कविता “गुलाब भरा आँगन” May 19, 2013 by प्रवीण गुगनानी | Leave a Comment सहजता सिमटता हवा का झोंका सहज होनें का करता था भरपूर प्रयास. बांवरा सा हवा का वह झोंका गुलाबों भरे आँगन से चुरा लेता था बहुत सी गंध और उसे तान लेता था स्वयं पर. गुलाब वहां ठिठक जाते थे हवा के ऐसे अजब से स्पर्श से किन्तु हो जाते थे कितनें ही विनम्र मर्म […] Read more » “गुलाब भरा आँगन”
कविता कविता – सुकून शेष नहीं May 17, 2013 / May 17, 2013 by मोतीलाल | Leave a Comment जब सो गयी है मेरे आंगन की तुलसी खूंटे में बंधी गाय सुनाई नहीं देती मुझे चिड़ियों की चहचहाट । इतनी रात गये कई शोर उठते हैं तब दिखते हैं धू-धू जलती झोपड़ियाँ जबकि सामने पक्का मकान हंस रहे होते हैं और कान के परदे फटने लगते हैं बम बिस्फोटों के स्वरों से । तब […] Read more » कविता - सुकून शेष नहीं
कविता कविता : काला पानी का सच May 15, 2013 / May 15, 2013 by मिलन सिन्हा | Leave a Comment मिलन सिन्हा काला पानी का सच जो थे राष्ट्रभक्त और स्वतंत्रता सेनानी उन्हें तो उठानी पड़ी थी अनेकानेक परेशानी। भेज देते थे उन्हें बर्बर गोरे अंग्रेज भोगने काला पानी। तथापि, वे सत्याग्रह करते गए बेशक इस क्रम में अनेक मर गए, तो कुछ गुमनामी के अँधेरे में खो गए। लेकिन, देश को यही लोग […] Read more » कविता : काला पानी का सच
कविता हास्य व्यंग्य कविता : पॉपुलर कारपोरेट मंत्र May 13, 2013 / May 13, 2013 by मिलन सिन्हा | Leave a Comment मिलन सिन्हा सुबह से हो जाती थी शाम पर, हर दिन रहता था वह परेशान. मामला ओफिशिएल था कुछ -कुछ , कांफिडेंसिएल था. इसीलिए किसी से कुछ न कहता था खुद ही चुपचाप , सबकुछ सहता था. देखी जब मैंने उसकी दशा सुनी गौर से उसकी समस्या, सब कुछ समझ में आ गया . […] Read more » पॉपुलर कारपोरेट मंत्र
कविता आम May 13, 2013 / May 13, 2013 by बीनू भटनागर | 1 Comment on आम गर्मी के दिन, बड़े बड़े दिन, तपती धूप जलन के ये दिन। ये दिन बहुत सताते हैं, परन्तु रसीले आम भी तो, इनहीं दिनो ही आते हैं। आम भी एक अनोखा फल है, कच्चे वाले आम का पन्ना, गर्मी से राहत दे जाता है। और अचार आम का, बेसुवाद खाने को भी, लज़ीज बना कर जाता है। कच्चे आम की मीठी चटनी, उसका तो अंदाज़ अलग है, उसकी तो कुछ बात अलग है, बिन खाये ही नाम लिया तो, मुंह मे पानी आ जाता है। […] Read more » आम
कविता वन्दे मातरम May 10, 2013 by मुकेश चन्द्र मिश्र | 2 Comments on वन्दे मातरम वन्दे मातरम नहीं पूजा है किसी की, ये तो सिर्फ एक माँ को उसके बेटे का सलाम है। यही समझाते हमने सदियाँ गुजार दीं, पर आज तक इसमें रोड़ा इस्लाम है।। जिस सोच ने विभाजित कर दिया देश को, वो आज भी उसी रूप में ही विद्यमान है। सेकुलर और तुष्टीकरण की नीतियों से, हिंद में भी बन गए कई तालिबान हैं।। राष्ट्रभक्त मुस्लिमो को बरगला रहें हैं जो, ऐसे एक नहीं और कई रहमान हैं। फूंक के तिरंगा यदि जिन्दा है कोई तो, संविधान ऐसे चन्द गद्दारों का गुलाम है।। मातृभूमि और माँ की सेवा से बड़ा ना धर्मं, ऐसा सोचना भी क्या सांप्रदायिक काम है? मुल्क से भगावो ऐसे देशद्रोहियों को जो, […] Read more » वन्दे मातरम
कविता अबोध सितारें May 10, 2013 / May 10, 2013 by प्रवीण गुगनानी | Leave a Comment उस रात में कहीं कुछ घट रहा था जो दिन भर की तपिश के बाद शीतलता को साथ लिए निकल पड़ी थी अपने मूर्त-अमूर्त सपनों की बारात लिए. उस रात के आँचल में जड़ें सितारें और उसके पीछे चलते कितनें ही रहस्यमय घनें अन्धेरें स्पष्ट करते चलते थे परस्पर एक दुसरें की परिभाषाओं को. […] Read more »
कविता व्यंग्य कविता : मनहूस चेहरा May 7, 2013 by मिलन सिन्हा | Leave a Comment मिलन सिन्हा पूरे पांच वर्ष बाद चुनाव के समय जब नेताजी लौटकर अपने गाँव आए तो देखकर उन्हें गांववाले बहुत गुस्साए कहा, उनलोगों ने उनसे आप फ़ौरन यहाँ से चले जाइए और फिर कभी अपना यह मनहूस चेहरा हमें न दिखलाइए सुनकर यह नेताजी हो गए उदास कहा, लोगों को बुलाकर अपने पास भाई, अगर […] Read more » poem by milan sinha व्यंग्य कविता
कविता मैं कोई किताब नहीं May 6, 2013 / May 6, 2013 by मंजुल भटनागर | 1 Comment on मैं कोई किताब नहीं मंजुल भटनागर मैं कोई किताब नहीं , एक कविता भी नहीं , एक शब्द भी नहीं , मेरा कोई अक्स नहीं , कोई रूप नहीं , सिर्फ भाव् है , विचारों का एक पुलिंदा है ——- विचार और भाव जब फैलते हैं दिगंत में प्रकृति के हर बोसे में , मेरा अक्स फैल जाता है […] Read more » मैं कोई किताब नहीं
कविता भ्रष्टाचार को रोके कैसे ? May 5, 2013 / May 5, 2013 by बीनू भटनागर | 2 Comments on भ्रष्टाचार को रोके कैसे ? यू.पी. ए. 2 सरकार हमारी, भोली भाली और बेचारी, राजकुमार उनके ब्रम्हचारी, राज करें उनकी महतारी। प्रधानमंत्री भी भोले भाले, सारे काँण्ड करें मंत्रीगण, कभी कामनवेल्थ धोटाला, 2जी, 3जी मे नहा नहाकर, हैलीकौप्टर की घूस खाकर, कोलगेट से दाँत साफकर, आर्म्स गेट से अन्दर जाकर, रेल गेट से बाहर आकर, कलावती की रोटी खाकर, दामाद को अरबपति बनाकर, हम तो बालक भोले भाले, मंत्री हमारे सारे चमचे, भ्रष्टाचार को रोकें कैसे, वो ही तो हाथ पैर हमारे। Read more » poem by binu bhatnagar भ्रष्टाचार को रोके कैसे ?
कविता मजदूर May 4, 2013 / May 4, 2013 by मंजुल भटनागर | 1 Comment on मजदूर मंजुल भटनागर मजदूर कहाँ ढूंढ़ता हैं छत अपने लिए वो तो बनाता है मकान धूप में तप्त हो कर उसकी शिराओ में बहता है हिन्दुस्तान —- मजदूर न होता तो क्या कभी बनता मुमताज़ के लिए ताज महल सी शान और चीन की दिवार आश्चर्य, कहाती सीना तान —— मजदूर ने खडे किये गुम्बद मह्ल […] Read more » poem by manjul bhatnagar
कविता चंद शब्दों के अंश May 4, 2013 / May 4, 2013 by प्रवीण गुगनानी | Leave a Comment कुछ कहानियां और किस्से गाँव से बाहर के हिस्से में पुरानें बड़े दरख्तों पर टंगे हुए. कुछ कानों और आँखों में कही बातें जो थी किसी प्रकार कोमल स्निग्ध पत्तों पर टिकी और चिपकी हुई और चंद शब्दों के अंश जो टहनियों पर बचा रहें थे अपना अस्तित्व. यही कुछ तो था जो […] Read more » poem by praveen gugnani चंद शब्दों के अंश