ब.स.पा. और परिवारवाद

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कुछ दिन पूर्व बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने विधिवत घोषणा कर दी कि उनका
भाई आनंद और भतीजा आकाश पार्टी में नंबर दो और तीन के पद पर रहेंगे। कभी काशीराम
और मायावती परिवारवाद के खुले विरोधी थे; फिर ब.स.पा. परिवार के दलदल में क्यों कूद पड़ी
? इसका विश्लेषण करें, तो ध्यान में आएगा कि जैसे हर इन्सान को बुढ़ापे में कुछ रोग लगते
हैं, ऐसा ही राजनीतिक दलों के साथ भी होता है। परिवारवाद ऐसा ही एक रोग है।
भारतीय राजनीति में यह नयी बात नहीं है। असल में राजनीतिक दलों में भिन्नता विचारों के
आधार पर होती है। किसी समय कांग्रेस आजादी के लिए संघर्ष करने वाली एक राष्ट्रीय संस्था
थी। उसके मंच पर सब विचारों के लोग आते थे। इसीलिए आजादी मिलने पर गांधीजी ने कांग्रेस
भंग करने को कहा था, जिससे लोग अपने विचारों के अनुसार राजनीतिक दल बनाकर चुनाव
लड़ें; पर जवाहर लाल नेहरू उनकी यह विरासत छोड़ने को राजी नहीं हुए।
1947 तक कांग्रेस और उसमें शामिल समूहों का लक्ष्य आजादी था। अतः देश की आर्थिक,
सामाजिक, धार्मिक और शैक्षिक स्थिति; खेती और उद्योग आदि के बारे में उनके विचार किसी
को पता नहीं थे; पर आजादी के बाद इन पर अपने विचार बताने जरूरी थे। नेहरू ने वामपंथी
रुझान वाले विचार अपनाए और मृत्युपर्यन्त राज करते रहे। आगे चलकर कांग्रेस से डा. लोहिया,
आचार्य कृपलानी, आचार्य नरेन्द्र देव आदि कई नेता अलग हुए, जिन्होंने मुख्यतः समाजवाद के
नाम पर नये दल बनाये। कुछ राज्यों में ये प्रभावी भी हुए; पर इनकी देशव्यापी पहचान नहीं
बनी। दूसरी और राष्ट्रवाद तथा हिन्दुत्व के पक्षधर ‘भारतीय जनसंघ’ के विस्तार का आधार
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ था। संघ के विस्तार के साथ ही जनसंघ भी बढ़ता रहा।
पर धीरे-धीरे राजनीति में विचारों का महत्व घटने लगा। सोवियत रूस के विघटन से साम्यवाद
अप्रासंगिक हो गया। अमरीका का प्रभुत्व बढ़ने से सबका ध्यान पूंजीवाद की ओर बढ़ा। चीन ने
भी साम्यवाद के खोल में पंूजीवाद अपना लिया। भारत में यद्यपि गरीबों के वोट लेने के लिए
कोई दल पूंजीवाद का खुला समर्थन नहीं करता; पर सच ये है अधिकांश दल इसी राह पर चल
रहे हैं। विचारों का आधार समाप्त होने पर राजनीतिक दलों ने अपने अस्तित्व के लिए परिवार
को आधार बना लिया।
कांग्रेस में नेहरू परिवार का प्रभुत्व था। अतः जो नेता कांग्रेस से विचारों की भिन्नता का बहाना
बनाकर अलग हुए, उनके दल परिवार आश्रित हो गये। परिवारवाद के नाम पर नेहरू का विरोध
लोहिया ने, इंदिरा गांधी का चरणसिंह ने, चरणसिंह का मुलायम और देवीलाल ने किया; पर

आज इन सबके दल निजी दुकान बन कर रहे गये हैं। शरद पवार, उद्धव और राज ठाकरे,
प्रकाश सिंह बादल, ओमप्रकाश चैटाला, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, लालू और मुलायम
सिंह यादव, महबूबा मुफ्ती, फारुख अब्दुल्ला, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, चंद्रशेखर राव,
चंद्रबाबू नायडू, स्टालिन, केजरीवाल… आदि केवल नाम नहीं, एक राजनीतिक दल भी हैं।
इन राजनीतिक दलों की स्थिति उस गृहस्थ जैसी है, जो वर्षों परिश्रम कर मकान, दुकान, जमीन
और जायदाद बनाता है। वह चाहता है कि यह सम्पदा फिर उसके बच्चों को मिले। इसी तरह
घरेलू दलों के मुखिया चाहते हैं कि उनके बाद यह राजनीतिक सम्पदा उनके बच्चे संभालें। फिर
राजनीति करते हुए कार्यालय, गाडि़यां, बैंक बैलेंस जैसी चल-अचल सम्पत्ति भी बन जाती है। दल
का जमीनी अस्तित्व भले ही न हो; पर सम्पत्ति का तो होता ही है। उसे अपने कब्जे में रखने के
लिए दल के महत्वपूर्ण पद अपने परिवार में बने रहने जरूरी हैं।
लेकिन जैसे परिवार में भाइयों और फिर उनके बच्चों में सम्पत्ति के नाम पर झगड़े होते हैं, ऐसा
ही इन घरेलू दलों में भी होता है। उ.प्र. में मुलायम सिंह की राजनीतिक विरासत पर कब्जे के
लिए उनके भाई शिवपाल और बेटे अखिलेश में झगड़ा है। महाराष्ट्र में बाल ठाकरे की विरासत
के लिए उद्धव और राज ठाकरे में टकराव है। आंध्र में एन.टी.रामराव की विरासत उनके बेटे की
बजाय दामाद चंद्रबाबू नायडू ने कब्जा ली। चौटाला परिवार में सिर फुटव्वल का कारण भी यही
है। बिहार में लालू के दोनों बेटे और बड़ी बेटी उनके असली वारिस बनना चाहते हैं।
फिर राजनीतिक जीवन में नेताओं पर कई आर्थिक और आपराधिक मुकदमे लग जाते हैं। इनमें
से कुछ असली होते हैं, तो कुछ नकली। यदि पार्टी का मालिक कोई और बन जाए, तो मुकदमों
का खर्चा कहां से आएगा ? जेल हो गयी, तो उनकी रिहाई के लिए धरने-प्रदर्शन कौन करेगा ?
इसलिए जैसे भी हो; पर पार्टी का अपनी घरेलू जायदाद बने रहना जरूरी है। सुना है मायावती के
पास पार्टी के नाम पर अरबों रु. की चल-अचल सम्पत्ति है। कई मुकदमे भी चल रहे हैं। शरीर
भी ढलान पर है। वोटर चाहे कहीं भी जाए; पर पैसा तो अपने पास ही रहना चाहिए। उनके
संतान नहीं हैं; पर भाई और भतीजे तो हैं। इसलिए उन्हें ही नंबर दो और तीन के पद दे दिये
हैं।
सच तो ये है कि बड़े से बड़े पहलवान को भी बुढ़ापे में रोग घेरते ही हैं। उसे चलने के लिए
लाठी और बाल-बच्चों का सहारा लेना ही पड़ता है। यही स्थिति घरेलू राजनीतिक दलों की है।
ब.स.पा. में भी यही हुआ है। औरों को भले ही इसमें कुछ आश्चर्य लगे; पर राजनीतिक
विश्लेषकों के लिए यह एक सामान्य बात है।

  • विजय कुमार, देहरादून

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