत अच्छा लगेगा! आशा करता हूँ कि आगे भी इसी विधा पर आपको पढ़ने का अवसर मिलेगा!

    बहुत बहुत शुभ कामनाएँ!
    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
    9828502666

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