आर्थिकी राजनीति भारत की आर्थिक प्रगति को रोकने हेतु अशांति फैलाने के हो रहे हैं प्रयास August 6, 2024 / August 6, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment भारत की लगातार तेज हो रही आर्थिक प्रगति पर विश्व के कुछ देश अब ईर्ष्या करने लगे हैं एवं उन्हें यह आभास हो रहा है कि आगे आने वाले समय में इससे उनके अपने आर्थिक हितों पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। इस सूची में सबसे ऊपर चीन का नाम उभर कर सामने आ रहा है। और फिर, चीन की अपनी आर्थिक प्रगति धीमी भी होती जा रही है। दूसरे, विश्व को भी आज यह आभास होने लगा है कि विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन के मामले में केवल चीन पर निर्भर रहना बहुत जोखिम भरा कार्य है। इसका अनुभव विशेष रूप से विकसित देशों ने कोरोना महामारी के बाद से वितरण चैन में आई भारी परेशानी से किया है, जिसके चलते इन देशों में मुद्रा स्फीति की समस्या आज भी पूरे तौर पर नियंत्रण में नहीं आ पाई है। साथ ही, चीन की विस्तारवादी नीतियों के चलते उसके अपने किसी भी पड़ौसी देश से (पाकिस्तान को छोड़कर) अच्छे सम्बंध नहीं हैं। अतः कई देश अब यह सोचने पर मजबूर हुए हैं कि चीन+1 की नीति का अनुपालन ही उनके हित में होगा। अर्थात, यदि किसी उद्योगपति ने चीन में अपनी एक विनिर्माण इकाई स्थापित की है तो आवश्यकता पड़ने पर उसके द्वारा अब दूसरी विनिर्माण इकाई चीन में स्थापित न करते हुए इसे अब किसी अन्य देश में स्थापित किया जाना चाहिए। यह दूसरा देश भारत भी हो सकता क्योंकि भारत अब न केवल “ईज आफ डूइंग बिजनेस” के क्षेत्र में अतुलनीय सुधार करता हुआ दिखाई दे रहा है बल्कि भारत में बुनियादी ढांचा के विस्तार में भी अतुलनीय प्रगति दृष्टिगोचर है। केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक क्षेत्र में लागू की गई कई नीतियों के चलते भारत आज विश्व की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था तो बन ही गया है और अब यह तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर तेजी से आगे बढ़ रहा है। अर्थ के कई क्षेत्रों में तो भारत विश्व में प्रथम पायदान पर आ भी चुका है। इससे अब चीन के साथ अमेरिका को भी आने वाले समय में वैश्विक स्तर पर अपने प्रभाव में कमी आने की चिंता सताने लगी है। अतः विश्व के कई देशों में अब भारत की आर्थिक प्रगति को लेकर ईर्ष्या की भावना विकसित होती दिखाई दे रही है। इस ईर्ष्या की भावना के कारण वे भारत के लिए कई प्रकार की समस्याएं खड़ी करने का प्रयास करते दिखाई देने लगे हैं। यह समस्याएं केवल आर्थिक क्षेत्र में खड़ी नहीं की जा रही हैं बल्कि सामाजिक, राजनैतिक एवं आध्यात्मिक आदि क्षेत्रों में भी खड़ी करने के प्रयास हो रहे हैं। सबसे पहिले तो कुछ देश प्रयास कर रहे हैं कि भारत में किस प्रकार सामाजिक अशांति फैलायी जाए। इसके लिए भारत की कुटुंब प्रणाली को तोड़ने के प्रयास किए जा रहे हैं। देश में विभिन्न टी वी चैनल पर इस प्रकार के सीरियल दिखाए जा रहे हैं जिससे परिवार के विभिन्न सदस्यों के बीच आपस में छोटी छोटी बातों में लड़ने को बढ़ावा मिल रहा है। इन सीरियल में सास को बहू से, ननद को देवरानी से, छोटी बहिन को बड़ी बहिन से, एक पड़ौसी को दूसरे पड़ौसी से, संघर्ष करते हुए दिखाया जा रहा है। इन सीरियल के माध्यम से भारत में भी पूंजीवाद की तर्ज पर व्यक्तिवाद को हावी होते हुए दिखाया जा रहा है। जबकि भारतीय हिंदू सनातन संस्कृति हमें संयुक्त परिवार में आपस में मिलजुल कर रहना सिखाती है, त्याग एवं तपस्या की भावना जागृत करती है एवं परिवार के छोटे सदस्यों द्वारा अपने बड़े सदस्यों का आदर करना सिखाती है। इसके ठीक विपरीत पश्चिमी सभ्यता के अंतर्गत संयुक्त परिवार दिखाई ही नहीं देते हैं वे तो व्यक्तिगत स्तर पर केवल अपने आर्थिक हित साधते हुए नजर आते है। पश्चिमी देशों के इन प्रयासों से आज कुछ हद्द तक भारतीय समाज भी पश्चिमी सभ्यता की ओर आकर्षित होता हुआ दिखाई देने लगा है। आज विकसित देशों के परिवारों में बेटे के 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने के पश्चात वह परिवार से अलग होकर अपना परिवार बसा लेता है। अपने बूढ़े माता पिता की देखभाल भी नहीं कर पाता है। इसके चलते इन देशों में सरकारों को अपने प्रौढ़ वर्ग के नागरिकों के देखरेख करनी होती है और इनके लिए सरकार के स्तर पर कई योजनाएं चलानी पड़ती है। आज इन देशों में प्रौढ़ नागरिकों की संख्या के लगातार बढ़ते जाने से सरकार के बजट पर अत्यधिक विपरीत प्रभाव पड़ता हुआ दिखाई दे रहा है। जबकि भारत में संयुक्त परिवार की प्रथा के कारण ही इस प्रकार की कोई समस्या दिखाई नहीं दे रही है। अतः पश्चिमी देशों द्वारा भारत की कुटुंब प्रणाली को अपनाए जाने के स्थान पर इसे भारत में भी नष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है। दूसरे, कई देश अब भारत में सामाजिक समरसता के तानेबाने को भी विपरीत रूप से प्रभावित करने के प्रयास करते हुए दिखाई दे रहे हैं। विशेष रूप से हिंदू समाज में विभिन्न मत, पंथ मानने वाले नागरिकों को आपस में लड़ाने के प्रयास किए जा रहे हैं ताकि इन्हें आपस में बांटा जा सके और भारत में अशांति फैलायी जा सके तथा जिससे देश की आर्थिक प्रगति विपरीत रूप से प्रभावित हो सके। भारत के इतिहास पर नजर डालने पर ध्यान में आता है कि भारत में जब जब सामाजिक समरसता का अभाव दिखाई दिया है तब तब विदेशी आक्रांताओं एवं अंग्रेजों को भारत में अपना शासन स्थापित करने में आसानी हुई है। उन्होंने “बांटो एवं राज करो” की नीति के अनुपालन से ही भारत के कुछ भू भाग पर अपनी सत्ता स्थापित की थी। अब एक बार पुनः इसी आजमाए हुए नुस्खे को पुनः आजमाने का प्रयास किया जा रहा है। चाहे वह जातिगत जनगणना करने के नाम पर हो अथवा समाज के विभिन्न वर्गों को दी जाने वाली सुविधाओं को लेकर किये जाने वाले आंदोलनों की बात हो। तीसरे, कई देशों द्वारा भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य देशों में भी अस्थिरता फैलाने के प्रयास किए जा रहे हैं। सबसे ताजा उदाहरण बांग्लादेश का लिया जा सकता है जहां हाल ही में सत्ता परिवर्तन हुआ है। अब बांग्लादेश में अतिवादी दलों के हाथों में सत्ता की कमान जाती हुई दिखाई दे रही है इससे अब बांग्लादेश में भी आर्थिक प्रगति विपरीत रूप से प्रभावित होगी। मालदीव में पूर्व में ही भारत विरोध के नाम पर अतिवादी दलों ने सत्ता हथिया ली है, जो वहां भारत “गो बैक” के नारे लगाते हुए दिखाई दे रहे हैं एवं चीन के साथ अपने राजनैतिक रिश्ते स्थापित कर रहे हैं। नेपाल में भी हाल ही में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद वे चीन के करीब जाते हुए दिखाई दे रहे हैं। श्रीलंका पूर्व में ही राजनैतिक अस्थिरता के दौर से गुजर चुका है। पाकिस्तान तो घोषित रूप से अपने आप को भारत का दुश्मन देश कहलाता है। अफगानिस्तान में भी तालिबान की सत्ता स्थापित हो चुकी है, हालांकि अफगानिस्तान ने भारत की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया है। कुल मिलाकर भारत की आर्थिक प्रगति को रोकने हेतु कुछ देशों द्वारा भरपूर प्रयास किए जा रहे हैं। भारत में अशांति फैलाकर ये देश प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को भारत में आने से रोकने के प्रयास कर रहे हैं ताकि विदेशी कम्पनियां भारत में विनिर्माण इकाईयों को स्थापित करने के प्रति हत्तोत्साहित हों और देश में बेरोजगारी की समस्या विकराल रूप धारण कर ले। इस प्रकार के माहौल में आज भारत के आम नागरिकों में देश प्रेम का भाव जगाने की सबसे अधिक आवश्यकता है एवं विभिन्न समाजों एवं मत पंथ को मानने वाले नागरिकों के बीच आपस में भाई चारा स्थापित करने की भी महती आवश्यकता है। अन्यथा, एक बार पुनः विदेशी ताकतें भारत की आम जनता को आपस में लड़ा कर इस देश पर अपना शासन स्थापित करने में सफल हो सकती हैं। परंतु, हर्ष का विषय है कि भारत में कई सांस्कृतिक संगठन अब कुछ देशों की इन कुटिल चालों से भारत की आम जनता को अवगत कराने के प्रयास करने लगे हैं एवं समाज की सज्जन शक्ति भी अब इन बातों को जनता के बीच ले जाकर उन्हें इस प्रकार के कुत्सित प्रयासों के परिणामों से अवगत कराने लगी हैं और कुछ हद्द तक इसका आभास अब आम जनता को होने भी लगा है। प्रहलाद सबनानी Read more » Efforts are being made to spread unrest to stop India's economic progress.
आर्थिकी राजनीति केंद्र सरकार द्वारा बजट के माध्यम से भारत में रोजगार के नए अवसर निर्मित करने एवं आर्थिक विकास को गति देने का प्रयास July 24, 2024 / July 24, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment हाल ही में लोकसभा के लिए सम्पन्न हुए चुनाव में भारतीय नागरिकों ने लगातार तीसरी बार एनडीए की अगुवाई में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को सत्ता की चाबी आगामी पांच वर्षों के लिए इस उम्मीद के साथ पुनः सौंपी है कि आगे आने वाले पांच वर्षों में केंद्र सरकार द्वारा देश में आर्थिक विकास को और अधिक गति देने के प्रयास जारी रखे जाएंगे। भारत की वित्तमंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमन ने 23 जुलाई 2024 को मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल का पहला बजट भारतीय संसद में पेश किया है। इस बजट के माध्यम से भारत की आर्थिक विकास दर को उच्च स्तर पर ले जाने का प्रयास किया गया है। केंद्र सरकार ने वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए 9 प्राथमिकताएं तय की है। कृषि क्षेत्र में उत्पादकता को बढ़ाना, युवाओं के लिए रोजगार के अधिकतम अवसर निर्मित करना एवं उनके कौशल को विकसित करना, गरीब नागरिकों को भी विकास में हिस्सेदारी देना एवं उन्हें सामाजिक न्याय देना, विनिर्माण इकाईयों को बढ़ावा देना, शहरी क्षेत्रों को विकसित करना, ऊर्जा की उपलब्धता सुनिश्चित करना, आधारभूत ढांचा विकसित करना, नवाचार, शोध एवं विकास करना तथा नई पीढ़ी के सुधार कार्यक्रमों को लागू करना। केंद्र सरकार एवं कुछ राज्य सरकारों द्वारा पूंजीगत खर्चों में लगातार की जा रही वृद्धि के चलते भारत की आर्थिक विकास दर को पंख लगते दिखाई दे रहे हैं। वर्ष 2022-23 के बजट में केंद्र सरकार द्वारा 7.5 लाख करोड़ रुपए के पूंजीगत खर्चों का प्रावधान किया गया था, वित्तीय वर्ष 2023-24 में इसमें 33 प्रतिशत की भारी भरकम वृद्धि करते हुए इसे बढ़ाकर 10 लाख करोड़ रुपए का कर दिया गया था। अब वित्तीय वर्ष 2024-45 के लिए इसे और आगे बढ़कर 11.11 लाख करोड़ रुपए का कर दिया गया है, जो भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 3.4 प्रतिशत है। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था में न केवल स्थिरता दिखाई देने लगी है बल्कि यह लगातार तेज गति से आगे बढ़ रही है। आज पूरे विश्व में केवल भारतीय अर्थव्यवस्था ही एक चमकते सितारे के रूप में दिखाई दे रही है। बजट का गहराई से अध्ययन करने पर ध्यान में आता है कि केंद्र सरकार ने अब भारत में रोजगार के अधिकतम अवसर निर्मित करने की ठान ली है। भारत के युवाओं एवं महिलाओं को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने एवं कौशल विकसित करने की दृष्टि से 2 लाख करोड़ रुपए की 5 योजनाओं के एक पैकेज की घोषणा की है। शिक्षा, रोजगार एवं कौशल विकास के लिए 1.48 लाख करोड़ रुपए की राशि इस बजट में आबंटित भी कर दी गई है। प्रधानमंत्री पैकेज के अंतर्गत EPFO के प्रथम बार सदस्य बनने पर औपचारिक क्षेत्र के कर्मचारियों के EPFO खातों में एक माह का वेतन जमा किया जाएगा। इन कर्मचारियों को प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण योजना के अंतर्गत एक माह का वेतन (15000 रुपए की अधिकतम राशि तक) तीन किश्तों में उनके खातों में जमा किया जाएगा। इस योजना के अंतर्गत एक माह में एक लाख रुपए तक का वेतन पाने वाली कर्मचारी ही पात्र होंगे। इससे 2.1 करोड़ युवाओं को लाभ होने की सम्भावना बजट में व्यक्त की गई है। ऐसे भी कई निर्णय लिए जा रहे हैं जिनसे आने वाले समय में धरातल पर युवाओं को लाभ होता दिखाई देगा। एक करोड़ युवाओं को आगामी 5 वर्षों के दौरान इंटर्नशिप योजना के अंतर्गत काम दिया जाएगा। ताकि ये युवा वर्ग के नागरिक रोजगार प्राप्त करने हेतु सक्षम हो सकें। इन युवाओं को प्रति माह 6,000 रुपए तक का वाजीफा सम्बंधित कम्पनियों द्वारा अदा किया जाएगा। वजीफे की इस राशि को कम्पनियों के लिए लागू निगमित सामाजिक दायित्व योजना के अंतर्गत किया गया खर्च माना जाएगा। भारत की सबसे बड़ी 500 कम्पनियों को इस योजना के अंतर्गत युवाओं को इंटर्नशिप की सुविधा देनी होगी। साथ ही, केंद्र सरकार द्वारा भी इन युवाओं को प्रतिमाह 5000 रुपए अदा किए जाएंगे। यह केंद्र सरकार का एक सूझबूझ भरा निर्णय कहा जा सकता हैं। साथ ही, विनिर्माण के क्षेत्र के रोजगार के नए अवसर निर्मित करने की पहल भी की जा रही है। नए कर्मचारियों के EPFO खाते में जमा होने वाली राशि को आगामी 4 वर्षों तक केंद्र सरकार द्वारा वहन किया जाएगा, इससे कर्मचारी एवं नियोक्ता दोनों को ही लाभ होगा। इस योजना का लाभ 30 लाख युवाओं को होने जा रहा है। एक अन्य योजना के अंतर्गत नियोक्ता को अपने नए कर्मचारियों के EPFO खातों में जमा की जाने वाली राशि की प्रतिपूर्ति आगामी 2 वर्षों तक केंद्र सरकार द्वारा की जाएगी। इससे रोजगार के 50 लाख नए अवसर निर्मित होने की सम्भावना है। केंद्र सरकार द्वारा हाल ही के समय में भारतीय सनातन संस्कृति के संस्कारों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से धार्मिक पर्यटन को देश में बढ़ावा दिया जा रहा है। धार्मिक पर्यटन से देश में रोजगार के लाखों अवसर निर्मित हो रहे हैं एवं गरीब वर्ग की आय में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। श्री विष्णुपाद मंदिर कोरिडोर, गया, बिहार एवं श्री महाबोधि मंदिर कोरिडोर बोधगया, बिहार को विकसित किए जाने की घोषणा की गई है। इसे काशी विश्वनाथ मंदिर कोरिडोर की तर्ज पर विकसित किया जाएगा। इसी प्रकार देश में अन्य मंदिरों को भी विकसित किया जा रहा है ताकि देश में इन मंदिरों में श्रद्धालुओं को किसी प्रकार की असुविधा नहीं हो तथा भारत को वैश्विक पटल पर एक बहुत बड़े धार्मिक पर्यटन केंद्र के रूप में दिखाया जा सके। भारत के ग्रामों में निवास कर रहे नागरिक रोजगार प्राप्त करने के उद्देश्य से शहरों की ओर पलायन करते हैं। अतः ग्रामों में ही रोजगार के अधिकतम अवसर निर्मित करने के उद्देश्य से ग्रामीण विकास की मद पर 2.66 लाख करोड़ रुपए की राशि का प्रावधान इस बजट में किया गया है। साथ ही, सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग को बढ़ावा देने के उद्देश्य से मुद्रा लोन योजना के अंतर्गत प्रदान की जाने वाली ऋण राशि की सीमा को 10 लाख रुपए से बढ़ाकर 20 लाख रुपए कर दिया गया है। यह सुविधा तरुण श्रेणी के अंतर्गत प्राप्त ऋण के व्यवसाईयों को प्राप्त होगी एवं जिन्होंने पूर्व में लिए गए 10 लाख रुपए के ऋण की राशि को समय पर अदा कर दिया है। सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योगों के लिए भी ऋण की सीमा को बढ़ाकर 100 करोड़ रुपए तक कर दिया गया है। प्रधानमंत्री आवास योजना (शहरी) के अंतर्गत एक करोड़ आवासों का निर्माण किया जाएगा। इन एक करोड़ आवासों पर 10 लाख करोड़ रुपए की राशि का निवेश होगा, इसमें केंद्र सरकार की भागीदारी 2.2 लाख करोड़ रुपए की रहेगी। साथ ही, प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) के अंतर्गत 3 करोड़ आवासों का निर्माण करने की घोषणा पूर्व में ही की जा चुकी है। देश के आर्थिक चक्र को गति देने के उद्देश्य से नई कर प्रणाली के अंतर्गत वेतनभोगी/पेंशनधारी कर्मचारियों के लिए सामान्य छूट की सीमा को 50,000 रुपए से बढ़ाकर 75,000 रुपए कर दिया गया है। साथ ही, आय कर की दरों में कुछ इस प्रकार का संशोधन किया गया है कि 15 लाख रुपए तक की कर योग्य आय वाले कर्मचारियों को प्रतिवर्ष 17,500 रुपए का लाभ होगा। इस निर्णय से मध्यम वर्गीय नागरिकों के हाथों में कुछ अधिक राशि बचेगी और इस राशि इस इनकी क्रय शक्ति बढ़ेगी ताकि देश की अर्थव्यवस्था के चक्र में मजबूती आएगी। वित्तीय वर्ष 2024-25 के बजट में कुल आय का अनुमान रुपए 31.07 लाख करोड़ रुपए का लगाया गया है, इसमें ऋण की राशि शामिल नहीं है परंतु, करों के मद से प्राप्त होने वाली 25.83 लाख करोड़ रुपए की राशि शामिल है। जबकि, कुल खर्च का अनुमान 48.21 लाख करोड़ रुपए का लगाया गया है। प्रहलाद सबनानी Read more »
आर्थिकी राजनीति अर्थव्यवस्था को तीव्र गति एवं महाशक्ति बनानेे वाला बजट July 24, 2024 / July 24, 2024 by ललित गर्ग | Leave a Comment -ः ललित गर्ग:-प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के तीसरे कार्यकाल का प्रथम सम्पूर्ण बजट वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने प्रस्तुत किया, उनकी ओर से प्रस्तुत यह बजट एक मौलिक सोच एवं दृष्टि से दुनिया में भारतीय अर्थव्यवस्था को एक चमकते सितारे के रूप में स्थापित करने एवं सुदृढ़ आर्थिक विकास के लिये आगे की राह दिखाने वाला है। […] Read more » budget 2024
आर्थिकी राजनीति भारत में तेजी से हो रहा है वित्तीय समावेशन July 22, 2024 / July 22, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment भारतीय रिजर्व बैंक ने बैकिंग, निवेश, बीमा, डाक एवं पेन्शन क्षेत्र के हितधारकों को शामिल करते हुए वित्तीय समावेशन सूचकांक विकसित किया है। दरअसल, भारत में विभिन्न क्षेत्रों में हो रही अतुलनीय प्रगति को दर्शाने के लिए अब अपने सूचकांक विकसित करने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है क्योंकि वैश्विक स्तर पर वित्तीय एवं आर्थिक क्षेत्र में कार्यरत विदेशी संस्थानों द्वारा विकसित किए गए सूचकांकों के आधार पर किए जाने वाले सर्वे में तो विभिन्न क्षेत्रों में भारत की प्रभावशाली प्रगति की सही तस्वीर पेश नहीं की जा रही है। इन सूचकांकों के आधार पर किए गए कई सर्वे में तो आश्चर्यजनक परिणाम दिखाई देते हैं। जैसे, एक सर्वे में भुखमरी के क्षेत्र में भारत की स्थिति को अफ्रीकी देशों, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, बंगलादेश से भी बदतर बताया गया था। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा विकसित किए गए वित्तीय समावेशन सूचकांक के आधार पर मार्च 2024 के परिणाम हाल ही में जारी किए गए हैं। इन परिणामों के अनुसार, भारत में वित्तीय समावेशन मार्च 2017 में 43.4, मार्च 2021 में 53.9 एवं मार्च 2023 में 60.1 प्रतिशत से बढ़कर मार्च 2024 में 64.2 प्रतिशत हो गया है। यह सूचकांक भारत में वित्तीय समावेशन के क्षेत्र में हुई अतुलनीय एवं स्थिर प्रगति को दर्शाता है। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा विकसित किया गया यह सूचकांक वित्तीय समावेशन के विभिन्न आयामों (नागरिकों की वित्तीय संस्थानों पर बढ़ती पहुंच, वित्तीय उत्पादों का बढ़ता उपयोग एवं वित्तीय सेवाओं की गुणवत्ता) पर देश में वित्तीय समावेशन के संदर्भ में जानकारी को 0 से 100 तक के मान में बताता है। यदि मान कम है तो देश में वित्तीय समावेशन भी कम है और इसके विपरीत यदि मान अधिक है तो देश में वित्तीय समावेशन भी अधिक है। भारत में यह मान मार्च 2024 में बढ़कर 64.2 प्रतिशत हो गया है। उक्त वर्णित तीन आयामों में कई पैरामीटर शामिल हैं, इनका मूल्यांकन 97 संकेतकों के आधार पर किया जाता है। इस कार्यप्रणाली के कारण ही भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा विकसित किया गया यह सूचकांक वित्तीय समावेशन का एक व्यापक संकेतक बन गया है। वित्तीय समावेशन सूचकांक प्रत्येक वर्ष के जुलाई माह में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी किया जाता है। किसी भी देश में वित्तीय समावेशन के बढ़ने का आश्य यह है कि उस देश के नागरिकों की उस देश के बैकिंग संस्थानों तक पहुंच बढ़ रही है और यह उस देश की अर्थव्यवस्था के औपचारीकरण में मुख्य भूमिका निभाता है। वर्ष 2014 में भारत में प्रधानमंत्री जनधन योजना को लागू किया गया था और इस योजना के अंतर्गत विभिन्न बैकों में गरीब वर्ग के जमा खाते खोलकर उन्हें वित्तीय समावेशन का हिस्सा बना लिया गया था। आज प्रधानमंत्री जनधन योजना के अंतर्गत लगभग 52 करोड़ बैंक खाते खोले जा चुके हैं एवं इन जमा खातों में लगभग 2.35 लाख करोड़ रुपए की राशि जमा है। केंद्र एवं विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा देश के गरीब वर्ग को दी जाने वाली सहायता/प्रोत्साहन राशि को भी इन खातों में आज सीधे ही जमा कर दिया जाता है, इसे प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण योजना के रूप में भी जाना जाता है, जिससे इस क्षेत्र में भ्रष्टाचार लगभग समाप्त हो गया है क्योंकि इससे अंततः लीकेज कम हुए है और यह सुनिश्चित हुआ है कि योजनाओं का लाभ अंतिम लाभार्थी तक सीधे ही पहुंचे। प्रधानमंत्री जनधन योजना को लागू करने का मुख्य उद्देश्य भारत के दूर दराज के इलाकों में निवासरत नागरिकों को बैंकिंग, बचत और जमा खाते, राशि हस्तांतरण, ऋण, बीमा और पेंशन जैसी वित्तीय सेवाओं को उपलब्ध कराना था। इन उद्देश्यों को प्राप्त करने में प्रधानमंत्री जनधन योजना पूर्ण रूप से सफल रही है और भारत में वित्तीय समावेशन को अगले स्तर पर ले जाने में भी सहायक रही है। साथ ही, प्रधानमंत्री जनधन योजना के अंतर्गत खोले गए जमा खातों को भारत की विशिष्ट पहचान प्रणाली (आधार कार्ड) से जोड़कर, केंद्र सरकार ने देश में वित्तीय लेन देन प्रणाली को सुव्यवस्थित कर लिया है एवं बैकिंग व्यवहारों में धोखाधड़ी की सम्भावना को कम करने में भी सफलता अर्जित की है। आज भारत की प्रधानमंत्री जनधन योजना को पूरे विश्व में सबसे बड़ी वित्तीय समावेशन योजना के रूप में पहिचान मिली है। देश में प्रधानमंत्री जनधन योजना को आज भी वित्तीय समावेशन के मुख्य उपकरण के रूप में माना जा रहा है और इस योजना के अंतर्गत देश के नागरिकों के खाते विभिन्न बैंकों में उसी उत्साह से लगातार खोले जा रहे हैं। वित्तीय वर्ष 2023-24 में भी भारत के विभिन्न बैकों में प्रधानमंत्री जनधन योजना के अंतर्गत लगभग 3.3 करोड़ नए जमा खाते खोले गए हैं इससे इस योजना के अंतर्गत खोले गए कुल खातों की संख्या बढ़कर 51.95 करोड़ हो गई है एवं इन जमा खातों में 234,997 करोड़ रुपए की राशि जमा हो गई है। अब देश का एक गरीब नागरिक भी भारत की अर्थव्यवस्था में अपना योगदान करता हुआ दिखाई दे रहा है। वित्तीय समावेशन के दायरे में लाए गए नागरिक वित्तीय क्षेत्र में साक्षर होने के पश्चात अब तो भारत के पूंजी बाजार (शेयर बाजार) में भी अपना निवेश करने लगे हैं एवं उनकी विभिन्न ऋण योजनाओं एवं बीमा उत्पादों तक पहुंच भी बढ़ गई है। वित्तीय सेवाओं तक इस पहुंच ने देश के नागरिकों को आर्थिक रूप से बहुत सशक्त बना दिया है, इससे अंततः यह नागरिक शिक्षा, स्वास्थ्य एवं छोटे व्यवसायों में निवेश करने में सक्षम हुए हैं और इस प्रकार इन नागरिकों के जीवन की समग्र गुणवत्ता में सुधार हुआ है। भारत में वित्तीय समावेशन के क्षेत्र में हुई उक्त वर्णित अतुलनीय प्रगति की जानकारी हम आम नागरिकों को तभी मिल पा रही है जब भारतीय रिजर्व बैंक ने भारत में ही एक सूचकांक विकसित किया है। यदि वित्तीय समावेशन का सूचकांक किसी विदेशी संस्थान द्वारा तैयार किया जाता तो सम्भव है कि भारत की इस महान उपलब्धि को जानने से हम वंचित रह जाते। अब समय आ गया है कि इसी प्रकार के सूचकांक अन्य क्षेत्रों में भी भारतीय वित्तीय एवं आर्थिक संस्थानों द्वारा ही तैयार किए जाने चाहिए, ताकि हम आम नागरिकों को विभिन्न क्षेत्रों में भारत की अतुलनीय प्रगति की वास्तविक जानकारी प्राप्त हो सके। Read more » Financial inclusion is happening rapidly in India
आर्थिकी राजनीति भारत में प्रतिवर्ष सृजित हो रहे हैं रोजगार के 2 करोड़ नए अवसर July 16, 2024 / July 16, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment आजकल विदेशी वित्तीय एवं आर्थिक संस्थान भारत के आर्थिक मामलों में अक्सर अपनी राय देने से चूकते नहीं हैं। अभी हाल ही में सिटीग्रुप इंडिया ने भारत की अपने बढ़ते कार्यबल के लिए पर्याप्त मात्रा में नौकरियां सृजित करने की क्षमता के मामले में चिंता जताई थी और एक प्रतिवेदन में कहा था कि भारत को आगामी दशक में प्रतिवर्ष 1.2 करोड़ नौकरियां सृजित करने की आवश्यकता है, जबकि वह प्रतिवर्ष केवल 80-90 लाख नौकरियां ही सृजित करने की राह पर आगे बढ़ता दिखाई दे रहा है। यह विदेशी वित्तीय एवं आर्थिक संस्थान अपनी आधी अधूरी जानकारी के आधार पर भारतीय अर्थतंत्र के बारे अपनी राय जारी करते दिखाई देते हैं क्योंकि हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा भी एक प्रतिवेदन जारी किया गया है जिसके के अनुसार वित्तीय वर्ष 2023-24 में भारत में रोजगार के नए अवसर सृजित होने के मामले में 6 प्रतिशत की उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज हुई है और इस दौरान लगभग 4.7 करोड़ रोजगार के नए अवसर सृजित हुए हैं और देश में कार्य करने वाले नागरिकों की संख्या अब 64.33 करोड़ के आंकड़े को पार कर गई है, जबकि पिछले वर्ष यह वृद्धि दर 3.2 प्रतिशत की रही थी। अब कहां सिटीग्रुप इंडिया की भारत में केवल 80-90 लाख नौकरियों के अवसर सृजित होने की राह पर की बात की है और कहां भारतीय रिजर्व बैंक की भारत में 4.7 करोड़ रोजगार के अवसर सृजित होने की बात है, दोनों संस्थानों के आंकलन में भारी अंतर दिखाई देता है। सिटीग्रुप इंडिया के भारत में रोजगार सृजित होने के संदर्भ में जारी उक्त प्रतिवेदन के जवाब में भारत सरकार के श्रम मंत्रालय द्वारा भी पिरीआडिक लेबर फोर्स सर्वे (PLFS) एवं भारतीय रिजर्व बैंक के KLEMS डाटाबेस के आंकड़ों का प्रयोग करते हुए बताया गया है कि भारत में वर्ष 2017-18 से 2021-22 के बीच 8 करोड़ रोजगार के अवसर सृजित हुए हैं, जो कि वर्ष 2020-21 में कोविड-19 महामारी के कारण होने वाले वैश्विक आर्थिक व्यवधानों के बावजूद प्रतिवर्ष औसतन 2 करोड़ से अधिक नौकरियां बनती है। इस जानकारी के उपयुक्त होने को PLFS डाटा से भी बल मिलता है जिसके अनुसार भारत में पिछले पांच वर्षों में रोजगार के अवसरों की संख्या, श्रमबल में नए प्रवेशकों की संख्या से अधिक रही है, जिससे देश में बेरोजगारी दर में लगातार कमी आ रही है। इन आंकड़ों के अनुसार, भारत में बेरोजगारी की दर वर्ष 2017-18 में 6 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2022-23 में 3.2 प्रतिशत पर नीचे आ गई है। वित्त वर्ष 2023-24 में भारत में 466,59,221 रोजगार के अवसर निर्मित हुए एवं वित्त वर्ष 2023-24 में देश में कुल रोजगार बढ़कर 64.33 करोड़ के स्तर को पार कर गया जो वर्ष 2022-23 में 59.66 करोड़ के स्तर पर था एवं वर्ष 2019-20 में 53.44 करोड़ के स्तर पर था। उक्त आंकड़ों की सत्यता एवं विश्वसनीयता को और भी अधिक बल मिलता है जब इस संदर्भ में विभिन्न अनुपातों पर नजर डालते हैं। इससे ध्यान में आता है कि भारत में श्रमिक जनसंख्या अनुपात (Worker Population Ratio) वर्ष 2017-18 के 46.8 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2022-23 में 56 प्रतिशत हो गया है। इसी प्रकार भारत में श्रमिक सहभागिता दर (Labour Force Participation Rate) भी वर्ष 2017-18 के 49.8 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2022-23 में 57.9 प्रतिशत हो गई है। जिसके चलते देश में बेरोजगारी की दर (Unemployment Rate) भी वर्ष 2017-18 में 6 प्रतिशत से गिरकर वर्ष 2022-23 में 3.2 प्रतिशत तक नीचे आ गई है। कृषि, आखेट, वानिकी, मछली पालन के क्षेत्र में वर्ष 2022-23 में 25.3 करोड़ व्यक्ति रोजगार प्राप्त कर रहे हैं, जबकि वर्ष 2021-22 में 24.82 करोड़ व्यक्ति इन क्षेत्रों में रोजगार प्राप्त कर रहे थे। इसी प्रकार वर्ष 2022-23 में निर्माण, व्यापार, यातायात एवं भंडारण के क्षेत्र मुख्य रोजगार प्रदाता क्षेत्रों में गिने जा रहे थे। ASUSE के सर्वे में भी भारत में 56.8 करोड़ नागरिकों को रोजगार प्राप्तकर्ता बताया गया है। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी के अनुसार वर्ष 2004 से वर्ष 2014 के दशक के बीच में केवल 2.9 करोड़ रोजगार उपलब्ध कराए जा सके थे जबकि वर्ष 2014 से वर्ष 2023 के दशक के बीच 12.5 करोड़ रोजगार उपलब्ध कराए गए हैं। विनिर्माण एवं सेवा के क्षेत्रों में वर्ष 2004-2014 के दशक में 6.6 करोड़ रोजगार उपलब्ध कराए गए थे जो वर्ष 2014 से 2023 के दशक में बढ़कर 8.9 करोड़ हो गए हैं। सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग के क्षेत्र में भी कुल 20 करोड़ रोजगार उपलब्ध कराए जा रहे हैं। विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में कृषि के क्षेत्र में महिलाओं के लिए रोजगार के अधिक अवसर सृजित हो रहे हैं और यह संख्या 60 से 70 प्रतिशत प्रतिवर्ष तक पहुंच रही है, क्योंकि पुरुष वर्ग अब रोजगार के लिए शहरी क्षेत्रों की ओर आकर्षित हो रहा है जहां उन्हें विनिर्माण एवं सेवा जैसे क्षेत्रों में रोजगार के अवसर उपलब्ध हो रहे हैं। दूसरे, कृषि के क्षेत्र में हो रही लगभग 4 प्रतिशत प्रतिवर्ष की औसत विकास दर के कारण भी कृषि के क्षेत्र में रोजगार के अधिक अवसर सृजित हो रहे हैं। भारत के लिए एक अच्छी खबर यह भी है कि केंद्र सरकार द्वारा वित्तीय एवं आर्थिक क्षेत्रों में लिए गए कई महत्वपूर्ण निर्णयों के चलते अब देश में धीरे धीरे अनऔपचारिक अर्थव्यवस्था का आकार कम होकर, औपचारिक अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ रहा है जिसके चलते अब भारत में औपचारिक क्षेत्र में रोजगार के नए अवसर अधिक मात्रा में निर्मित हो रहे हैं। EPFO द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2023-24 में 1.3 करोड़ कामगारों ने EPFO की सदस्यता ग्रहण की है जबकि वित्तीय वर्ष 2018-19 में केवल 61.12 लाख कामगारों ने ही EPFO की सदस्यता ग्रहण की थी। पिछले लगभग साढ़े छह वर्षों में, सितंबर 2017 से मार्च 2024 के बीच, 6.2 करोड़ कामगारों ने EPFO की सदस्यता ग्रहण की है। EPFO के आंकड़ों में लगातार होने वाली वृद्धि से आश्य यह है कि देश में कम आय वाले रोजगार की तुलना में अधिक आय वाले रोजगार अब तेजी से बढ़ रहे हैं और यह अब अधिकतम औपचारिक क्षेत्र में ही सृजित हो रहे हैं। अनऔपचारिक क्षेत्र के कम आय के रोजगार ही अधिक संख्या में सृजित होते हैं। ASUSE सर्वे के अनुसार अब देश की अर्थव्यवस्था में औपचारिक श्रमिकों की संख्या 55 प्रतिशत तक पहुंच गई है जबकि PLFS सर्वे के अनुसार यह 61 प्रतिशत पर पहुंच गई है। केंद्र सरकार द्वारा कौशल विकास के क्षेत्र में लगातार किए जा रहे प्रयासों एवं निजी एवं सरकारी क्षेत्र में रोजगार के अधिक से अधिक अवसर सृजित करने के लिए दिए जाने वाले विभिन्न प्रोत्साहनों का असर भी अब धरातल पर स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा है। अब तो कई अन्य देश भी भारत से डाक्टरों, इंजीनियरों, आदि की मांग करने लगे हैं। जापान ने 2 लाख भारतीय इंजीनियरों की मांग की है तो इजराईल एवं ताईवान ने भी एक-एक लाख भारतीय इंजीनियरों की मांग की हैं। आस्ट्रेलिया, अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, जर्मनी आदि विकसित देशों में तो पहिले से ही भारतीय डॉक्टर, इंजीनियर एवं एमबीए के क्षेत्र में कौशल हासिल भारतीयों की भारी मांग है। अब तो अरब देश भी भारतीय डॉक्टर, इंजीनियर एवं एमबीए के क्षेत्र में पारंगत भारतीयों पर अपनी नजर गढ़ाए हुए हैं। कई निजी संस्थान दरअसल भारत में रोजगार से सम्बंधित आकड़ें प्रस्तुत करने में प्रामाणिक एवं विश्वसनीय सूत्रों का उपयोग नहीं करते हैं एवं अपने निजी हित साधने के उद्देश्य से उपलब्ध आंकड़ों से अपना निजी निष्कर्ष निकालकर जनता के सामने प्रस्तुत करते हैं, जो कई बार वस्तुस्थिति से भिन्न निष्कर्ष देते हुए दिखाई देता हैं। जबकि कुछ विश्वसनीय सूत्र जहां प्रामाणिक आंकड़े उपलब्ध हैं, में शामिल हैं, भारतीय रिजर्व बैंक, EPFO एवं PLFS आदि, इन संस्थानों द्वारा जारी की गई जानकारी के अनुसार भारत में पिछले पांच वर्षों से बेरोजगारी की दर लगातार कम हो रही है। इसका आश्य यह भी है कि देश में प्रतिवर्ष रोजगार की मांग से रोजगार के अधिक अवसर सृजित हो रहे हैं, इसी के चलते ही तो बेरोजगारी की दर में कमी आ रही है। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा भारत में ही उपलब्ध डाटा/जानकारी का उपयोग करके वित्तीय वर्ष 2023-24 के लिए देश में उत्पादकता का एक अनुमान लगाने का प्रयास किया गया है और जो 27 उद्योगों में उत्पादकता एवं रोजगार के आकलन पर आधारित है। इन उद्योगों को छह व्यापक क्षेत्रों में बांटा गया है, कृषि, माइनिंग और मछली पकड़ना, खनन और उत्खनन, विनिर्माण, बिजली, गैस और जल आपूर्ति, निर्माण और सेवाएं। इस विश्लेषण के लिए नैशनल स्टेटिस्टिकल ऑफिस (NSO), नैशनल सैम्पल सर्वे ऑफिस (NSSO) एवं ऐन्यूअल सर्वे ओफ इंडुस्ट्रीज (ASI) सहित विभिन्न स्त्रोतों से आकड़ों को संकलित किया गया है, जो पूंजी (Capital-K), श्रम (Labour-L), ऊर्जा (Energy-E), सामग्री (Material-M) एवं सेवा (Services-S) KLEMS डाटाबेस का निर्माण करता है। प्रहलाद सबनानी Read more »
आर्थिकी राजनीति भारतीय परम्पराओं के अनुपालन से देश बढ़ रहा आगे July 15, 2024 / July 15, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment भारत जो किसी वक्त में सोने की चिड़िया रहा है जिसका किसी वक्त में वैश्विक अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा योगदान रहा है, उस भारत के गुलाम होने के बाद उसकी अर्थव्यवस्था को मुगलों ने एवं अंग्रेजों ने तहस-नहस किया है। भारत का सनातन चिंतन जितना अधिक शक्तिशाली था गुलामी के उस दौर में उस पर किए गए आक्रमण उसे कमजोर बनाने में कामयाब रहे। परंतु, अब समय आ गया है कि भारत के प्राचीन आर्थिक चिंतन को गंभीरता के साथ देखते हुए वर्तमान आर्थिक विकास की दृष्टि को उसके साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिए तभी जाकर आर्थिक विकास की दृष्टि से भारत के वैभवकाल को पुनः प्राप्त किया जा सकेगा। भारत में प्राचीन ऋषियों और मनीषियों की परंपरा एक गृहस्थ परंपरा रही है और उस गृहस्थ परंपरा में आध्यात्म के साथ-साथ सामाजिक,राजनीतिक एवं आर्थिक चिंतन भी जुड़ा रहा है। अपने राज्य के ऋषियों के जीवन यापन की चिंता जहां राजा की प्राथमिकता में रहता था वहीं राजा को राज्य चलाने के लिए उचित मार्गदर्शन देने का सांस्कृतिक कार्य उन ऋषि-मुनियों द्वारा किया जाता था। इसलिए उन मनीषियों का चिंतन आर्थिक दिशा में भी सदैव बना रहता था। राजा अपने राज्य का विस्तार करने के साथ-साथ उसे आर्थिक रूप से और अधिक समृद्ध कैसे बनाएं इसके बारे में ऋषि-मुनियों के साथ बैठकर ही राज दरबार में चिंतन होता था और राज्य आर्थिक रूप से सशक्त बन जाते थे। इसलिए भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। प्राचीन भारत में धार्मिक आयोजनों एवं धार्मिक पर्यटन का भारत के आर्थिक विकास पर पूर्ण प्रभाव रहा है। प्राचीन भारत में धार्मिक आयोजनों से अर्थव्यवस्था को बल मिलता रहा है इसलिए उस कालखंड में धार्मिक आयोजन निरंतर होते रहे हैं। भारत की ऋषि परंपरा ने जन सामान्य को उन सबके साथ जोड़ कर रखा था। त्यौहारों की निरंतरता और उन्हें मनाए जाने का उत्साह भारत की तत्कालीन अर्थव्यवस्था को गति देता रहा है। आज के वक्त में भी धार्मिक पर्यटन के चलते भारतीय पर्यटन उद्योग में रोजगार के नए अवसर निर्मित हो रहे हैं। वर्तमान केंद्र सरकार के द्वारा भी पिछले 10 वर्षों में भारत में विभिन्न तीर्थस्थलों को विकसित किया जा रहा है। अभी तक जो तीर्थस्थल विकसित हो चुके हैं,वहां का पर्यटन एकदम से कई गुना बढ़ गया है। वहां की आर्थिक समृद्धि बढ़ गई है। वहां के लोगों का जीवन स्तर बढ़ गया है। वहां संपत्तियों के दाम बढ़ गए हैं। इसलिए इस दिशा में सरकार अब आगे और कार्य करने जा रही है तथा कई नवीन धार्मिक कारीडोर बनाने जा रही है,क्योंकि इससे रोजगार के लाखों नए अवसर उत्पन्न होंगे। भारत की कुटुंब व्यवस्था अपने आप में एक अनूठी कुटुंब व्यवस्था है। भारत के संयुक्त परिवार विश्व के लिए आश्चर्य का विषय रहे हैं। इन दिनों संयुक्त परिवार विघटित अवश्य होते जा रहे हैं,लेकिन बावजूद उसके आपातकाल में एक दूसरे के लिए सबके एकत्र होने की जो जिजीविषा उन सबके भीतर है वह भारत में कुटुंब व्यवस्था का अनूठा स्वरूप है, तथा यह स्वरूप देश की अर्थव्यवस्था को भी आगे बढ़ाने का काम करता है। एक परिवार में दो हाथ कमाने जाते हों और वहीं दस हाथ कमाने जाते हों, दोनों बातों का फर्क होता है। इसलिए कुटुंब व्यवस्था में एक दूसरे के लिए आपस में खड़े होने का जो व्यवहार होता है,वह व्यवहार आर्थिक चिंतन के साथ भी जुड़ कर परिवार को आगे बढ़ाने का काम करता है। भारत में प्राचीन काल से पर्यावरण को पर्याप्त महत्व दिया जाता रहा है। देश में नदियां शुद्ध रहती थी वृक्ष घने जंगलों के रूप में रहते थे और पूरा पर्यावरण शुद्ध रहता था। पूरे विश्व में भारत एकमात्र ऐसा देश है जहां पर नदियों को,वृक्षों को,धरती को पूजा जाता है। पूरे पर्यावरण से परिवार का जुड़ाव धार्मिक रूप से रहता है। बहुत सारे व्रत और त्यौहार पर्यावरण से जुड़े हुए रहते हैं। इसलिए सनातन काल से भारत में पर्यावरण की चिंता रही है। जैविक विविधता ने भी भारत के सनातन काल को समृद्ध किया। पर्यावरण संरक्षण को उस समय में नैतिक कर्तव्य माना गया है। बाद में जब मुगलों ने भारत में शासन किया और हिंदुओं का धर्मांतरण किया तो बहुत सारी परंपराएं भी खंडित होने लगी। सनातन काल में जिस गौ माता को पूजा जाता था मुस्लिम उस गौ माता को खाने लगे। मुस्लिम शासन काल भारत के पतन और विखंडन का समय था। उनके बाद जब इस देश में अंग्रेज आ गए तो उनकी निगाह में भारतीय अपरिपक्व और मूर्ख रहे इन दोनों के समय में, मुगलों ने और अंग्रेजों न भारत को दोनों हाथों से लूटकर खाली कर दिया। जो भारतीय अर्थव्यवस्था कभी विश्व की अर्थव्यवस्था का 33 प्रतिशत हिस्सा थी वह बहुत नीचे जा चुकी थी। पर्यावरण बिखरने लगा। नालंदा जैसे विश्वविद्यालय को नुकसान पहुंचाया गया। उसकी लाइब्रेरी को जला दिया गया। इस सब के पीछे भारत को ज्ञान के स्तर पर समाप्त करने की साजिश काम कर रही थी। मुस्लिम शासक हिंदुओं के धर्मांतरण पर, हिंदुओं को मारने पर और उनकी संपत्ति हड़पने पर काम कर रहे थे। ऐसा कहा जाता है कि औरंगजेब ब्राह्मणों को मारकर रोज सवा मन जनेऊ जलाता था। मंदिरों को नष्ट कर उन पर मस्जिदें बना दी गई। दक्षिण ने अपने आपको इस मुस्लिम आक्रमण से बहुत बचाया और इसीलिए भारत के दक्षिण भाग में आज भी समृद्ध मंदिर हैं,जो उस कालखंड के गौरव की प्रस्तुति के रूप में हमारे सामने खड़े हुए हैं। इसी कालखंड में भारत का भक्ति काल जरूर समृद्ध हुआ और उसने भारत के निवासियों को मानसिक ताकत प्रदान की। तुलसीदास की भक्ति के सामने अकबर जैसा आदमी डर गया और झुक गया। भारत की आजादी की लड़ाई तो सफलतापूर्वक लड़ी गई परंतु एक दुष्परिणाम भारत विभाजन के रूप में भी सामने आया,जिसमे लाखों हिंदुओं का नरसंहार हुआ। आजादी के 70 वर्ष में भारत की वह आर्थिक उन्नति नहीं हो पाई जैसी कि अपेक्षा की गई थी। वर्ष 2014 में केंद्र में एक मजबूत सरकार ने शासन को संभाला। कठोर आर्थिक निर्णय लिए। जनता का भी उन्हें साथ मिला तथा लगभग 10 वर्ष के कार्यकाल में भारत की अर्थव्यवस्था विश्व की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित हो गई। वर्तमान सरकार के समक्ष बहुत बड़ी बड़ी चुनौतियां हैं और आज भारत, बहुत सी विदेशी ताकतों एवं उनके षड्यंत्रों के साथ जूझ रहा है। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि जो संकल्प लेकर भारतीय परम्पराओं के अनुरूप सरकार काम कर रही है, उसमें भारत की अर्थव्यवस्था शीघ्र ही विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगी। यह इस अर्थव्यवस्था की ताकत है कि कोरोना खंडकाल में भारत ने अपने 80 करोड़ गरीब लोगों को निशुल्क अन्न उपलब्ध कराया तथा कोरोना की वैक्सीन भी समस्त नागरिकों को निशुल्क उपलब्ध कराई गई। भारत अब न सिर्फ सड़क निर्माण के क्षेत्र में बड़ा काम कर रहा है, अपितु वैकल्पिक ऊर्जा के क्षेत्र में भी भारत निरंतर आगे बढ़ता जा रहा है। साफ सफाई, गरीबों के लिए मकान, गरीबों के लिए शौचालय जैसे छोटे-छोटे विषय भी सरकार की प्राथमिकता में हैं। सरकार किसानों का ध्यान रख रही है, किसानों को समृद्ध बना रही है और उद्योगों को भी नई दिशा प्रदान कर रही है, नए संसाधन प्रदान कर रही है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था की ताकत है कि जब विश्व के अन्य देशों में मंदी की स्थिति बन रही है और वहां की अर्थव्यवस्था नीचे की ओर जा रही है तब भारत की अर्थव्यवस्था दिन-ब-दिन समृद्ध होती जा रही है। देश में कुटीर एवं लघु उद्योग के गौरवशाली दिन वापिस लाने हेतु निरंतर कई प्रयास किए जा रहे हैं। सरकार ने सहकारिता मंत्रालय का गठन कर देश में सहकारिता आंदोलन को सफल होने का रास्ता खोला है। भारत के आर्थिक विकास में विभिन्न सामाजिक और धार्मिक संस्थानों का भी बहुत बड़ा योगदान होने लगा है। बहुत सारे धार्मिक संस्थान बड़े-बड़े अस्पताल खोलकर सेवा का कार्य कर रहे हैं। समाज के विभिन्न वर्गों के द्वारा इलाज की बहुत सारी सुविधाएं देश में कई अस्पतालों में मुफ्त में प्रदान की जा रही है। सरकार ने भी एम्स के माध्यम से चिकित्सा सुविधाएं सारे देश में उपलब्ध करवाने का काम किया है। विभिन्न सामाजिक संगठन भी अपना योगदान समाज की सेवा के साथ देश की अर्थव्यवस्था के विकास में प्रदान कर रहे हैं। भारत का योग सारे विश्व के लिए मार्गदर्शक हो गया है और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत के साथ अन्य राष्ट्र भी उन्नति करते जा रहे हैं। भारतीय नागरिक विदेशों में जाकर झंडे गाड़ रहे हैं। अमेरिका की अर्थव्यवस्था में भारतीयों का बहुत बड़ा योगदान है। प्रवासी भारतीय कई देशों की अर्थव्यवस्थाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। भारतीयों का डंका आज पूरे विश्व में बज रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाने में प्रवासी भारतीय भी अपना योगदान कर रहे हैं। विश्व के कई देशों में भारतीय मूल के नागरिकों की बढ़ती संख्या एवं भारतीय सनातन दर्शन का प्रसार विदेशों में हो रहा है। भारत की तरह वहां पर भी मंदिरों का निर्माण हो रहा है। भारत की साधना पद्धति वहां स्वीकार की जाने लगी है। Read more » The country is moving forward by following Indian traditions
आर्थिकी राजनीति वित्तीय स्थिरता प्रतिवेदन के अनुसार भारत की वित्तीय प्रणाली बहुत मजबूत है July 12, 2024 / July 12, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment जून 2024 के अंतिम सप्ताह में, 27 जून 2024 को, भारतीय रिजर्व बैंक ने वित्तीय स्थिरता प्रतिवेदन जारी किया है। यह प्रतिवेदन वर्ष में दो बार, 6 माह के अंतराल पर, जारी किया जाता है। इस प्रतिवेदन में यह बताया गया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था और भारत की वित्तीय प्रणाली लगातार मजबूत बनी हुई है और बेहतर तुलन पत्र के आधार पर, भारत के बैंक एवं वित्तीय संस्थान लगातार ऋण विस्तार के माध्यम से देश की आर्थिक गतिविधियों में तेजी लाने में अपनी प्रभावी भूमिका का सफलतापूर्वक निर्वहन कर रहे हैं। 31 मार्च 2024 को समाप्त वित्तीय वर्ष में भारत के अनुसूचित वाणिज्यिक बैकों का पूंजी पर्याप्तता अनुपात 16.8 प्रतिशत का रहा है तथा सकल अनर्जक आस्ति अनुपात पिछले कई वर्षों के सबसे निचले स्तर अर्थात 2.8 प्रतिशत पर एवं निवल अनर्जक आस्ति अनुपात केवल 0.6 प्रतिशत पर आ गया है जो अपने आप में एक रिकार्ड है। न केवल अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक मजबूत बने हुए हैं अपितु गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) भी स्वस्थ बनी हुई हैं, जिनका पूंजी पर्याप्तता अनुपात 26.6 प्रतिशत, सकल अनर्जक आस्ति अनुपात 4.0 प्रतिशत और आस्तियों पर प्रतिलाभ 3.3 प्रतिशत रहा है। पूंजी पर्याप्तता अनुपात का मजबूत स्थिति में रहने का आश्य यह है कि इन बैकों के पास पर्याप्त मात्रा में पूंजी उपलब्ध है और इन बैकों में किसी प्रकार की आर्थिक परेशानी आने पर यह बैंक सफलतापूर्वक उस आर्थिक परेशानी का सामना कर सकते हैं। वहीं दूसरी ओर, अनर्जक आस्ति अनुपात का सबसे कम स्तर पर आने का आश्य यह है कि बैकों द्वारा प्रदान किए जा रहे ऋणों की अदायगी समय पर हो रही है एवं इन ऋणों पर पर कोई दबाव दिखाई नहीं दे रहा है। उक्त प्रतिवेदन में भारतीय रिजर्व बैंक ने भारतीय अर्थव्यवस्था में पनप रहे कुछ जोखिमों की ओर भी इशारा किया है। हालांकि वैश्विक स्तर पर कई विकसित देशों द्वारा अभी भी सख्त मौद्रिक नीति का अनुपालन किया जा रहा है एवं इन देशों द्वारा ब्याज दरों को अभी भी उच्च स्तर पर बनाए रखा गया है क्योंकि मुद्रा स्फीति की दर इन देशों में स्वीकार्य स्तर तक नीचे नहीं आ पाई है। भारत के लिए जरूर इस प्रकार के जोखिम कमजोर पड़े हैं क्योंकि भारत में मुद्रा स्फीति की दर को नीचे लाने में सफलता मिली है। परंतु, भारत में एक तो विशेष रूप से कोविड महामारी के बाद से नागरिकों पर ऋण का अतिरिक्त बोझ बड़ा है और दूसरे भारतीय नागरिकों की वित्तीय बचत की दर में कमी आई है। उक्त प्रतिवेदन में विशेष रूप से इन दो जोखिमों की ओर ध्यान दिलाया गया है। भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार वित्तीय वर्ष 2022-23 में नागरिकों की बचत दर घटकर सकल घरेलू उत्पाद के 18.4 प्रतिशत तक नीचे आ गई है जो वर्ष 2013 से 2022 के बीच में औसतन 20 प्रतिशत की रही है। इसी प्रकार, एक अन्य मानक के अनुसार, वर्ष 2013 से 2022 के बीच भारतीय नागरिक अपनी कमाई का औसतन 39.8 प्रतिशत भाग बचत करते थे परंतु वित्तीय वर्ष 2022-23 में यह भाग घटकर 28.5 प्रतिशत तक नीचे आ गया है। बचत, दरअसल, दो प्रकार की होती है, एक वित्तीय बचत और दूसरे, सम्पत्ति निर्मित करने हेतु बचत। भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार, भारतीय नागरिकों की वित्तीय बचत जरूर कम हुई है परंतु सम्पत्ति निर्मित करने हेतु की गई बचत में वृद्धि दृष्टिगोचर है। जैसे, मकान बनाने हेतु एवं कार खरीदने हेतु की गई बचत को सम्पत्ति निर्मित करने हेतु की गई बचत की श्रेणी में रखा जाता है। भारत में हाल ही के वर्षों में सम्पत्ति निर्मित करने हेतु बचत का रुझान बहुत तेज गति से आगे बढ़ा है। आवास एवं कार आदि जैसी सम्पत्तियां खरीदने हेतु भारत में मध्यवर्गीय परिवार अपनी बचत के साथ ही बैकों से ऋण लेकर भी इन सम्पत्तियों का निर्माण कर रहे हैं। इससे अर्थव्यवस्था के चक्र में भी तेजी दिखाई देने लगी है क्योंकि मकान बनाने के लिए स्टील, सिमेंट, आदि पदार्थों की खपत भी बढ़ रही है एवं इन उत्पादों का उत्पादन भी विनिर्माण इकाईयों द्वारा अधिक मात्रा में किया जा रहा है, इससे देश में रोजगार के अवसर भी निर्मित हो रहे हैं। कुल मिलाकर, इससे देश के अर्थ चक्र में तेजी दिखाई देने लगी है। साथ ही, वित्तीय बचत कम इसलिए भी हो रही है क्योंकि अब देश का पढ़ा लिखा नागरिक वित्तीय रूप से अधिक साक्षर हो गया है एवं अब यह स्थिति समझने लगा है कि बैंकों एवं पोस्ट ऑफिस में बचत करने पर मिल रहे ब्याज की तुलना में शेयर (पूंजी) बाजार में निवेश करने तथा सोने एवं चांदी जैसे पदार्थों में निवेश करने से अधिक आय का अर्जन सम्भव होता दिखाई दे रहा है। साथ ही, भूमि का टुकड़ा खरीदकर उस पर भवन का निर्माण कर तुलनात्मक रूप से अधिक आय का अर्जन किया जा सकता है। अतः बैकों एवं पोस्ट ऑफ़िस के स्थान पर अब देश के नागरिक देश के पूंजी बाजार में अपनी बचत का निवेश करने लगे हैं। दूसरे, मध्यवर्गीय परिवार अब अपने बच्चों की शिक्षा एवं स्वास्थ्य सुविधाओं पर अधिक ध्यान देने लगे हैं। इससे, इनकी कुल आय का अधिक प्रतिशत अब इन मदों पर खर्च होता दिखाई दे रहा है, इससे अंततः इन परिवारों की बचत में भी कमी दृष्टिगोचर हो रही है। इसी कारण के चलते नागरिकों की शुद्ध वित्तीय बचत में 11.3 प्रतिशत की भारी भरकम गिरावट दर्ज हुई है जो वर्ष 2022-23 में 28.5 प्रतिशत की रही है और पिछले 10 वर्षों के दौरान औसतन 39.8 प्रतिशत की रही थी। कोरोना महामारी के दौरान चूंकि पूरे देश में लाक्डाउन लगाया गया था अतः इस दौरान भारत में घरेलू बचत दर बढ़कर 51.7 प्रतिशत तक पहुंच गई थी। परंतु कोरोना महामारी के बाद जैसे ही लाक्डाउन को हटाया गया, नागरिकों ने अपने खर्चों में वृद्धि करना शुरू कर दिया एवं आस्तियों में निवेश भी करना शुरू किर दिया था, इससे घरेलू बचत की दर में भारी भरकम गिरावट दर्ज हुई है। अब तो देश के नागरिक आस्तियों में निवेश करने के उद्देश्य से बैकों से ऋण प्राप्त करने में भी किसी प्रकार की कठिनाई का अनुभव नहीं कर रहे हैं। इस सम्बंध में भारतीय बैकों ने भी अपने नियमों को शिथिल किया है। इससे भारत में ऋण में वृद्धि दर लगातार 15 प्रतिशत से ऊपर बनी हुई है वहीं जमाराशि में वृद्धि दर लगातार कम होती जा रही है जिसका प्रभाव वृद्धात्मक ऋण:जमा अनुपात पर भी पड़ता दिखाई दे रहा है जो अब 100 प्रतिशत के आसपास पहुंच गया है। एक और दिलचस्प पहलू यह भी उभरकर सामने आया है कि अब पर्यावरण में हो रहे परिवर्तन को भी वित्तीय जोखिम की तरह ही माना जा रहा है। अर्थात, अब जलवायु जोखिम एवं साइबर जोखिम को भी गम्भीर खतरे के रूप में देखा जा रहा है। आगे आने वाले समय में इन दोनों जोखिमों की वजह से भारतीय वित्तीय प्रणाली पर भारी दबाव पड़ सकता है। जलवायु परिवर्तन के चलते तो भारत की मौद्रिक नीति पर भी प्रभाव पड़ सकता है जिससे अंततः वित्तीय तंत्र के लिए भी जोखिम बढ़ सकता है। प्रहलाद सबनानी Read more » Financial Stability Report India's financial system is very strong
आर्थिकी राजनीति चक्रीय अर्थव्यवस्था (सर्कुलर इकॉनामी) की आवश्यकता क्यों? July 9, 2024 / July 9, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment हिंदू सनातन संस्कृति हमें सिखाती है कि आर्थिक विकास के लिए प्रकृति का दोहन करना चाहिए न कि शोषण। परंतु, आर्थिक विकास की अंधी दौड़ में पूरे विश्व में आज प्रकृति का शोषण किया जा रहा है। प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग कर प्रकृति से अपनी आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति बहुत ही आसानी से की जा सकती है परंतु दुर्भाग्य से आवश्यकता से अधिक वस्तुओं के उपयोग एवं इन वस्तुओं के संग्रहण के चलते प्राकृतिक संसाधनों का शोषण करने के लिए हम जैसे मजबूर हो गए हैं। ऐसा कहा जाता है कि जिस गति से विकसित देशों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का शोषण किया जा रहा है, उसी गति से यदि विकासशील एवं अविकसित देश भी प्राकृतिक संसाधनों का शोषण करने लगे तो इसके लिए केवल एक धरा से काम चलने वाला नहीं है बल्कि शीघ्र ही हमें इस प्रकार की चार धराओं की आवश्यकता होगी। एक अनुमान के अनुसार जिस गति से कोयला, गैस एवं तेल आदि संसाधनों का इस्तेमाल पूरे विश्व में किया जा रहा है इसके चलते शीघ्र ही आने वाले कुछ वर्षों में इनके भंडार समाप्त होने की कगार तक पहुंच सकते हैं। बीपी स्टेटिस्टिकल रिव्यू आॅफ वल्र्ड एनर्जी रिपोर्ट 2016 के अनुसार दुनिया में जिस तेजी से गैस के भंडार का इस्तेमाल हो रहा है, यदि यही गति जारी रही, तो प्राकृतिक गैस के भंडार आगे आने वाले 52 वर्षों में समाप्त हो जाएगें। फाॅसिल फ्यूल में कोयले के भंडार सबसे अधिक मात्रा में उपलब्ध हैं। परंतु विकसित एवं अन्य देश इसका जिस तेज गति से उपयोग कर रहे है, यदि यही गति जारी रही तो कोयले के भंडार दुनिया में आगे आने वाले 114 वर्षों में समाप्त हो जाएगें। एक अन्य अनुमान के अनुसार भारत में प्रत्येक व्यक्ति औसतन प्रतिमाह 15 लीटर से अधिक तेल की खपत कर रहा है। धरती के पास अब केवल 53 साल का ही आॅइल रिजर्व शेष है। भूमि की उर्वरा शक्ति भी बहुत तेजी से घटती जा रही है। पिछले 40 वर्षों में कृषि योग्य 33 प्रतिशत भूमि या तो बंजर हो चुकी है अथवा उसकी उर्वरा शक्ति बहुत कम हो गई है। जिसके चलते पिछले 20 वर्षों में दुनिया में कृषि उत्पादकता लगभग 20 प्रतिशत तक घट गई है। कई अनुसंधान प्रतिवेदनों के माध्यम से अब यह सिद्ध किया जा चुका है कि वर्तमान में अनियमित हो रहे मानसून के पीछे जलवायु परिवर्तन का योगदान हो सकता है। कुछ ही घंटों में पूरे महीने की सीमा से भी अधिक बारिश का होना, शहरों में बाढ़ की स्थिति निर्मित होना, शहरों में भूकम्प के झटके एवं साथ में सुनामी का आना, आदि प्राकृतिक आपदाओं जैसी घटनाओं के बार-बार घटित होने के पीछे भी जलवायु परिवर्तन एक मुख्य कारण हो सकता है। एक अनुसंधान प्रतिवेदन के अनुसार, यदि वातावरण में 4 डिग्री सेल्सियस से तापमान बढ़ जाय तो भारत के तटीय किनारों के आसपास रह रहे लगभग 5.5 करोड़ लोगों के घर समुद्र में समा जाएंगे। साथ ही, चीन के शांघाई, शांटोयु, भारत के कोलकाता, मुंबई, वियतनाम के हनोई एवं बांग्लादेश के खुलना शहरों की इतनी जमीन समुद्र में समा जाएगी कि इन शहरों की आधी आबादी पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा। वेनिस एवं पीसा की मीनार सहित यूनेस्को विश्व विरासत के दर्जनों स्थलों पर समुद्र के बढ़ते स्तर का विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। दुनिया में जितना भी पानी है, उसमें से 97.5 प्रतिशत समुद्र में है, जो खारा है। 1.5 प्रतिशत बर्फ के रूप में उपलब्ध है। केवल 1 प्रतिशत पानी ही पीने योग्य उपलब्ध है। वर्ष 2025 तक भारत की आधी और दुनिया की 1.8 अरब आबादी के पास पीने योग्य पानी उपलब्ध नहीं होगा। विश्व स्तर के अनेक संगठनों ने कहा है कि अगला युद्ध अब पानी के लिए लड़ा जाएगा। अर्थात पीने के मीठे पानी का अकाल पड़ने की पूरी सम्भावना है। इसमें कोई संदेह नहीं कि पानी के पानी के लिए केवल विभिन्न देशों के बीच ही युद्ध नहीं होंगे बल्कि हर गांव, हर गली-मोहल्ले में पानी के लिए युद्ध होंगे। पर हम इसके बारे में अभी तक जागरुक नहीं हुए हैं। आगे आने वाले समय में परिणाम बहुत गंभीर होने वाले हैं। चक्रीय अर्थव्यवस्था (सर्क्यूलर इकॉनामी) का आश्य उस अर्थव्यवस्था से है जिसमें उत्पादों के निर्माण में उपयोग किए जाने वाले कच्चे माल, पानी एवं ऊर्जा के उपयोग को कम किया जाता है एवं पदार्थों के अवशेष (वेस्ट) को कम करते हुए इनके पुनरुपयोग को बढ़ावा दिया जाता है। यह लक्ष्य विभिन्न पदार्थों के उपयोग को उच्चत्तम स्तर पर ले जाकर एवं इन पदार्थों की बर्बादी को रोककर हासिल किए जाने का प्रयास किया जाता है। इससे प्राकृतिक संसाधनों के अति-उपयोग पर अंकुश लगाया जा सकता है। चक्रीय अर्थव्यवस्था के अंतर्गत उत्पादों एवं विभिन्न पदार्थों के उपयोग को कम करना, इनका पुनः उपयोग करना तथा विनिर्माण इकाईयों द्वारा इस प्रकार की प्रक्रिया अपनाना, जिससे कच्चे माल, ऊर्जा एवं पानी का कम प्रयोग हो सके, आदि उपाय भी शामिल हैं। उत्पादों को यदि रिपेयर कर पुनः उपयोग किया जा सकता है तो यह आदत भी विकसित की जानी चाहिए, इससे उस उत्पाद के कुल जीवन साइकल को बढ़ाया जा सकता है एवं उसके स्थान पर नए उत्पाद की आवश्यकता को कम किया जा सकता है। क्षतिग्रस्त अथवा खराब हुए उत्पाद को पुनरुपयोग योग्य बनाए जाने के प्रयास भी किए जाने चाहिए। उचित वेस्ट मेनेजमेंट को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इससे कुल मिलाकर प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव कम होगा। आजकल 7 आर ओफ सर्क्यूलर इकॉनामी को भी इस संदर्भ में अपनाने पर विचार किया जा रहा है – रिडयूस (Reduce -उत्पादों का उपयोग कम करें) , रीयूज (Reuse -उत्पादों का पुनः उपयोग करें), रीसाइकल (Recycle -बर्बाद हुए उत्पादों को रीसाइकल करें), रीडिजाइन (Redesign -उत्पादों की इस प्रकार डिजाइन विकसित करें कि कच्चे माल, पानी एवं ऊर्जा का कम उपयोग हो), रीपेयर (Repair -उत्पाद की मरम्मत कर पुनः उपयोग करने लायक बनाएं), रिन्यू (Renew -खराब हुए उत्पाद को ठीक कर उसका पुनः उपयोग करना), रिकवर (Recover -खराब हुए उत्पाद के कुछ पार्ट्स का पुनः उपयोग करना), रीथिंक (Rethink -नए प्रॉसेस के नवीकरण बारे में विचार करना), रिपर्पस (Repurpose), रिमैन्यूफेक्चर (Remanufacture) आदि उपाय भी सर्क्यूलर इकॉनामी के अंतर्गत किए जाते हैं। अतः कुल मिलाकर, अब समय आ गया है कि समस्त देश मिलकर इस बात पर गम्भीरता से विचार करें कि इस धरा को शोषित होने से कैसे बचाया जाय। इसके लिए आज इस धरा से लिए जाने वाले पदार्थों के उपयोग पर न केवल अंकुश लगाने की आवश्यकता है अपितु इन पदार्थों के पुनः उपयोग करने की विधियों को विकसित करने की भी महती आवश्यकता है। जैसे जीवाश्म ऊर्जा पर निर्भरता कम करने के उद्देश्य से भारत वैकल्पिक एवं नवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोतों को बढ़ावा देने पर काम कर रहा है। ऊर्जा मिश्रण में विविधता लाने पर भी ध्यान केंद्रित किया जा रहा है। इसमें सौर, पवन, पनबिजली और परमाणु ऊर्जा के उपयोग का विस्तार करना भी शामिल है। भारत, परिवहन, औद्योगिक प्रक्रियाओं, प्राथमिकता भवनों सहित, विभिन्न क्षेत्रों में ऊर्जा दक्षता उपायों को प्राथमिकता दे रहा है। इसमें ऊर्जा कुशल तकनीकों को अपनाना, औद्योगिक प्रक्रियाओं का अनुकूलन करना और मजबूत ऊर्जा संरक्षण उपायों को लागू करना शामिल हैं। साथ ही जीवाश्म तेल में ईथेनाल का सम्मिश्रण भी किया जा रहा है ताकि पेट्रोल एवं डीजल के उपयोग को कम किया जा सके। आज समय की मांग है कि विश्व के समस्त देश ऊर्जा सम्मिश्रण के क्षेत्र में साथ मिलकर काम करें। भारत ने सुझाव दिया है कि पेट्रोल में ईथेनाल सम्मिश्रण को वैश्विक स्तर पर 20 प्रतिशत तक ले जाने के लिए सामूहिक प्रयास किए जाएं, अथवा वैश्विक भलाई के लिए कोई और सम्मिश्रण पदार्थ की खोज की जाए, जिससे ऊर्जा की आपूर्ति निर्बाध रूप से बनी रहे और पर्यावरण भी सुरक्षित रहे। भारत ने उत्सर्जन वृद्धि को कम करने के उद्देश्य से बहुत पहले (2 अक्टोबर 2015 को) ही अपने लिए कई लक्ष्य तय कर लिए थे। इनमें शामिल हैं, वर्ष 2030 तक वर्ष 2005 के स्तर से अपने सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता को 30 से 35 प्रतिशत तक कम करना (भारत ने अपने लिए इस लक्ष्य को अब 45 प्रतिशत तक बढ़ा दिया है), गैर-जीवाश्म आधारित ऊर्जा के उत्पादन के स्तर को 40 प्रतिशत तक पहुंचाना (भारत ने अपने लिए इस लक्ष्य को अब 50 प्रतिशत तक बढ़ा लिया है) और वातावरण में कार्बन उत्पादन को कम करना, इसके लिए अतिरिक्त वन और वृक्षों के आवरण का निर्माण करना, आदि। इन संदर्भों में अन्य कई देशों द्वारा अभी तक किए गए काम को देखने के बाद यह पाया गया है कि जी-20 देशों में केवल भारत ही एक ऐसा देश है जो पेरिस समझौते के अंतर्गत तय किए गए लक्ष्यों को प्राप्त करता दिख रहा है। जी-20 वो देश हैं जो पूरे विश्व में वातावरण में 70 से 80 प्रतिशत तक उत्सर्जन फैलाते हैं। जबकि भारत आज इस क्षेत्र में काफी आगे निकल आया है एवं इस संदर्भ में पूरे विश्व का नेतृत्व करने की स्थिति में आ गया है। भारत ने अपने लिए वर्ष 2030 तक 550 GW सौर ऊर्जा का उत्पादन करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। भारत ने अपने लिए वर्ष 2030 तक 2.6 करोड़ हेक्टेयर बंजर जमीन को दोबारा खेती लायक उपजाऊ बनाने का लक्ष्य भी निर्धारित किया है। साथ ही, भारत ने इस दृष्टि से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सौर संधि करते हुए 88 देशों का एक समूह बनाया है ताकि इन देशों के बीच तकनीक का आदान प्रदान आसानी से किया जा सके। प्रहलाद सबनानी Read more » Why is there a need for circular economy?
आर्थिकी राजनीति भारतीय आर्थिक दर्शन के अनुरूप हो इस वर्ष का बजट July 9, 2024 / July 9, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment वित्तीय वर्ष 2024-25 का पूर्णकालिक बजट माननीय वित्तमंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमण द्वारा भारतीय संसद में 23 जुलाई 2024 को पेश किया जा रहा है। वर्तमान में भारत सहित विश्व के लगभग समस्त देशों में पूंजीवादी नीतियों का अनुसरण करते हुए अर्थव्यवस्थाएं आगे बढ़ रही हैं। परंतु, हाल ही के वर्षों में पूंजीवादी नीतियों के अनुसरण के कारण, विशेष रूप से विकसित देशों को, आर्थिक क्षेत्र में बहुत भारी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है और यह देश इन समस्याओं का हल निकाल ही नहीं पा रहे हैं। नियंत्रण से बाहर होती मुद्रा स्फीति की दर, लगातार बढ़ता कर्ज का बोझ, प्रौढ़ नागरिकों की बढ़ती जनसंख्या के चलते सरकार के खजाने पर बढ़ता आर्थिक बोझ, बजट में वित्तीय घाटे की समस्या, बेरोजगारी की समस्या, आदि कुछ ऐसी आर्थिक समस्याएं हैं जिनका हल विकसित देश बहुत अधिक प्रयास करने के बावजूद भी नहीं निकाल पा रहे हैं एवं इन देशों का सामाजिक तानाबाना भी छिनभिन्न हो गया है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के अंतर्गत चूंकि व्यक्तिवाद हावी रहता है अतः स्थानीय समाज में विभिन्न परिवारों के बीच आपसी रिश्ते केवल आर्थिक कारणों के चलते ही टिक पाते हैं अन्यथा शायद विभिन्न परिवार एक दूसरे से रिश्तों को आगे बढ़ाने में विश्वास ही नहीं रखते हैं। कई विकसित देशों में तो पति-पत्नि के बीच तलाक की दर 50 प्रतिशत से भी अधिक हो गई है। अमेरिका में तो यहां तक कहा जाता है कि 60 प्रतिशत बच्चों को अपने पिता के बारे में जानकारी ही नहीं होती है एवं केवल माता को ही अपने बच्चे का लालन-पालन करना होता है, जिसके कारण बच्चों का मानसिक विकास प्रभावित हो रहा है एवं यह बच्चे अपने जीवन में आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं, समाज में हिंसा की दर बढ़ रही है तथा वहां की जेलों में कैदियों की संख्या में तीव्र वृद्धि देखी जा रही है। इन देशों के नागरिक अब भारत की ओर आशाभारी नजरों से देख रहे हैं एवं उन्हें उम्मीद है कि उनकी आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्र की विभिन्न समस्याओं का हल भारतीय सनातन संस्कृति में से ही निकलेगा। अतः इन देशों के नागरिक अब भारतीय सनातन संस्कृति की ओर भी आकर्षित हो रहे हैं। भारत में वर्ष 1947 में राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात कुछ हद्द तक वामपंथी नीतियों का अनुसरण करते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था को विकास की राह पर ले जाने का प्रयास किया गया था। परंतु, वामपंथी विचारधारा पर आधारित आर्थिक नीतियों ने बहुत फलदायी परिणाम नहीं दिए अतः बहुत लम्बे समय तक यह नीतियां आगे नहीं बढ़ सकीं। हालांकि बाद के खंडकाल में तो वैश्विक स्तर पर वामपंथी विचारधारा ही धराशायी हो गई एवं सोवियत रूस कई टुकड़ों में बंट गया। आज तो रूस एवं चीन सहित कई अन्य देश जो पूर्व में वामपंथी विचारधारा पर आधारित आर्थिक नीतियों को अपना रहे थे, ने भी पूंजीवादी विचारधारा पर आधारित आर्थिक नीतियों को अपना लिया है। भारत का इतिहास वैभवशाली रहा है एवं पूरे विश्व के आर्थिक पटल पर भारत का डंका बजा करता था। एक ईसवी से लेकर 1750 ईसवी तक वैश्विक व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 32 प्रतिशत के आसपास बनी रही है। उस समय पर भारतीय आर्थिक दर्शन पर आधारित आर्थिक नीतियों का अनुपालन किया जाता था। मुद्रा स्फीति, बेरोजगारी, ऋण का बोझ, वित्तीय घाटा, बुजुर्गों को समाज पर बोझ समझना, बच्चों का हिंसक होना, सामाजिक तानाबाना छिनभिन्न होना आदि प्रकार की समस्याएं नहीं पाई जाती थीं। समाज में समस्त नागरिक आपस में भाईचारे का निर्वहन करते हुए खुशी खुशी अपना जीवन यापन करते थे। प्राचीन काल में भारत के बाजारों में विभिन्न वस्तुओं की पर्याप्त उपलब्धता पर विशेष ध्यान दिया जाता था, जिसके चलते मुद्रा स्फीति जैसी समस्याएं उत्पन्न ही नहीं होती थी। ग्रामीण इलाकों में कई ग्रामों को मिलाकर हाट लगाए जाते थे जहां खाद्य सामग्री एवं अन्य पदार्थों की पर्याप्त उपलब्धता रहती थी, कभी किसी उत्पाद की कमी नहीं रहती थी जिससे वस्तुओं के दाम भी नहीं बढ़ते थे। बल्कि, कई बार तो वस्तुओं की बाजार कीमत कम होती दिखाई देती थी क्योंकि इन वस्तुओं की बाजार में आपूर्ति, मांग की तुलना में अधिक रहती थी। माननीय वित्तमंत्री महोदय को भी देश में मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के लिए बाजारों में उत्पादों की उपलब्धता पर विशेष ध्यान देना चाहिए न कि ब्याज दरों को बढ़ाकर बाजार में वस्तुओं की मांग को कम किए जाने का प्रयास किया जाए। विकसित देशों द्वारा अपनाई गई आधुनिक अर्थशास्त्र की यह नीति पूर्णत असफल होती दिखाई दे रही है और इतने लम्बे समय तक ब्याज दरों को ऊपरी स्तर पर रखने के बावजूद मुद्रा स्फीति की दर वांछनीय स्तर पर नहीं आ पा रही है। भारत को इस संदर्भ में पूरे विश्व को राह दिखानी चाहिए एवं आधुनिक अर्थशास्त्र के मांग एवं आपूर्ति के सिद्धांत को बाजार में वस्तुओं की मांग कम करने के स्थान पर वस्तुओं की आपूर्ति को बढ़ाने के प्रयास होने चाहिए अर्थात आपूर्ति पक्ष पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। इससे मुद्रा स्फीति तो कम होगी ही परंतु साथ ही अर्थव्यवस्था में विकास की दर भी और तेज होगी क्योंकि वस्तुओं की आपूर्ति बढ़ते रहने से विनिर्माण इकाईयों में गतिविधियां बढ़ेंगी, रोजगार के नए अवसर निर्मित होंगे। परंतु यदि वस्तुओं की मांग में कमी करते हुए मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के प्रयास होंगे तो उत्पादों की मांग में कमी होने के चलते उत्पादों का निर्माण कम होने लगेगा, विनिर्माण इकाईयों में गतिविधियां कम होंगी एवं देश में बेरोजगारी की समस्या बढ़ेगी। मांग में कमी करने के प्रयास सम्बंधी सोच ही अमानवीय है। इसी प्रकार, प्राचीन भारत में ग्रामीण इलाकों में कृषि क्षेत्र के साथ ही कुटीर एवं लघु उद्योगों पर विशेष ध्यान दिया जाता था। कई ग्रामों को मिलाकर हाट लगाए जाते थे, इन कृषि उत्पादों के साथ ही इन कुटीर एवं लघु उद्योगों में निर्मित उत्पाद भी बेचे जाते थे। अतः ग्रामीण इलाकों से शहरों की पलायन नहीं होता था तथा नागरिकों को रोजगार के अवसर ग्रामीण इलाकों में ही उपलब्ध हो जाते थे। आज की परिस्थितियों के बीच कृषि क्षेत्र तथा सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योगों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए ताकि ग्रामीण इलाकों में ही रोजगार के अधिक से अधिक अवसर निर्मित हो सकें। जनता पर करों के बोझ को कम करने के सम्बंध में भी विचार होना चाहिए। भारत के प्राचीन शास्त्रों में कर सम्बंधी नीति का वर्णन मिलता है जिसमें यह बताया गया है कि राज्य को जनता पर करों का बोझ उतना ही डालना चाहिए जितना एक मधुमक्खी फूल से शहद निकालती है। अर्थात, जनता को करों का बोझ महसूस नहीं होना चाहिए। अतः वित्तीय वर्ष 2024-25 वर्ष के लिए प्रस्तुत किए जाने बजट में भी आवश्यक वस्तुओं पर लागू करों की दरों को कम करने के प्रयास होने चाहिए। साथ ही, मध्यमवर्गीय परिवारों को भी करों में छूट देकर कुछ राहत प्रदान की जानी चाहिए ताकि उनकी उत्पादों को खरीदने के क्षमता बढ़े। इससे अंततः अर्थव्यवस्था को ही लाभ होता है। मध्यमवर्गीय परिवारों की खरीद की क्षमता बढ़ने से विभिन्न उत्पादों की मांग बढ़ती है और अर्थव्यवस्था का चक्र और अधिक तेजी से घूमने लगता है। यदि किसी देश में अधिक से अधिक आर्थिक व्यवहार औपचारिक अर्थव्यवस्था के अंतर्गत किए जाते हैं और अर्थव्यवस्था का चक्र भी तेज गति से घूम रहा है तो ऐसी स्थिति में करों के संग्रहण में भी वृद्धि दर्ज होती है। अतः कई बार करों की दरों में कमी किए जाने के बावजूद कर संग्रहण अधिक राशि का होने लगता है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि माननीया वित्त मंत्री जी के पास वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए प्रस्तुत किए जाने वाले बजट के रूप में एक अच्छा मौका है कि भारतीय आर्थिक दर्शन के अनुरूप आर्थिक नीतियों को लागू कर पूरे विश्व को पूर्व में अति सफल रहे भारतीय आर्थिक दर्शन के सम्बंध में संदेश दिया जा सकता है। प्रहलाद सबनानी Read more » This year's budget should be in line with Indian economic philosophy
आर्थिकी राजनीति पूंजीगत खर्चों में वृद्धि एवं मध्यवर्गीय परिवारों को राहत प्रदान की जानी चाहिए बजट में July 5, 2024 / July 5, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment जुलाई 2024 माह में शीघ्र ही केंद्र सरकार द्वारा वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए पूर्णकालिक बजट पेश किया जाने वाला है। हाल ही में लोक सभा के लिए चुनाव भी सम्पन्न हुए हैं एवं भारतीय नागरिकों ने लगातार तीसरी बार एनडीए की अगुवाई में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को सत्ता की चाबी आगामी पांच वर्षों के लिए इस उम्मीद के साथ पुनः सौंप दी है कि आगे आने वाले पांच वर्षों में केंद्र सरकार द्वारा देश में आर्थिक विकास को और अधिक गति देने के प्रयास जारी रखे जाएंगे। अब केंद्र सरकार में वित्त मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमण शीघ्र ही केंद्रीय बजट पेश करने जा रही हैं। पिछले लगातार दो वर्षों के बजट में पूंजीगत खर्चों की ओर इस सरकार का विशेष ध्यान रहा है। वित्तीय वर्ष 2022-23 में 7.50 लाख करोड़ रुपए की राशि का प्रावधान पूंजीगत खर्चों के लिए किया गया था और वित्तीय वर्ष 2023-24 में इस राशि में 33 प्रतिशत की राशि की भारी भरकम वृद्धि करते हुए 10 लाख करोड़ रुपए की राशि का प्रावधान पूंजीगत खर्चों के लिए किया गया था। हालांकि, वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए भी 11.11 लाख करोड़ रुपए की राशि का प्रावधान किया गया है जो पिछले वर्ष की तुलना में केवल 11 प्रतिशत ही अधिक है। इस राशि को यदि 33 प्रतिशत तक नहीं बढ़ाया जा सकता है तो इसे कम से कम 25 प्रतिशत की वृद्धि के साथ आगे बढ़ाने के प्रयास होना चाहिए अर्थात वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए 11.11 लाख करोड़ रुपए की राशि के स्थान पर 12.5 लाख करोड़ रुपए की राशि का प्रावधान पूंजीगत खर्चों के लिए किया जाना चाहिए। किसी भी देश की आर्थिक प्रगति को गति देने के लिए पूंजीगत खर्चों में वृद्धि होना बहुत आवश्यक है और फिर भारत ने तो वित्तीय वर्ष 2023-24 में 8 प्रतिशत से अधिक की आर्थिक विकास दर की रफ्तार को पकड़ा ही है। आर्थिक विकास की इस वृद्धि दर को बनाए रखने एवं इसे और अधिक आगे बढ़ाने के लिए पूंजीगत खर्चों में वृद्धि करना ही चाहिए। आर्थिक विकास दर में तेजी के चलते देश में रोजगार के नए अवसर भी अधिक मात्रा में विकसित होते हैं। जिसकी वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारत को बहुत अधिक आवश्यकता भी है। भारत में पिछले 10 वर्षों के दौरान विकास की दर को तेज करने के चलते ही लगभग 25 करोड़ नागरिक गरीबी रेखा के ऊपर उठ पाए हैं एवं करोड़ों नागरिक मध्यवर्ग की श्रेणी में शामिल हुए हैं। अब भारत में गरीबी की दर 8.5 प्रतिशत रह गई है जो वित्तीय वर्ष 2011-12 में 21.1 प्रतिशत थी। गरीबी की रेखा से बाहर आए इन नागरिकों एवं मध्यवर्गीय नागरिकों ने देश में उत्पादों की मांग में वृद्धि करने में अहम भूमिका निभाई है। साथ ही, कर संग्रहण में भी इस वर्ग ने महती भूमिका अदा की है। आज प्रत्यक्ष कर संग्रहण लगभग 25 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज करता हुआ दिखाई दे रहा है तथा वस्तु एवं सेवा कर भी अब औसतन लगभग 1.80 लाख करोड़ रुपए प्रतिमाह से अधिक की राशि के संग्रहण के साथ आगे बढ़ता हुआ दिखाई दे रहा है। साथ ही, भारतीय रिजर्व बैंक ने भी वित्तीय वर्ष 2023-24 के लिए 2 लाख करोड़ से अधिक की राशि का लाभांश केंद्र सरकार को उपलब्ध कराया है तो सरकारी क्षेत्र के बैकों/उपक्रमों ने 5 लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि का लाभ अर्जित कर केंद्र सरकार को भारी भरकम राशि का लाभांश उपलब्ध कराया है, जबकि कुछ वर्ष पूर्व तक केंद्र सरकार को सरकारी क्षेत्र के बैंकों के घाटे की आपूर्ति हेतु इन बैकों को बजट में से भारी भरकम राशि उपलब्ध करानी होती थी। कुल मिलाकर इस आमूल चूल परिवर्तन से केंद्र सरकार के बजटीय घाटे में भारी कमी दृष्टिगोचर हुई है। केंद्र सरकार का बजटीय घाटा कोविड महामारी के दौरान 8 प्रतिशत से अधिक हो गया था जो अब वित्तीय वर्ष 2024-25 में घटकर 5.1 प्रतिशत तक नीचे आने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। इस प्रकार, अब यह सिद्ध हो रहा है कि केंद्र सरकार ने न केवल अपने वित्तीय संसाधनों में वृद्धि करने में सफलता अर्जित की है बल्कि अपने खर्चों को भी नियंत्रित करने में सफलता पाई है। पूंजीगत खर्चों में वृद्धि के साथ ही, केंद्र सरकार द्वारा अपने बजट में मध्यवर्गीय नागरिकों को आय कर की राशि में छूट देने का प्रयास भी वित्तीय वर्ष 2024-25 के बजट में किया जाना चाहिए। क्योंकि, प्रत्यक्ष कर संग्रहण में हो रही भारी भरकम 25 प्रतिशत की वृद्धि इसी वर्ग के प्रयासों के चलते सम्भव हो पा रही है। वैसे, भारतीय आर्थिक दर्शन के अनुसार भी नागरिकों/करदाताओं पर करों का बोझ केवल उतना ही होना चाहिए जितना एक मधुमक्खी किसी फूल से शहद लेती है। मध्यवर्गीय नागरिकों के हाथों में अधिक राशि पहुंचने का सीधा सीधा फायदा अर्थव्यवस्था को ही होता है। मध्यवर्गीय नागरिकों के हाथों में यदि खर्च करने के लिए अधिक राशि पहुंचती है तो वह विभिन्न उत्पादों के उपयोग को बढ़ावा देता है इससे इन उत्पादों की मांग में वृद्धि दर्ज होती है और इन उत्पादों का उत्पादन बढ़ता है। उत्पादन बढ़ने से रोजगार के नए अवसर अर्थव्यवस्था में निर्मित होते हैं एवं कम्पनियों द्वारा विनिर्माण इकाईयों का विस्तार किया जाता है तथा निजी क्षेत्र में भी पूंजीगत निवेश बढ़ता है। कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था के चक्र को बढ़ावा मिलता है जो अंततः देश के कर संग्रहण में भी वृद्धि करने में सहायक होता है। मध्यवर्गीय परिवार के आय कर में कमी करने से बहुत सम्भव है कि भारत में औपचारिक अर्थव्यवस्था को भी बढ़ावा मिले। क्योंकि कई देशों में यह सिद्ध हो चुका है कि कर की राशि को कम रखने से औपचारिक अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है इससे कर की दर को कम करने के उपरांत भी कर संग्रहण में वृद्धि होते हुए देखी गई है। ऐसा कहा जाता है कि भारत में अभी भी अनऔपचारिक अर्थव्यवस्था औपचारिक अर्थव्यवस्था के करीब करीब बराबरी पर ही चलती हुए दिखाई देती है। हालांकि केंद्र सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था में आर्थिक व्यवहारों के भारी मात्रा में डिजिटलीकरण करने के उपरांत भारत की अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाने में बहुत मदद मिली है और इसी के चलते ही वस्तु एवं सेवा कर का संग्रहण लगभग 1.80 लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि प्रतिमाह के स्तर पर पहुंच सका है। अतः कुल मिलाकर देश में मध्यवर्गीय परिवारों की संख्या जितनी तेज गति से आगे बढ़ेगी देश का आर्थिक विकास भी उतनी ही तेज गति से आगे बढ़ता हुआ दिखाई देगा। दरअसल, देश में कर संग्रहण में आकर्षक वृद्धि के बाद ही गरीब वर्ग की सहायता के लिए भी विभिन्न योजनाएं सफलता पूर्वक चलाई जा सकेंगी। अतः वित्तीय वर्ष 2024-25 का बजट मध्यवर्गीय परिवारों की संख्या में वृद्धि को ध्यान में रखकर ही बनाया जाना चाहिए। ऐसा कहा भी जाता है कि मध्यवर्गीय परिवार गरीब परिवारों को सहायता उपलब्ध कराने में सदैव आगे रहा है। प्रहलाद सबनानी Read more » Increase in capital expenditure and relief to middle class families should be provided in the budget.
आर्थिकी राजनीति आगामी पांच वर्षों में भारतीय शेयर बाजार का पूंजीकरण हो सकता है दुगना July 4, 2024 / July 4, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment पूरे विश्व में विभिन्न देशों के शेयर (पूंजी) बाजार में निवेश करने के सम्बंध में विदेशी निवेशक संस्थानों को सलाह देने वाले एक बड़े संस्थान मोर्गन स्टैनली ने हाल ही में अनुमान लगाया है कि बहुत सम्भव है कि भारतीय शेयर बाजार का पूंजीकरण आगे आने वाले 5 वर्षों में दुगना हो जाए। आज खुदरा निवेशक, देशी संस्थागत निवेशक, म्यूचूअल फंड, आदि […] Read more » भारतीय शेयर बाजार का पूंजीकरण
आर्थिकी राजनीति प्राचीन भारत में आर्थिक क्षेत्र में अभिशासन का अनुपालन किया जाता रहा है July 1, 2024 / July 1, 2024 by प्रह्लाद सबनानी | Leave a Comment पिछले कुछ वर्षों से निगमित अभिशासन को विभिन्न बैकों एवं कम्पनियों में लागू करने के भरपूर प्रयास किए जा रहे हैं। भारतीय रिजर्व बैंक ने भी इस सम्बंध में विस्तार से दिशा निर्देश जारी किए हैं एवं इन्हें सहकारी क्षेत्र के बैंकों में लागू करने के प्रयास किए जा रहे हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त होने के पश्चात अमेरिका में लागू की गई पूंजीवाद की नीतियों के चलते कम्पनियों को अमेरिकी सरकार द्वारा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापार करने की खुली छूट दी गई थी ताकि अमेरिकी में बिलिनायर नागरिकों की संख्या तेजी से बढ़ाई जा सके ताकि अमेरिका एक विकसित राष्ट्र की श्रेणी में शामिल हो जाय। अमेरिका एवं अन्य देशों में व्यापार को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से अमेरिका में आर्थिक नियमों में भारी छूट दी गई थी। इस छूट का लाभ उठाते हुए कई अमेरिकी कम्पनियों ने अन्य देशों में भी अपने व्यापार का विस्तार करते हुए अपनी कई कम्पनियां इन देशों में स्थापित की और बाद में उन्हें बहुराष्ट्रीय कम्पनियां कहा गया। अमेरिका में स्थापित कम्पनियां दूसरे देशों में स्थापित अपनी सहायक कम्पनियों की अमेरिका में बैठकर देखभाल तो कर नहीं सकती थी अतः उन्होंने अन्य देशों में स्थापित कम्पनियों के बोर्ड में अपने प्रतिनिधि, निदेशक के तौर पर भर्ती किए। इस बोर्ड को चलाने के साथ ही इन देशों में इन कम्पनियों द्वारा व्यापार को विस्तार देने के उद्देश्य से इस सम्बंध में नियमों की रचना की गई, जिन्हें बाद में निगमित अभिशासन का नाम दिया गया। वर्ष 1970 के आसपास अमेरिका में एवं अन्य यूरोपीयन देशों में निगमित अभिशासन के सम्बंध में बहुत शोध कार्य सम्पन्न हुआ एवं निगमित अभिशासन के कई मॉडल एवं सिद्धांत विकसित हुए, जिन्हें भारत में भी लागू करने के प्रयास किए जा रहे हैं। हालांकि भारत में तो प्राचीन काल से ही आर्थिक क्षेत्र में अभिशासन सम्बंधी नियमों का अनुपालन किया जाता रहा है। सनातन संस्कृति में कर्म एवं अर्थ को धर्म से जोड़ा गया है। अतः प्राचीन भारत में धर्म का पालन करते हुए ही आर्थिक गतिविधियां सम्पन्न होती रही हैं। इस प्रकार, आर्थिक क्षेत्र में अभिशासन तो व्यापार में उपयोग होता ही रहा है। ब्रिटिश मूल के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एवं इतिहासकार श्री एंगस मेडिसिन द्वारा सम्पन्न किए के शोध के अनुसार एक ईसवी पूर्व से 1750 ईसवी तक वैश्विक व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 32 प्रतिशत से 48 प्रतिशत के बीच रही है और भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इतने बड़े स्तर पर होने वाले व्यापार में अभिशासन की नीतियों का अनुपालन तो निश्चित रूप से होता ही होगा। परंतु, पश्चिमी देश निगमित अभिशासन को एक नई खोज बता रहे हैं। प्राचीन काल में भारत में आर्थिक क्षेत्र में अभिशासन के अनुपालन का स्तर बहुत उच्च था। एक घटना के माध्यम से इसे सिद्ध भी किया जा सकता है। एक किसान ने एक अन्य किसान से जमीन के टुकड़ा खरीदा। उस किसान ने जब जमीन में खुदाई शुरू की तो उसे खुदाई के दौरान उस जमीन में सोने के सिक्कों से भरा एक घड़ा मिला। इस घड़े को लेकर वह किसान जमीन के विक्रेता किसान के पास पहुंचा और बोला आपसे जो जमीन का टुकड़ा मैंने खरीदा था उसमें सोने के सिक्कों से भरा यह घड़ा मिला है, मैंने तो चूंकि आपसे केवल जमीन खरीदी है अतः इस घड़े पर आपका अधिकार है। विक्रेता किसान ने उस घड़े को लेने से इसलिए इंकार कर दिया कि क्योंकि अब तो वह जमीन मैं आपको बेच चुका हूं अतः अब जो भी वस्तु अथवा पदार्थ इस जमीन से प्राप्त होता है उस पर जमीन के क्रेता अर्थात केवल आपका अधिकार है। दोनों किसानों के बीच जब किसी प्रकार की सुलह नहीं हो सकी तो वे दोनों किसान राजा के महल में अपनी समस्या का हल ढूंढने के लिए पहुंचे। जब वहां भी इस समस्या का हल नहीं निकल सका तो दोनों किसानों ने राजा से प्रार्थना की कि सोने के सिक्कों से भरे इस घड़े को राज्य के खजाने में जमा कर दिया जाय। राजा ने भी उस घड़े को राज्य के खजाने में जमा करने से इंकार कर दिया क्योंकि राज्य के खजाने में तो अभिशासन सम्बंधी नियमों के अनुपालन के अनुसार ही प्राप्त धन को जमा किया जा सकता है और अभिशासन सम्बंधी नियमों में इस प्रकार से प्राप्त धन को खजाने में जमा करने का वर्णन ही नहीं है। इस उच्च स्तर की अभिशासन प्रणाली प्राचीन भारत में लागू थी। अभिशासन को परिभाषित करते हुए कहा जाता है कि यह एक तरीका है, जिसके अनुसार संस्थानों को अभिशासित किया जाता है। यह नियमों, व्यवहारों एवं प्रक्रियाओं की एक प्रणाली है जिसके अनुसार एक व्यवसाय को चलाया, विनियमित एवं नियंत्रित किया जाता है। इसके माध्यम से यह सुनिश्चित किया जाता है कि निर्णय प्रक्रिया स्वच्छ (निष्पक्ष) एवं नैतिक है। इसके माध्यम से यह जानने, संतुलित करने एवं संरक्षित करने का प्रयास किया जाता है कि लम्बी अवधि के लिए हितधारकों के हित सुरक्षित रहें। हितधारकों में शामिल हैं – बैंक के संदर्भ में जमाकर्ता, एवं अन्य कम्पनियों के संदर्भ में ग्राहक, शेयरधारक, कर्मचारी, प्रबंधन, सरकार, भारतीय रिजर्व बैंक, आदि। निगमित अभिशासन सम्बंधी नियमों के अनुपालन की जिम्मेदारी बोर्ड के सदस्यों की मानी जाती है। अच्छे निगमित अभिशासन के गुणों के सम्बंध में कहा जाता है कि बोर्ड द्वारा लिए जाने वाले निर्णयों में निष्पक्षिता एवं पारदर्शिता होनी चाहिए। संस्था में प्रत्येक स्तर पर जवाबदेही एवं जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। बोर्ड के सदस्यों के चुनाव में पारदर्शिता हो एवं बोर्ड के सदस्य पेशेवर होने चाहिए। यदि बैंक के बोर्ड की बात की जाय तो बोर्ड के सदस्य जमाकर्ता के ट्रस्टी के रूप में कार्य करें। ऋण प्रदान करने में पारदर्शिता होनी चाहिए एवं मेरिट आधारित निर्णय होने चाहिए। केंद्र सरकार, भारतीय रिजर्व बैंक एवं प्रधान कार्यालय द्वारा जारी नियमों का अनुपालन सुनिश्चित होना चाहिए। अंकेक्षण प्रणाली, जागरूकता प्रणाली (विजिलन्स सिस्टम), धोखाधड़ी का पता लगाने का तंत्र (फ्राड डिटेक्शन मेकनिजम) मजबूत होना चाहिए। साथ ही, संस्थान में उच्च तकनीकी का उपयोग भी होना चाहिए। निगमित अभिशासन के अंतर्गत बोर्ड की भूमिका के संबंध में भी कहा जाता है कि बोर्ड के सदस्यों में व्यावसायिक कुशलता होना चाहिए। बोर्ड के सदस्यों द्वारा संस्था में स्थापित प्रणाली एवं प्रक्रिया की व्याख्या करनी चाहिए। आंतरिक नियंत्रण प्रणाली की व्याख्या करनी चाहिए। आंतरिक अंकेक्षण प्रणाली की समय समय पर जांच पड़ताल करनी चाहिए। समस्त व्यवसाय सबंधित नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करना चाहिए। प्रणाली एवं प्रक्रिया की उचित समय अंतराल पर समीक्षा करनी चाहिए। निगमित अभिशासन के अंतर्गत बोर्ड स्तर की कुछ समितियों का निर्माण भी किया जाना चाहिए। जैसे, अंकेक्षण समिति, नियमों के अनुपालन की जांच करने के सम्बंध में समिति, बड़ी राशि के फ्राड की जांच करने वाली समिति, बोर्ड के सदस्यों का परिश्रमिक तय करने की समिति, जोखिम प्रबंधन समिति, आदि। निगमित अभिशासन के सम्बंध में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा बनाए गए नियमों को कम्पनियों एवं बैकों में लागू किया जाना चाहिए। हालांकि प्राचीन भारत में विशेष रूप से आर्थिक क्षेत्र में अभिशासन का उच्च स्तर रहा है, क्योंकि उस खंडकाल में कर्म एवं अर्थ के कार्य धर्म से जोड़कर किए जाते थे। परंतु, आज की परिस्थितियाँ भिन्न हैं, अतः वर्तमानकाल में भिन्न परिस्थितियों के बीच निगमित अभिसासन के नियमों को विभिन्न संस्थानों में लागू किया ही जाना चाहिए। प्रहलाद सबनानी Read more » प्राचीन भारत में आर्थिक क्षेत्र में अभिशासन का अनुपालन किया जाता रहा है