वर्ण पर आधारित जन्मना जाति व्यवस्था या मरण व्यवस्था

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मनमोहन कुमार आर्यlady

महाभारत काल तक वेदों का प्रचार प्रसार रहा और देश व भूमण्डल पर यत्र-तत्र ऋषियों के होने की सम्भावना भी प्रतीत होती है। महाभारत काल के बाद वैदिक धर्म व संस्कृति का सूर्य का प्रकाश कुछ कम हो गया जिसके परिणामस्वरुप, एक ओर जहां देश में अविद्या व अन्धविश्वासों का प्रसार हुआ वहीं, गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वर्ण व्यवस्था ने भी जन्मना जाति व्यवस्था का रुप ले लिया। यह जन्मना जाति व्यवस्था भी चार वर्णों पर ही आधारित थी। ब्राह्मण वर्ण में ही अनेकानेक जन्मना जातियों का निर्माण कब व कैसे हो गया, कोई नहीं जानता परन्तु यह सब मानेंगे कि जन्मना जातियों का प्रचलन महाभारत काल के बाद विगत पांच हजार वर्षों में ही हुआ है। ब्राह्मणों की ही तरह क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र वर्ण के बन्धुओं में भी नाना जन्म पर आधारित जातियों का प्रचलन हुआ। जन्मना जातियों के प्रचलन के साथ इनमें परस्पर छुआछूत का प्रारम्भ कब व किसने किया इसके भी ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं है। यह भी माना जाता है कि आठवी शताब्दी में यवनों के भारत पर आक्रमण और उनके शनैः शनैः राज्य विस्तार, हिन्दुओं का धर्मान्तरण और न करने वालों को मनुष्यों का मल मूत्र साफ करने के लिए बाध्य करना, जैसे गुलामी के समय में यह छुआ-छूत व अस्पर्शयता आरम्भ हुई थी। यह बात अनेक घटनाओं के आधार पर उचित लगती है।

 

समय के साथ समाज में जाति के आधार पर लोगों को व्यवसाय और अधिकार प्राप्त होने लगे। शूद्र वर्ण के भाईयों को पढ़ने-पढ़ाने से लेकर अच्छे काम करने के शायद सभी अधिकारों से वंचित कर दिया गया। इससे उनका जीवन भी अनेकानेक कठिनाईयों और दुःखों से भर गया। ऐसे समय में उन्हें यदि सबसे अधिक राहत मिली तो वह ऋषि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) की विचारधारा व उनके द्वारा सन् 1875 में स्थापित संगठन आर्यसमाज और उनके अनुयायियों से प्राप्त हुई। ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज ने सभी दलित भाईयों को गुरुकुलों में अन्य वर्ण के विद्यार्थियों के साथ निःशुल्क अध्ययन कराने के साथ वेदाध्ययन करने का भी अधिकार दिया जिससे अनेक दलित भाई वेदों के विद्वान बने और आर्यसमाज में पुरोहित व उपदेशक बन गये। इसी प्रकार आर्यसमाज ने अस्पर्शयता और छुआछूत पर भी कठोर प्रहार किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि इस अमानवीय व्यवस्था में भारी सुधार हुआ। आर्यसमाज ने गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार विवाह भी प्रचलित किये जो दिन प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं जिसके अनुसार अनेक दलित भाई व बहिन प्रेम विवाह व दोनों पक्षों के परिवारों द्वारा व्यवस्थित विवाह करने लगे हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वैदिक वर्ण व्यवस्था का यथार्थस्वरुप सत्यार्थप्रकाश सहित अपने अन्य ग्रन्थों में भी प्रस्तुत किया है। जन्मना जाति व्यवस्था और परस्पर छुआछूत के विचारों से वह अत्यन्त क्षुब्ध व दुःखी थे। उनका यह क्षोभ उनकी इन पंक्तियों में व्यक्त हुआ जिसमें उन्होंने कहा व लिखा ‘‘यह वर्ण व्यवस्था तो आर्यों के लिए मरण व्यवस्था बन गई है। देखें इस डाकिन से इनका पीछा कब छूटता है।” हमने सम्प्रति यह उद्धरण यहां ‘वर्णव्यवस्था बनाम् जाति-व्यवस्था (सत्यान्वेषण स्मारिका-2002)’ में प्रकाशित प्रसिद्ध आर्यविद्वान श्री यशपाल आर्यबन्धु, मुरादाबाद के लेख से दियस है। हमने श्री यशपाल आर्यबन्धु जी के अनेक प्रवचन व उपदेशों को सुना है। उनसे चर्चायें भी की हैं। मृत्यु से कुछ समय पूर्व हमने उनसे दूरभाष पर भी बातें की थी। वह बहुत अच्छे उपदेशक एवं लेखक थे। आपने अनेक लोकप्रिय लघु ग्रन्थों की रचना की है। महर्षि के उपर्युक्त वचनों को उन्होंने ‘अन्तर्राष्टीय आर्यसमाज स्मारिका, पृष्ठ 64’ से उद्धृत किया है।

 

भारत में विश्व की लगभग 18 प्रतिशत जनसंख्या रहती है। इसमें भी अब अनेक जैन, बौद्ध, सिख, मुस्लिम व ईसाई आदि हैं जो जन्मना जाति व्यवस्था को नहीं मानते। विश्व के शेष 5 अरब 75 करोड़ लोग जो ईसाई, मुसलमान व नास्तिक हैं, जन्मना जाति व्यवस्था को नहीं मानते। ऐसी स्थिति में यह आश्चर्य में डालने वाला तथ्य है कि ईश्वरीय ज्ञान वेदों पर आधारित आर्यों व हिन्दुओं के मत व धर्म में यह अमानवीय प्रथा कैसे उत्पन्न हो गई और आज भी विद्यमान है। इससे देश व समाज को भारी हानि भी हो रही है। अतः इसको तुरन्त समाप्त किया जाना आवश्यक है अन्यथा इससे भविष्य में अनेक भीषण दुष्परिणाम, गुलामी आदि, हिन्दू व आर्यों के सम्मुख आ सकते हैं जिससे हमारा समाज व इसके नेता पूरी तरह से बेखबर दिखाई देते हैं।

 

महर्षि दयानन्द के वाक्य में इस व्यवस्था को लेकर गहरी पीड़ा का साक्षात्कार होता है। हम हिन्दू व आर्यसमाज के विद्वानों व नेताओं से अनुरोध करते हैं कि वह इस समस्या पर गम्भीरता से विचार कर और इसके भावी भीषण दुष्परिणामों को देखते हुए इसे समाप्त करने के कारगर उपाय करें व सामाजिक आन्दोलन चलायें। हम अपने पाठकों से यह भी निवेदन करते हैं कि महर्षि के उक्त वचन ‘वर्ण व्यवस्था मरण व्यवस्था बन गई है’ का पता कि यह उनके किस ग्रन्थ व उपदेश आदि में आया है, अवगत कराने का कष्ट करें। हमने कभी इसे पढ़ा था और इसकी स्मृति हमारे मस्तिष्क में है परन्तु हम इसका सन्दर्भ भूल चुके हैं। हम अपने सुधी पाठकों से अपेक्षा करते हैं कि वह इसका सन्दर्भ अवश्य जानते होंगे। कृपया ऋषि के उक्त वाक्य का सन्दर्भ सूचित कर हमारी सहायता करें। हम आभारी होंगे। इसी के साथ इस संक्षिप्त लेख को विराम देते हैं।

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