भाजपा में विरासत की लड़ाई तेज हो रही है

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वीरेन्द्र जैन

भाजपा ने यह भ्रम फैलाया हुआ था कि वह एक अलग तरह की पार्टी है जिसे अंग्रेजी में ‘पार्टी विथ ए डिफ्रेंस’ कहा गया था। बाद में जैसे जैसे उसके झगड़े सड़क पर आते रहे थे तो अंग्रेजी अखबारों ने उसे ‘पार्टी विथ डिफ्रेंसिज’ कह कर मजाक उड़ाया था। प्रारम्भिक भ्रम यह भी था कि यह पार्टी व्यक्तियों के आधार पर नहीं अपितु कुछ सिद्धांतों के आधार पर संगठन की मजबूती से चलती है, किंतु सत्तर के दशक में श्रीमती इन्दिरा गान्धी के नाम से चलती कांग्रेस को देख कर उन्होंने अपनी पार्टी को अटल अडवाणी के नाम से चलाना शुरू कर दिया था। इसका परिणाम यह हुआ कि इस युग्म के युग का समय पूरा होते होते पार्टी में नेतृत्व का संकट गहराता जा रहा है तथा पात्र-अपात्र ढेरों नेता देश की इस दूसरे नम्बर की बड़ी, साधन सम्पन्न पार्टी का नेतृत्व हथियाने के लिए षड़यंत्र रचने में लगे हुए हैं। स्मरणीय है कि 2002 में ही अडवाणीजी ने कह दिया था कि अगला चुनाव आप लोगों को अटल अडवाणी के बिना ही लड़ना पड़ेगा। यह कह कर वे अटलजी को मैदान से बाहर करना चाहते थे जिनके बारे में अमेरिका के एक अखबार में यह खबर प्रकाशित की गयी थी कि वे अस्वस्थ हैं, उन्हें कुछ याद नहीं रहता तथा वे शाम से ही अपने प्रिय पेय का सेवन करने बैठ जाते हैं। इस खबर के प्रकाशन के ठीक बाद ही अडवाणीजी को उप-प्रधानमंत्री की शपथ दिलवायी गयी थी तथा पत्रकारों द्वारा इस पद के अंतर्गत उनके द्वारा किये जाने कामों के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा था कि -प्रधानमंत्री द्वारा किये जाने वाले सारे काम जिन्हें मैं पहले से ही करता आ रहा हूं।- खबर यह भी थी कि अमेरिका के अखबार में उक्त समाचार भाजपा के ही किसी बड़े नेता के इशारे पर प्रकाशित करवाया गया था। इसके बाद जब अटलजी अमेरिका गये थे और वहाँ से लौटने पर उनके स्वागत समारोह में तत्कालीन अध्यक्ष और अडवाणीजी के पट शिष्य वैंक्य्या नाइडू ने कहा था कि आगामी चुनाव अटलजी और अडवाणीजी के सामूहिक नेतृत्व में लड़ा जायेगा तो नाराज अटलजी ने कहा था कि नहीं अगला चुनाव अडवाणीजी के नेतृत्व में ही लड़ा जायेगा। बाद में वैंक्य्या ने अटलजी से क्षमा मांगी थी और 2004 के चुनाव में अडवाणीजी के पूर्वकथन को दरकिनार कर दोनों ही नेताओं को आगे रखा गया था।

2009 का चुनाव आने से पूर्व अटलजी सचमुच ही अस्वस्थ हो गये थे किंतु जब भोपाल अधिवेशन में अडवाणीजी के नेतृत्व का प्रस्ताव आने वाला था तब अटलजी द्वारा लिखा बताया गया एक पत्र कहीं से प्रकट हो गया जिसमें उन्होंने स्वस्थ होकर शीघ्र ही नेतृत्व सम्हालने की बात लिखी थी। बाद में पता चला कि वह पत्र बनावटी था। इस बीच में अडवाणीजी के प्रतिद्वन्दी मुरली मनोहर जोशी ने नेतृत्व के सम्बन्ध में पूछे गये एक प्रश्न के उत्तर में कहा था कि अटलजी के होते हुए अडवाणीजी कैसे नेतृत्व कर सकते हैं। पर संघ ने बीच में पड़कर समझौता करा दिया और 2009 का चुनाव अडवाणीजी को ही प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी बना कर लड़ा और हारा गया।

आडवाणीजी इस समय 84 साल के हैं और अगले आमचुनाव के समय 86 साल के हो जायेंगे। इस बीच अयोध्या में बाबरी मस्जिद ध्वंस का प्रकरण भी किसी परिणति तक पहुँचेगा, इसलिए उनकी जगह लेने का झगड़ा भाजपा में तेज हो गया है। पुरानी पीढी के राष्ट्रीय स्तर के मदनलाल खुराना को रिटायर कर दिया गया है, उम्रदराज गुटविहीन मुरली मनोहर जोशी को कोई उस पद पर देखना नहीं चाहता। वैसे भी दूसरे दलों के नेतृत्व में नई पीढी आ चुकी है और भाजपा में पद के लिए आतुर युवा नेता और प्रतीक्षा करने के लिए तैयार नहीं हैं। दूसरी पीढी के राष्ट्रीय स्तर के नेताओं में अटलजी के ‘लक्ष्मण’ प्रमोद महाजन को असमय ही मृत्यु का सामना करना पड़ा है, इसलिए अब नेतृत्व सम्हालने के लिए जसवंत सिंह, अरुण जैटली, सुषमा स्वराज, अनंत कुमार, के साथ राज्य के नेता होते हुए भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुख्यात नरेन्द्र मोदी ही आते हैं। जसवंत सिंह को आरएसएस पसन्द नहीं करती इसलिए बाहर के आदमी माने जाते हैं, उन्हें विपक्ष का नेता पद देने से अलग करने के लिए ही जिन्ना की पुस्तक की कहानी गढी गयी थी। सुषमा स्वराज को सोनिया गान्धी की महिला छवि के मुकाबले खड़ा किया गया था किंतु लोकसभा के लिए उनके पास अपना कोई चुनाव क्षेत्र नहीं है, उन्हें राज्य सभा में भेजा जाता रहा है। उन्होंने लोकसभा के ज्यादातर चुनाव हारे हैं और जब दिल्ली विधानसभा का चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ा गया था तो वह भी हारा गया था। इस बार बमुश्किल उन्हें मध्यप्रदेश की अतिसुरक्षित सीट से लोकसभा का चुनाव लड़वा कर सदन में पहुँचाया गया पर इसके साथ यह भी इंतजाम करवा दिया गया था कि कांग्रेस का उम्मीदवार अपना पर्चा ही गलत भर दे जिसके लिए बाद में कांग्रेस ने अपने नामित प्रत्याशी को दण्डित भी किया। सुषमाजी लोकसभा में नेता पद पर आने के बाद प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी होने के सपने देख रही हैं, भले ही अभी से उनके प्रतिद्वन्दियों ने उनकी बात को काटना शुरू कर दिया है जैसा कि सीवीसी के चुनाव पर कांग्रेस द्वारा गलती मान लेने के मामले में हुआ था या कर्नाटक में रेड्डी बन्धुओं को मंत्री बनवाने के मामले में सामने आया था।

सुषमाजी की तरह ही अरुण जैटली के पास लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए कोई सुरक्षित चुनाव क्षेत्र नहीं है और ‘बातों के धनी’ वकील होने के नाते वे पार्टी की वकालत करने के लिए राज्यसभा के रास्ते संसद में भेजे जाते रहे। शरद पवार की तरह क्रिकेट से जुड़े होने के कारण उनकी छवि वैसी साफ सुथरी नहीं है जैसी की अब तक देश के प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी की रहती रही है। इस समय वे अपनी क्षमता के शिखर पर हैं जिससे आगे उतार ही आता है, पर वे सुषमा स्वराज के राहे में कांटे बिछा कर अपना रास्ता साफ करने में लगे हैं। उमा भारती से दोनों की टकराहट रही है किंतु सुषमाजी के साथ प्रतियोगी होने के कारण उन्होंने उमाजी के प्रति अपना रुख नरम कर लिया है। वे सुषमाजी की तुलना में वाक्पटु हैं और मौलिक ढंग से सोच सकते हैं जबकि सुषमाजी को दूसरों के ज्ञान और तर्कों की जरूरत पड़ती है।

अनंत कुमार की अनंत महात्वाकांक्षाएं रही हैं और वे संगठन से लेकर सरकार तक में सक्रिय रहे हैं और जल्दी से जल्दी अधिक से अधिक प्राप्त कर लेने के चक्कर में उन्होंने गल्तियां की हैं। संचार मंत्री के रूप में नीरा राडिया के यहाँ संगीत का आनन्द उठाने वाले अनंत कुमार के दामन पर टू जी मामले के छींटे आने ही वाले होंगे। वैसे भी वे उस क्षेत्र के नेता नहीं हैं जहाँ पर पार्टी का मुख्य आधार है इसलिए उन्हें अपनी पार्टी का ही समर्थन नहीं मिल सकता। जब भी दक्षिण से किसी नेता को भाजपा में शिखर पर प्रतिष्ठित किया गया है वह असफल ही रहा है, चाहे वे वैंकय्या हों, बंगारू लक्ष्मण हों, जे कृष्णमूर्ति हों या कोई और हो। थोपे गये गडकरीजी का नेतृत्व भी सुचारु रूप से नहीं चल रहा और वे अपनी पीठ पर संघ का हाथ होने तक ही नेता हैं।

और अंत में विख्यात या कुख्यात नरेन्द्र मोदी आते हैं जिन्होंने भले ही गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार करने के आरोप में दुनिया भर की बदनामी झेली हो पर इसी कारण से वे हिन्दू साम्प्रदायिकता से ग्रस्त हो चुके एक वर्ग के नायक भी बन चुके हैं। जो मोदी पहली बार विधानसभा के उपचुनाव में उस सीट के पूर्ववर्ती द्वारा अर्जित जीत के अंतर के आधे अंतर से ही जीत सके हों, पर आज वे गुजरात में सौ से अधिक विधानसभा सीटों या गुजरात की 75% लोकसभा सीटों में से जीत सकने में सक्षम हैं। संयोग से वे जिस राज्य के मुख्यमंत्री हैं वह प्रारम्भ से ही औद्योगिक रूप से विकासशील राज्य रहा है, जिसने मोदी के कार्यकाल में भी अपनी गति बनाये रखी। दूसरी ओर मोदी सरकार पर अपने विरोधियों के खिलाफ गैरकानूनी ढंग से हत्या करवाने तक के आरोप लगे हों, पर आर्थिक भ्रष्टाचार का कोई बड़ा आरोप नहीं लगा। वहाँ तुलनात्मक रूप से प्रशासनिक भ्रष्टाचार की शिकायतें कम हैं जिससे उनकी एक ऐसे प्रशासक की छवि निर्मित हुयी है जिसकी आकांक्षा आम तौर पर नौकरशाही से परेशान जनता करती है। केन्द्रीय सरकार की योजना के अंतर्गत सड़कों के चौड़ीकरण का काम तेजी से हुआ है जिससे प्रदेश के प्रमुख नगर एक ऐसी साफ सुथरी छवि देने लगे हैं जो मध्यम वर्ग को प्रभावित करती है। मोदी वाक्पटु भी हैं और अडवाणीजी की तरह शब्दों को चतुराईपूर्वक प्रयोग करने की क्षमता रखते हैं।

अडवाणीजी गुजरात के गान्धीनगर से ही चुनाव लड़ते रहे हैं, यह क्षेत्र सिन्धी मतदाता बहुल क्षेत्र है जिनके बीच आशाराम बापू भी समान रूप से लोकप्रय रहे हैं। मोदी ने अडवाणीजी के समर्थन को प्रभावित करने के लिए आशाराम बापू आश्रम के अवैध कामों के खिलाफ कठोर कार्यवाही प्रारम्भ कर दी जिससे उनके बहुसंख्यक सिन्धी भक्त भाजपा से नाराज हो गये हैं।पिछले दिनों गान्धीनगर में पुलिस द्वारा वांछित आशाराम बापू के लड़के को मध्यप्रदेश में शरण दिलवानी पड़ी थी। पार्टी की एकता का नमूना यह है कि एक भाजपा शासित राज्य में वांछित आरोपी दूसरे भाजपा शासित प्रदेश के मुख्यमंत्री से शरण पा लेता है। बिहार के चुनाव में गठबन्धन की दूसरी पार्टी मोदी को अपने यहाँ चुनाव में बुलाये जाने पर गठबन्धन तोड़ देने की धमकी देती है तो लोकसभा में पार्टी की नेता सुषमा स्वराज कहती हैं कि मोदी का जादू केवल गुजरात में ही चलता है। अपने को सीमित किये जाने पर आहत मोदी उनकी हाईकमान से शिकायत करते हैं।

जनता में भ्रष्टाचार के विरुद्ध जो ज्वार उठ रहा है जिसे अन्ना हजारे को सामने रख कर मेग्सेसे पुरस्कार विजेता संचालित कर रहे हैं। इस ज्वार के कारण अनिवार्य हो रही कार्यवाही में भाजपा में से कौन कौन बह जायेगा यह कहा नहीं जा सकता किंतु जो भी बचे रहेंगे वे आपस में ही युद्ध करेंगे। इस युद्ध के विजेता ही पार्टी का नेतृत्व सम्हाल सकेंगे, जिनकी तस्वीर बहुत साफ नहीं है। अमेरिकन कांग्रेस की जिस अध्यन रिपोर्ट में अगला चुनाव राहुल बनाम मोदी के बीच होने की सुर्री छोड़ी गयी है, उससे इस लड़ाई के और तेज होने की सम्भावना है। जिन संजय जोशी की सीडी जगजाहिर करने के आरोप मोदी पर लगे थे वे संजय जोशी फिर से पार्टी में वापिस आ गये हैं जो मोदी का रास्ता सुगम नहीं बनने देंगे। वैसे भी अडवाणीजी तो अभी पूर्ण स्वस्थ और सक्रिय हैं तथा उनकी महात्वाकांक्षाओं का पता उनकी रथयात्राओं से चलता रहता है।

 

 

 

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