स्वास्थ्य-योग लम्बा जीना है तो पैदल चलो October 26, 2015 by डॉ. दीपक आचार्य | Leave a Comment डॉ. दीपक आचार्य जो लोग शरीर के कहे अनुसार चलते हैं वे जल्दी ही थक जाया करते हैं। इसके विपरीत जो लोग शरीर को अपने अनुसार चलाते हैं उनका शरीर लम्बे समय तक चलता है और स्वस्थ भी रहता है। अपना शरीर घोड़े की तरह है जिसे मन के संकल्पों की सुदृढ़ लगाम से संचालित […] Read more » लम्बा जीना है तो पैदल चलो
विविधा स्वास्थ्य-योग अथर्ववेद के आलोक में आयुर्वेद विमर्श September 19, 2015 / September 19, 2015 by कृष्ण कान्त वैदिक शास्त्री | 1 Comment on अथर्ववेद के आलोक में आयुर्वेद विमर्श कृष्ण कान्त वैदिक शास्त्री शतपथ ब्राह्ममण ने यजुर्वेद के एक मंत्र की व्याख्या में प्राण को अथर्वा बताया है। इस प्रकार प्राण विद्या या जीवन-विद्या आथर्वण विद्या है।1 हमें गोपथ ब्राह्ममण से यह पता चलता है कि ब्रह्म शब्द भेषज और भिषग्वेद का बोधक है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जो अथर्वा है, […] Read more » Featured
विविधा स्वास्थ्य-योग वैदिक ग्रन्थों में चिकित्सा शास्त्र September 9, 2015 / September 9, 2015 by अशोक “प्रवृद्ध” | Leave a Comment अशोक “प्रवृद्ध” वैदिक मान्यतानुसार सृष्टि का उषाकाल वेद का आविर्भाव काल माना जाता है। भारतीय परम्परा के अनुसार वेदों को सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान का मूल स्रोत माना जाता है। मनुस्मृति में मनु महाराज ने घोषणा की है- यद्भूतं भव्यं भविष्यच्च सर्वं वेदात् प्रसिध्यति। – मनुस्मृति 12.97 अर्थात- जो कुछ ज्ञान-विज्ञान इस धरा पर अभिव्यक्त हो […] Read more » Featured
स्वास्थ्य-योग योग को पहले समझिए फिर समझाइए!!! July 2, 2015 by डॉ प्रवीण तिवारी | Leave a Comment 21 जून को “अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस” घोषित किया गया है। 11 दिसम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र में 193 सदस्यों द्वारा 21 जून को “अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस” को मनाने के प्रस्ताव को मंजूरी मिली। प्रधानमंत्री मोदी के इस प्रस्ताव को 90 दिन के अंदर पूर्ण बहुमत से पारित किया गया, जो संयुक्त राष्ट्र संघ में किसी दिवस […] Read more » योग को पहले समझिए
विविधा स्वास्थ्य-योग शारीरिक व्यायाम की प्राचीन कला है योग June 20, 2015 by प्रमोद भार्गव | 1 Comment on शारीरिक व्यायाम की प्राचीन कला है योग प्रमोद भार्गव यह विडंबना ही है कि जब योग को पूरी दुनिया ने स्वीकार कर लिया है तब चंद धार्मिक समूह इसे धर्म और संप्रदाय विशेष का रंग देने की कलाबाजी का राजनैतिक खेल खेल रहे हैं। जबकि वास्तव में योग शारीरिक और मानसिक व्यायाम की प्राचीन भारतीय कला है। कला का यह खजाना अब […] Read more » Featured Yoga प्राचीन कला योग प्राचीन कला है योग योग शारीरिक व्यायाम
स्वास्थ्य-योग दुनिया को क्यों है योग की ज़रूरत June 20, 2015 / June 22, 2015 by प्रवक्ता ब्यूरो | Leave a Comment मो. अनीस उर रहमान खान आधुनिक युग ने मनुष्य को इतना प्रायौगिक बना दिया है कि वह हर चीज़ को वैज्ञानिक दृष्टि से परखने की कोशिश करता है। अगर उसका मस्तिष्क उस बात को मान लेता है तो वह उसे अपने जीवन में उतारने की कोशिश करता है। अगर ऐसा नहीं हो पाता तो […] Read more » Featured योग की ज़रूरत
स्वास्थ्य-योग भारतीय योग की विश्व मान्यता का सन्देश April 10, 2015 / April 11, 2015 by ललित गर्ग | Leave a Comment प्राचीन काल में भारत से शुरु हुआ योग ने बीते दशकों में दुनिया भर के लोगों को आकर्षित किया है। अब भारत के आग्रह पर योग के महत्व को मान्यता देते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया है। यह शायद पहला अवसर है, जब भारतीय योग से जुडे़ ज्ञान […] Read more » Featured भारतीय योग भारतीय योग की विश्व मान्यता का सन्देश ललित गर्ग
स्वास्थ्य-योग जीवन व्यस्त भले ही हो, लेकिन अस्त-व्यस्त नहीं April 10, 2015 / April 11, 2015 by ललित गर्ग | Leave a Comment वर्तमान जीवन का हाल यह है कि यहां चीजें सरपट भाग रही हैं। लोग जल्दी में हैं। उन्हें डर है कि कहीं धीमें पड़ गए तो आगे बढ़ने की रेस में पीछे न छूट जाएं। इस आपाधापी में वे तमाम तरह की गड़बडि़यों में शामिल हैं। इसी तरह के जीवन ने व्यक्ति को लापरवाह एवं […] Read more » Featured Health swasthy असंतुष्ट अस्त-व्यस्त जीवन व्यस्त भले ही होे ललित गर्ग लेकिन अस्त-व्यस्त नहीं व्यस्त संतुष्टि
खान-पान स्वास्थ्य-योग स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास April 7, 2015 / April 11, 2015 by प्रवक्ता ब्यूरो | Leave a Comment दुनिया में स्वास्थ्य से बढ़कर कुछ भी नहीं होता और शरीर अगर स्वस्थ हो तो सब कुछ अच्छा लगता है, दिल को सुकून मिलता है लेकिन अगर हम थोड़ा भी बीमार पड़ते हैं तो सारी दुनिया अधूरी सी लगने लगती है। इसलिए स्वास्थ्य को सबसे बड़ा धन भी कहा गया है लेकिन वर्तमान परिवेश और […] Read more » Featured निर्भय कर्ण विश्व स्वास्थ्य दिवस स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास
बच्चों का पन्ना समाज सार्थक पहल स्वास्थ्य-योग स्वस्थ परिवार की 10 आदतेँ February 28, 2015 / March 2, 2015 by शिवेश प्रताप सिंह आज के इस भागदौड़ के जीवन में वास्तविक जीवन से हम बहूत दूर होते जा रहे हैं | हम परिवर्तनों को नहीं रोक सकते परन्तु थोडा जागरूक होकर हम अपने परिवार में एक स्वस्थ वातावरण बना सकते हैं | स्वस्थ परिवार की दस आदतेँ अपनाकर हम बहुत अच्छा बदलाव कर सकते हैं | १. परिवार […] Read more » स्वस्थ परिवार की 10 आदतेँ
जन-जागरण स्वास्थ्य-योग स्वाइन फ्लू February 27, 2015 / February 27, 2015 by राम सिंह यादव | 4 Comments on स्वाइन फ्लू अजीब सी दहशत है हर चेहरे में, फिज़ाओं में घुली हवा एक सिहरन पैदा कर रही है। कौन जाने किस सांस के साथ H1N1 वाइरस हमारे फेफड़े में पैवस्त हो जाये। हर ओर शोर है, स्वाइन फ्लू से भयाक्रांत चेहरे हैं। नकाबों से ढकी करुण आंखे हैं। आखिर ये कौन सा वाइरस है? अपने देश का है या दवाई कंपनियों का बताया हुआ वाइरस है? जिसके लिए हज़ार रुपये का टैमीफ्लू इंजेक्शन और सात हज़ार की जाँचें करवानी हैं। डाक्टरों से लेकर लैबोरेटरी केमिस्टों के खिले चेहरे और मेडिकल रेप्रेजेंटटिवों से लेकर दवा कंपनी मालिकों के चेहरों पर गहरी मुस्कान या फिर मीडिया के स्तंभित पत्रकारों के अतिउत्साहित वार्तालाप किस संवेदनहीनता का परिचय दे रहे हैं। सवा अरब की आबादी वाले भारत को महामारी का डर दिखा कर व्यापार साधने वाले विदेशी तत्व शायद ही समझ पाएँ की भारत के इतिहास में कभी कोई महामारी क्यों नहीं पनप पायीं?? टी॰बी॰, प्लेग, मलेरिया, कालरा, चेचक, एड्स, पोलियो आदि भयावह महामारियों का इतिहास स्पष्ट लिखता है कि इनके कारण कई सभ्यताओं ने अपना अस्तित्व खो दिया लेकिन भारत के पारंपरिक विज्ञान के सामने ऐसी असंख्य महामारियों ने आकर स्वयं दम तोड़ दिया। भारत के पारंपरिक चिकित्सा विज्ञान ने कभी भी जीवाणुओं तथा विषाणुओं को अपना दुश्मन समझा ही नहीं। प्रकृति से ली गईं जड़ी बूटियों, मसालों, पत्तों, छालों, जड़ों ने हमें इन विषाणुओं के मध्य रहकर हमारी प्रतिरोधक क्षमताओं को एकल दिशा में जागृत करके प्राकृतिक वातावरण में सबसे सौम्य जलवायु के अनुकूल बनाया। ऐसी अनूठी चिकित्सा व्यवस्था विश्व की किसी भी सभ्यता के इतिहास में कहीं नहीं मिली। दादी के बनाए हुये अदरख और शहद के मिश्रण ने दमा पैदा करने वाले कफ को बाहर निकाला, नानी के तुलसी के पत्ते ने वाइरस जनित रोगों से हमारी रक्षा की तो माँ के हाथों की स्पर्श चिकित्सा से हड्डियों को मजबूती मिली जिन्होने सौ साल की उम्र पूरी करने की ताकत पायी………. कितना अनूठा विज्ञान है इस अदम्य और चिरकालिक सभ्यता के पास जिसको ये चंद मूर्ख पाश्चात्य दवा वैज्ञानिक हेय दृष्टि से देखते हैं, उपहास करते हैं…. कल हेपटाइटिस था, फिर बर्ड फ्लू आया, अब स्वाइन फ्लू आ गया है, आने वाले कल में डेंगू और मलेरिया की नयी नयी किस्में इस नए चिकित्सा विज्ञान को चुनौती देने के लिए कमर कस रही हैं। साल दर साल वाइरस, बैक्टेरिया, प्रोटोज़ोआ, फंगस आदि नए नए डी॰एन॰ए॰ संरचना के साथ अपने अस्तित्व को जीवित रखने की भयंकर कोशिश कर रहे हैं…… कभी सोचा है – क्या होगा इसका अंजाम?????? अनाज को खाने वाले चूहों की संख्या जब बढ़ जाती है तो बिल्ली पालते हैं, बिल्लियों की संख्या बढ्ने पर कुत्ता लाते हैं लेकिन कुत्तों की संख्या अधिक होने पर रेबीज के डर से फिर उन्हे मारना पड़ता है। ऐसे ही सृष्टि में एक एक जीवन और मृत्यु को नियंत्रित करने वाली कड़ी सदैव गतिमान रहती है जिसमे अस्तित्व के संघर्ष और जीवन की परिभाषा छिपी होती है। यह नया चिकित्सा विज्ञान नहीं समझ पा रहा। एक साधारण से फोड़े को सेप्ट्रान की गोली के जरिये दबा कर कैंसर बनाने वाला विज्ञान भला कब तक उस सभ्यता को जीवित रख पाएगा, जिसके पूर्वज उस फोड़े की गांठ को आक के पत्तों से निकाला करते थे………. स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू और इंफ्लुएंज़ा के विविध प्रकार भारतीयों का कुछ नहीं बिगाड़ सकते यदि हम अपनी पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों का अनुसरण करें तो। हमारे ग्रंथ बताते हैं कि किसी प्रकार के रोग को उत्पन्न करने के लिए तीन कारक – वात, पित्त और कफ होते हैं। जब इनके मध्य ऋतु परिवर्तन के कारण असंतुलन होता है तो शरीर व्याधियों से ग्रस्त हो जाता है। चूंकि एक विशाल जनसंख्या और उसके द्वारा उत्सर्जित प्रदूषण अपनी विशालतम स्थिति तक पहुँच चुका है तो इनसे ग्रस्त जीवों की संख्या भी अधिक प्रतीत होती है. लेकिन भारत का जैव मण्डल कभी भी इसके वातावरण को जीवन विरोधी नहीं होने देता और जीवन अनुकूलन व्यवस्था को सदैव अक्षुण्ण रखता है। भारतीय चिकित्सा वैज्ञानिक साफ साफ लिख गए हैं कि मौसमी बुखार के आगमन का उल्लास मानना चाहिए क्योंकि यह शरीर को आने वाले मौसम के आघात के प्रति प्रतिरोधक क्षमता दे रहा है. इसी प्रकार जुकाम, पेचीस, उल्टी, फोड़े-फुंसियों के छोटे संसकरणों का चिकित्सा विज्ञान में अति महत्वपूर्ण स्थान था। नयी चिकित्सा प्रणाली, बीमार घोड़ों और बंदरों के शरीर में एंटीबाडीज़ बना कर मानव शरीर में प्रविष्ट कराती है रोग निदान के लिए। लेकिन शरीर किसी भी बाहरी तत्व को अपने भीतर अनिच्छा से ही प्रवेश करने देता है। जबकि इन एंटीबाडीज़ को शरीर खुद ही तैयार कर रहा होता है जो हमारी अस्थियों के संधि स्थल में गांठों के रूप मे प्रकट होते हैं। अब इन भीतरी और बाह्य एंटीबाडीज़ के मध्य भी शरीर के भीतर लड़ाई होती है शरीर इनको धकेलना चाहता है लेकिन निरंतर दवा की खुराक को शरीर में प्रवेश करा कर हम इसकी प्रतिरोधक क्षमता को खत्म कर देते हैं जिसका दीर्घकालिक परिणाम स्वयं के लिए घातक साबित होता है। भारतीय ग्रंथो में सबसे प्रमुखता आंवले को दी गयी है, शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को विकसित करने के लिए. किसी भी प्रकार से आंवले को शरीर में समाहित करने से pH संतुलित रहता है और रसायनों के अनुपात को जरूरत के मुताबिक नियंत्रित करता है। गूढ विज्ञान निरंतर कर्म कर रहा है स्वयं मानव के भीतर जो अपनी हर क्रिया में जीवन अनुकूलन का सिद्धान्त समेटे है। कभी ध्यान से देखना जब किसी मनुष्य को चोट लगती है या बीमार पड़ता है तब वह गोल अर्थात सिकुड़ कर लेट जाता है, गहरी व लंबी साँसे लेने लगता है। इससे आशय ये है कि किसी भी हालत में शरीर सबसे पहले हृदय की रक्षा करना चाहता है यानि प्राण की। यदि यह प्राण ऊर्जा सुरक्षित रही तो, जैसा की शरीर को मुड़कर लेटने का आदेश देकर मस्तिष्क अब और भी बचाव के उपायों को करने के लिए इंद्रियों को तत्पर कर सकता है। बहुत गहनता है शरीर के भीतर, जिसको सिर्फ भारतीय चिंतन ही पहचान पाया है। भारतीय संस्कृति के असंख्य शताब्दियों के सतत शोधों के कारण आज विश्व में मौजूद सभी चिकित्सा पद्धतियों का जनक है। चीन की एक्यूप्रेशर का प्राचीनता का भारत की स्पर्श या मालिश की चिकित्सा में है; विप्श्यना के वैभव का अंदाजा बताने को पक्षाघात को ठीक करने में उँगलियों के पोरों से निकलने वाली ऊर्जा, ग्रन्थों में अपना स्थान लिए है; होमियोपैथी की शुरुआत धन्वन्तरी के सत्व शोधन के साथ प्राण ऊर्जा के संतुलन में स्थित है, शल्य चिकित्सा से लेकर मानसिक व्याधियों को दूर करने के तांत्रिक अनुष्ठानों तक से भारतीय पारंपरिक चिकित्सा विज्ञान की विशाल क्षमता का प्रदर्शन होता है। साँप का जहर उतारने के लिए प्रेमचन्द्र की कहानी में पात्र पर घंटों ठंडे पानी के घड़े उड़ेले जाते हैं और उसे सोने नहीं दिया जाता। बड़ा सरल वैज्ञानिक सिद्धान्त है की अवचेतन अवस्था में शरीर की अन्य क्रियाओं के सुप्तावस्था में जाते ही जहर शरीर के अन्य हिस्सों में जाने की बजाय मस्तिष्क में इकट्ठा होकर पूरी तरह गिरफ्त में ले लेगा। मस्तिष्क की क्रियाओं को नियंत्रित करने वाली प्रणाली में पक्षाघात होने से एक बार सोया मानव फिर जाग नहीं पाएगा। न केवल साँप वरन किसी भी प्रकार के जहर को निष्क्रिय करने की हमारे पूर्वजों की अचूक तकनीकी मूर्ख तात्रिकों के फैलाये अंधविश्वास की भेंट चढ़ गयी। गाँव की बूढ़ी औरतों के द्वारा धुले पोंछे चौके में नहाने के पश्चात ही जाने का कट्टर प्रण भारत की अव्वल दर्जे की हाईजीन चिंता तथा व्याधिमुक्त जीवन के प्रति संवेदनशीलता का प्रमाण है। आयुर्वेद के मूल सिद्धान्त कि जैसा भोजन शरीर में पहुंचता है उसी के फलस्वरूप वैसा बर्ताव शरीर करने लगता है। इसलिए पारंपरिक चिकित्सा विज्ञान में पथ्य व अपथ्य भोजन का उल्लेख किसी भी बीमारी के निदान से पहले मिलता है। सामुद्रिक शास्त्र में वर्णित शरीर की स्थितियों की जानकारी, माथे के वलय, हथेलियों, पैरों, आँखों, धमनियों के परीक्षण के आधार पर व्यक्ति की मूल व्याधि का इलाज, इस सबसे प्राचीन सभ्यता का अदृश्य आधार थी। विडम्बना ही है कि X-Ray, CT स्कैन, MRI, अल्ट्रासाउंड, रक्त-मल-मूत्र की जाचें न किए जाने के बावजूद चिकित्सा के अतुलनीय कीर्तिमान स्थापित हुये। ऋतु परिवर्तन, वातावरण के अलावा जीव और निर्जीव पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है यही वजह है कि शीत रक्त समूह वाले जीव एक लंबी नींद के बाद जागने लगते हैं, दीर्घकालिक वृक्षों के पत्ते पीले पड़ कर झड़ने लगते हैं। आने वाली गर्मी का सामना करने के लिए हरे – चमकदार नए पत्तों का स्वागत करते हैं। जबकि छोटे अल्पायु पौधे इस दौरान अपने यौवन की चरमता पर पहुँच रहे होते हैं। फरवरी-मार्च के दौरान दीर्घायु जीवों की स्थिति असहज होती है, इस काल में शरीर रोग प्रतिरोधकों की क्षमताओं का परीक्षण करता है और जहां भी ये कमी देखता है उसकी भरपाई के लिए बाह्य चिन्ह प्रकट करता है। दो मुख्य ऋतुओं गर्मी व सर्दी के मध्य का समय अल्पायु छोटे जीवाणुओं व पौधों का जीवन काल होता है जबकि दीर्घायु जीवों के लिए कष्टकर समय। अभी फ्लू वाइरस के विविध संस्करणों का प्रभाव देख रहे हैं, इसके बाद 25° से 40° सें॰ का तापमान परजीवों अर्थात पैरासाइटों, प्रोटोज़ोआ के लिए मुफीद हो जाएगा जिससे फेल्सिपेरम मलेरिया, डेंगू, मेनिंजाइटिस, परागज ज्वर आदि का काल होगा। इससे अधिक तापमान आने पर शरीर से लवणों की कमी, डिहाइड्रेशन, जीवाणु जनित व्याधि, फूड प्वायजनिंग, हैजा आदि की प्रचुरता होगी। गर्मी में वाष्पीकरण के फलस्वरूप होने वाली वर्षा ऋतु कवकों और मध्य सूक्ष्म जीवों को जीवित कर देगी जिससे पेट संबन्धित रोग टाइफाइड, पीलिया आदि ग्रास करेंगी। नवीन चिकित्सा इन सभी बीमारियों से लड़कर इनको जन्म देने वाले जीवों को मार कर शरीर को जीवित रखने की कला का प्रदर्शन करती है। उसका एक ही सिद्धान्त है दवाइयों के निर्धारित डोज़ द्वारा विषाणुओं – जीवाणुओं – कवकों को मार दो लेकिन इस पद्धति का परिणाम ये होता है की ये अल्पायु जीव अगले जीवन काल में इन दवाओं की प्रतिरोधक क्षमता विकसित करके सामने आ जाते हैं और उसी बीमारी का नया घातक रूप महामारी के तौर पर प्राण लेने लगता है। लेकिन अपनी चिर जीवित सभ्यता के मूल सिद्धान्त की पड़ताल में एक ही सूत्र सामने आता है की हम किसी भी जीव को मारकर जीवित नहीं रह सकते हैं बल्कि उनके साथ सहअस्तित्व लिए खुद को सुरक्षित रखने के सतत आविष्कारों का सहारा लेना होगा। फेफड़ों का कैंसर और अमाशय में अल्सर पैदा करने वाली आल आउट या हिट के धुएं से मलेरिया पैदा करने मच्छरों को मारकर डेंगू मच्छरों को जन्म देने से बेहतर नीम की सूखी पत्तीयों का धुआँ और मच्छरदानी होती थी। नालियों और ठहरे हुये पानी में जब तक हमारे घरों का साबुन, डिटाल और हारपिक नहीं पहुँचा था तब तक मच्छरों को नियंत्रित रखने वाली मछलियाँ हमारा अस्तित्व संभाले रहती थीं। और इन परिस्थितियों को जन्म देने वाली अंधी जनसंख्या नीति का समर्थन करने वाले सत्तालोलुप धर्मांध नेताओं कभी गौर से नीम के पेड़ के नीचे खड़े होकर देखना. बरसात में निंबौरी से लाखों छोटे छोटे नीम पैदा होते हैं लेकिन अगले साल उस जगह सिर्फ एक या दो ही पेड़ खड़े नज़र आते हैं। कभी सोचा है क्यों? अस्तित्व के संघर्ष में प्रकृति की बेहद जटिल व्यवस्था है। हर जीव के हिस्से में सीमित संसाधन हैं और जो इन संसाधनों को हासिल करने की लड़ाई में जीवित रहता है वही अगली पीढ़ी को जन्म दे पाता है। दवाओं और धन से बढ़ी क्षमता के बल पर हम जीवन प्रत्याशा को बढ़ाने में तो सक्षम हो सकते हैं लेकिन संसाधनों को उत्पन्न नहीं कर सकते। इसके लिए हमें प्रकृति पर ही निर्भर रहना है। यदि आज हम अपने मस्तिष्क और नवीन आविष्कारों के दम पर मानव जीवन बचाने में महारथी हैं तो हमारा ये भी कर्तव्य है की इसको सीमित रखने का उपाय भी हमें ही करना है। अगर हम जनसंख्या को सीमित रखने में असफल रहे तो इन सीमित संसाधनों को हासिल करने की लड़ाई में अपने ही बच्चों को आपस में लड़ा बैठेंगे। जीवित रहने की इस लड़ाई में न कोई पड़ोसी होगा, न कोई गैर धर्मी होगा और न ही कोई विदेशी होगा। वरन अपना ही खून होगा जो मर रहा होगा और जो मार रहा होगा। संतानोत्पति और संभोग को प्रकृति प्रदत्त गुण समझने वाले मानवों….. सभ्यता की इस कड़ी में खुद को पुराने युग से उत्कृष्ट मानने वालों से ब्रह्मचर्य की आशा करना बेमानी है। लेकिन इस नवीन युग में सभ्यता का चोला लपेटे इंसान क्या अपनी मूर्खता की वेदी में अपने बच्चों को अस्तित्व के संघर्ष में धकेलने को आतुर होगा???? जनसंख्या असंतुलन से उपजा पारिस्थितिक असंतुलन एक नए तरह के विनाश की भूमिका बांध रहा है। प्रदूषण के विभिन्न प्रकार, वनों का ह्रास, जनसंख्या के दबाव से सीमेंट में बदलती धरती, भूमि के पानी का मूर्खता की हद तक दोहन और पर्यावरणीय ऋतु चक्र में हो रहे परिवर्तनों से न केवल कृषि प्रभावित हो रही है बल्कि कई तरह की नयी बीमारियाँ भी जन्म लेती जा रही हैं। वर्तमान पीढ़ी को एक ठहराव की जरूरत है, आत्मविश्लेषण की आवश्यकता है। तुलना करनी है इतिहास से वर्तमान की। उन स्तंभों पर चिंतन करना है जिन पर हजारों सालों से ये प्राचीनता नवीनता का मुक़ाबला कर रही है।।।।।।।। आज फिर अन्ना जग उठे हैं. ग्रीनपीस जैसे एन॰जी॰ओ॰ ने अबकी भूमि अधिग्रहण मुद्दे पर अन्ना को उकसाया है। जिन अन्ना के जरिये जन लोकपाल के मुद्दे पर कभी आवाज़ एन॰जी॰ओ॰ ने आगे कर भारत को भी मिस्त्र, सीरिया, लीबिया आदि की तरह राजनैतिक अस्थिरता में फंसाने की चाल चली थी। अरे विश्व के सभी समाजसेवी और पर्यावरणीय संस्थाओं जरा भारत की आत्मा में बसे ग्रन्थों को उठा कर देखो, इस भूमि की धुरी “गीता” को पढ़कर देखो फिर बताना तुम्हारे समाजसेवा के छलावे से कितना अलग है हमारा प्रकृति विज्ञान, जो हमारी नसों में खून बनकर बह रहा है। अगर तुम्हें समाजसेवा करनी ही है तो जाओ आर्कटिक ध्रुवों में तेल खोज रही कंपनियों को रोको जो पृथ्वी कि धुरी को तबाह करने का कुचक्र कर रहे हैं. जाओ जाकर पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर की सुधि लो जहां जनता जुल्म और भूख से बेहाल है, जाओ चीन द्वारा पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में चल रही हिमालय खोदने वाली परियोजनाओं को रोको वरना भारत को तबाह करने की मंशा में मानवता को ही खो बैठोगे, आई॰एस॰आई॰एस॰ को फंड देने वाले अरब देशों को समझाओ और अमेरिका को उन्हें हथियार बेचने से मना करो………… अरे काहे एक शांत, सभ्य और मानवता रक्षक मुल्क को अस्थिर करने की साजिश रचते हो??????? यहाँ के 18 करोड़ सूफीपंथी और 107 करोड़ शैव, वैष्णव, जैन, बौद्ध, सिक्ख, अद्वैतवादी, साधु और ईसाइयों से बना सनातन भारत उन विदेशी सलाहों का मोहताज नहीं है जिन देशों में कैथोलिक-प्रोटेस्टेंटो, शिया-सुन्नियों, महायानियों-हीनयानियों के मध्य वैमनस्य की चरमता है। […] Read more » Swine Flu स्वाइन फ्लू
जन-जागरण स्वास्थ्य-योग मास्टरों को डॉक्टर क्यों बनाया ? February 12, 2015 / February 12, 2015 by सुरेन्द्र कुमार पटेल | 1 Comment on मास्टरों को डॉक्टर क्यों बनाया ? 10 फरवरी को कृमिनाशक दिवस मनाया गया।इस अवसर पर मध्यप्रदेश के सभी शासकीय विद्यालयों के बच्चों को कृमिनाशक दवा एल्बेन्डाजोल खिलाया-पिलाया गया ।चैकाने वाली बात यह है कि इस दवा को खिलाने-पिलाने की जिम्मेदारी स्कूल के मास्टरों के सुपुर्द की गई थी। आपको ज्ञात होगा कि पिछले साल छत्तीसगढ में बिलासपुर जिले के पेंडारी गांव […] Read more » कृमिनाशक दवा एल्बेन्डाजोल डॉक्टर मास्टर