मतदाता और राजनेताओं के मध्य लोकतन्त्र

lokराजनीति का पहला सबक या कहें कि लोकतन्त्र की पहली परिभाषा यह कि ‘‘जनता का शासन, जनता के लिए, जनता के द्वारा” का कोई सैद्धान्तिक प्रभाव नहीं रह गया है। हो सकता है कि बहुत से राजनैतिक विश्लेषकों को, राजनैतिक जानकारों को, प्राध्यापकों को हमारी यह बात न जँचे पर सत्यता तो यही है। आज जिस प्रकार से सत्ता के लिए आपसी चाल और नीतियों का खेल खेला जा रहा है उसको देखकर तो लगता ही नहीं है कि जनता का शासन वाकई जनता के लिए है।
किसी भी लोकतान्त्रिक देश की सबसे पहली महती आवश्यकता यह होनी चाहिए कि उस देश की जनता स्वयं को लोकतन्त्र का नागरिक समझे। विश्व के सबसे बड़े गणतान्त्रिक देश होने का हम दावा तो करते हैं पर देखा जाये तो किसी भी रूप में सकारात्मक लोकतन्त्र का प्रभाव हमारे ऊपर नहीं दिखाई देता है। बहुत कुछ सिद्धान्तों पर निर्भर होने के बाद भी सैद्धान्तिक स्वरूप हमारे आसपास भी फटकता नहीं दिखता है।
यदि इसे किसी पूर्वाग्रह के रूप में न देखा जाये तो क्या कोई भी इस बात से इनकार करेगा कि वर्तमान में चल रही लोकसभा के लिए जब विगत चुनावों में जनता ने अपने मत का प्रयोग किया था तो उसके सामने वर्तमान प्रधानमंत्री जी का स्वरूप था? शायद ही किसी ने सोचा होगा कि माननीय मनमोहन सिंह जी इस देश के प्रधानमंत्री बनकर सामने आने वाले हैं? लोकसभा का प्रतिनिधित्व करने वाला व्यक्ति लोकसभा का पूरे पाँच वर्ष तक सदस्य ही नहीं रहा, क्या यह लोकतन्त्र का मजाक नहीं? इसी प्रकार से विगत वर्ष में चले एक राजनैतिक ड्रामे को तो कोई भी अभी तक नहीं भूला होगा, जबकि देश की एक बड़ी राजनैतिक पार्टी के समर्थन से एक निर्दलीय को मुख्यमंत्री बनना नसीब हो गया था। क्या ऐसा हमारे संविधान निर्माताओं ने सोचा होगा कि कभी इस लोकतांत्रिक देश में ऐसा भी दिन आयेगा?
वास्तव में इस देश में लोकतन्त्र यहीं तक सीमित है। जनता के सामने मशीन रहती है, पल भर को उसके सामने किसी को भी बनाने, किसी को भी बिगाड़ने की शक्ति होती है। मतदान किया और लोकतन्त्र समाप्त। यह हास्यास्पद लगता है पर सत्यता यही है। इस देश की जनता के सामने लोकतन्त्र चुनाव के समय आता है और वह भी मात्र दो-तीन पल को। इस प्रकार के लोकतन्त्र के साथ जनता कैसे सोचे कि उसका शासन, उसके लिए, उसके द्वारा चलाया जा रहा है?
मतदाता की तरह से राजनेता विचार नहीं करते हैं। यदि विचार करते होते तो किसी को अपने खानदान का नाम, किसी को अपने विगत को बताने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इस बार तो बहुत आम रूप में देखने में आया है कि मुद्दों के स्थान पर नामों के साथ चुनाव लड़ा जा रहा है। कोई किसी को इस परिवार का तो कोई किसी को दूसरे परिवार का बता रहा है। किसी के सामने दलित वोट बैंक के रूप में स्थाापित है तो कोई मुसलमानों को अपने वोट बैंक के रूप में देखना पसंद कर रहा है। विकास के नाम पर तो किसी की लड़ाई नहीं लड़ी जा रही है तो कोई न कोई बात तो ऐसी चाहिए जो जनता के मतों को उस दल के लिए परिवर्तित कर दे। जब कुछ नहीं बन सका तो प्रधानमंत्री की दौड़ शुरू हो गई है। इससे विद्रूप स्थिति शायद भारतीय राजनैतिक इतिहास मे कभी ही रही हो जबकि नेताओं को स्वयं अपने आपको प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करना पड़ रहा हो। यह भी राजनैतिक पतन की पहचान है, अस्तित्व संकट की पहचान है।
ऐसी स्थिति में जबकि न तो मतदाता के सामने और न ही राजनेता के सामने कोई रास्ता है तब लोकतन्त्र के जीवित रहने के प्रमाण जुटा पाना भी मुश्किल प्रतीत होता है। आज किसी राजनेता के नाम पर, स्वयं को दलित का मसीहा बता कर, धर्म के नाम पर अपने आपको प्रतिस्थापित कर, धर्मनिरपेक्ष का मुखौटा धारण कर मतदाताओं को रिझाने का प्रयास किया जा रहा है। राजनेताओं के लिए भी यहीं तक लोकतन्त्र है उसके बाद तो वही करना है जो सत्ता करवायेगी, कहलवायेगी। मतदाता भी अपने इस दो पल के लोकतन्त्र का उपयोग कर सुखी है। राजनेता भी इसी दो पल के लोकतन्त्र में जनता को सुन-सूझ रहा है, बाद में तो जनता ही उसे समझती, सुनती है। मतदाता और राजनेता के मध्य लोकतन्त्र कहीं पिस कर दम ही न तोड़ दे?
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डा0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
सम्पादक-स्पंदन
110 रामनगर, सत्कार के पास,
उरई (जालौन) उ0प्र0 285001
मोबा0 9793973686

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