भारत में काले धन की जननी : ईस्ट इंडिया कंपनी

मनोज ज्वाला

भारत में ‘काले धन’ की चर्चा पिछले कुछ वर्षों से सुर्खियों में है। किन्तु, कम ही लोग यह जानते हैं कि यहां काले धन का ईजाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी की कोख से हुआ है। अंग्रेजों के आगमन से पहले यहां ‘काली कमाई’ और ‘काला धन’ का कोई प्रामाणिक इतिहास नहीं मिलता है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की धार्मिक, सांकृतिक, आध्यात्मिक अवधारणा पर आधारित भारत की प्राचीनकालीन अर्थव्यवस्था और इसी अवधारणा के इर्द-गिर्द घूमती प्राचीनेत्तरकालीन भारतीय अर्थव्यवस्था में ‘काली कमाई’ जैसा कोई आर्थिक उद्यम कभी भी धनोपार्जन का स्रोत नहीं रहा। न ही ‘कर-वंचना’ एवं उससे कालाधन-निर्मिति की कोई अवांछित प्रवृति रही थी। यहां के लोग तो धर्म-आधारित अर्थोपार्जन से मोक्षोन्मुख कामनाओं की पूर्ति किया करते थे। यहां राज-सत्ता के प्रति कर-वंचना तो दूर, व्यक्तिगत पुरुषार्थ से अर्जित पदार्थों का निर्धारित भाग वायु-वरुण जैसे परोक्ष देवताओं के नाम पर अग्नि में होम कर देने का यज्ञीय विधान आम जन-जीवन में प्रचलित रहा था। विदेशियों द्वारा भारत को ‘सोने की चिड़िया’ का जो विशेषण दिया गया, वह चिड़िया निश्चित ही स्वर्णिम चिड़िया थी, ‘काली चिड़िया’ कतई नहीं। यहां के पूंजीपति ‘ग्राम-श्रेष्ठी’ और ‘नगर श्रेष्ठी’ कहे जाते थे। जाहिर है, वे श्रेष्ठ रीति से धन के उपार्जन और श्रेष्ठ प्रयोजनों में उसके नियोजन के कारण श्रेष्ठी कहलाते थे, न कि धनसंचयन के कारण। किन्तु, धन-लोलुप पश्चिमी आक्रान्ताओं के अर्थोन्मुखी कुशासन और अतिभ्रष्ट आचरण के कारण हमारी अर्थव्यवस्था में कालाधन का प्रवेश होता गया। मुगलिया शासन तक यहां ‘काली कमाई’ और ‘काला धन’ की व्युत्पति-व्याप्ति नहीं के बराबर ही थी।उल्लेखनीय है कि भारत पर अंग्रेजी शासन स्थापित होने से पहले यहां अनेक ऐसे बड़े-बड़े पूंजीपति हुआ करते थे, जिनकी पासंग में भी नहीं थी ईस्ट इण्डिया कम्पनी। अकेले बंगाल में ही लखीमचंद सेठ ऐसा बड़ा कारोबारी था, जिसकी व्यापारिक कोठियां-गद्दियां देशभर में ही नहीं, विदेशों में भी कायम थीं। राजसता के संरक्षण में मालगुजारी-वसूली के साथ-साथ मुद्रा की विनिमय-दर का वैश्विक निर्धारण भी उन्हीं कोठियों-गद्दियों से हुआ करता था। इसी कारण बंगाल के नवाब से लेकर दिल्ली के बादशाह तक ने उसे ‘जगत सेठ’ की उपाधि दे रखी थी। आज दुनियाभर की मुद्राओं की विनिमय-दर निर्धारित करने का जो काम परोक्षतः अमेरिकी पूंजीपति किया करते हैं, वह काम तब यहां के ‘जगत सेठ’ किया करते थे।उन दिनों समस्त विश्व-व्यापार में 60 प्रतिशत से भी अधिक भारत की भागीदारी थी। ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भी बंगल के लखीमचंद सेठ ने ही शाही सिफारिश पर भारी कर्ज दिया हुआ था, जो उसे आज तक नहीं लौटाया गया। पं. सुन्दरलाल की पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’ में वर्णित तथ्यों के अनुसार ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया ट्रेडिंग कम्पनी वास्तव में समुद्री लुटेरों का एक संगठित गिरोह थी। ब्रिटिश राजमहल को लूट के माल में से हिस्सेदारी देकर वहां से ‘ट्रेडिंग लाइसेंस’ हासिल कर लेने के पश्चात भारत के तत्कालीन मुगल बादशाह के नाम ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ का खत लेकर यहां आया ‘टॉमस रो’ डचों और पुर्तगालियों के मुकाबले किसी तरह से पनाह पाते ही लूटपाट की गतिविधियां क्रियान्वित करने लगा था। कालांतर बाद वे समुद्री लुटेरे उत्तरवर्ती मुगल शासकों को जैसे-तैसे प्रभावित करते हुए कतिपय रियायतें हासिल कर व्यापारिक जहाजों की लूट से हासिल धन की बदौलत समुद्र किनारे कुछ स्थानों पर अपनी कोठियां स्थापित कर लिए। कम्पनी की वे कोठियां सिर्फ कहने-देखने को व्यापारिक थीं, वास्तव में वे तो हथियारों के गोदाम तथा भाड़े के दस्युओं और गोरी चमड़ी वाली बिकाऊ जिस्मों का अड्डा थीं। दिल्ली के मुगल-बादशाह फर्रुख सियर से उन विलायती जिस्मों की बदौलत चुंगी-मुक्त व्यापार करने और कम्पनी का अवैधानिक सिक्का चलाने की अनुमति प्राप्त कर कम्पनी के कारिन्दे कलकत्ता में भी अपने काले-करनामों को अंजाम देने लगे थे। भारत में अवैधानिक मुद्रा-चलन का वह पहला मामला था, जिसे अवैध घोषित करते हुए बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने कलकत्ता स्थित कम्पनी की कोठी को सील कर 146 गोरों को एक छोटे से कमरे में बंद कराकर मरने को विवश कर दिया था। इतिहास में वह घटना ‘ब्लैक होल’ के नाम से प्रसिद्ध है, जिसकी परिणति पलासी के तथाकथित युद्ध से हुई। सन 1757 का पलासी युद्ध वास्तव में कोई युद्ध नहीं था, बल्कि ‘काले धन से हुए सियासी परिवर्तन’ का पहला उदाहरण था। सिर्फ 40 मिनट के उस तथाकथित युद्ध में नवाब के 18000 सिपाही कम्पनी के मात्र 300 लुटेरों के सामने समर्पण कर दिए, क्योंकि सिराजुद्दौला के सेनापति मीर जाफर को कम्पनी के कारिन्दों ने जगत सेठ से हासिल रुपयों से खरीद लिया था। फिर तो छल-छद्म के सहारे लूट-मार का अपना राजपाट स्थापित कर लेने के बाद अधिकाधिक धन बटोरने के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत की धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आधारित आर्थिक संरचना में छेड़छाड़ कर लगान के आकार-प्रकार को अपनी जरूरतों के अनुसार निर्धारित किया। भारत के उद्योगों को नष्ट करने व यहां के कच्चे माल को ब्रिटेन पहुंचाने और ब्रिटेन के कारखानों से निर्मित माल को ऊंची कीमतों पर भारत में बेचने के लिए भी उसने एक से एक हथकण्डे अपनाये। ‘ए पर्सनल नेरेटिव ऑफ टू ईयर इम्प्रिज्न्मेण्ट इन वर्मा’ नामक पुस्तक में हेनरी गूगर नामक एक अंग्रेज लेखक ने ही कम्पनी की काली कमाई का खुलासा करते हुए लिखा है – ‘कम्पनी के मुलाजिम गांव-गांव में घूमते और किसानों-कारीगरों को महज एक-दो रुपये थमा देते। जो पेशगी लेने से इनकार कर देते, उनके घरों में एक-एक सिक्का फेंककर उनके रेशम बलपूर्वक उठा ले जाते।’ ऐसी लूट-खसोट की काली कमाई से उत्पन्न काले धन की व्याप्ति का आलम यह था कि कम्पनी का अदना-सा कर्मचारी भी ब्रिटेन के बड़े से बड़े रईस की बराबरी करने लगा, जिसका ब्रिटेन में समय-समय पर विरोध भी होता रहा था। कम्पनी के कारोबार पर निगरानी रखने और उसकी ट्रेडिंग लाइसेंस के हर बीस वर्षों पर नवीनीकरण करने सम्बन्धी ‘चार्टर्ड एक्ट’ नामक कानून बनाने वाली ब्रिटिश पर्लियामेण्ट में उसके भ्रष्टाचार पर प्रायः बहसें हुआ करती थीं।  इसके कारण उसे सांसदों, मंत्रियों एवं महारानी को अपनी काली कमाई में से भारी-भरकम रिश्वत देनी पड़ती थी। इस बाबत भी कम्पनी के अधिकारी काली-कमाई के एक से एक तरीकों को अंजाम दिया करते थे।वारेन हेस्टिंग्स, जो ईस्ट इण्डिया कम्पनी में कभी मामूली किरानी (क्लर्क) हुआ करता था। बाद में कम्पनी का गवर्नर बन गया था। उसके खिलाफ नन्द कुमार नामक एक बंगाली ब्राह्मण ने तो कलकत्ता उच्च न्यायलय में एक गम्भीर आरोप लगाया था कि उसने मीर जाफर की विधवा मुन्नी बेगम को नये नाबालिग नवाब की संरक्षक नियुक्त करने के नाम पर उससे साढ़े तीन लाख रुपये रिश्वत लिया हुआ था। हेस्टिंग्स ने इतना काला धन कमा लिया था कि उसके विरूद्ध ब्रिटिश सांसद अधिवक्ता एडमण्ड बर्क ने 13 फरवरी 1788 को आय से अधिक सम्पति मामले का एक मुकदमा ठोंक दिया था। यह भारत में ‘काली कमाई’ का शायद पहला मामला था। स्पष्ट है कि भारत में लूट-खसोट, घूस-रिश्वत एवं कर-चोरी व कालाबाजारी से काली कमाई और काले धन की निर्मिति-व्याप्ति ईस्ट इण्डिया की काली नीतियों से कायम राजसत्ता के कारण हुई, जो प्रकारान्तर से आज भी जारी है।

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