कॅरियर या राजनीतिक वंशवाद 

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मनोज कुमार
वरिष्ठ पत्रकार एवं सम्पादक,
राजनीति में संतानों को मिलने वाले अवसर को वंशवाद या परिवारवाद के रूप में संबोधित किया जाता रहा है। गांधी-नेहरू परिवार से इंदिरा गांधी के राजनीति में आने के बाद से वंशवाद या परिवारवाद का मुद्दा उठता रहा है। वैसे भी चुनाव के समय ही, खासतौर से राजनीतिक दलों में टिकट वितरण को लेकर मीडिया इतना उतावला हो जाता है कि उसे सिर्फ और सिर्फ इस प्रक्रिया में वंशवाद ही नजर आता है। इसके साथ ही सच्चाई यह है कि जो लोग कांग्रेस पर वंशवाद या परिवारवाद का आरोप मढ़ते रहे हैं, उन्हीं दलों में वंशवाद और परिवारवाद प्रमुखता से हावी है इसलिए कोई भी नेता या राजनीतिक दल इस बात को बहुत तव्वजो नहीं देता है। बदलते समय में इसे वंशवाद या परिवारवाद के स्थान पर राजनीतिक कॅरियर के रूप में देखने की आवश्यकता है क्योंकि समाज के विभिन्न सेवाओं में इसी तरह का परिवारवाद हावी है और इसे परिवारवाद का नाम देने के बजाय कॅरियर के रूप में माना गया है। राजनीतिक वंशवाद और अन्य सेवाओं के परिवारवाद में इतना सा अंतर है कि राजनीति में आने वालों के पास व्यवहारिक ज्ञान होता है जबकि दूसरा बकायदा शिक्षित होकर आता है। बिहार में प्रशांत किशोर ने राजनीति में कॅरियर को देखा और राजनीति में आने वाले युवाओं का इंटरव्यूय किया जा रहा है। यह अपनी तरह का पहला प्रयोग है और इसकी जरूरत भी राजनीति को है।
इस समय मध्यप्रदेश सहित पांच राज्यों में चुनाव हो रहा है और मीडिया में इस बात को प्रमुखता से उठाई जा रही है कि कौन सी पार्टी, अपने नेता संतानों को आगे बढ़ाने में आगे है। कोई इस बात पर चर्चा नहीं कर रहा है और ना ही जवाब दे रहा है कि नेता संतान यदि काबिल है तो क्यों उन्हें अवसर नहीं मिलना चाहिए। यह मान लिया गया है कि राजनीति में संतानों को आगे बढ़ाने का मतलब वंशवाद को आगे बढ़ाना है लेकिन कभी इस बात पर चर्चा नहीं की गई कि वंशवाद की परिभाषा क्या हो? क्या केवल राजनीति में संतानों का आगे आना वंशवाद कहलाएगा या कि अन्य प्रोफेशन यथा डॉक्टर, इंजीनियर, कारोबारी के साथ ही बहुत हद तक प्रशासनिक सेवाओं में अपने पिता के नक्शेकदम पर चलकर कॅरियर बनाया जाना क्या वंशवाद नहीं है? यदि यह वंशवाद नहीं है तो राजनीति में संतानों का आना भी वंशवाद ना होकर कॅरियर का विकल्प है।
आमतौर पर यह देखा जाता है कि जन्म से लेकर बच्चा युवा अवस्था तक वही सबकुछ देखता, समझता और सीखता है जो उसके दादा, पिता करते चले आ रहे हैं। एक राजनीतिज्ञ परिवार में जन्मे संतान को बचपन से राजनीति घुट्टी में पिलाई जाती है। बच्चा जब कच्ची माटी की तरह होता है तबसे उसका प्रशिक्षण आरंभ हो जाता है। इस उम्र में भले ही वह सही-गलत में भेद ना कर पाता हो लेकिन उम्र बढऩे के साथ राजनीति की समझ बढ़ती है। एक पिता भी चाहता है कि राजनीति में उसकी संतान का दखल हो, सो उसी तरह उसे प्रशिक्षित भी किया जाता है। औपचारिक शिक्षा से ज्यादा फोकस उसे राजनीति की शिक्षा देने में लगाया जाता है। समाज से सरोकार, समाज में लोगों से मेलजोल और उनकी समस्या के लिए जूझने का जज्बा राजनेता अपनी संतानों को देता है और समय आने पर उसे चुनाव लडऩे के लिए उत्साहित करता है। बिलकुल वैसे ही जैसे एक व्यापारी पिता अपनी संतान को कारोबार की बारीकी सिखाता है और समय आने पर उसे कारोबार की बागडोर सौंप देता है। यही स्थिति किसी इंजीनियर पिता की होती है या फिर डॉक्टर पिता की। जिस घर में पिता प्रशासनिक अधिकारी होते हैं, उनकी संतान भी आइएएस या आइपीएस बनने का प्रयास करते हैं और अपने पिता का अनुभव का लाभ लेकर प्रशासनिक सेवा को कॅरियर बनाते हैं।
उपर्युक्त उदाहरणों से एक बात साफ करने की कोशिश है कि राजनीति में संतानों के प्रवेश को वंशवाद या परिवारवाद में परिभाषित करने की अपेक्षा इसे एक कॅरियर विकल्प के रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि जिस बच्चे को बचपन से जो व्यवहारिक शिक्षा और अपने आसपास का माहौल मिला हो, वह उसी में काबिल होगा और अपनी योग्यता साबित कर पाएगा। कुछेक अपवाद भी मिलेंगे जिनका परिवार तो राजनीति में रहा लेकिन उन्हें राजनीति नहीं रूचि सो वे अपनी पसंद के कामों में कॅरियर को तवज्जो दी। इसमें आप पहले स्मिता पाटिल और बाद में देशमुख को रख सकते हैं। इसके अलावा भी कई उदाहरण होंगे लेकिन यह भी देखने में आया है कि जिनके पिता किसी और प्रोफेशन से राजनीति में आए हैं, उनकी संतान को राजनीति में रूचि ज्यादा रही और उन्होंने राजनीति को कॅरियर के विकल्प के रूप में देखा। उदाहरण के तौर पर अजीत प्रमोद जोगी। जोगी प्रशासनिक अधिकारी थे किन्तु परिस्थितिवश उन्हें राजनीति में आना पड़ा लेकिन वे राजनीति में ऐसे रमे कि उनके बेटे अमित जोगी ने भी राजनीति में अपना भविष्य देखा। यह कोई आरोपित करने या आपत्ति करने का मामला नहीं है बल्कि इसे इस रूप में देखा जाना उचित होगा कि जिसकी जिस तरह से घर परिवार में शिक्षा हुई, वह उसी रास्ते पर आगे बढ़ गया।
दरअसल गांधी-नेहरू परिवार से इंदिरा गांधी का जब राजनीति में प्रवेश हुआ तो इसे परिवारवाद को बढ़ाने की बात कही गई। प्रियदर्शिनी इंदिरा गांधी राजनीति में ना केवल सफल हुईं बल्कि वैश्विक राजनेता के रूप में अपनी पहचान स्थापित कीं। इसके बाद उनके छोटे बेटे संजय गांधी की राजनीति में गहरी रूचि थी लेकिन बड़े बेटे राजीव गांधी ने स्वयं को राजनीति से परे रखा। वायुयान दुर्घटना में संजय गांधी की असमय मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी तनहा हो गईं थीं लेकिन तब भी राजीव गांधी राजनीति में नहीं आए और ना ही इंदिराजी ने उन पर दबाव बनाया। दुर्भाग्यवश इंदिरा गांधी की राजनीतिक कारणों से हत्या कर दी गई। ऐसे में परिस्थितिवश राजीव गांधी को राजनीति आना पड़ा। राजीव गांधी राजनीति में नहीं आते तो कांग्रेस के बिखरने का भय था। राजीव गांधी शिक्षित थे और उन्होंने प्रचंड मतों से विजय हासिल करने के बाद देश की सत्ता सम्हाली और एक नई सोच के साथ देश को दिशा दी। उनके सहयोगी सैम पित्रोदा के साथ मिलकर कम्प्यूटर टेक्रालॉजी को विस्तार दिया तथा शिक्षा पर उनका फोकस रहा। राजनीति से दूर-दूर का रिश्ता ना रखने वाले राजीव गांधी ने जब राजनीति में हस्तक्षेप आरंभ किया तो उन्होंने बता दिया कि वे चाहे राजनीति से दूर रहे हों लेकिन उनके रग-रग में राजनीति है। 
राजीव गांधी का राजनीतिक जीवन भले ही छोटा रहा लेकिन वे एक कामयाब प्रधानमंत्री के रूप में भारतीय राजनीति में याद किए जाएंगे।  दुर्भाग्य फिर गांधी परिवार पर टूटा और राजनीतिक कारणों से अब की बार राजीव गांधी की हत्या कर दी गई। राजीव के बाद कांग्रेस की बागडोर सोनिया गांधी ने सम्हाली किन्तु उन्होंने स्वयं प्रधानमंत्री बनना स्वीकार नहीं किया। राहुल गांधी अल्पायु थे, सो वे सक्रिय राजनीति से दूर रहे किन्तु समय के साथ उन्होंने लोकसभा चुनाव लडक़र राजनीति में आए। राहुल गांधी अपने विरोधियों को इस बात का बारंबार स्मरण कराने से नहीं चूकते हैं और कहते हैं कि राजनीति उनके खून में है।
इंदिरा, संजय, राजीव, सोनिया और वर्तमान में राहुल गांधी की राजनीतिक सक्रियता को वंशवाद और परिवार से जोडक़र देखा गया। अनेक किस्म के आरोप लगाये गए लेकिन यह बात भूल गए कि जिस बच्चे को घुट्टी में राजनीति पिलाई गई हो, वह राजनीति के अलावा कर क्या सकता है? जिसकी पहचान कांग्रेस से हो, वह इसके अलावा किस पार्टी का प्रतिनिधित्व करेगा? राजीव गांधी राजनीति में नहीं आना चाहते थे सो जहाज उड़ाते रहे लेकिन राहुल गांधी से ऐसी कोई उम्मीद करना बेमानी है। राहुल की बहन प्रियंका गांधी (अब वाड्रा) को राजनीति में लाने की अनेक कोशिशें हुई लेकिन वह अपनी जिंदगी में खुश है। बात साफ है कि राजनीति में बने रहना राहुल के लिए कॅरियर के विकल्प के तौर पर चुनने के समान है। राहुल के चचरे भाई वरूण गांधी भाजपा से सांसद हैं और उनकी चाची मेनका गांधी वर्तमान में केन्द्र में मंत्री हैं। दोनों को ही पिता संजय से राजनीति का पाठ सीखने को मिला था, सो वह भी राजनीति कर रहे हैं। इसे वंशवाद या परिवारवाद कहना उचित नहीं है बल्कि इसे योग्यता की कसौटी पर कसना चाहिए। यह बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि वरूण एक अच्छे कवि भी हैं और समय-समय पर मंचों से कविता का पाठ भी करते हैं। राजनीति के अलावा उनका यह शौक है जिसे वे पूरा करते हैं।
राहुल, वरूण के अलावा विभिन्न राजनीति दलों में ऐसे नेता हैं जिन पर वंशवाद का आरोप लगता रहा है। चुनाव के समय यह आरोप सर्वोपरि होता है। उम्रदराज नेता एक बार और की आस लगाए तो यह अनुचित नहीं है लेकिन नई पीढ़ी दावेदारी पेश करे तो वह वंशवाद या परिवारवाद को बढ़ावा देने के आरोप से घिर जाती है। मध्यप्रदेश में कई नेता संतानों को पार्टियों ने टिकट देकर उन्हें अपनी योग्यता साबित करने का अवसर दिया है। इसे राजनीति में शुचिता के रूप में देखना चाहिए क्योंकि जब तक नए लोग राजनीति में नहीं आएंगे, नई पीढ़ी का राजनीति में दखल नहीं होगा, राजनीति उसी ढर्रे पर चलती रहेगी।
वंशवाद या परिवारवाद पर बहस करने के बजाय इस बात पर चर्चा की जानी चाहिए कि राजनीति में आने के लिए भी प्रशिक्षण अनिवार्य हो। जैसा कि प्रोफेशनल्स तैयार किए जाते हैं। उनके लिए पाठ्यक्रम होता है और वे पढकऱ, सीखकर अपने पसंदीदा प्रोफेशन में जाते हैं। हालांकि कहने को हमारे पाठ्यक्रम में पॉलिटिकल साइंस का पाठ्यक्रम है लेकिन इसे पढऩे वाले कभी राजनीति में नहीं जाते हैं ना ही इससे कोई राजनीति समझ में बढ़ावा मिलता दिखता है। अलबत्ता पढ़ाई की तरह पढ़ाई कर डिग्री हासिल करने का काम जरूर आता है। अधिक से अधिक इस विषय में डिग्री हासिल कर शिक्षक के रूप में कॅरियर बनाने में सहायक होता है। राजनीति में आने के लिए पढ़ाई के साथ-साथ व्यवहारिक ज्ञान सबसे पहली जरूरत होती है। मैदानी शिक्षा के बाद राजनीति में कामयाबी मिलती है। पहले छात्रसंघों के चुनाव इसका पहला सबक हुआ करती थी लेकिन शिक्षा परिसरों में शुचिता एवं अनुशासन के नाम पर छात्रसंघ चुनाव कराने के स्थान पर मनोनयन की परम्परा आरंभ कर दिया गया। इस प्रक्रिया से जमीनी रूप से लडऩे की जो क्षमता विकसित कर नेता समाज को मिलता था, वह रूक गया। देश के अनेक शीर्ष नेता इन्हीं छात्रसंघ चुनाव के माध्यम से आगे आए हैं लेकिन बीते ढाई दशक के अंतराल में जमीनी नेता लुप्त हो गए हैं।
राजनीति में वंशवाद या परिवारवाद को नए रूप से परिभाषित करने की जरूरत है। नेता संतानों के राजनीति में आने और संबद्ध राजनीतिक दल से चुनाव में उतरने के अवसर को उनकी योग्यता नापने की कसौटी के रूप में देखा जाना चाहिए। स्मरण रहे कि पेशा कोई भी हो, अपने पिता की कामयाबी के सहारे उसे एंट्री तो मिल सकती है लेकिन कामयाबी उसकी योग्यता पर ही मिलेगी। अमिताभ बच्चन की लोकप्रियता और कामयाबी शीर्ष पर है लेकिन अभिषेक बच्चन उस ऊंचाई को नहीं पा सके। हालांकि अमिताभ बच्चन के कॅरियर में उनके पिता हरिवंशराय बच्चन का योगदान भले ही ना हो लेकिन उनकी लोकप्रियता का अपरोक्ष लाभ तो अमिताभ को मिला ही है।
जहां तक राजनीति की बात है तो मध्यप्रदेश के ऐसे कई नेता पुत्र हैं जो अपने पिता की तरह ना कामयाब हो सके और ना ही वे गुण उनमें पाए गए, इसलिए राजनीति में दरकिनार कर दिए गए। वंशवाद और परिवारवाद एक जुमला है जो आम आदमी को भटकाने और अपने प्रतिद्वंदी को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश मात्र है। मध्यप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल के दोनों बेटे राजनीति में आए और दोनों कामयाब रहे। बड़े बेटे श्यामाचरण राज्य की राजनीति में सक्रिय रहे तो छोटे बेटे विद्याचरण शुक्ल केन्द्र की राजनीति में सक्रिय रहे। मध्यप्रदेश के कुछ और पूर्व मुख्यमंत्रियों के बेटों ने राजनीति में दस्तक दी लेकिन उनका राजनीतिक कॅरियर का ग्राफ बहुत ऊंचा नहीं हो सका। इसके पीछे भी बहुत सीधा सा कारण है कि उनकी राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा वैसी नहीं हो पायी और साथ ही बीते तीन दशकों में राजनीति का मिजाज बदल गया है। केन्द्र सरकार में भी रहे कई मंत्रियों के संतान राजनीति में आए लेकिन बहुत थोड़े सी संतानों ने राजनीतिक ऊंचाईयां ग्रहण कर पाए। वर्तमान में पिता की लीक पर चलकर राजनीति में जिनका उल्लेख होता है उसमें माधवराव सिंधिया के सुपुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया और राजस्थान में राजेश पॉयलट के सुपुत्र सचिन पॉयलट के साथ ही महाराष्ट्र के दिवंगत मुख्यमंत्री की बेटी भी राजनीति में सक्रिय हैं। ऐसे और भी कई नाम हैं लेकिन वैसा कद नहीं हो पाया जैसा कि राजनीति में उनके पिता ने कमाया था।
इधर केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनाने में अहम भूमिका अदा करने वाले प्रशांत किशोर बिहार में नीतिश कुमार के साथ हो गए हैं। अब वे पूरी तरह से राजनीतिक व्यक्ति होने के साथ ही अपने पूर्व अनुभवों को लेकर राजनीति को कॅरियर के रूप में विकल्प के तौर पर युवावर्ग के समक्ष रखने की कोशिश कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में उन्होंने सबसे पहले राजनीति में आने वाले युवाओं का साक्षात्कार किया और संभवत: अपने राज्य के बारे में उनसे जानना चाहा होगा। साथ में राजनीति के बीते कल और वर्तमान स्थिति के बारे में उनकी समझ की थाह प्रशांत किशोर ने ली होगी ताकि वे निश्चित हो सकें कि जो कल राजनीति का कर्णधार बनेगा, उसे आज राजनीति की बुनियादी समझ है। यह एक बेहतर पहल है जो राजनीतिक वंशवाद के आरोपों से मुक्त कर युवाओं को कॅरियर के रूप में विकल्प देगा और यही विकल्प राजनीति में शुचिता के दरवाजे खोलने में सहायक होगी। बिहार में किया जा रहा यह प्रयोग देशभर के राजनीति दलों में लागू किया जाना चाहिए ताकि इस बात को सुनिश्चित किया जा सके कि राजनीति महज वंशवाद या परिवारवाद के दायरे में ना रहकर कॅरियर के तौर पर होगा। यही नहीं, राजनीति से दूर भागने वालों के लिए भी यह एक अवसर होगा कि वे राजनीति में आएं और देश, समाज के हित में कार्य करें। एक नए भारत के निर्माण में राजनीतिक शिक्षा एवं कॅरियर के विकल्प के रूप में विस्तार दिए जाने की जरूरत है।
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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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