भारत की जाति व्यवस्था और मनु

 राकेश कुमार आर्य

भारत की संस्कृति जातिवादी व्यवस्था की विरोधी है। यह मानव मात्र की एक ही जाति मानती है और मानव को ‘एक’ बनने के लिए संस्कारित करने पर बल देती है। भारतीय संस्कृति के इस प्राणसूत्र को महर्षि मनु ने मनुस्मृति में ‘जन्मना जायते शूद्र: संस्कारात्द्विज उच्यते’ कहकर स्थान दिया है। जब महर्षि मनु ऐसा कहते हैं तो वह एक सार्वभौम सत्य की घोषणा करते हैं और वह सार्वभौम सत्य यही है कि जन्म से हर व्यक्ति शूद्र होता है, संस्कार, संसर्ग और विद्वानों के संपर्क से वह द्विज बन जाता है। यदि हर व्यक्ति जन्म से ही द्विज होता तो अफ्रीका जैसे महाद्वीपों में आज भी युगों पुरानी पाशविक जीवन शैली को जीने के लिए वहां का मानव मात्र अभिशप्त नहीं होता। इसी प्रकार विश्व के अन्य बहुत से क्षेत्र हैं, जहां मनुष्य अभी भी विकास की गति में सदियों पीछे हैं। जहां-जहां संस्कारित लोग हैं और संस्कारित मानव समाज है, वहां-वहां मनुष्य अनपढ़ या अशिक्षित होकर भी सभ्य होकर रहना सीख जाता है।

पाठशाला जाने से पहले बच्चा बहुत कुछ सीख लेता है, और इतना ही नहीं मां के गर्भ में रहकर भी वह सीखता ही रहता है। इस प्रकार मनुष्य की शिक्षा का शुभारंभ उसके पाठशाला जाने के संस्कार से न होकर ‘गर्भाधान संस्कार’ से ही हो जाता है। यही कारण है कि भारतीय वैदिक संस्कृति में गर्भाधान संस्कार का भी प्राविधान किया गया है। जब हम बच्चे के पाठशाला में प्रवेश पाने वाले संस्कार को पूर्ण करते हैं-तो उससे पूर्व आने वाले संस्कारों का भी अपना महत्व है और वे हमें यही बताते हैं कि हमारा निर्माण वेदारम्भ संस्कार से पूर्व से ही जारी है। मां का जैसा चिंतन होता है-वैसी उसकी बौद्घिक प्रतिभा होती है, उसका वैसा ही प्रभाव बच्चे पर पड़ता है। इस प्रकार हमारे लिए मां के गर्भ में बीतने वाले 9 माह किसी अंधकारमयी कोठरी में बीतने वाले माह न होकर हमारे नवनिर्माण के माह होते हैं, जिनमें हम आगे मिलने वाले जीवन को उत्कृष्टता से जीने की तैयारी कर रहे होते हैं। जैसे ही हमारा जन्म होता है तो मां के द्वारा गर्भ में दिये गये संस्कार हमें यथाशीघ्र अपने पिता की ओर आकृष्ट करते हैं, एक छोटा सा नवजात शिशु भी संसार में आकर सर्वप्रथम अपने पिता को सबसे पहले पहचान लेना सीख जाता है। कारण कि उसे मां से यही संस्कार मिला है। वह बच्चा अपने रक्त संबंध के लोगों को शीघ्र ही पहचानने लगता है-इसका भी कारण यही है कि उसे उसकी मां ने उसके रक्त संबंधियों का परिचय उसके गर्भकाल में ही करा दिया था। इसके पश्चात पाठशाला जाने से पूर्व भी बच्चा खाना-पीना, उठना-बैठना, दौडऩा, बोलना आदि अनेकों क्रियाएं सीख जाता है। इतना सीख लेता है कि यदि उसे अब अक्षर ज्ञान न भी मिले तो भी वह एक साधारण मनुष्य की भांति तो जीवन जी ही सकता है। पर उसके लिए साधारण बने रहना संभव नहीं है, इसलिए वह असाधारण बनने के लिए और भी अधिक ज्ञानार्जन करना चाहता है।
उसके परिजन और प्रियजन भी यही चाहते हैं कि वह असाधारण बने। किसी बच्चे का साधारण से असाधारण बनने का यह ‘शिव संकल्प’ ही उसे द्विज की ओर ले जाता है और द्विजतत्व की प्राप्ति कराकर उत्कृष्ट मानव समाज की स्थापना करना ही हिंदुत्व है। अत: हिन्दू समाज में और हिंदुत्व में जातिवाद के लिए कोई स्थान नहीं है। हमारे देश के संविधान में जब जाति, संप्रदाय या लिंग के आधार पर मानव मानव के मध्य भेदभाव न करने की बात कही गयी थी तो संविधान का यह प्राविधान एक प्रकार से हर व्यक्ति को साधारण से असाधारण बनने की भारतीय संस्कृति की चैतन्य साधना को नमन करते हुए भारत के ‘हिन्दुत्व’ को ही प्रणाम करने के समान था।

डा. भीमराव अंबेडकर भारत में जातिवाद के घोर विरोधी थे और वह इसे भारतीय समाज की उन्नति में सबसे बड़ी बाधा मानते थे। डा. अंबेडकर उन लोगों की मानसिकता के भी विरोधी थे, जिन्होंने अपनी दुकानदारी को चमकाने और निहित स्वार्थों की पूत्र्ति के लिए भारतीय समाज में जातिवाद को प्रोत्साहित किया और समाज में ऊंच-नीच व छुआछूत की बीमारी को भी फैलाया। डा. अंबेडकर मनु को जातिवाद का प्रणेता नहीं मानते थे और वह महर्षि दयानंद जी महाराज की जाति विषयक अवधारणा से तथा मनु के सिद्घांतों की आर्य समाजी व्याख्या से भी सहमत व संतुष्ट थे। वह चाहते थे कियह परम्परा आगे बढ़े और भारतीय समाज में समरसता का परिवेश सृजित हो।

डा. भीमराव अंबेडकर का यही सपना था। पर उनके जाने के पश्चात उनकी विरासत को जिन लोगों ने भुनाने का प्रयास किया- उन्होंने देश का जातिवाद के नाम पर धु्रवीकरण करना आरंभ कर दिया। डा. अंबेडकर जी की प्रतिमाएं भी कुछ विशेष लोगों ने ही अपने मौहल्लों में लगानी आरंभ कर दीं। जितना वह डा. अंबेडकर जी को अपना मानकर उन पर अपना अधिकार जमाते गये-उतना ही उन्हें अन्य लोगों ने छोडऩे का कार्य किया, इस प्रकार एक महान विचारक और जाति तोडक़र समाज जोडऩे की संकल्पना करने वाला समाज सुधारक किसी जाति विशेष या वर्ग विशेष का बना दिया गया। निश्चित ही डा. अंबेडकर के साथ यह अन्याय था और इसके लिए कोई विशेष जाति या वर्ग उत्तरदायी नहीं रहा, हम सभी दोषी हैं।

डा. अंबेडकर के नाम पर जातीय भेदभाव को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न सामाजिक संगठन बने और कई राजनीतिक दलों ने भी डा. अंबेडकर के नाम को अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए प्रयोग किया। कई राजनीतिक दलों को इसका लाभ भी मिला और वे सत्ता शीर्ष तक पहुंच गये। परंतु हम सारी नकारात्मक सोच से देश को हानि हुई। 1947 में हम ‘एक भारत’ बनाने का संकल्प लेकर आगे बढ़े थ् पर आज हम जातीय विसंगतियों के मकडज़ाल में फंसकर रह गये हैं। सारी राजनीति दूषित हो गयी है और सारा सामाजिक परिवेश भी विषैला हो गया है। राष्ट्रीय स्तर पर ‘स्वच्छता अभियान’ की आवश्यकता है जो लोग वर्तमान संविधान को केवल गाली देने का ही कार्य कर रहे हैं उन्हें यह भी समझना चाहिए कि इसी संविधान को यदि पूर्ण मनोयोग से सही ढंग से लागू कर दिया जाए तो यह संविधान भी हमें हमारी अनेकों समस्याओं का समाधान दे सकता। इसके अनेकों प्राविधान हमारे आदि संविधान निर्माता मनु की भावना के अनुरूप हैं। उन्हें खोजकर सही ढंग से लागू कराने की आवश्यकता है।

1 COMMENT

  1. महोदय,
    कभी अखबारों का Matrimonial वाला page पढ़िये। उस पेज को पढ़कर पता चलेगा, कौन जातिवाद को बनाए रखना चाहता है।

    हिन्दू धर्म में सेवा को अच्छा नहीं माना गया है – तभी तो सेवा करने वालों (शूद्र) को वर्ण व्यवस्था में चौथे नम्बर पे रखा गया।

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