चाहे किसी धर्म की हो माता सबकी मुखाकृति मां श्रद्धा सरीखी

—विनय कुमार विनायक
जीवों का जन्म माता से होता,
पिता बीजों का विसर्जन करता,
मां से मैं को अस्तित्व मिलता,
जीवों को पहचान देता है पिता!

माता से ममत्व का संज्ञान होता,
पिता जीव को जातीय नाम देता,
पिता से ही अहम का भान होता,
माता भूमि उगाती बीज पिता का,
मां से मिले मम में होती ममता!

पितृत्व अहम से अहंकार में वृद्धि,
माताश्री है सृष्टि में ऐसी इकलौती
जो संतति में ममत्व भाव जगाती,
माता मानवता का शत्रु नहीं होती!

पिता विराट पुरुष की सूक्ष्म सत्ता,
पिता ही जीव का लघु बीज होता,
जो मातृ कोख से विकसित होकर
सूक्ष्म विशाल जीव वृक्ष हो जाता!

मां की कोख, पृथ्वी के गर्भ से ही,

जीव जन्तु व पादप की होती सृष्टि,
‘माता भूमि पुत्रोऽमं पृथ्विया’ उक्ति,
माता प्रकृति धरती,पिता पुरुष होता!

मां से मैं मम ममता भाव जगता,
पिता पशुता,पुरुषार्थ का सृजनकर्ता,
मां शतरुपा,जीव को शत रुप देती,
मां हौआ पुत्र को‘हू आर यूं’बताती!

तुम कौन हो,मां हौआ बोध कराती,
समय पर ‘हाऊ आर यूं’ पूछ लेती
तुम कैसे हो?कैसी तुम्हारी स्थिति?
भोजन से आत्मिक स्तर तक की!

मां से बड़ी नहीं कोई होती शक्ति,
चाहे संतान वैध हो या कि अवैध,
माता प्यार लुटाया करती एक ही,
मां जीवों की चलती-फिरती धरती!

अगर माता होती है मरियम जैसी,
बिना मैरिज पुत्र जनती ईश्वर की,
नारी बलात्कारी के संतति को भी,
ममता लुटाती है वैध संतान जैसी!

पिता पाशविकता घटा-बढ़ा सकता,
पिता पशुता की निशानी रोप देता,
पशु जैसी दाढ़ी उगाना सिखा देता,
पिता पाप पुण्य पूजा नमाज होता!

मगर मां में तनिक नहीं है पशुता,
चाहे किसी धर्म की होती हो माता,
सबकी मुखाकृति मां श्रद्धा सरीखी
मूंछ दाढ़ी, खतना जनेऊ रहित होती!

सृष्टि के आरंभ से मां बदली नहीं,
शतरुपा श्रद्धा हौआ मरियम जैसी,
मां जीव व परम पुरुष बीच प्रकृति,
मां कभी नहीं बदलनेवाली आकृति!

पिता स्वायंभुव; स्वयं उद्भूत मनु,
पिता वैवस्वत; सूर्यातप युक्त मनु,
पिता आदम; आद यानि सूर्यरश्मि,
पिता खुदाई हस्ती, ‘अहंब्रह्मास्मि’!

सबके सब बीजरुप परम पुरुष के
माटी में गूंधकर बनाए गए पुतले,
जो मातृगर्भ व पृथ्वी की कोख से
निकलकर सर्वदा रुप बदलते रहते!

माता का पता, पिता होके लापता
जल के बूंद सा, बीज के कण सा
अनायास भू मातृगर्भ से निकलता,
महाभट्ट या विशाल वटवृक्ष जैसा!

पिता बीज से पुत्र अंकुर निकालता,
बीज नष्ट होकर अंकुर वृक्ष बनता,
जब बीज अदृश्य, अंकुर दृश्य होता,
बीज अंकुर,अंकुर बीज भविष्य का!
—विनय कुमार विनायक

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