वरदान  

0
286

पिछले चार साल कुछ घरेलू झंझटों में ऐसा फंसा रहा कि मित्रों और नाते-रिश्तेदारों के यहां जाना बिल्कुल नहीं हो पाया। मां का निधन हो गया। उनके जाने के बाद पिताजी ने चारपाई पकड़ ली। यद्यपि अब वे कुछ ठीक हैं, फिर भी उनकी देखभाल के लिए मुझे घर पर ही रहना पड़ता है। छोटा भाई मनोज एक निजी कम्पनी की नौकरी में है। वे लोग पैसा तो अच्छा देते हैं, पर छुट्टी बहुत कम। उसकी तैनाती भी घर से बहुत दूर है। इसलिए वह साल में बड़ी मुश्किल से दो बार घर आता है। उस समय ही मैं एक-दो दिन के लिए बाहर निकल पाता हूं। अब परिवार में ये सब जिम्मेदारी तो निभानी ही पड़ती हैं। इसी का नाम जीवन है।

पिछले सप्ताह की बात है। दिल्ली से संजय का फोन आया। वह मेरा पुराना साथी है। युवावस्था में बहुत घनिष्ठता रही है हम दोनों में; पर अब मिलना कम ही हो पाता है। वो दिल्ली और मैं मेरठ; लेकिन फोन से बात तो होती ही रहती है। वह अगले रविवार को अपने पौत्र के नामकरण संस्कार में आने का बहुत आग्रह कर रहा था। तीन साल पूर्व उसके पुत्र माधव के विवाह में भी मैं नहीं जा सका था। उन दिनों मां अस्पताल में थीं, इसलिए जाना संभव ही नहीं था; पर अब मनोज घर आया हुआ था। इसलिए एक दिन का समय निकालकर मैं अपनी पत्नी शीला के साथ दिल्ली चला ही गया।

मेरठ से दिल्ली अधिक दूर नहीं है। अपनी गाड़ी से दो-ढाई घंटे लगते हैं। सुबह नाश्ता करके नौ बजे घर से चले, तो बारह बजे संजय के घर पहुंच गये। नामकरण संस्कार का कार्यक्रम चल रहा था। हमने भी हवन में पूर्णाहुति देकर नवजात शिशु और उसके माता-पिता पर पुष्पवर्षा की। इसके बाद सबका भोजन था। उसके घर के पास ही एक धर्मशाला है। वहीं सारे कार्यक्रम हुए। संजय से घरेलू सम्बन्ध होने के कारण उसकी बहनों से भी मेरा परिचय है। वे सब बाल-बच्चों सहित वहां थीं। उनसे भी कई साल बाद मिलना हुआ था। इसलिए सबको बहुत अच्छा लगा।

भोजन के बाद हम उसके घर पर ही चले गये। जब कुछ फुर्सत हुई, तो संजय ने अपनी बहू से ठीक से परिचय कराया। उसने मेरे और शीला के पांव छुए। हमारी उससे यह पहली भेंट थी। इसलिए शीला उसके और नवजात शिशु के लिए कुछ कपड़े लायी थी। उसने आशीर्वाद के साथ वह सब भी उसे दिये। अनौपचारिक बातचीत में शाम की चाय का समय हो गया। बहू ने ही चाय बनाकर सबको पिलायी। उस समय मैंने उसका चेहरा ठीक से देखा, तो मुझे लगा कि मैंने इसे पहले कहीं देखा है। यद्यपि मैं माधव के विवाह में नहीं आया था। तो क्या यह मेरा भ्रम है ? मैं बार-बार दिमाग पर जोर दे रहा था; पर …।

संजय की अधिकांश रिश्तेदारी दिल्ली में ही है। इसलिए चाय के बाद लगभग सभी लोग चले गये। इसी समय बच्चा रोने लगा, तो बहू उसे लेकर अंदर चली गयी। बेटा माधव टैंट और हलवाई का हिसाब करने बाजार गया हुआ था। मुझे अपनी शंका दूर करने के लिए यह समय ठीक लगा। मेरी बात सुनकर संजय और भाभी दोनों ठठाकर हंस पड़े। मैं और शीला हैरानी से उनकी ओर देखते रहे। काफी देर हंसने के बाद संजय ने जो कहानी बतायी, वह सचमुच बहुत रोचक थी।

हुआ यों कि पांच साल पहले रात के समय संजय की पत्नी गीता के पेट में अचानक तेज दर्द उठा। ऐसा लग रहा था मानो पेट में चक्की सी चल रही है। सबने सोचा कि शायद खानपान में कुछ गड़बड़ हो गयी होगी। घर में ऐसे समय के लिए पुदीन हरा, हींगवटी आदि रहती हैं; पर उससे कुछ लाभ नहीं हुआ। फिर गरम पानी की बोतल से सिकाई की गयी। उससे दर्द कुछ कम हुआ और नींद आ गयी; पर अगले दिन फिर वही परेशानी होने लगी। अतः वे अपने घरेलू डॉक्टर के पास गये। उसने कुछ प्राथमिक दवाएं देकर अल्ट्रा साउंड कराने को कहा। अल्ट्रा साउंड से पता लगा कि उनके गॉल ब्लैडर में कई पथरियां विद्यमान हैं, जो काफी समय से शांत पड़ी थीं; पर अब वे हिलने लगी हैं। दर्द का कारण भी यही है।

इससे सब चिन्तित हो उठे। डॉक्टर ने बताया कि इसका एकमात्र निदान ऑपरेशन ही है। इस ऑपरेशन में एक विशेष बात यह होती है कि उसमें पथरी के साथ गॉल ब्लैडर भी निकाल दिया जाता है। संजय ने अपने रिश्तेदारों और मित्रों से पूछा। ऐसे में लोग कई तरह की सलाह देते हैं। कुछ ने होम्योपैथी लेने को कहा, तो कुछ ने आयुर्वेद। एक ने दादरी के किसी वैद्य का पता बताया, जो दवा से हर तरह की पथरी निकालने का दावा करते थे। उसने मुझसे भी पूछा। मैं स्वयं इस रोग का भुक्तभोगी रह चुका हूं। मैंने कहा कि बेकार के चक्कर में न पड़कर तुरंत ऑपरेशन करा लेना चाहिए। कई बार देर करने से रोग बिगड़ जाता है। आजकल चिकित्सा विज्ञान बहुत आगे बढ़ गया है। ऑपरेशन के बाद प्रायः अगले दिन ही छुट्टी दे दी जाती है।

संजय को मेरी सलाह जंच गयी। शायद कुछ औरों ने भी यही कहा होगा। उसने दिल पक्का किया और पत्नी को ‘वर्मा स्टोन अस्पताल’ में भर्ती करा दिया। वहां केवल पथरी के मरीज ही देखे जाते थे। डा. वर्मा काफी अनुभवी और अच्छे स्वभाव के व्यक्ति थे।  कई डॉक्टर लालची होते हैं। वे बिना बात कई तरह जांच आदि करा कर मरीज को लूटने का प्रयास करते हैं; पर डा. वर्मा इस मामले में भी अपवाद थे। तीन दिन बाद संजय का फोन आया कि गीता का ऑपरेशन तो ठीक हो गया है; पर अस्पताल में कम से कम एक सप्ताह और रहना होगा।

मुझे अगले दिन किसी काम से दिल्ली जाना था। इसलिए मैं उनसे मिलने अस्पताल ही चला गया। वहां संजय ने बताया कि डॉक्टर ने पहले छोटे ऑपरेशन की बात कही थी। उसमें पेट में दो छोटे छेद किये जाते हैं। उनसे टार्च, कैमरा, कैंची आदि अंदर डालकर गॉल ब्लैडर को काटकर अलग कर देते हैं। फिर उसे धागे से बांधकर पथरी सहित बाहर निकाल लेते हैं। यह सारा काम टी.वी. जैसे बड़े पर्दे पर देखते हुए किया जाता है। आजकल प्रायः इसी विधि से ऑपरेशन होते हैं।

लेकिन जब ये उपकरण अंदर डाले गये, तो वहां का दृश्य कुछ दूसरा था। इस पर डा. वर्मा बाहर आये। संजय, माधव और अन्य कई परिजन वहां थे। डा. वर्मा ने बताया कि मरीज का गॉल ब्लैडर बिल्कुल सड़ चुका है। उसका आकार भी काफी बड़ा हो गया है। बाहर खींचते समय उसके फटने का खतरा है। फटने से सारा मवाद और पथरियां पेट में फैल जाएंगी। इसलिए अब ‘ओपन सर्जरी’ यानि पेट खोलकर ही ऑपरेशन करना होगा।

संजय की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे ? गीता अंदर ऑपरेशन की मेज पर बेहोश पड़ी थी। अतः डॉक्टर की बात मानने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं था। परिणाम ये हुआ कि आधा घंटे वाला ऑपरेशन ढाई घंटे में पूरा हुआ। सोचा था कि गीता अगले दिन घर आ जाएगी; पर अब उसे एक सप्ताह तक अस्पताल में ही रहना पड़ा। इलाज का खर्च भी दोगुना हो गया।

संजय की दिल्ली के पास औद्योगिक क्षेत्र में ताले की चाबियां बनाने की एक फैक्ट्री है। बेटा माधव भी उसके साथ ही काम में लगा है। अलीगढ़ी तालों के कई प्रसिद्ध ब्रांडों की चाबियां वहीं बनती हैं। काम बहुत अच्छा है। कहीं कोई झंझट नहीं है। बनते ही सारा माल अलीगढ़ चला जाता है। 20 कर्मचारी दो पारियों मे काम करते हैं। काम के बारे में संजय से पूछो, तो वह यही कहता है कि भगवान की बड़ी कृपा है और इज्जत से दाल-रोटी निकल रही है।

ऑपरेशन के बाद पिता-पुत्र दोनों ने गीता की भरपूर सेवा की। संजय की बड़ी बेटी का विवाह दिल्ली में ही हुआ है। वह भी आती-जाती रहीं। डा. वर्मा भी भले आदमी थे। यों तो अस्पताल में कई नर्सें हैं; पर उन्होंने एक युवा नर्स को अलग से गीता की देखभाल के लिए नियुक्त कर दिया। आठवें दिन टांके कट गये और फिर सब लोग घर आ गये।

मैंने अधीर होकर पूछा, ‘‘लेकिन इस कहानी का बहू से क्या सम्बन्ध है ?’’

संजय जोर से हंसा और गीता भी। फिर वह बोला, ‘‘वही तो बता रहा हूं। अस्पताल में जिस नर्स को डा. वर्मा ने नियुक्त किया था, उसका नाम आशा था। वह भी बहुत अच्छे स्वभाव की थी। दो दिन में वह सबसे घुलमिल गयी। कई बार वह ड्यूटी टाइम के बाद भी बैठी रहती थी। बातचीत में पता लगा कि जिस कॉलोनी में मेरी बेटी की ससुराल है, उसके सामने वाले मोहल्ले में ही वह रहती है। उसके पिताजी अध्यापक हैं। घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, इसलिए उसे काम करना पड़ रहा है। कुछ और पूछा, तो ध्यान में आया कि वह हमारी ही बिरादरी की भी है।’’

अब कहानी में समझने जैसा कुछ बाकी नहीं बचा था। यानि आशा वही लड़की है, जिसे ऑपरेशन के बाद अस्पताल में मैंने गीता भाभी की सेवा करते हुए देखा था।

संजय ने आगे बताया, ‘‘हमें लगभग दस दिन वहां रहना पड़ा। कभी मैं रात को वहां रुकता था, तो कभी माधव। दिन भर कमरे में रहने के कारण आशा से भी हमारी बातचीत होती ही रहती थी। इस बीच माधव और आशा में कब और कैसे घनिष्ठता हो गयी, हमें ये पता ही नहीं लगा। जब गीता घर आ गयी, तो उसके बाद भी आशा दो-तीन बार उसे देखने घर आयी। यद्यपि यह उसकी ड्यूटी में शामिल नहीं था। इससे गीता को कुछ संदेह सा हुआ। महिलाएं ऐसे मामले में कुछ ज्यादा ही समझदार होती हैं। वे एक-दूसरे की आंखों की भाषा आसानी से पढ़ लेती हैं।

इसके बाद तो बात खुलनी ही थी। गीता ने माधव से पूछा, तो उसने आशा के प्रति अपने आकर्षण की बात मान ली। मैंने अपनी बेटी से कहा, तो उसने आशा के परिवार के बारे में विस्तृत जांच कर ली। परिवार तो अच्छा था, पर आर्थिक स्थिति काफी ढीली थी। आशा से छोटी दो बहिनें थीं और फिर एक भाई। हमने घर में विचार किया कि पैसा तो आता-जाता रहता है। यदि माधव और आशा सहमत हैं, तो हमें इस रिश्ते में कोई आपत्ति नहीं है।

लेकिन मेरा और आशा के पिताजी का कोई परिचय नहीं था। ऑपरेशन के महीने भर बाद गीता की फिर से कुछ जांच होनी थी। उसके लिए मैं उसके साथ डा. वर्मा के पास गया। वहां मैंने डा. वर्मा से इस विषय में चर्चा की। वे सारी बात जानकर खूब हंसे। उन्होंने आशा के पिताजी से बात करने और इस विषय को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी ले ली। जांच के बाद हम वापस लौट आये।

दूसरे ही दिन आशा के पिताजी का फोन आया और फिर वे अपनी पत्नी के साथ हमारे घर आ गये। प्रारम्भिक बात के बाद उन्होंने अपनी आर्थिक स्थिति और विवाह का बजट साफ-साफ हमें बता दिया। उन्होंने कहा कि यदि इसके बाद भी आप हमारी बेटी लेंगे, तो यह उनके लिए बहुत खुशी की बात होगी। आपके घर की बहू बनना आशा के लिए सौभाग्य की बात है। हम तो सोचते थे कि वह नर्स है, तो अस्पताल के किसी कर्मचारी से ही उसका विवाह कर देंगे; पर वह इतने अच्छे और सम्पन्न परिवार में जाएगी, यह तो हमने कभी सोचा ही नहीं था।

इतना कहते हुए आशा के पिताजी ने हाथ जोड़ दिये। पति-पत्नी दोनों की आंखों में आंसू आ गये। सचमुच किसी गरीब व्यक्ति के लिए बेटी की जिम्मेदारी कितनी बड़ी होती है, ये वही जान सकता है, जो इस परिस्थिति से गुजरा हो।

हमने भी साफ कर दिया कि भगवान का दिया हमारे पास सब कुछ है। आप दहेज या बारात की खातिरदारी की चिन्ता न करें। माधव हमारा इकलौता बेटा है। उसका विवाह बड़ी धूमधाम से होगा और उसका सारा खर्च भी हम ही करेंगे। आप तो बस शगुन के तौर पर वर-वधू के लिए जो वस्त्राभूषण आदि बनते हैं, वे बनवा लें। बाकी सब जिम्मेदारी हमारी है।

इतना कहकर संजय में मेरी ओर देखा, ‘‘बस, इसके बाद जो हुआ, वो तुम्हें पता ही है। और अब तो एक खिलौना भी घर में आ गया है। हमारा बुढ़ापा तो उससे खेलते हुए ही कट जाएगा।

इस बातचीत में पहली बार शीला ने हस्तक्षेप किया, ‘‘गीता भाभी, आपको इस तरह दो लाभ हो गये।’’

– वो क्या ?

– बहू के साथ ही सेवा करने वाली एक नर्स भी मिल गयी।

सबने खुलकर ठहाका लगाया। अब हमने वापसी की तैयारी की। मना करने पर भी संजय ने मिठाई और नमकीन के कई डिब्बे हमारी गाड़ी में रख दिये। चलते समय आशा और माधव ने फिर से हमारे पैर छुए। मैंने कहा, ‘‘बीमारी प्रायः लोगों के लिए मुसीबत बन कर आती है; पर इसे ‘वरदान’ बनते हुए पहली बार ही देखा है।’’

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,058 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress