Category: मनोरंजन

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मनोरंजन सिनेमा

 कसमें वादे प्यार वफ़ा सब, बातें हैं बातों का क्या…

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श्रद्धांजलि– मनोज कुमार सुशील कुमार ‘नवीन’ सही अर्थों में वो भारतवासी थे। जीवनपर्यंत भारत और भारतीय संस्कृति की ही बातें उन्होंने प्रत्येक देशवासी को बताई। मेरे देश की धरती सोना उगले से राष्ट्र की दूर तलक तक पहचान बनवाने में उनका स्वर्णिम योगदान सदैव अविस्मरणीय रहेगा। ये दुनिया एक नंबरी तो मैं दस नंबरी से मैदान ए जंग में अपना अलग ही रुतबा उन्होंने बरकरार रखा। यहां तक अबके बरस तुझे धरती की रानी कर देंगे का वादा पूरी निष्ठा से निभाकर भारत मां के उपकार को चुकाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। जीवन चलने का नाम कहकर क्रांति की अलख जगाना कोई इनसे ही सीखे। मेरा रंग दे बसंती चोला कहकर शहीद होने वाले इस भारत कुमार को आने वाली पीढ़ियां याद रखेंगी। भले ही दीवानों से ये मत पूछो, दीवानों पे क्या गुजरी है कहकर अपने हुए पराये का दर्द देकर चले गए, फिर भी पत्थर के सनम तुम्हें हमने खुदा माना। माना बस यही अपराध है बार करता हूं, आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं। पर तुम्हें हरियाली और रास्ता इतना भाएगा कि इस बात का जरा भी अहसास नहीं होने दिया। हमें यह बोलकर कि घर बसाकर देखो, कभी अपना बनाकर देखो खुद  का सन्यासी बन क्या हिमालय की गोद में जाना उचित है। रोटी कपड़ा और मकान की जीवन में सार्थकता का अहसास जिस तरह से तुमने कराया, वैसा और कोई आदमी चाहे हाथ में रेशमी रूमाल लेकर घूमता फिरे। पूनम की रात में कलयुग की रामायण दिखाकर वो कौन थी का यादगार सस्पेंस उत्तर दक्षिण, पूरब और पश्चिम में सदा बना रहेगा।   आप भी सोच रहे होंगे कि मास्टरजी का दिमाग आज बन्ना गया है कि बेसिरपैर की बातें करे जा रहे हैं। आपका सोचना बिल्कुल वाजिब भी है कि व्यंग्य के साथ गांभीर्य का सदा तड़का लगाने वाले मास्टरजी आज अलग ही मूड में है। विषय से न भटकते हुए सीधे मुद्दे पर आ जाते हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्रीज में अपना अलग मुकाम रखने वाले एकमात्र भारत कुमार की उपाधि को सही अर्थों में शिरोधार्य करने वाले अभिनेता, निर्देशक मनोज कुमार जी आज नहीं रहे। हिन्दुस्तान ही क्या विदेशों तक उनकी फैन फॉलोइंग अपने आप में रिकॉर्ड है। राष्ट्र सर्वोपरि की भावना को अपनी फिल्मों के माध्यम से उन्होंने सदैव अग्रणी रखा। इस बात का उदाहरण आप इसी बात से लगा सकते हां कि पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री जी के एक कथन से उन्होंने किसान और जवान को केंद्र में रखकर उपकार फिल्म बनाई। क्रांति के माध्यम से अंग्रेजी गुलामी की दासता को चित्रण कर प्रत्येक देशवासी को झकझोर कर रख दिया। संगीत के तो क्या कहने। 15 अगस्त हो या 26 जनवरी, उपकार, क्रांति, शहीद आदि फिल्मों के गीत तन मन में रोमांच भर देते हैं। उनके बारे में जितना लिखा जाए, जितना सुना जाए, उतना ही कम रहेगा। एक बेहतर भारतीय अभिनेता तो थे ही, इसके साथ-साथ उच्च कोटि के फिल्म निर्देशक, पटकथा लेखक, गीतकार और संपादक भी थे। जिस कार्य को शुरू किया उसमें क्या नफा होगा क्या नुकसान, इस बात की परवाह उन्होंने कभी नहीं की। जो एक बार ठान लिया, उसे करने के लिए वो हद से गुजरने से गुरेज नहीं करते थे।कई बार नुकसान भी हुआ पर उन्होंने इसकी परवाह नहीं की। अपनी अलग पहचान बनाई। जब तक काम किया सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। हिंदी सिनेमा में उनके काम को सदा याद किया जायेगा। भारतीय सिनेमा और कला में उनके योगदान के लिए भारत सरकार द्वारा 1992 में पद्म श्री और 2015 में सिनेमा के क्षेत्र में सर्वोच्च पुरस्कार दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित होने का गौरव उन्हें प्राप्त हुआ। फिल्म इंडस्ट्रीज में कभी न भुलाए जाने वाले मनोज कुमार जी को उन्हीं की एक फिल्म शोर के गीत से नमन। दो पल के जीवन से इक उम्र चुरानी है ज़िंदगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है। लेखक; सुशील कुमार ‘नवीन‘,

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कला-संस्कृति मनोरंजन लेख

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में घोष का इतिहास

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शिवानंद मिश्रा संघ की स्थापना 1925 के मात्र 2 वर्ष बाद 1927 में संघ में घोष को शामिल किया गया।  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिसे आरएसएस या संघ परिवार के नाम से भी जाना जाता है, उसकी स्थापना सन 1925 में हुई। संघ के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि अधिकांश लोग संघ के स्वयंसेवकों के सेवाकार्यों और शाखा पर होने वाले दंड प्रदर्शन से ही परिचित हैं किंतु संघ के ऐसे अनेकों रचनात्मक और सृजनात्मक कार्य हैं जो उसके स्वयंसेवकों की कठोर साधना से सिद्ध हुए हैं। ऐसा ही एक काम है संघ का घोष-वादन।  जैसा कहा जाता है कि संघ कार्य का विस्तार देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप समाजोपयोगी और प्रासंगिकता के अनुरूप बड़ी सहजता से हुआ है। आरंभिक समय में शाखा पर केवल व्यायाम और सामान्य चर्चा हुआ करती थी. फिर धीरे-धीरे शारीरिक और बौद्धिक कार्यक्रम होने लगे। इसी क्रम में शारीरिक अर्थात फिजिकल एक्सरसाइज में भी समता और संचलन का अभ्यास आरंभ हुआ। संचलन के समय शारीरिक विभाग ने इस बात पर विचार किया कि यदि संचलन के साथ घोष वाद्य का प्रयोग किया जाए तो इसकी रोचकता, एकरूपता और उत्साह में चमत्कारिक परिवर्तन हो सकता है। स्वयंसेवकों की इच्छा शक्ति का ही परिणाम था कि संघ स्थापना के केवल दो वर्षों बाद 1927 में शारीरिक विभाग में घोष भी शामिल हो गया। यह इतना आसान कार्य नहीं था। उस समय दो चुनौतियाँ थीं, एक तो यह कि घोष वाद्य जो संचलन में काम आ सकें, वे महँगे थे और सेना के पास हुआ करते थे। दूसरा यह कि उसके कुशल प्रशिक्षक भी सैन्य अधिकारी ही होते थे। चूँकि संघ के पास न तो इतना धन था कि वाद्य यंत्र खरीदे जा सकें और उस पर भी यह राष्ट्रभक्तों का ऐसा संगठन था जिसके संस्थापक कांग्रेस के आंदोलनों से लेकर बंगाल के क्रांतिकारियों के साथ काम कर चुके थे, इसलिए किसी सैन्य अधिकारी से स्वयंसेवकों को प्रशिक्षित कराना बड़ा कठिन कार्य था। उस समय सैन्य अधिकारियों को केवल सेना के घोष-वादकों को ही प्रशिक्षित करने की अनुमति थी। इस चुनौती से निबटने के लिए संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी के परिचित बैरिस्टर श्री गोविन्द राव देशमुख जी के सहयोग से सेना के एक सेवानिवृत बैंड मास्टर के सहयोग से स्वयंसेवकों को घोष वाद्यों का प्रशिक्षण दिलाया गया।  शंख वादन के लिए मार्तंड राव तो वंशी के लिए पुणे के हरिविनायक दात्ये जी आदि स्वयंसेवकों ने शंख, वंशी,आनक जैसे वाद्य यंत्रों पर अभ्यास आरंभ किया। इस प्रकार संघ में घोष का एक आरंभिक स्वरूप खड़ा हुआ। पाश्चात्य शैली के बैंड पर उनके ही संगीत पर आधारित रचनाएँ बजाने में भारतीय मन को वैसा आनंद नहीं आया जैसा कि आना चाहिए था। तब स्वयंसेवकों का ध्यान इस बात पर गया कि हमारे देश में हजारों वर्ष पूर्व महाभारत युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने पांचजन्य और धनुर्धारी अर्जुन ने देवदत्त बजाकर विरोधी दल को विचलित कर दिया था। भगवान कृष्ण के समान वंशी वादक संसार में कोई हुआ नहीं, अतः हमें इन वाद्यों पर ऐसी रचनाएँ तैयार करनी चाहिए जिनमें अपने देश की नाद परंपरा की सुगंध हो। स्वर्गीय बापूराव व उनके साथियों ने इस दिशा में कार्य आरंभ किया। इस प्रकार राग केदार, भूप, आशावरी में पगी हुई रचनाओं का जन्म हुआ।   स्वयंसेवकों ने घोष वाद्यों को भी स्वदेशी नाम प्रदान कर उन्हें अपनी संगीत परंपरा के अनुकूल बनाकर उनका भारतीय करण किया। इस क्रम में साइड ड्रम को आनक, बॉस ड्रम को पणव, ट्रायंगल को त्रिभुज, बिगुल को शंख आदि नाम दिए गए जो कि ढोल, मृदंग आदि नामों की परंपरा में ही समाहित होते हैं। घोष की विकास यात्रा में प्रथम अखिल भारतीय घोष प्रमुख श्री सुब्बू श्रीनिवास का नामोल्लेख भी अत्यंत समीचीन होगा।  अनेक वर्षों तक सतत प्रवास करके घोष वर्ग और घोष शिविरों के माध्यम से पूरे देश में हजारों कुशल घोष वादक तैयार किये। घोष वादकों में निपुणता और दक्षता की दृष्टि से अखिल भारतीय घोष शिविर आयोजित किये जाने लगे। श्री सुब्बू जी घोष के प्रति इतने समर्पित रहे कि सतत प्रवास के कारण उनका स्वास्थ्य भी गिरने लगा किन्तु अंतिम साँस तक बिना रुके, बिना थके वे ध्येय मार्ग पर बढ़ते रहे। परंपरागत वाद्य शंख, आनक और वंशी से आरंभ हुई घोष यात्रा आज नागांग, स्वरद आदि अत्याधुनिक वाद्यों पर मौलिक रचनाओं के मधुर वादन तक पहुँच गई है। घोष वादन में मौलिक और भारतीय नाद परंपरा को समृद्ध करने की यात्रा प्रथम रचना गणेश से आरंभ होकर लगभग अर्ध शतक पूर्ण कर निरंतर बढ़ती जा रही है। शिवानंद मिश्रा

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