प्रधानमंत्री पद के लिए बिछती शतरंजी बिसातें

0
257

निर्मल रानी

अगले लोकसभा चुनावों को मद्देनजर रखते हुए सभी राजनैतिक दल मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के तरह-तरह के फार्मूले तलाश करने लगे हैं। कहीं लोकहितकारी उपाय अपनाए जा रहे हैं तो कहीं केवल लोकलुभावन उपायों से ही काम चलाने की कोशिश की जा रही है। कहीं विकास कार्य कराए जा रहे हैं तो कहीं अपने छोटे-मोटे कामों को ही विज्ञापनों के माध्यम से बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जा रहा है। और तमाम जगहों पर तो ‘पारंपरिक भारतीय राजनीति’ की शैली का अनुसरण करते हुए आश्वासनों और वादों से ही काम चलाने की कोशिश की जा रही है। इन सब के बीच हालांकि अन्ना हजारे जैसे समाजसेवी द्वारा राजनैतिक दलों के नेताओं को आईना दिखाने का काम जरूर किया जा रहा है। परंतु अन्ना की तमाम कोशिशों के बावजूद देश भविष्य में फिर भी लोकसभा व विधानसभा चुनावों से रूबरू होगा और हो न हो इन्हीं शरीफ, ईमानदार, भ्रष्ट, महाभ्रष्ट, अपराधी, गैंगस्टर, कातिल, रेपिस्ट, चोर, बेईमान लुटेरे आदि प्रत्याशियों में से किसी न किसी एक प्रत्याशी को चुनने के लिए देश का मतदाता संभवत: फिर मजबूर होगा। एक ओर जहां अन्ना हजारे जनलोकपाल की मांग को लेकर देश की जनता को लामबंद कर चुके हैं वहीं उन्होंने अब चुनाव सुधार प्रक्रिया को लेकर बड़े ही तार्किक व बुनियादी प्रश्न खड़े किए हैं। परंतु जब तक देश की जनता शत-प्रतिशत चुनाव सुधार कानून से रूबरू नहीं होती उस समय तक तो आखिरकार जनता को इसी वर्तमान चुनावी व्यवस्था को ही ढोते रहना पड़ेगा।

यही वजह है कि क्रांति अन्ना को कोई अहमियत न देते हुए देश के लगभग सभी राजनैतिक दल तथा उन राजनैतिक दलों में तमाम कथित ‘सामर्थ्यवान’ नेतागण इस बात की जुगत बिठाने में लग गए हैं कि किस प्रकार प्रधानमंत्री पद पर अपना कब्‍जा जमाया जाए। और सत्ता के इस सर्वोच्च पद को हासिल करने के लिए अब पार्टी व गठबंधन स्तर पर भी घमासान मचने लगा है। उदाहरण के तौर पर भाजपा नेता लाल कृष्ण अडवाणी ने अपनी प्रस्तावित भ्रष्टाचार विरोधी यात्रा के बहाने क्रांति अन्ना से जुड़े लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करते हुए एक बार फिर जनता को यह एहसास कराने की कोशिश की है कि 84 वर्ष की आयु में अभी भी वे पूरी तरह कुशल, सक्षम व जरूरत पड़ने पर देश का नेतृत्व करने की स्थिति में हैं। यह और बात है कि अडवणी की इस चाहत को न केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा पलीता लगा दिया गया है बल्कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी स्वयं को प्रधानमंत्री पद के मजबूत दावेदार समझने लगे हैं। गुजरात में विकास व भारी पूंजीनिवेश की बातें कर वे इस समय स्वयं को भाजपा का सबसे शक्तिशाली नेता मान रहे हैं। पिछले दिनों सद्भावना उपवास के नाम से मोदी ने जो ‘शो’ आयोजित किया तथा उस ‘शो’ के बाद एक महारैली आयोजित की और अब राज्‍य के प्रत्येक जिले में एक दिन का उपवास रखकर वहां के विकास की बातें करने की योजना पर काम कर रहे हैं, यह सारी कवायद गुजरात विधानसभा चुनावों के अतिरिक्त राष्ट्रीय राजनीति से भी जुड़ी हुई हैं।

नरेंद्र मोदी के इस बढ़ते कद तथा पार्टी स्तर पर राज्‍य में स्वयं किसी प्रकार के आयोजन का निर्णय लेने की उनकी शैली ने भाजपा के सभी शीर्ष नेताओं को सकते में डाल दिया है। लिहाजाा यह सोचना कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व सामूहिक रूप से नरेंद्र मोदी या लालकृष्ण अडवाणी में से किसी एक के नेतृत्व पर एकमत होगा तथा इनमें से किसी एक को पार्टी के प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री के रूप में घोषित करेगा ऐसी उम्मीद नजर नहीं आती। और यदि यह मान भी लिया जाए कि नरेंद्र मोदी के नाम पर पार्टी में सहमति बन भी जाती है तो दूसरा सवाल यह पैदा होता है कि एनडीए के शेष घटक दल क्या नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाए जाने को लेकर एकमत होंगे? शायद कभी नहीं। वह इसलिए कि एनडीए के घटक दलों में शिवसेना व अकाली दल जैसे छोटे घटकों को छोड़कर शेष घटक दल इस बात पर पूरी नजर रखते हैं कि भारतीय जनता पार्टी से एक हद तक ही रिश्ते बेहतर बनाए जाएं। अर्थात् केवल उस स्तर तक जहां कि एनडीए कांग्रेस से सत्ता छीन पाने में सफल हो जाए। परंतु यही घटक दल इस बात का भी पूरा ध्यान रखते हैं कि अडवाणी व मोदी जैसे कट्टर हिंदुत्व की छवि रखने वाले नेताओं से दूरी बनाकर रखी जाए। एनडीए के अधिकांश घटक दलों की यही विचारधारा न केवल अडवाणी को प्रधानमंत्री पद पर बैठने से रोक रही है बल्कि भविष्य में नरेंद्र मोदी के लिए भी यही समस्या निश्चित रूप से खड़ी हो सकती है। गोया अडवाणी या नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने के लिए अपने अकेले दम पर कम से कम 250 सीटें जीतनी होंगी तभी कहीं जाकर अडवाणी या नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा हो सकेगा। और भाजपा के नेता यह भलीभांति जानते हैं कि ढाई सौ के आंकड़े तक पहुंचना उनकी पार्टी व पार्टी के नेताओं के बस की बात कम से कम निकट भविष्य में तो हरगिज नहीं है।

उपरोक्त राजनैतिक समीकरणों से साफ है कि भाजपा के अतिरिक्त एनडीए के घटक दलों में से ही कोई और ‘सामर्थ्यवान’ चेहरा प्रधानमंत्री के रूप में देश को अपनी ‘सेवाऐं’ देने की कोशिश कर सकता है। और यदि एनडीए के अन्य घटक दलों में सबसे मज़बूत संभावित दावेदार के रूप में बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार का नाम लिया जाए तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। अडवाणी और मोदी द्वारा चली जाने वाली शतरंजी चालों की ही तरह नीतीश कुमार की पिछली कुछ राजनैतिक चालों पर गौर फरमाईए। उदाहरण के तौर पर नीतीश कुमार ने बड़ी ही प्रसन्नचित मुद्रा में स्वयं को सुशासन बाबू और विकास बाबू के नाम से परिचित कराया। वे दावा कर रहे हैं कि बिहार का विकास आजादी से लेकर अब तक उतना नहीं हो सका जितना कि उन्होंने अपने संक्षिप्त शासनकाल में कराया है। नितीश का नरेंद्र मोदी को भाजपा द्वारा बिहार में चुनावों में न बुलाए जाने के लिए दबाव बनाना, यह कोई नितीश व मोदी की व्यक्तिगत रंजिश का मामला नहीं था। यदि ऐसा होता तो वे एनडीए की लुधियाना रैली में नरेंद्र मोदी के साथ मंच भी सांझा नहीं करते। परंतु जहां उन्होंने लुधियाना में मोदी के साथ हाथ से हाथ मिलाकर एनडीए की एकता का प्रदर्शन किया वहीं बिहार में चुनावों के दौरान उनके प्रवेश पर आपत्ति कर तथा बिहार में आयोजित भाजपा के राष्ट्रीय सम्मेलन में नरेंद्र मोदी के आने पर उस सम्मेलन में न जाकर नितीश ने मोदी विरोधी अल्पसंख्यक मतों को खुश करने की चाल चली। इतना ही नहीं नितीश कुमार ने गुजरात के मुख्यमंत्री द्वारा कोसी नदी के बाढ़ पीड़ितों को दी गई सहायता राशि को भी वापस कर उनसे अपना फ़ासला बनाए रखने का खुला संदेश दिया।

आखिर क्या है इस प्रकार की अवसरवादी राजनैतिक पैंतरेबाजी के अर्थ? कहीं सद्भावना उपवास तो साथ-साथ टोपी न स्वीकार करने का भी प्रदर्शन? और कहीं समुदाय विशेष के मतों को आकर्षित करने के लिए किसी नेता विशेष से नफरत करने का ढोंग? दरअसल यह सब शतरंजी चालें देश के भावी प्रधानमंत्री के पद को मद्देनजर रखते हुए चली जा रही हैं। कभी देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की कोशिश में राजनैतिक मंथन चलने लगता है तो कभी इन प्रयासों को असफल होते देख ‘सद्भावनारूपी’ प्रयास शुरु कर दिए जाते हैं। और कभी इन दोनों ही फार्मूलों के मंथन से ‘अमृत’ न निकलता देखकर भ्रष्टाचार विरोधी ‘यलग़ार’ की कोशिशें की जाने लगती हैं। परंतु जब इन भ्रष्टाचार विरोधी ‘राजनैतिक नायकों’ के समक्ष अन्ना हजारे का आईना आता है उस समय इनकी स्थिति ऐसी हो जाती है जैसे कि जंगल में नाचते हुए मोर ने अपने पांव देख लिए हों। और ऐसे में जनता को दिखाने के लिए कर्नाटक व उत्तरांचल के मुख्यमंत्रियों को भी बदलने के प्रयोग किए जाते हैं। परंतु कर्नाटक के रेड्डी बंधुओं की गिरफ्तारी इन राजनैतिक प्रयोगों को गहरी ठेस पहुंचाती है।

उपरोक्त समस्त राजनैतिक परिस्थितियां उन्हीं हालात में सामने आ सकती हैं जबकि कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन आगामी लोकसभा चुनावों में सत्ता तक पहुंचने के जादूई आंकड़ों को न छू सके। अन्यथा कांग्रेस पार्टी की ओर से तो देश को युवा प्रधानमंत्री पेश करने के रूप में राहुल गांधी की ताजपोशी की तैयारी की जा रही है। अब देखना यह होगा कि अगला लोकसभा का आम चुनाव राहुल गांधी बनाम लालकृष्ण अडवाणी होगा या राहुल बनाम नरेंद्र मोदी या फिर राहुल बनाम सुशासन बाबू अर्थात् राहुल बनाम नीतीश कुमार? और यदि उपरोक्त समीकरणों के अतिरिक्त चुनाव का समय आने तक कोई नए राजनैतिक समीकरण बने या इनमें से किसी भी नेता पर सहमति न बनी तो इस बात की भी संभावना है कि एच डी देवगौड़ा व इंद्रकुमार गुजराल की ही तरह किसी ऐसे नेता की भी लॉटरी खुल जाए जिसके नाम की अभी जनता कल्पना भी नहीं कर पा रही है। बहरहाल, यह कहना गलत नहीं होगा कि राष्ट्रीय राजनैतिक परिदृश्य पर जो कुछ भी घटित होता दिखाई दे रहा है उसकी पृष्ठभूमि में केवल प्रधानमंत्री पद की दावेदारी ही मुख्य है जिसके लिए शतरंजी बिसातें बिछनी शुरू हो चुकी हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here