भारत में नागपूजन की परम्परा

नागपूजन
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-अशोक “प्रवृद्ध”

वैदिक ग्रन्थों के अनुसार आदि सनातन काल में एकेश्वरवाद अर्थात एकमात्र परमात्मा के अस्तित्व पर मनुष्यों का पूर्णतः विश्वास था , परन्तु बाद में मनुष्यों का वेद और वैदिक ग्रन्थों से दुराव के कारण संसार में अनेक देवी- देवताओं का पूजन- अर्चना किये जाने अर्थात बहुदेववाद की परिपाटी प्रचलन में आ गई । इस परिप्रेक्ष्य में कृण्वन्तो विश्वमार्यम्‌ की अनहद गर्जना के साथ आगे बढ़ते हुए आर्यों को भिन्न-भिन्न उपासना करने वाले अनेक समूहों के संपर्क में आना पड़ा। वेदों के प्रभावी विचार को अलग-अलग पुंजों में प्रचार-प्रसार कर उनके पास पहुँचाने के लिए आर्यों ने अत्यधिक परिश्रम करके उन अलग-अलग पुंजों के साथ उनमें चलती विभिन्न देवताओं की पूजा को स्वीकार किया और आत्मसात करके अपने में मिला लिया। नाग के समान विषधर को देव के रूप में स्वीकार करने में भी आर्यों के हृदय की विशालता का हमें दर्शन होता है। इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं कि भारतीय संस्कृति ने पशु-पक्षी, वृक्ष-वनस्पति सबके साथ आत्मीय संबंध जोड़ने का प्रयत्न किया है। भारत में गाय की पूजा गोमाता रूप में होती है। स्त्रियाँ कोकिला-व्रत करती हैं। इस व्रत का नियम है कि कोयल के दर्शन होने अथवा उसका स्वर कान पर पड़ने पर ही भोजन ग्रहण किया जाता है अन्यथा नहीं । हमारे यहाँ वृषभोत्सव के दिन बैल का पूजन किया जाता है। वट-सावित्री जैसे व्रत में बरगद की पूजा होती है, परन्तु नाग पंचमी के अवसर पर नाग जैसे विषधर का पूजन हमारी संस्कृति की विशिष्टता की पराकाष्टा की सर्वोच्च प्रतीक बनकर उभरती है।

दरअसल भारतीय संस्कृति के सर्वमान्य सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक प्राणी ईश्वर का अंश है। भारतीय चिंतन प्राणिमात्र में परमात्मा का दर्शन करता है। इसीलिए वह जीव- जंतु, नदी, पहाड़-पर्वत, वृक्ष व अन्य प्राकृतिक उपादानों के प्रति देवत्व का भाव रखता है और उनकी पूजन-अर्चा करता है। मानवों के लिए हिंस्र समझे जाने वाले जीवों को भी पूजनीय मानता और उनके संरक्षण, संवर्द्धन और प्रवर्द्धन के लिए तत्पर रहता है। यही कारण है कि नाग अर्थात सर्प को विषधर होने के कारण भारतीय इन्हें शत्रुता अथवा घृणा की दृष्टि से नहीं देखते, वरन इनमें देवत्व की भावना रखते हैं। भारत में नाग-पूजा की परंपरा अत्यंत प्राचीनकाल से प्रचलित है और नाग पंचमी को सर्पों की पूजा विधि-विधान से किये जाने की परिपाटी है। भारत में विषधर जीव को भी देवतुल्य समझा जाता है और नाग देव कहा जाता है। पौराणिक सभ्यता में नागों की महत्ता का पता इस बात से चलता है कि भगवान शंकर को नागों, सर्पों की माला को आभूषण की तरह धारण करते, शिवपुत्र गणेश को नाग को यज्ञोपवीत की भांति पहनते दिखलाया गया है वहीं भगवान विष्णु शेष नाग पर शयन करते हुए नजर आते हैं। यहाँ तक कि अवतारवाद में भी नागों का समावेश है। विष्णु के श्रीरामचंद्र के रूप में अवतार लेने पर शेषनाग के रूप में उनके अनुज अर्थात छोटे भाई बन लक्ष्मण बन उपस्थित हैं तो श्रीकृष्णावतार के समय शेषनाग उनके अग्रज अर्थात बड़े भाई बलरामजी के रूप में अवतरित उपस्थित हुए। पौराणिक भारतीय संस्कृति में अंतर्संन्निहित इन नागों की पूजा के लिए एक विशिष्ट दिन श्रावण शुक्ल पंचमी नियत किया गया है। श्रावण शुक्लपक्ष की पंचमी नाग-पूजन की विशिष्ट तिथि होने के कारण नागपंचमी के नाम से ही जानी जाती है। श्रावण शुक्ल पंचमी के इतिहास व महात्म्य पर प्रकाश डालते हुए वराह-पुराण में कहा गया है कि श्रावण शुक्ल पंचमी के ही दिन सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने अपने प्रसाद से शेष नाग को विभूषित किया था। समुद्र मंथन के समय वासुकि नाग की ही रस्सी बनाई गई थी। यही कारण है कि आदि ग्रंथ वेदों में भी नमोस्तु सर्पेभ्य: ऋचा द्वारा सर्पो अर्थात नागों को नमन, नमस्कार किया गया है –
ऊं नमोतस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथ्वीमनु।
येन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्य: सर्पेभ्यो नम:।।
– यजुर्वेद
अग्निपुराण में नागों के अस्सी कुलों का उल्लेख है। उनमें नव नाग प्रमुख हैं-
अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम्।
शंखपालं धृतराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा।।

नागपूजन की परम्परा भारत सहित बाहर के अन्य देशों में भी प्रचलित है । दक्षिण भारत में ईस्वी सन् से पूर्व की बनी हुई नाग की एक विशाल मूर्ति है । अजन्ता की गुफाओं में भी नाग पूजा के चित्र बने हुए हैं। मालाबार में नागों के लिए कुछ भूमि छोड़ी गई है, जिसे नागवन कहते हैं। भारत के पूर्वाचल में नगालैंड के नगा लोग तो अपने को नागों की सन्तान ही मानते हैं और उनका विशेष आदर करते हैं। अनेक प्राचीन ग्रन्थों में नाग लोक का विवरण अंकित है। विद्वानों का विचार है कि नाग नाम की एक मानव जाति थी। विश्व के अन्य देशों में भी नाग पूजा होती है और वहाँ के साहित्य में भी नागों के महत्व का वर्णन किया गया है। जापान के राजवंश अपने को नागवंशी मानते हैं। प्राचीन काल में यूनान और मिस्र में भी नाग जाति का बहुत आदर था। आज भी वहाँ मंदिरों में सर्प पाले जाते हैं। चीन की राजधानी बीजिंग में भी एक नाग मंदिर है। नार्वे, स्वीडन और अफ्रीका के कई देशों में सर्प पूजन प्रचलित है। अमेरिका के आदिवासी बड़े चाव से सर्प पूजा करते हैं। मनुष्य की मृत्यु के बारहवें दिन नाग बलि नामक विधि की जाती है। संस्कृत में बलि शब्द का अर्थ उपहार भी है अर्थात् नागों को फलों का उपहार दिया जाता है। महाभारत की कथाओं से पता चलता है कि नाग भारत की एक जाति थी, जिसका आर्यों से संघर्ष था। आस्तीक ऋषि ने आर्यों और नागों के बीच सद्भाव उत्पन्न करने का प्रयत्न किया। वे अपने कार्य में सफल हुए। दोनों में सौमनस्य हो गया। यहाँ तक कि दोनों में वैवाहिक संबंध भी होने लगे। मान्यता है कि पाणिनि व्याकरण के महाभाष्यकार पतंजलि शेषनाग के अवतार थे। वाराणसी में एक नागकूप है, जहां अब भी नाग पंचमी के दिन व्याकरण के विद्वानों में शास्त्रार्थ की परम्परा है।

पुराणों में नागों की उत्पत्ति महर्षि कश्यप और उनकी पत्नी कद्रू से मानी गई है। पुराणों के अनुसार नाग अदिति देवी के सौतेले पुत्र और द्वादश आदित्यों के भाई हैं। अतएव ये देवताओं में परिगणित हैं। नागों का निवास-स्थान पाताल बताया गया है, जिसे नागलोक कहा जाता है। नागलोक की राजधानी का नाम भोगवतीपुरी बताया गया है। संस्कृत साहित्य के कथासरित्सागर में नागलोक की कथाएँ अंकित हैं। गरुड़ पुराण, भविष्य पुराण आदि में भी नागों से सम्बंधित कई कथानक प्राप्य हैं। आयुर्वेद के प्रमुख ग्रंथों-चरक संहिता, सुश्रुत संहिता तथा भावप्रकाश में भी नागों से संबंधित विविध विषयों का उल्लेख मिलता है। कश्मीर के जाने-माने संस्कृति कवि कल्हण ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक राजतरंगिणी में कश्मीर की संपूर्ण भूमि को नागों का अवदान माना है। यहाँ के एक नगर अनंतनाग का नामकरण इसका ज्वलंत ऐतिहासिक प्रमाण है। देश के अधिकांश पर्वतीय क्षेत्रों में नाग-पूजा बड़ी श्रद्धा के साथ होती है। इसके अतिरिक्त राष्ट्र के अनेक अंचलों में भी नाग देवता के रूप में पूजे जाते हैं। बहुत से गाँवों में नागों को ग्रामदेवता माना जाता है।

पुरातन ग्रन्थों में नाग और नागपंचमी के इतिहास, महत्व से संबंधित अनेक कथाएँ प्राप्य हैं । देवताओं और दैत्यों के द्वारा सम्मिलित रूप से की गई समुद्र-मंथन की कथा के अनुसार समुद्र मंथन में चौदह महारत्नों में उच्चै:श्रवा नामक एक दुर्लभ श्वेतवर्णी अश्व अर्थात घोड़ा को देखकर महर्षि कश्यप की पत्नियों विनता और कद्रू में विवाद उत्पन्न हो गया कि अश्व के केश अर्थात बाल किस वर्ण के हैं? विनता ने अश्व के केश श्वेतवर्ण के बताए, परंतु कद्रू ने कुटिलतावश अश्व के केश श्याम वर्ण के बतलाये । कद्रू ने विनता के समक्ष यह शर्त रखी कि जिसका कथन असत्य सिद्ध होगा, उसे दूसरे की दासी बन रहना होगा। अपनी कथन असत्य सिद्ध करने अर्थात अपने दावे को सत्य साबित करने के लिए नागमाता कद्रू ने अपने पुत्रों (नागों) को बाल के समान सूक्ष्म बनकर उच्चै:श्रवा नाम के अश्व के शरीर पर लिपटने का निर्देश दिया, किन्तु नागों ने अपनी माता कद्रू की बात नहीं मानी। क्रुद्ध होकर कद्रू ने नागों को शाप दे दिया कि पाण्डव वंशीय राजा जनमेजय के नागयज्ञ में वे सब भस्म हो जाएंगे। नागमाता के शाप से भयभीत नागों ने वासुकि के नेतृत्व में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के पास जाकर शाप से मुक्ति का उपाय पूछा तो उन्होंने बताया कि यायावर वंश में जन्मे तपस्वी जरत्कारु तुम्हारे बहनोई होंगे। उनका पुत्र आस्तीक ही तुम्हारी अर्थात नागों की रक्षा करेगा। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार श्रावण मास के शुक्लपक्ष की पंचमी के दिन ब्रह्मा ने नागों को यह वरदान दिया था तथा इसी तिथि पर आस्तीक मुनि ने नागों की रक्षा की थी। अत: नागपंचमी का पर्व नागवंश के रक्षा के लिए संकल्पित होने के कारण महत्वपूर्ण है। सर्पो की अधिष्ठात्री मनसा की देवी के रूप में उपासना बड़ी श्रद्धा के साथ आज भी भारत में सर्वत्र होती है। नागों में बारह नाग-अनंत, वासुकि, शेष, पद्मनाभ, कंबल, शंखपाल, धृतराष्ट्र, तक्षक, अश्वतर, कर्कोटक, कालिय और पिंगल मुख्य रूप से पूजित हैं। पुराणों में भगवान सूर्य के रथ में द्वादश नागों की उपस्थिति का उल्लेख मिलता है, जो क्रमश: प्रत्येक मास में उनके रथ के वाहन बनते हैं। वस्तुत: हमारी संस्कृति में नाग-पूजा का विधि-विधान नागों के संरक्षण के उद्देश्य से बनाया गया है। क्योंकि ये नाग हमारी कृषि-संपदा की कृषिनाशक जीवों व कीटों से रक्षा करते हैं। पर्यावरण के संतुलन में नागों की महत्वपूर्ण भूमिका है। नागपंचमी का पर्व नागों के साथ-साथ अन्य वन्य-जीवों के संवर्धन और संरक्षण की भी प्रेरणा देता है। भगवान शंकर के प्रिय मास श्रवण में उनके आभूषण नागों का पर्व होना स्वाभाविक ही है। इन्हें सुरक्षित रखना अपनी कृषि संपदा और समृद्धि को सुरक्षित करना है।

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बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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