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कविता

राज हर कोई करना है जग चह रहा !

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राज हर कोई करना है जग चह रहा, राज उनके समझना कहाँ वश रहा; राज उनके कहाँ वो है रहना चहा, साज उनके बजा वह कहाँ पा रहा ! ढ़पली अपनी पै कोई राग हर गा रहा, भाव जैसा है उर सुर वो दे पा रहा; ताब आके सुनाए कोई जा रहा, सुनके सृष्टा सुमन मात्र मुसका रहा ! पद के पंकिल अहं कोई फँसा जा रहा, उनके पद का मर्म कब वो लख पा रहा; बाल बन खेल लखते मुरारी रहे, दुष्टता की वे सारी बयारें सहे ! सृष्टि सारी इशारे से जिनके चले,  सहज होके वे जगती पै क्रीड़ा करे; जीव गति जान कर तारे उनको चले, कर विनष्टि वे आत्मा में अमृत ढ़ले !  हर निमिष कर्म करके वे प्रतिपालते, धर्म अपना धरे वे प्रकृति साधते; ‘मधु’ है उनका समझ कोई कब पा रहा, अपनी जिह्वा से चख स्वाद बतला रहा !  ✍? गोपाल बघेल ‘मधु’

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