भाजपा के लिये चुनौती भी और चिन्ता भी

1
111

-ललित गर्ग –

हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव नतीजे अनुमान के विपरीत आए हैं। भाजपा को पूरा विश्वास था और मतदान पश्चात के सर्वेक्षण भी बता रहे थे कि दोनों राज्यों में भाजपा को ऐतिहासिक जीत हासिल होंगी, यह भाजपा का अहंकार था या विश्वास। भले ही दोनों ही प्रांतों में सत्ता विरोधी लहर नजर नहीं आयी हो, लेकिन जो आधी अधूरी जीत हासिल हुई है उसका कारण सामने सशक्त विपक्षी दलों एवं उम्मीदवारों का अभाव ही कहा जायेगा। यह एक संकेत या चेतावनी है भाजपा के लिये। चंद माह पहले लोकसभा चुनावों में भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व और अमित शाह के कुशल चुनावी नेतृत्व में देश के अन्य अनेक हिस्सों के साथ महाराष्ट्र और हरियाणा में भी शानदार जीत हासिल की थी, लेकिन विधानसभा चुनावों में इन दोनों राज्यों में विपक्षी दल उसे चुनौती देते नजर आए। दोनों राज्यों के नतीजे भाजपा को चिंतित करने के साथ ही उसके आत्मविश्वास पर असर डालने वाले हैैं। ये चुनाव नतीजे भाजपा के लिये आत्ममंथन की स्थितियों का कारण भी बने हैं।
   भाजपा की यह दुर्बलता ही है कि उसे कभी अपनी भूल नजर नहीं आती जबकि औरों की छोटी-सी भूल उसे अपराध लगती है। काश! पडोसी के छत पर बिखरा गन्दगी का उलाहना देने से पहले वह अपने दरवाजे की सीढ़िया तो देख लें कि कितनी साफ है? सच तो यह है कि अहं ने सदा अपनी भूलों का दण्ड पाया है। तभी किताब ‘इगो इज एनिमी’ में लेखक रेयान हॉलिडे लिखते हैं, ‘अहंकार सफलता और संतुष्टि दोनों का दुश्मन है। इस पर कड़ी नजर बनाए रखना जरूरी है।’ भाजपा के लिये ये चुनाव परिणाम सतर्क एवं सावधान होने की टंकार है और अपने अहंकार की पकड़ को व्यावहारिक रूप दिये जाने की अपेक्षा है।  
भले ही महाराष्ट्र में देवेंद्र फड़नवीस और हरियाणा में मनोहरलाल खट्टर सरकार बना ले। लेकिन सचाई यही है कि दोनों ही प्रांतों में मतदाता का मुड बदला है। हरियाणा में तो विपक्ष ने एक तरह से भाजपा का विजय रथ ही रोक दिया। यहां भाजपा ने 75 पार का लक्ष्य तय किया था, लेकिन उसे 40 सीटें ही मिलीं। इसके विपरीत जो कांग्रेस गुटबाजी से ग्रस्त दिखने के साथ मुद्दों के अभाव से जूझ रही थी, उम्मीद के उलट दोनों राज्यों में कांग्रेस की हैसियत बढ़ी है। ऐसे वक्त में जब कांग्रेस के भीतर कलह है, बहुत सारे नेता छोड़ कर जा चुके हैं या फिर नाराज चल रहे हैं, दोनों राज्यों में वह बहुत ढीले-ढाले तरीके से मैदान में उतरी थी, तब उसका भाजपा को टक्कर देना और चैंकाने वाले नतीजों तक पहुंच जाना मतदाता के मन की कुछ और ही थाह देता है। उसने पिछली बार के मुकाबले दूनी सीटें हासिल कर लीं और नई बनी दुष्यंत चैटाला की जननायक जनता पार्टी ने 10 सीटें हासिल कर लीं। जब यह लग रहा था कि त्रिशंकु विधानसभा के कारण हरियाणा में सरकार गठन में देरी होगी तब भाजपा ने बड़ी आसानी से बहुमत का जुगाड़ कर लिया। पहले करीब-करीब सभी निर्दलीय उसके साथ आ गए, फिर जननायक जनता पार्टी उसके साथ सरकार में शामिल होने को तैयार हो गई।
इन दोनों प्रांतों के विधानसभा चुनावों में इस बार स्थानीय मुद्दे की बजाय राष्ट्रीय मुद्दें अधिक प्रभावी रहे हैं, शायद इन्हीं राष्ट्रीय मुद्दों के बल पर भाजपा पिछले पांच सालों से विजय रथ पर सवार है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर लोगों का भरोसा कमजोर नहीं हुआ है। इसलिए जिन राज्यों से भाजपा की सरकारें रही हैं, वहां माना जाता रहा है कि यह भरोसा और एकमात्र मोदी का चमत्कारी व्यक्तित्व उसे विजय दिलाएगा। मगर राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में यह प्रभाव काम नहीं आया। फिर लोकसभा चुनावों में भाजपा ने अप्रत्याशित विजय हासिल की, तो पार्टी के हौसले स्वाभाविक रूप से बढ़े। इसके अलावा मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस कमजोर होती दिखी। हरियाणा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के कई कद्दावर नेता अलग हो गए। वे अलग-अलग मंचों से अपनी ताकत प्रदर्शित करने लगे। उससे भी भाजपा की स्थिति मजबूत लगने लगी थी। लेकिन मतदाता परेशान था, उसका मानस बदला हुआ था, वह अपनी समस्याओं का समाधान चाहता था, ऐसा कुछ भाजपा के आश्वासनों में उसे दिखाई नहीं दिया। महाराष्ट्र और हरियाणा में आम मतदाता की नाराजगी की कुछ वजहें साफ हैं। एक तो यह कि उसने स्थानीय मुद्दों के बजाय कश्मीर, राष्ट्रवाद, पाकिस्तान, सुरक्षा आदि मुद्दे उठाए। स्थानीय मुद्दांे की तरफ ध्यान नहीं दिया गया, जबकि विपक्षी दल उसे महंगाई, खराब अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, किसानों की बदहाली आदि मुद्दों पर घेर रहे थे। इसके अलावा भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं में जीत का अतिरिक्त आत्मविश्वास एवं अहंकार नजर आने लगा था। महाराष्ट्र के बाढ़ के दौरान पैदा अव्यवस्था से निपटने में जिस कदर फड़नवीस सरकार विफल देखी गई और सारे काॅलोनी के वन क्षेत्र को काटा गया, उससे भी लोगों में रोष था। किसानों की स्थिति सुधारने पर भी प्रदेश सरकार अपेक्षित ध्यान नहीं दे पाई। इसके अलावा उपचुनावों के परिणाम भी भाजपा के लिए बहुत उत्साहजनक नहीं है। ऐसे में ताजा नतीजे भाजपा को अपनी रणनीति पर फिर से विचार करने की तरफ संकेत करते हैं। चुनाव परिणामों का संबंध चुनावों के पीछे अदृश्य ”लोकजीवन“ से, उनकी समस्याओं से होता है। संस्कृति, परम्पराएं, विरासत, व्यक्ति, विचार, लोकाचरण से लोक जीवन बनता है और लोकजीवन अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति से ही लोकतंत्र स्थापित करता है, जहां लोक का शासन, लोक द्वारा, लोक के लिए शुद्ध तंत्र का स्वरूप बनता है। जब-जब चुनावों में लोक को नजरअंदाज किया गया, चुनाव परिणाम उलट होते देखे गये हैं।
चुनावों से लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुरूआत मानी जाती है, पर आज चुनाव लोकतंत्र का मखौल बन चुके हैं। चुनावों में वे तरीके अपनाएं जाते हैं जो लोकतंत्र के मूलभूत आदर्शों के प्रतिकूल पड़ते हैं। इन स्थितियों से गुरजते हुए, विश्व का अव्वल दर्जे का कहलाने वाला भारतीय लोकतंत्र आज अराजकता के चैराहे पर है। जहां से जाने वाला कोई भी रास्ता निष्कंटक नहीं दिखाई देता। इसे चैराहे पर खडे़ करने का दोष जितना जनता का है उससे कई गुना अधिक राजनैतिक दलों व नेताओं का है जिन्होंने निजी व दलों के स्वार्थों की पूर्ति को माध्यम बनाकर इसे बहुत कमजोर कर दिया है। आज ये दल, ये लोग इसे दलदल से निकालने की क्षमता खो बैठे हैं।
जब एक अकेले व्यक्ति का जीवन भी मूल्यों के बिना नहीं बन सकता, तब एक राष्ट्र मूल्यहीनता में कैसे शक्तिशाली बन सकता है? अनुशासन के बिना एक परिवार एक दिन भी व्यवस्थित और संगठित नहीं रह सकता तब संगठित देश की कल्पना अनुशासन के बिना कैसे की जा सकती है? इन चुनावों में दो बातें उभर कर आई हैं। एक तो जनता में परिपक्वता आई है। जनता संयमित हुई है। पर प्रत्याशी चयन के लिए अच्छा विकल्प नहीं होना एवं प्रभावी विपक्ष का न होना, उनकी मजबूरी बन गई है। यह मजबूरी ही एक दिन सशक्त विकल्प का कारण बनेगी। या तो कांग्रेस को सशक्त होना होगा, या नया विपक्षी दल ही इसका विकल्प है, तब तक भाजपा को इसका लाभ मिलता रहेगा।
दूसरी बात चुनाव का मुद्दाविहीन एवं आम व्यक्ति की समस्याओं पर सन्नाटा पसरा होना है। लुभावने नारों से जनता अब सावधान हो चुकी है।  ”जैसा चलता है– चलने दो“ की नेताओं की मानसिकता और कमजोर नीति ने जनता की तकलीफें बढ़ाई हैं। ऐसे सोच वाले व्यक्तियांे को अपना प्रांत नहीं दिखता। उन्हें राष्ट्र कैसे दिखेगा?
भारत मंे जितने भी राजनैतिक दल हैं, सभी ऊंचे मूल्यों को स्थापित करने की, आदर्श की बातों के साथ आते हैं पर सत्ता प्राप्ति की होड़ में सभी एक ही संस्कृति को अपना लेते हैं। मूल्यों की जगह कीमत की और मुद्दों की जगह मतों की राजनीति करने लगते हैं। चुनावों की प्रक्रिया को राजनैतिक दलों ने अपने स्तर पर भी कीचड़ भरा कर दिया है। प्रत्याशी की आधी शक्ति तो पार्टी से टिकट प्राप्त करने में ही लग जाती है, चैथाई शक्ति साधन जुटाने में और चैथाई शक्ति झूठे हाथ जोड़ने में, झूठे दांत दिखाने में व शराब पिलाने में लग जाती है। ऐसे प्रत्याशी लोक कल्याण की सोचेंगे या स्वकल्याण की? बिना विचारों के दर्शन और शब्दों का जाल बुने यही कहना है कि लोकतंत्र के इस सुन्दर नाजुक वृक्ष को नैतिकता के पानी और अनुशासन की आॅक्सीजन चाहिए। जीत किसी भी दल को मिले, लेकिन लोकतंत्र को शुद्ध सांसें मिलनी ही चाहिए

1 COMMENT

  1. इन दोनों राज्यों के परिणाम भा ज पा के लिए बड़ा अलार्म है , अमितशाह का पार्टीमें समय कुछ कम दे पाना यदि इसका एक कारण हो सकता है तो कांग्रेस में वापिस सोनिया का आना व पूर्व नीतिकारों की कुछ परिपक्व नीतियों पर चलना सीटों के कम होने का एक कारण रहा है , बेरोजगारी , किसान समस्या को अनदेखा कर कट्टर हिन्दूवादिता , राममंदिर , राष्ट्रवाद ,जैसे मुद्दों पर आप जनता को ज्यादा समय तक नहीं भरमा सकते , आखिर आप को धरातल पर आ कर कुछ ठोस निर्णय लेने ही होंगे , वैश्विक मंडी का बहाना भी ज्यादा नहीं चल सकता क्योंकि आम जनता को उस से कोई लेना देना नहीं होता और न ही विदेश नीति से ,
    इधर कांग्रेस ने एक बड़ी समझदारी ये की किrahul को चुनाव प्रचारसे लगभग दूररखा और चुनाव राहुल विरुद्ध मोदी नहीं बन ने दिया , प्रियंका को भी नहीं आने दिया तो सोनिया भी प्रचार में नहीं आयीं , गाँधी परिवार काचुनाव प्रचार से बचना भी सीटों को बढ़ने में सहायक रहा
    उसलिए अब भा ज पा को अपनी नीतियों में परिवर्तन जरूर करना होगा केवल मोदी मैजिक से ज्यादा दिन काम नहीं चल सकता , केंद्र में बेशक वह सफल हो जाएँ लेकिन क्षेत्रीय समस्याओं पर धयान दिया जाना जरुरी है , दुसरे वोटर भी अब दिन प्रतिदिन समझदार होता जा रहा है ,

Leave a Reply to Mahendra Gupta Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here