मनोज ज्वाला
यूरोप के रंग-भेदकारी औपनिवेशिक साम्राज्यवादियों ने सम्पूर्ण विश्व, विशेष कर भारत पर अपना दबदबा कायम रखने और जबरिया उसका औचित्य सिद्ध करने तथा स्वयं को सर्वोपरी स्थापित करने के लिए एक ओर उपनिवेशित देशों की ऐतिहासिक सच्चाइयों व सांस्कृतिक विरासतों एवं सामाजिक संरचनाओं को तदनुरुप तोड-मरोड कर विकृत कर दिया , वहीं दूसरी ओर उनकी भाषाओं और साहित्य को भी अपनी जद में ले लिया । इसके लिए उननें शोध-अनुसंधान के नाम पर ज्ञान-विज्ञान की भिन्न-भिन्न शाखाओं को अपने हिसाब से प्रतिपादित किया-कराया । अपने उपनिवेशों का औचित्य सिद्ध करने के दौरान भारत के प्राचीन संस्कृत-ग्रन्थों से उन्हें जब यह ज्ञात हुआ कि उनकी ईसाइयत से सदियों पूर्व भी सभ्यता-संस्कृति और धर्म एवं ज्ञान-विज्ञान का अस्तित्व ही नहीं, बल्कि व्यापक विस्तार भी रहा है , जिसके संवाहक आर्य थे और संस्कृत ही आर्यों की भाषा रही है ; तब उननें एक ओर जहां स्वयं को आर्य प्रमाणित करने के लिए इतिहास में यह तथ्य गढ दिया कि आर्य यूरोप मूल के थे , वहीं यह प्रमाणित करने का भी षड्यंत्र रचा कि संस्कृत भाषा भी यूरोप से निकली हुई है । ये दोनों ही षडयंत्र आज भी हमारे बौद्धिक प्रतिष्ठानों में फल-फुल रहे हैं ।
जिस तरह से ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने गोरी चमडी वाली अंग्रेजी नस्ल को दुनिया की सर्वश्रेष्ठ आर्य-नस्ल घोषित-प्रमाणित करने के लिए ईसाई-धर्मग्रन्थ-बाइबिल में से ‘मानव जाति विज्ञान’ का कपोल-कल्पित संदर्भ लेकर उसके आधार पर ‘नस्ल-विज्ञान’ का अविष्कार कर उसमें तत्सम्बन्धी विधान रच डाला ; उसी तरह से संस्कृत भाषा की प्राचीनता , व्यापकता , मौलिकता , वैज्ञानिकता तथा उसके विपुल साहित्य में व्याप्त ज्ञान-विज्ञान की प्रचूरता को न्यूनतम आंकने और उसे उपरोक्त औपनिवेशिक प्रपंचों के अनुकूल सहायक बनाने के लिए ‘भाषा-विज्ञान’ का सहारा लेकर भाषाई ऐतिहासिकता को भी भ्रामक बना दिया ।
‘भाषा विज्ञान’ वैसे तो भारतीय चिन्तन-दर्शन का ही विषय रहा है , पश्चिमी जगत सोलहवीं शताब्दी तक इस विज्ञान से अनभिज्ञ ही था । जबकि , ईसा पूर्व से ही भारत में पाणिनी और मम्मट जैसे विद्वान क्रमशः ‘अष्टाध्यायी’ और ‘काव्य-प्रकाश’ जैसे ग्रन्थ लिख कर भाषा के विविध पहलुओं पर वैज्ञानिक विमर्श करते रहे थे । किन्तु पश्चिम का विद्वत-चिन्तक समुदाय जब साम्राज्यवादी उपनिवेशवाद की पीठ पर सवार होकर भारत आया और संस्कृत भाषा से जब उसका परिचय हुआ , तब उसने उपनिवेशकों का हित साधने हेतु न केवल संस्कृत-साहित्य का शिक्षण-प्रशिक्षण व अनुवादन शुरू किया, बल्कि युरोपीय भाषाओं से उसका तुलनात्मक अध्ययन भी । उसी अध्ययन-विश्लेषण के दौर में भाषा-विज्ञान से भी उनका सामना हुआ । वे संस्कृत से अपनी भाषाओं की तुलना करते-करते १७वीं-१८वीं शताब्दी में ‘तुलनात्मक भाषा-विज्ञान’ का टंट-घंट खडा कर प्रचार-माध्यमों के सहारे भाषा-विज्ञान पर भी हावी हो गए । पश्चिम का भाषा-विज्ञान वास्तव में तुलनात्मक भाषा-विज्ञान है, जो साम्राज्यवादी औपनिवेशिक षड्यंत्रों की एक ऐसी स्थापना है जो दृश्य प्रयोजनों से इतर रंगभेदी राज-सत्ता और विस्तारवादी चर्च मिशनरियों के अदृश्य उद्देश्यों के तहत काम करता रहा और आज भी कर रहा है ।
सन् 1767 में फ्रांसीसी पादरी कोर्डो ने संस्कृत के कुछ शब्दों की लैटिन-शब्दों से तुलना करते हुए भारत और यूरोप की (भारोपीय) भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया, जिससे इस वर्तमान यूरोपीय भाषा-विज्ञान का जन्म हुआ माना जाता है । इसके बाद ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के कथित भाषाविद प्रोफेसर मोनियर विलियम जोंस ने 1784 में ‘द एशियाटिक सोसायटी’ नामक संस्था की नींव डालते हुए ईसाइयत के विस्तार में संस्कृत के महत्व को रेखांकित किया, क्योंकि संस्कृत साहित्य से ईसाइयत की पुष्टि करा कर ही उसे गैर-ईसाई देशों में ग्राह्य बनाया जा सकता था । जोन्स ने प्रतिपादित किया कि भाषिक संरचना की दृष्टि से संस्कृत भाषा ग्रीक एवं लैटिन की सजातीय है । सन् 1786 में इसने यह भी प्रतिपादित किया कि यूरोप की अधिकतर भाषाएँ तथा भारत के बड़े हिस्से और शेष एशिया के एक भूभाग में बोली जाने वाली भाषाओं के उद्भव का मूल स्रोत एक समान है , अर्थात ग्रीक और लैटिन है । जबकि, दक्षिण भारतीय लोगों की भाषा- तमिल व तेलगू का संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं है और इस कारण वे लोग आर्य नहीं, द्रविड हैं । ऐसे तथाकथित भाषा-विज्ञान से ऐसे मनमाना निष्कर्ष निकाल कर आगे की औपनिवेशिक साम्राज्यवादी और ईसाई विस्तारवादी योजना की भाषिक पृष्ठभूमि तैयार कर लेने के बाद उन भाषाविदों और इतिहासकारों ने भारतीय भाषा- संस्कृत और संस्कृति को अपना शिकार बनाना शुरू कर दिया ।
अपने तुलनात्मक भाषा-विज्ञान के हवाले से उननें यह कहने-कहलवाने और प्रचारित करने का अभियान चला दिया कि संस्कृत तो ग्रीक से निकली हुई भाषा है और भारतीय संस्कृति व सनातन ( हिन्दू ) धर्म ईसाइयत से निकला हुआ है । संस्कृत को ग्रीक से निकली हुई ‘ब्राह्मणों की भाषा’ बताने के पीछे उनकी मंशा यह रही है कि इससे आर्यों के युरोपीयन मूल के होने का दावा पुष्ट किया जा सकता है । इसी तरह तमिल को संस्कृत से अलग द्रविडों की भाषा बताने के पीछे उनका उद्देश्य भारत की सांस्कृतिक-सामाजिक एकता को खण्डित कर ईसाइयत का विस्तार करना ही था । अपने इस दावा की पुष्टि के लिए उनने एशियाटिक सोसाइटी, फोर्ट विलियम कालेज, ईस्ट इण्डिया कालेज, कालेज आफ फोर्ट सेन्ट जार्ज, रायल एशियाटिक सोसाइटी, बोडेन चेयर आक्सफोर्ड, तथा हेलिवेरी एण्ड इम्पिरियलिस्ट सर्विस कालेज और इण्डियन इंस्टिच्युट आफ आक्सफोर्ड नामक संस्थाओं को संस्कृत-साहित्य का सुनियोजित अनुवाद और तुलनात्मक विश्लेषण करने के काम में लगा दिया ।
. इन संस्थाओं ने तुलनात्मक भाषा-विज्ञान में शोध-अनुसंधान के नाम पर संस्कृत-साहित्य के अध्ययन-विश्लेषण-अनुवाद-लेखन-प्रकाशन का काम किस योजना के तहत किया, यह इनमें से एक- ‘बोडेन चेयर आक्सफोर्ड’ के संस्थापक कर्नल जोजेफ बोडेन की वसीयत से स्पष्ट हो जाता है ; जिसमें उसने लिखा है कि “ इस चेयर की स्थापना हेतु मेरे उदार अनुदान का लक्ष्य है- संस्कृत-ग्रन्थों के अनुवाद को प्रोत्साहन देना, ताकि मेरे देशवासी भारतीयों को ईसाइयत में परिवर्तित करने की दिशा में आगे बढने के योग्य बन जाएं ।” इसी तरह ‘इण्डियन इंस्टिच्युट, आक्सफोर्ड’ के संस्थापक मोनियर विलियम्स ने लिखा है- “ जब ब्राह्मण्वाद के सशक्त किले की दीवारों (अर्थात, संस्कृत साहित्य) को घेर लिया जाएगा, दुर्बल कर दिया जाएगा और सलीब के सिपाहियों द्वारा अन्ततः धावा बोल दिया जाएगा ; तब ईसाइयत की विजय-पताका अवश्य ही लहरायेगी और यह अभियान तेज हो जाएगा ।” उधर एशियाटिक सोसायटि के संस्थापक जोन्स ने यह सत्य प्रतिपादित करते हुए भी कि यूरोप में पुनर्जागरण आन्दोलन आंशिक रूप से प्राचीन भारतीय ग्रन्थों के अध्ययन के कारण हुआ, संस्कृत को बाइबिल में वर्णित कपोल-कल्पित मानव-इतिहास के आदि पुरुष- नूह के तीन पुत्रों में से दो के अधीन दासत्व में रहने को अभिशापित तिसरे पुत्र- हैम के वंशजों की भाषा घोषित कर दिया । ऐसा इस कारण ताकि भारत की औपनिवेशिक गुलामी और ब्रिटेन के औपनिवेशिक साम्राज्यवाद को उचित ठहराया जा सके ।
पश्चिमी भाषा-विज्ञानियों और औपनिवेशिक शासकों-प्रशासकों ने ईसाइयत के प्रसार और साम्राज्यवाद के विस्तार हेतु भारतीय समाज को विखण्डित करने के लिए किस तरह से भाषाई षड्यंत्र को अंजाम दिया यह मद्रास-स्थित कालेज आफ फोर्ट सेन्ट जार्ज के एक भाषाविद डी० कैम्पबेल और मद्रास के तत्कालीन कलेक्टर फ्रांसिस वाइट एलिस की सन-१८१६ में प्रकाशित पुस्तक- ‘ग्रामर आफ द तेलगू लैंग्वेज’ की सामग्री से स्पष्ट हो जाता है , जिसमें लेखक-द्वय ने दावा किया है कि “दक्षिण भारतीय भाषा-परिवार का उद्भव संस्कृत से नहीं हुआ है ।” उननें यह दलील दी है कि “तमिल और तेलगू के एक ही गैर-संस्कृत पूर्वज हैं ।” आप समझ सकते हैं कि उन दोनों महाशयों को तेलगू भाषा का व्याकरण लिखने और उसके उद्भव का स्रोत खोजने की जरूरत क्यों पड गई । जाहिर है, दक्षिण भारतीय लोगों को उतर भारतीयों से अलग करने के लिए । भारतीय भाषा, साहित्य व इतिहास में पश्चिम की घुसपैठ का भण्डाफोड करने वाली पुस्तक- ‘भारत विखण्डन’ के लेखक राजीव मलहोत्रा के अनुसार कैम्पबेल-एलिस के उस तेलगू-व्याकरण ने भारत के आन्तरिक सामाजिक राजनैतिक ढांचों में बाद के पश्चिमी हस्तक्षेप के लिए दरवाजा खोल दिया । मालूम हो कि उसके बाद से ही ईसावादियों द्वारा भाषा-विज्ञान के हवाले से ऐसे-ऐसे तथ्य गढ-गढ कर स्कूली पाठ्य-पुस्तकों में कीलों की तरह ठोके जा रहे हैं , जिनसे संस्कृत सहित अन्य भारतीय भाषायें ही नहीं , बल्कि भारत की सहस्त्राब्दियों पुरानी विविधतामूलक सांस्कृतिक-सामाजिक समरसता व राष्ट्रीय एकता भी सलीब पर लटकती जा रही है । स्काटलैण्ड के एक तथाकथित भाषाविद डुगाल्ड स्टुवार्ट ने न जाने कैसे और किस आधार पर यह प्रतिपादित किया है कि “संस्कृत ईसा के बाद सिकन्दर के आक्रमण द्वारा ग्रीक से आई हुई भाषा है । संस्कृत के ग्रीक से मिलते-जुलते होने का कारण यह नहीं है कि दोनों के स्रोत पूर्वज एक ही हैं , बल्कि इसका कारण यह है कि संस्कृत भारतीय परिधान में ग्रीक ही है । स्पष्ट है कि पश्चिम के इस तुलनात्मक भाषा-विज्ञान के ऐसे-ऐसे प्रतिपादनों से भारतीय राष्ट्रीय एकता-अस्मिता और सांस्कृतिक-सामाजिक समरसता को गम्भीर खतरा है , जिनसे सावधान रहने की सख्त जरूरत है ।
European Commission has moved to focus on using French and German in communications
Although the EU has 24 official languages, only English, German and French are recognized working languages in the bloc’s executive arm. “We will use more French and German,” said one of the officials.
In his speech to the European Parliament Tuesday, Commission President Jean-Claude Juncker is expected to address lawmakers in just French and German, the two officials said. That breaks with a long tradition of trilingual speeches by Mr. Juncker.
“English will remain a working language, but of course there is a symbolic move there,” said the first official.
The commission move is unlikely to push English out as the lingua franca of the EU. English will remain one of the bloc’s official languages, since it’s also spoken in Ireland and Malta, and it will remain the working language of the European Central Bank. It is also the main language used by the many non-native English speakers in Brussels, including EU officials, lawyers, lobbyists and journalists…………Read more
https://www.wsj.com/articles/eu-to-say-au-revoir-tschuss-to-english-language-1467036600
Above article may shed light on this article !
“भाषा-विज्ञान में साम्राज्यवादी षड्यंत्रों से सावधान!”
Wii German and french replace English at global level?