कमरतोड़ महंगाई के मध्य राष्ट्रमंडल खेल

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-तनवीर जाफरी

मात्र तीन महीने के बाद अर्थात् आगामी अक्टूबर माह में राजधानी दिल्ली में आयोजित होने जा रहे राष्ट्रमंडल खेलों जैसे ऐतिहासिक अंतर्राष्ट्रीय आयोजन के बाद भारत विश्व के उन समृध्द,संपन्न तथा इस प्रकार के किसी बड़े आयोजन को करवा सकने वाले दुनिया के कुछ महत्वपूर्ण देशों में गिना जाने लगेगा। खबर है कि इस आयोजन पर लगभग 20,000 करोड़ रुपये खर्च किए जा रहे हैं। इस अंतर्राष्ट्रीय स्तर के आयोजन हेतु जो आधारभूत ढांचा तैयार किया जा रहा है उसका प्रयोग राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान खिलाड़ियों तथा खेल से जुड़े अन्य अतिथियों द्वारा किया जाएगा। परंतु बाद में यह सारा का सारा निर्मित ढांचा हमारे ही देशवासियों के प्रयोग के लिए खड़ा रह जाएगा। इनमें आधुनिक तकनीक पर आधारित नवनिर्मित स्टेडियम,ठीक-ठाक कराए गए कुछ पुराने स्टेडियम, राष्ट्रमंडल खेलों को मद्देनजर रखकर बिछाई गई मैट्रो रेल परियोजना का कुछ भाग, अनेक नवनिर्मित लाईओवर तथा कई उच्च श्रेणी के पांच सितारा होटल आदि शामिल हैं। इसमें कोई शक नहीं कि इस महत्वाकांक्षी आयोजन के पश्चात हमारे देश का नाम पूरी दुनिया में और अधिक रौशन होगा। परंतु इस आयोजन को लेकर मतभेद के स्वर भी आयोजन से पूर्व ही उठते दिखाई देने लगे हैं। केंद्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर तो इस आयोजन को लेकर बहुत ही नाराज दिखाई दे रहे हैं। वे इस आयोजन को घोर महंगाई के इस दौर में महा पैसे की बर्बादी तथा झूठ की बुनियाद पर खड़ा किया जाने वाला एक दिखावा बता रहे हैं। उनकी नाराागी के कारणों में एक कारण यह भी है कि यदि राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन होना ही था तो घनी आबादी वाली संपन्न राजधानी दिल्ली के बजाए किसी अन्य अविकसित क्षेत्र को राष्ट्रमंडल खेलों के ही बहाने विकसित किया जा सकता था।

यह प्रश्न स्वाभाविक है कि बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी तथा इनके कारण उपजने वाली नक्सल व माओवाद नामक समस्या से जूझ रहे भारतवर्ष के समक्ष पहली प्राथमिकता आखिर क्या होनी चाहिए? इन समस्याओं से निजात पाना या फिर दुनिया के सामने इस बात का झूठा दिखावा करना कि हम खुश हैं, खुशहाल हैं, संपन्न हैं और समृद्ध हैं? नक्सल व माओवाद जैसी समस्याओं से तो हम गत् कई दशकों से जूझ ही रहे हैं। इसी के साथ-साथ गत् एक वर्ष से महंगाई ने हमारे देश में ऐसा विकराल रूप धारण कर रखा है कि इस समय देश का हर आम आदमी इस बात को लेकर चिंतित नज़र आ रहा है कि भविष्य में वह अपनी कमाई से अपना व अपने परिवार का पालन पोषण कर भी सकेगा या नहीं। भूख, गरीबी व बेरोजगारी ने जहां माओवाद व नक्सलवाद जैसे अराजकतापूर्ण संघर्षों की जड़ों को कांफी गहरा कर दिया है, वहीं निश्चित रूप से दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही महंगाई इस अराजकता के वातावरण को और अधिक बढ़ावा ही दे रही है। शहरी क्षेत्रों में तो इसके दुष्परिणाम आने भी शुरु हो चुके हैं। अर्थात् जहां शहरों में रात में चोरियों के समाचार मिला करते थे वहीं अब दिन-दहाड़े अपहरण व डकैती की खबरें सुनाई देने लगी हैं।

इस निरंतर बढ़ती महंगाई की आग में घी डालने का काम गत् 25 जून को उस समय हुआ जबकि केंद्र सरकार द्वारा पैट्रोल की कीमतों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर दिया गया। इस कदम के साथ ही पैट्रोल के मूल्य में साढ़े तीन रुपये प्रति लीटर की तत्काल वृध्दि हो गई। तथा दो रुपये प्रति लीटर के हिसाब से डीजल महंगा हो गया। रसोई गैस में भी 35 रुपये प्रति सिलेंडर का इजाफा हुआ तथा आम आदमी विशेषकर गरीबी रेखा से नीचे के लोगों द्वारा प्रयुक्त किया जाने वाला कैरोसिन ऑयल 3 रुपये प्रति लीटर महंगा हो गया। गत् दिनों प्रधानमंत्री ने अपनी विदेश यात्रा से वापसी के दौरान एक बार फिर यह इशारा किया है कि पैट्रोल की ही तरह डीाल के मूल्यों को भी सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया जा सकता है।प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह भी बताया था कि ईंधन के मूल्यों में यदि बढ़ोतरी न की गईहोती तोसार्वजनिक क्षेत्रों की तेल कंपनियों को होने वाला घाटा 74 हजार तीन सौ करोड़ रुपये तक पहुंच सकता था।प्रधानमंत्री का यह वक्तव्य स्वयं इस बात की ओर इशारा कर रहा है कि सरकार सार्वजनिक क्षेत्रों की तेल कंपनियों के हितों की अब और अनदेखी नहीं कर सकती। जाहिर है सरकार की इस सोच का खामियाजा आखिरकार आम आदमी को ही भुगतना पड़ेगा।

हालांकि प्रधानमंत्री ने यह आश्वासन दिया है कि घरेलू रसोई गैस तथा कैरोसिन पर सरकार अपनी सबसिडी पूर्ववत् जारी रखेगी। परंतु भविष्य में सरकार का पैट्रोल की ही तरह डीजल को भी नियंत्रण मुक्त किए जाने वाला संभावित फैसला हमें एक बार फिर यह चेतावनी दे रहा है कि डीजल के मूल्यों में अभी और भी वृध्दि हो सकती है। यहां यह सर्वविदित है कि डीजल के मूल्य में बढ़ोतरी का सीधा अर्थ माल भाड़े में वृध्दि होना। तथा माल भाड़े में हुई वृद्धि का सीधा मतलब महंगाई का और अधिक बढ़ना। गोया आसमान छूती वर्तमान महंगाई से राहत मिलने की बात तो दूर अभी तो लगता है कि यही महंगाई अभी और भी अपने चरम पर जाने वाली है। ऐसे में विश्व के जाने-माने अर्थशास्त्री समझे जाने वाले हमारे देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तथा आम आदमी के हितों की दुहाई देने वाली कांग्रेस पार्टी की आम लोगों के प्रति जिम्‍मेदारियों को लेकर सवाल उठना स्वाभाविक है। कहने को तो प्रधानमंत्री सरकार के इन ‘आग लगाऊ’ क़ दमों को सुधारवादी कदम कहकर संबोधित कर रहे हैं। उन्होंने महंगाई को लेकर विपक्ष द्वारा किए जाने वाले विरोध को भी ‘सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने की अति’ कहकर संबोधित किया है। परंतु जमीनी हकीकत तथा निरंतर बढ़ती महंगाई को लेकर आंखिर कौन सा वर्ग दुखी नहीं है।

यदि महंगाई बढ़ाने के इन कदमों को देश की अर्थव्यवस्था के पक्ष में उठाया जाने वाला सुधारवादी कदम माना भी जाए जो फिर यह प्रश् भी न्यायसंगत है कि सुधार आंखिर किस का हो रहा है। आम लोगों का तो कतई नहीं। हां यदि जमाखोरों, नेताओं, उच्चाधिकारियों अथवा महंगाई बढ़ाने की जुगत बिठाने में लगे लोगों का अपना सुधार हो रहा हो तो यह अलग सी बात है। बड़ी हैरत की बात है कि हमारे आंकड़े हमारे देश की समृद्धि व खुशहाली का संदेश देते रहते हैं। वर्तमान वित्तीय वर्ष में हमारे देश की अर्थव्यवस्था साढ़े आठ प्रतिशत तक पहुंचने की संभावना है। परंतु आम आदमी महंगाई के बोझ तले इतना दबता जा रहा है कि संभवत: वह इस बोझ से निजात पा ही नहीं सकेगा।

महंगाई से जुड़ी इन्हीं खबरों के बीच कुछ ऐसी हैरतअंगो खबरें भी आ रही हैं जिन्हें सुनकर देश की सरकार,इसकी मशीनरी तथा प्रशासनिक कार्यप्रणाली को लेकर बड़ी हैरानगी होती है। अक्सर यह खबरें सुनाई देती हैं कि सरकारी गोदाम खाद्यानों से भरे पड़े हैं। इतने भरे हैं कि खाद्यान सड़ रहे हैं अथवा खुले आसमान के नीचे भीगकर बर्बाद हो रहे हैं। कहीं-कहीं तो इन्हें चूहे खाकर खत्म कर रहे हैं। इसी बीच जहां खाद्यान की वर्तमान पैदावार में इजाफा होने की खबरें आ रही हैं वहीं ऐसी चिंतित करने वाली खबरें भी मिल रही हैं कि राय व केंद्र सरकारों के पास इन खाद्यानों के रखने हेतु अब पर्याप्त जगह भी नहीं है। यह तो है खाद्यान के हमारे सरकारी रखरखाव की हंकींकत। उधर दूसरी ओर रही सही कसर जमाखोरों द्वारा पूरी की जा रही है। बाजार में जिन वस्तुओं की आमद में ज़रा भी कमी नजर आती है, जमाखोर फौरन उसी माल की जमांखोरी कर उसकी कीमतों में आग लगा देते हैं। ऐसे हालात में दोनों ही परिस्थितियों में आम आदमी ही पिसता हुआ नजर आता है। चाहे वह सरकारी दुर्व्‍यवस्था का शिकार हो अथवा जमाखोरों की बदनीयती का।

उपरोक्‍त परिस्थितियों में विपक्षी दलों को बैठे बिठाए सरकार के विरोध करने का महंगाई जैसा मुद्दा स्‍वयं ही हाथ लग गया है। प्रधानमंत्री इसे लाख यह कहें कि यह सस्‍ती लोकप्रियता पाने का तरीका है। परंतु आम जनता को तो बढती महंगाई के विरूद्ध अपनी आवाज बुलंद करनी ही है। ऐसे में अब यूपीए अध्‍यक्ष सोनिया गांधी तथा देश को 21वीं सदी में और आगे ले जाने की राह दिखाने वाले राहुल गांधी की जिम्‍मेदारी है कि वे केवल आम आदमियों की बातें मात्र करने के बजाए आम आदमी के हितों का भी ध्‍यान रखें। और इस समय निश्चित रूप से आम आदमी से जुडी सबसे गंभीर, सबसे जरूरी एवं सबसे पहली समस्‍या सिर्फ और सिर्फ महंगाई ही है। जिससे देश का प्रत्‍येक आदमी जूझ रहा है। यही बढती महंगाई, अराजकता, लूटपाट, चोरी-डकैती तथा दुर्व्‍यसनों को भी बढावा देती है। लिहाजा पाकिस्‍तान, बंगलादेश व नेपाल में बढनेवाली महंगाई की आड लेने तथा उनसे अपने देश की तुलना करने के बजाए अपने देश के आम आदमी की बात करना ही उचित होगा।

बेहतर होगा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, योग्‍य वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी तथा उनके सहयोगी मोंटेक सिंह आहलूवालिया जैसे प्रतिष्ठित अर्थशास्‍त्री अपनी कुशल क्षमता एवं योग्‍यता का प्रदर्शन कर निरंतर बढती जा रही मूल्‍यवृद्धि से देश की जनता को निजात दिलाएं।

2 COMMENTS

  1. जाफरी साहब सही कह रहे है. एक तरफ महंगाई और दूसरी और राष्ट्र मंडल खेल. राष्ट्र मंडल खेल अंग्रजो की गुलामी का प्रतीक हैं. महंगाई अपने उच्चतम स्तर पर पहुँच चुकी है. अमीर और अमीर होते जा रहे है, गरीब और गरीब होते जा रहे है. प्रतिष्ठित अर्थशास्‍त्री हरे हरे सब्जबाग दिखा रहे है. आज स्तिथिया इतनी भावायक हो चुकी है की सामान्य जनता करह रही है. किन्तु ये प्रतिष्ठित अर्थशास्‍त्री विकास के जाने कौन से रोल माडल दिखा रहे है. जितनी भी योजना बनती है, उसे बनाने वालो में कुछ प्रतिशत सामान्य व्यक्ति (माध्यम परिवार, सामान्य आर्थिक स्तिथि वाले शिक्षा विद) भी शामिल हो तो योजनाये आम व्यक्ति तक थोड़ी ज्यादा पहुँच सकती है.

  2. जाफरी साहब,
    आपकी बातें पढ़ कर ऐसा लगता है की आप जैसे बुद्धिजीवी लोग अगर प्रयास करें तो हमारे प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों को बेनकाब किया जा सकता है! अपने मोंटेक साहब कितने उपयोगी हैं मुझे और इस देश के अज्ञानी लोगों को शक जरुर है! मनमोहन सिंह, चिदम्बरम, प्रणब, मोंटेक जैसे विश्व कुख्यात (मेरा मतलब है विख्यात) अर्थशास्त्री ये कह कर पल्ला झाड़ने में लगे हुए हैं की एन डी ए ने भी कीमतें बढ़ाई थी लेकिन ये आंकड़े बताने को तैयार नहीं कि उस वक़्त मुद्रास्फीति कितनी थी और आज कितनी है!

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