कभी-कभी लगता है कि हम विचार-अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के काबिल नहीं है। जब भी यह अधिकार बिना रोकटोक के हमें प्राप्त हुआ है, हमने इसका जमकर दुरुपयोग किया है। सन्१९७५ में इन्दिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपात्काल में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पूरी तरह छीन ली गई थी। कुलदीप नय्यर को छोड़ अधिकांश पत्रकारों ने इन्दिरा गांधी की प्रशंसा में ताजमहल खड़े कर दिए थे। चाटुकारिता की सारी सीमाओं को तोड़ते हुए खुशवन्त सिंह ने तो संजय गांधी को Illustrated weekly पत्रिका का Man of the year भी चुना था। यह बात दूसरी है कि खुशवन्त सिंह के ही पाठकों ने उन्हें बाद में Chamacha of the year घोषित किया। आज भी आपात्काल के प्रशंसक मिल जायेंगे। अभीतक कांग्रेस, सोनिया या राहुल ने आपात्काल में किए गए अत्याचारों के लिए देशवासियों से माफ़ी नहीं मांगी है।
इसके विपरीत भाजपा जब भी सत्ता में आती है, इमरजेन्सी को याद करते हुए देशवासियों को कुछ जरुरत से ज्यादा ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दे देती है। जनसंघ से लेकर भाजपा तक की यात्रा में इस पार्टी पर सांप्रदायिकता के आरोप को चस्पा करने के लिए सभी दल अथक प्रयास करते रहे। वामपंथी बुद्धिजीवियों और विदेशी पत्रों के लिए पत्रकारिता करनेवाले पत्रकारों की इसमें अहम्भूमिका रही। जो लोग पानी पी-पीकर जनसंघ को सांप्रदायिक कहते थे, मौका मिलने पर उसी के साथ सरकार भी बनाई। मुझे १९६७ के वो दिन भी याद हैं, जब बिहार में महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी और जनसंघ तथा कम्युनिस्ट, दोनों ही सरकार में शामिल थे। आज की तारीख में भाजपा के धुर विरोधी लालू यादव भाजपा/जनसंघ के ही समर्थन से पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। नीतीश, ममता, नवीन पटनायक, शरद पवार, शरद यादव, मुलायम, मायावती, जयललिता, करुणानिधि, चन्द्रबाबू नायडू का इतिहास बहुत पुराना नहीं हैं। इन नेताओं को जब भाजपा को साथ लेकर सत्ता की मलाई चखनी होती है, तो भाजपा धर्म निरपेक्ष हो जाती है, बाकी समय सांप्रदायिक रहती है। बार-बार सांप्रदायिकता का आरोप लगाने से इन नेताओं ने एक सफलता तो प्राप्त कर ही ली, और वह है – स्वयं भाजपा के मन में सांप्रदायिकता की ग्रंथि का निर्माण। भाजपा ने इस ग्रंथि से मुक्त होने के लिए क्या नहीं किया? राम मंदिर के निर्माण से प्रत्यक्ष किनारा किया, धारा ३७० को दरकिनार करके कश्मीर में पीडीपी के साथ गठबंधन किया, समान नागरिक संहिता को ठंढे बस्ते में डाल दिया, भारत की जगह इंडिया को अपनाया ……… आदि, आदि। लेकिन विरोधियों के स्वर कभी भी मद्धिम नहीं पड़े। अटल बिहारी वाजपेयी तो सांप्रदायिकता से इस कदर आक्रान्त थे कि जब कांग्रेसी और वामपंथी उनके लिए कहते थे – A right man in wrong party, तो उन्हें बड़ी खुशी होती थी | अपने को असांप्रदायिक सिद्ध करने के लिए उन्होंने जनसंघ का सिद्धांत ही बदल दिया। भाजपा को उन्होंने गांधीवादी समाजवाद का पोषक घोषित किया। इसके बावजूद भी उन्हें लोकसभा में मात्र २ सीटों पर संतोष करना पड़ा। जनता भाजपा को कांग्रेस या समाजवादी पार्टियों की कार्बन कापी के रूप में नहीं देखना चाहती थी। भला हो विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष स्व. अशोक सिंहल का, जिन्होंने राम मन्दिर आन्दोलन चलाकर भाजपा में नई जान फूंकी। इस आंदोलन का ही परिणाम था कि अटल बिहारी वाजपेयी प्रधान मंत्री बने। उन्होंने फसल जरूर काटी, लेकिन आन्दोलन में उनका योगदान कुछ विशेष नहीं था। उनको प्रधान मंत्री बनाने के पीछे भी भाजपा की हीन ग्रंथि ‘सांप्रदायिकता’ ही काम कर रही थी।
भाजपा के इतिहास मे नरेन्द्र मोदी पहले ऐसे नेता हुए जिन्होंने सांप्रदायिकता के आरोप को ही अपना अस्त्र बना लिया। गुजरात में तीन-तीन आम चुनावों में उनकी शानदार जीत ने उनका मनोबल तो बढ़ाया ही देशवासियों के मन में भी उम्मीद की नई किरण भर दी। २०१४ के लोकसभा के आम चुनाव राष्ट्रवाद के उदय की एक अलग कहानी कह रहे थे। विरोधी मोदी पर सांप्रदायिकता का आरोप जितने जोरशोर से लगाते, जनता में उतना ही ध्रुवीकरण होता। विरोधियों का यह हथियार अपना पैनापन खो चुका था। मोदी के विकास के एजेंडे ने इसकी धार कुंद कर दी। वे मोदी को सत्ता में आने से तो नहीं रोक सके, लेकिन काम करने से तो रोक ही सकते थे। उन्होंने एक काल्पनिक अस्त्र का आविष्कार किया – असहिष्णुता। बिहार के चुनाव में इस अमोघ अस्त्र का जमकर प्रयोग किया गया। पुरस्कार वापसी से लेकर धरना-प्रदर्शन तक के असंख्य नाटक किए गए। दुर्भाग्य से बिहार चुनाव के परिणाम भाजपा के पक्ष में नहीं गए। ‘असहिष्णुता’ के अस्त्र को नई धार मिल गई और मोदी जैसा योद्धा भी बैकफ़ुट पर आ गया। परिणाम यह हुआ कि विचार अभिव्यक्ति के नाम पर संविधान की धज्जियां उड़ाना और देशद्रोह की बातें सार्वजनिक रूप से करना आम बात हो गई। बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं का मज़ाक उड़ाते हुए चौराहे और पार्कों में बीफ़ पार्टी के आयोजन को भारत का संविधान क्या अनुमति देता है? भारत सरकार खामोश रही। अकबर ओवैसी और आज़म खान जनसभाओं में हिन्दुओं के कत्लेआम की बात करते हैं, कानून कुछ नहीं करता। जे.एन.यू. में न्यायालय द्वारा घोषित आतंकवादी अफ़ज़ल गुरु की बरसी मनाई जाती है और लाउड स्पीकर से भारत को बर्बाद करने का संकल्प लिया जाता है, भारत सरकार चुपचाप देखती भर रह जाती है। देशद्रोहियों की ये गतिविधियां संभावित थीं। इसीलिए विश्वविद्यालय प्रशासन ने ऐसे कार्यक्रम की अनुमति प्रदान नहीं की थी। समझ में नहीं आता कि जे.एन.यू. दिल्ली में है या श्रीनगर में? जे.एन.यू. भिंडरावाले का अकाल तख़्त बनता जा रहा है| अभीतक ये देशद्रोही सलाखों के पीछे क्यों नहीं पहुंचाए गए?
‘सांप्रदायिकता’ की हीन ग्रन्थि से ग्रस्त भाजपा की पिछली सरकारों की तरह मोदी सरकार भी ‘असहिष्णुता’ की हीन ग्रन्थि से ग्रस्त प्रतीत होती है। सरकार डरी हुई लग रही है कि कार्यवाही करने से पुरस्कार वापसी का ड्रामा फिर से न शुरु हो जाय। लेकिन अति सर्वत्र वर्जयेत। सरकार की अति सहिष्णुता अन्ततः असहिष्णुता को ही बढ़ावा देनेवाली सिद्ध होगी। इसका फायदा देशद्रोही और असामाजिक शक्तियां ही उठायेंगी क्योंकि हम अत्यधिक विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आदी नहीं हैं। हम अपने अधिकारों की बात तो करते हैं, परन्तु कर्त्तव्यों के प्रति सदा से उदासीन रहे हैं। सरकार की सहिष्णुता बेलगाम राष्ट्रद्रोह को प्रोत्साहित कर रही है।
अगर मोदी सरकार अपने बड़ बोले सदस्यों की वाणी पर लगाम लगा दे,तो शायद बहुत से समस्याओं का निदान मिल जाये,क्योंकि अभिव्यक्ति की आजादी का सबसे अधिक दुरूपयोग वे ही लोग कर रहे हैं.
प्रश्न अभिव्यक्ति की आजादी से बड़ा है. क्या वामपंथी या अन्य मुखौटे लगाए कुछ एजेंटों को सरकारी धन से चल रहे संस्थान से देश विरोधी गतिविधी सचालन करने की छूट हो या नही. पुरुषोत्तम अग्रवाल, कमलमित्र चिनॉय और आनन्द कुमार सरीखे कुछ पूर्व प्राध्यापक छात्र राजनीति में गुंडागर्दी को प्रश्रय दे कर इन संस्थानों द्वारा साम्राज्यवादी शक्तियो के हित साधन का काम कर रहे है.छात्र तो बिचारे कठपुतली है, बड़ी मछलियो पर कारवाही होनी चाहिए.