Category: साक्षात्‍कार

शख्सियत समाज साक्षात्‍कार

पंडित दीनदयाल उपाध्याय : शुरू किया वैकल्पिक राजनीति का दौर, देश को दिया अंत्योदय का मूल मंत्र

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प्रदीप कुमार वर्मा एक जाने-माने अर्थशास्त्री, एक राष्ट्रवादी लेखक एवं संपादक, एक प्रबुद्ध समाजशास्त्री एवं इतिहासकार। एक विचारक, नियोक्ता और दार्शनिक। पंडित दीनदयाल उपाध्याय मात्र राजनेता नहीं थे, वे उच्च कोटि के चिंतक, विचारक और लेखक भी थे। उन्होंने शक्तिशाली और संतुलित रूप में विकसित राष्ट्र की कल्पना की थी। एकात्म मानववाद जैसी विचारधारा और अंत्योदय के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय की आज जयंती है। जनसंघ से भाजपा के उदय तक पार्टी ने विपक्ष से राजनीति के मजबूत विकल्प का सफर तय किया है तो उसकी नींव डालने वाले व्यक्तित्व थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय। उन्होंने संगठन आधारित राजनीतिक दल का एक पर्याय देश में खड़ा किया। उसी का परिणाम है कि भारतीय जनसंघ से लेकर के भारतीय जनता पार्टी तक संगठन आधारित राजनीतिक दल देश और दुनिया में अपनी अलग पहचान रखता है। यह पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के ही पार्टी के प्रति संस्कार और समर्पण का नतीजा है कि आज भारतीय जनता पार्टी विश्व के सबसे बड़े राजनीतिक संगठन के रूप में शुमार है।              पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर 1916 को धनकिया नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता भगवती प्रसाद उपाध्याय नगला चंद्रभान फरह, मथुरा उप्र के निवासी थे। उनकी माता का नाम रामप्यारी था, जो धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। दीनदयाल अभी 3 वर्ष के भी नहीं हुये थे, कि उनके पिता का देहान्त हो गया। पति की मृत्यु से माँ रामप्यारी भी अत्यधिक बीमार रहने लगीं तथा 8 अगस्त 1924 को उनका भी देहावसान हो गया। उस समय दीनदयाल महज 7 वर्ष के थे।  8वीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उपाध्याय ने कल्याण हाईस्कूल सीकर राजस्थान से दसवीं की परीक्षा में बोर्ड में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इसके बाद वर्ष 1937 में पिलानी से इंटरमीडिएट की परीक्षा में पुनः बोर्ड में प्रथम स्थान प्राप्त किया। वर्ष 1939 में कानपुर के सनातन धर्म कालेज से बीए की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। स्नातक की पढ़ाई के दौरान ही वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़ गए और कॉलेज छोड़ने के तुरंत बाद ही संघ के प्रचारक बन गए। अपने जीवनकाल के दौरान इन्होंने राजनीतिक क्षेत्र, दार्शनिक क्षेत्र, पत्रकारिता एवं लेखन क्षेत्र इत्यादि में अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किये।        दीनदयाल जी के राजनीतिक चिंतन पर गौर करें तो वे शासन और राजनीति के वैकल्पिक प्रारूपों के प्रस्तावक थे। उनका मानना था कि भारत के लिए न तो साम्यवाद और न ही पूंजीवाद उपयुक्त है। उनके प्रारूप को एकात्म मानव दर्शन का सिद्धांत कहा जाता है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार, भारत में प्राथमिक चिंता एक स्वदेशी विकास मॉडल विकसित करना होना चाहिए जिसका मुख्य केंद्र मानव हो। यह पश्चिमी पूंजीवादी व्यक्तिवाद और मार्क्सवादी समाजवाद दोनों का विरोधी है। हालाँकि पश्चिमी विज्ञान का स्वागत करता है । यह पूंजीवाद और समाजवाद के बीच एक मध्य मार्ग तलाशता है, दोनों प्रणालियों का उनके संबंधित गुणों के आधार पर मूल्यांकन करता है, जबकि उनकी ज्यादतियों और अलगाव की आलोचना करता है। इसे भारतीय जन संघ में एक वैचारिक दिशा निर्देश के रूप में अपनाया गया। उनका मानना था कि धर्म किसी राज्य पर शासन करने का सबसे सही मार्गदर्शक सिद्धांत है।        एक वक़्त था जब पंडित जवाहरलाल नेहरु के दौर यह माना जाता था कि देश में कांग्रेस का ही शासन रहेगा। लेकिन नेहरू के बाद कौन? पंचायत से पार्लियामेंट तक एक ही पार्टी का राज था। लेकिन अचानक 1962 से 1967 के बीच एक ऐसा राजनीतिक खालीपन आया कि देश को लगा कि इस रिक्तता को कौन भरेगा?  पंडित दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि की वजह से ही वैकल्पिक राजनीति का दौर आया।दीनदयाल उपाध्याय ने कांग्रेस के विकल्प के तौर कार्यकर्ता के निर्माण पर जोर दिया। उनका उद्देश्य ऐसे राजनीतिक कार्यकर्ताओं की एक नई श्रेणी तैयार करना था जिसका एक स्वतंत्र चिंतन हो, राष्ट्रभक्ति से प्रेरित हो और राष्ट्र-समाज को समर्पित हो। उन्होंने अपनी पूरी शक्ति संगठन को वैचारिक अधिष्ठान देने, कार्यकर्ता के निर्माण और संगठन के विस्तार में लगा दी। आज संघ और भाजपा जिस मुकाम पर है,उस विचार की नींव पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने ही डाली थी।         पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जीवन का एक बड़ा हिस्सा उनके विचारक, लेखक और पत्रकार रूप में भी जाना जाता है। वर्ष 1940 के दशक में उन्होंने लखनऊ से मासिक “राष्ट्रधर्म”, साप्ताहिक पांचजन्य और दैनिक “स्वदेश” की शुरुआत की। उन्होंने हिंदी में “चंद्रगुप्त मौर्य” नाटक और “शंकराचार्य” की जीवनी भी लिखी। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने कुछ पत्रिकाओं में भी कार्य किया। उन्होंने वर्ष 1940 में लखनऊ से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका राष्ट्रधर्म में काम किया। वहीं, बाद में पांचजन्य और स्वेदश की भी पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने शुरुआत की। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केबी  हेडगेवार की जीवनी का मराठी से हिंदी में अनुवाद किया। इसके अलावा उनकी कृतियों में ‘सम्राट चंद्रगुप्त’, ‘राष्ट्र जीवन की समस्याएं” ‘जगतगुरू शंकराचार्य’, ‘अखंड भारत क्यों हैं’, ‘राष्ट्र चिंतन’ और ‘राष्ट्र जीवन की दिशा’ आदि भी शामिल हैं।      पंडित दीनदयाल का विचार संगठन तक सीमित नहीं था, उनका आर्थिक दर्शन भाजपा की राजनीति का केंद्र है. दीनदयाल जी कहते थे- “आर्थिक योजनाओं तथा आर्थिक प्रगति का माप समाज के ऊपर की सीढ़ी पर पहुंचे हुए व्यक्ति नहीं, बल्कि सबसे नीचे के स्तर पर विद्यमान व्यक्ति से होगा। ”केंद्र सरकार की वित्तीय समावेशन की योजना आज समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुंच रही है तो वह पंडित जी के अंत्योदय का ही उदाहरण है।  दीनदयाल जी के विचारों का ही प्रभाव है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘दीनदयाल अंत्योदय योजना’ की शुरुआत की जो आज ग्रामीण भारत की एक नई क्रांति बन चुकी है। उनका कहना था- “समाज की अंतिम सीढ़ी पर जो बैठा हुआ है; दलित हो, पीड़ित हो, शोषित हो, वंचित हो, गांव हो, गरीब हो, किसान हो… सबसे पहले उसका उदय होना चाहिए. राष्ट्र को सशक्त और स्वावलंबी बनाने के लिए समाज को अंतिम सीढ़ी पर ये जो लोग हैं उनका सामाजिक, आर्थिक विकास करना होगा.”         यह भी एक सर्वमान्य ने सत्य है कि कोविड काल में देश के 80 करोड़ लोगों के फ़्री अनाज देना, किसान सम्मान निधि में अभी तक पौने दो लाख करोड़ की राशि सीधे बैंक खाते में पहुंचाना, 45 करोड़ से अधिक गरीबों का जनधन खाते खुलवाना, उज्ज्वला के तहत 9 करोड़ से अधिक गैस कनेक्शन, घर-घर शौचालय का निर्माण, स्वनिधि योजना, आयुष्मान भारत, नल जल योजना आदि के जरिए कदम बढ़ा रही केंद्र सरकार की सभी गरीबोन्मुख पहल पंडित जी के अंत्योदय के दर्शन से ही निकली हैं। एकात्म मानववाद और अंत्योदय के जिस रास्ते पर चलकर आज केंद्र सरकार देश के हर वर्ग के सपने का साकार कर आत्मनिर्भर भारत की ओर कदम बढ़ा रही है, उसके प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय ही हैं। एकात्म मानववाद का उद्देश्य व्यक्ति एवं समाज की आवश्यकता को संतुलित करते हुए प्रत्येक मानव को गरिमापूर्ण जीवन सुनिश्चित करना है। यह प्राकृतिक संसाधनों के संधारणीय उपभोग का समर्थन करता है जिससे कि उन संसाधनों की पुनः पूर्ति की जा सके।      आज वैश्विक स्तर पर एक बड़ी जनसंख्या गरीबी में जीवन यापन कर रही है। विश्वभर में विकास के कई मॉडल लाए गए लेकिन आशानुरूप परिणाम नहीं मिला। अतः दुनिया को एक ऐसे विकास मॉडल की तलाश है जो एकीकृत और संधारणीय हो। एकात्म मानववाद ऐसा ही एक दर्शन है जो अपनी प्रकृति में एकीकृत एवं संधारणीय है। एकात्म मानववाद न केवल राजनीतिक बल्कि आर्थिक एवं सामाजिक लोकतंत्र एवं स्वतंत्रता को भी बढ़ाता है। यह सिद्धांत विविधता को प्रोत्साहन देता है अतः भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के लिए यह सर्वाधिक उपयुक्त है। “एकात्म मानववाद” का उद्देश्य प्रत्येक मानव को गरिमापूर्ण जीवन प्रदान करना है एवं “अंत्योदय” अर्थात समाज के निचले स्तर पर स्थित व्यक्ति के जीवन में सुधार करना है अतः यह दर्शन न केवल भारत अपितु सभी विकासशील देशों में सदैव प्रासंगिक रहेगा। भारत के संदर्भ में यह भी सुखद है की वर्तमान में देश की बागडोर एनडीए सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी के हाथ में है, जो एकात्म मानववाद औऱ अंत्योदय के संकल्प को साकार करने में जुटे हैं। प्रदीप कुमार वर्मा

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लेख शख्सियत समाज साक्षात्‍कार

फांसी के फंदे को चूमकर शहीद हो गए खुदीराम बोस

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शहादत  दिवस,  11 अगस्त 1908 कुमार कृष्णन  आज की तारीख में आम तौर पर उन्नीस साल से कम उम्र के किसी युवक के भीतर देश और लोगों की तकलीफों, और जरुरतों की समझ कम ही होती है लेकिन खुदीराम बोस ने जिस उम्र में इन तकलीफों के खात्मे के खिलाफ आवाज बुलंद की, वह मिसाल है जिसका वर्णन इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। इससे ज्यादा हैरान करने वाली बात और क्या हो सकती है कि जिस उम्र में कोई बच्चा खेलने-कूदने और पढ़ने में खुद को झोंक देता है, उस उम्र में खुदीराम बोस यह समझते थे कि देश का गुलाम होना क्या होता है और कैसे या किस रास्ते से देश को इस हालत से बाहर लाया जा सकता है। इसे कम उम्र का उत्साह कहा जा सकता है लेकिन खुदीराम बोस का वह उत्साह आज भारत में ब्रिटिश राज के खिलाफ आंदोलन के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है तो इसका मतलब यह है कि वह केवल उत्साह नहीं था बल्कि गुलामी थोपने वाली किसी सत्ता की जड़ें हिला देने वाली भूमिका थी। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि महज उन्नीस साल से भी कम उम्र में उसी हौसले की वजह से खुदीराम बोस को फांसी की सजा दे दी गई लेकिन यही से शुरू हुए सफर ने ब्रिटिश राज के खिलाफ क्रांतिकारी आंदोलन की ऐसी नींव रखी कि आखिर कार अंग्रेजों को इस देश पर जमे अपने कब्जे को छोड़ कर जाना ही पड़ा। बंगाल के मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में त्रैलोक्य नाथ बोस के घर 3 दिसंबर 1889 को खुदीराम बोस का जन्म हुआ था लेकिन बहुत ही कम उम्र में उनके सिर से माता-पिता का साया उठ गया। माता-पिता के निधन के बाद उनकी बड़ी बहन ने मां-पिता की भूमिका निभाई और खुदीराम का लालन-पालन किया था। इतना तय है कि उनके पलने-बढ़ने के दौरान ही उनमें प्रतिरोध की चेतना भी विकसित हो रही थी। दिलचस्प बात यह है कि खुदीराम ने अपनी स्कूली जिंदगी में ही राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। तब वे प्रतिरोध जुलूसों में शामिल होकर ब्रिटिश सत्ता के साम्राज्यवाद के खिलाफ नारे लगाते थे, अपने उत्साह से सबको चकित कर देते थे। यही वजह है कि किशोरावस्था में ही खुदीराम बोस ने अपने भीतर के हौसले को उड़ान देने के लिए सत्येन बोस को खोज लिया और उनके नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध मैदान में कूद पड़े थे।  तब 1905 में बंगाल विभाजन के बाद उथल-पुथल का दौर चल रहा था। उनकी दीवानगी का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उन्होंने नौंवीं कक्षा की पढ़ाई भी बीच में ही छोड़ दी और अंग्रेजों के खिलाफ मैदान में कूद पड़े। तब रिवोल्यूशनरी पार्टी अपना अभियान जोर-शोर से चला रही थी और खुदीराम को भी एक ठौर चाहिए था जहां से यह लड़ाई ठोस तरीके से लड़ी जाए। खुदीराम बोस ने डर को कभी अपने पास फटकने नहीं दिया, 28 फरवरी 1906 को  वे सोनार बांग्ला नाम का एक इश्तिहार बांटते हुए पकड़े गए लेकिन उसके बाद वह पुलिस को चकमा देकर भाग निकले। 16 मई 1906 को पुलिस  ने उन्हें दोबारा गिरफ्तार कर लिया लेकिन इस बार उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। इसके पीछे वजह शायद यह रही होगी कि इतनी कम उम्र का बच्चा किसी बहकावे में आकर ऐसा कर रहा होगा लेकिन यह ब्रिटिश पुलिस के आकलन की चूक थी। खुदीराम उस उम्र में भी जानते थे कि उन्हें क्या करना है और क्यों करना है। अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ उनका जुनून बढ़ता गया और 6 दिसंबर 1907 को बंगाल के नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर आंदोलनकारियों के जिस छोटे से समूह ने बम विस्फोट की घटना को अंजाम दिया, उसमें खुदीराम प्रमुख थे। इतिहास में दर्ज है कि तब कलकत्ता में किंग्सफोर्ड चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट को बहुत ही सख्त और बेरहम अधिकारी के तौर पर जाना जाता था। वह ब्रिटिश राज के खिलाफ खड़े होने वाले लोगों पर बहुत जुल्म ढाता था। उसके यातना देने के तरीके बेहद बर्बर थे जो आखिरकार किसी क्रांतिकारी की जान लेने पर ही खत्म होते थे। बंगाल विभाजन के बाद उभरे जनाक्रोश के दौरान लाखों लोग सड़कों पर उतर गए और तब बहुत सारे भारतीयों को मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड ने क्रूर सजाएं सुनाईं। इसके बदले ब्रिटिश हुकूमत ने उसकी पदोन्नति कर दी और मुजफ्फरपुर जिले में सत्र न्यायाधीश बना दिया। उसके अत्याचारों से तंग जनता के बीच काफी आक्रोश फैल गया था। इसीलिए युगांतर क्रांतिकारी दल के नेता वीरेंद्र कुमार घोष ने किंग्सफोर्ड मुजफ्फरपुर में मार डालने की योजना बनाई और इस काम की जिम्मेदारी खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी को दी गई। तब तक बंगाल के इस वीर खुदीराम को लोग अपना आदर्श मानने लगे थे। बहरहाल, खुदीराम और प्रफुल्ल, दोनों ने किंग्सफोर्ड की समूची गतिविधियों, दिनचर्या, आने-जाने की जगहों की पहले रेकी की और अपनी योजना को पुख्ता आधार दिया। उस योजना के मुताबिक दोनों ने किंग्सफोर्ड की बग्घी पर बम से हमला भी किया लेकिन उस बग्घी में किंग्सफोर्ड की पत्नी और बेटी बैठी थी और वही हमले का शिकार बनीं और मारी गईं। इधर खुदीराम और प्रफुल्ल हमले को सफल मान कर वहां से भाग निकले लेकिन जब बाद में उन्हें पता चला कि उनके हमले में किंग्सफोर्ड नहीं, दो महिलाएं मारी गईं तो दोनों को इसका बहुत अफसोस हुआ लेकिन फिर भी उन्हें भागना था और वे बचते-बढ़ते चले जा रहे थे। प्यास लगने पर एक दुकान वाले से खुदीराम बोस ने पानी मांगा जहां मौजूद पुलिस को उनपर शक हुआ और खुदीराम को गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन प्रफुल्ल चाकी ने खुद को गोली मार ली। बम विस्फोट और उसमें दो यूरोपीय महिलाओं के मारे जाने के बाद ब्रिटिश हुकूमत के भीतर जैसी हलचल मची थी,  उसमें गिरफ्तारी के बाद फैसला भी लगभग तय था। खुदीराम ने अपने बचाव में साफ तौर पर कहा कि उन्होंने किंग्सफोर्ड को सजा देने के लिए ही बम फेंका था। जाहिर है, ब्रिटिश राज के खिलाफ ऐसे सिर उठाने वालों के प्रति अंग्रेजी राज का रुख स्पष्ट था, लिहाजा खुदीराम के लिए फांसी की सजा तय हुई। 11 अगस्त 1908 को जब खुदीराम को फांसी के तख्ते पर चढ़ाया गया, तब उनके माथे पर कोई शिकन नहीं थी, बल्कि चेहरे पर मुस्कुराहट थी। यह बेवजह नहीं है कि आज भी इतिहास में खुदीराम महज ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ नहीं बल्कि किसी भी जन-विरोधी सत्ता के खिलाफ लड़ाई के सरोकार और लड़ने के हौसले के प्रतीक के रूप में ताकत देते हैं। कुमार कृष्णन 

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शख्सियत समाज साक्षात्‍कार

मंगल पांडे : भारतीय स्वाधीनता संग्राम के “अग्रदूत”

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स्वाधीनता सेनानी मंगल पांडे की जयंती 19 जुलाई पर विशेष….. प्रदीप कुमार वर्मा “शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर वर्ष मेले, वतन पर मिटने वालों का यही आखरी निशां होगा…” मां भारती की आन,बान और शान की खातिर मर मिटने तथा उसे गुलामी की बेड़ियों से मुक्त कराने वाले शहीदों का अब यही फलसफा बाकी है। आज से करीब दो सौ साल पहले जन्मे महान स्वाधीनता सेनानी मंगल पांडे की आज जयंती है। शहीद मंगल पांडे का नाम भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में एक ऐसे अमर सेनानी के रूप में दर्ज है, जिसने ब्रिटिश फ़ौज में शामिल रहते हुए देशभक्ति का जज्बा बुलंद किया और यूनियन जैक के सामने एक चुनौती पेश की। महान शहीद मंगल पांडे ने ब्रिटिश हुकूमत के निर्देशों को मानने से इनकार कर दिया और सैन्य छावनी में ही कई अंग्रेज अफसर को मौत के घाट उतार दिया। मंगल पांडे के इस कदम से ब्रिटिश सेना भौचक्की रह गई और उन पर मुकदमा चला। इसके बाद उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया। लेकिन एक अमर सेनानी और प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत के रूप में मंगल पांडे आज भी लोगों के दिलों में जिंदा हैं।       गुलामी की वीडियो से मां भारती को आजाद कराने की लड़ाई में भागीदारी करने वाले क्रांतिकारी मंगल पांडे का जन्म 19 जुलाई 1827 को यूपी के बलिया जिले के नगवा गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता दिवाकर पांडे तथा माता का नाम अभय रानी था। वर्ष 1849 में मंगल पांडे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में शामिल हुए और बैरकपुर की सैनिक छावनी में बंगाल नेटिव इन्फैंट्री यानी बीएनआई की 34 वीं रेजीमेंट के पैदल सेना के सिपाही रहे। मंगल पांडे के मन में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्वार्थी एवं भारत विरोधी नीतियों के कारण अंग्रेजी हुकुमत के प्रति पहले ही नफरत थी। उस दौरान ब्रिटिश सेना की बंगाल यूनिट में ‘ पी.-53’ राइफल आई। जिसमें कारतूसों को राइफल में डालने से पहले मुंह से खोलना पड़ता था। उस जमाने में सैनिकों के बीच ऐसी खबर फैल गई कि इन कारतूसों को बनाने में गाय तथा सूअर की चर्बी का प्रयोग किया गया है। ऐसे में हिन्दू और मुसलमानों में प्रचलित धार्मिक मान्यताओं के चलते दोनों धर्मों के सैनिकों के मन में अंग्रजों के खिलाफ आक्रोश पैदा हो गया।        फिर आई वह 9 फरवरी 1857 की तारीख, जब यह कारतूस पैदल सेना को बांटा गया। तब मंगल पांडेय ने उसे न लेने को लेकर विद्रोह के अपने इरादे जता दिए। इस बात से गुस्साए अंग्रेजी अफसर द्वारा मंगल पांडे से उनके हथियार छीन लेने और वर्दी उतरवाने का आदेश दिया, जिसे मानने से मंगल पांडे ने इनकार कर दिया। आज़ादी की खातिर मर-मिटने का जज्बा दिल में लिए मंगल पांडे ने रायफल छीनने आगे बढ़ रहे अंग्रेज अफसर मेजर ह्यूसन पर आक्रमण किया तथा उसे मौत के घाट उतार दिया। यही नहीं उनके रास्ते में आए दूसरे एक और अंग्रेज अधिकारी लेफ्टिनेंट बॉग को भी मौत के घाट उतार दिया। और इस तरह मंगल पांडे ने ब्रिटिश सेना की बैरकपुर छावनी में 29 मार्च 1857 को अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल बजा दिया। यही वजह है कि भारतीय स्वाधीनता संग्राम की गाथा लिखने वाले इतिहासकार मंगल पांडे को आजादी की लड़ाई का “अगदूत” मानते हैं। भारतीय इतिहास में इस घटना को ‘1857 का गदर’ नाम दिया गया है।             इस घटना के बाद मंगल पांडे को अंग्रेजी सेना के सिपाहियों ने गिरफ्तार किया। उन पर कोर्ट मार्शल द्वारा मुकदमा चलाया और फांसी की सजा सुना दी गई। कोर्ट के फैसले के अनुसार उन्हें 18 अप्रैल 1857 को फांसी दी जानी थी। अंग्रेजी हुकूमत को इस बात का अंदेशा था कि मंगल पांडे को फांसी की सजा दिए जाने वाले दिन कोई बड़ा विद्रोह और जनता में आक्रोश हो सकता है। इस बात को भांपते हुए अंग्रेजों द्वारा 10 दिन पूर्व ही यानि 8 अप्रैल सन 1857 को ही मंगल पांडे को फांसी दे दी गई। इस घटना ने भारतीय सैनिकों में असंतोष को और बढ़ाया और मेरठ में 10 मई 1857 को विद्रोह की चिंगारी भड़की, जिससे पूरे उत्तर भारत में विद्रोह फैल गया। मंगल पांडे का बलिदान और विद्रोह ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा दी और देशवासियों को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होने के लिए प्रेरित किया। ब्रिटिश सेवा में माया सिपाही होने के बावजूद उन्होंने देशभक्ति की खातिर यूनियन जैक को ललकारा था।        अमर शहीद मंगल पांडे ने भारत में ब्रिटिश उपनिवेश को उखाड़ फेंकने का आगाज कर दिया था। मंगल पांडे द्वारा लगायी गयी विद्रोह की यह चिंगारी बुझी नहीं। करीब एक महीने बाद ही 10 मई सन 1857 को मेरठ की छावनी में कोतवाल धनसिंह गुर्जर के नेतृत्व में बगावत हो गयी। मेरठ में भारतीय सैनिकों ने ब्रिटिश अधिकारियों को मार डाला। इसके बाद विद्रोही सैनिक दिल्ली की ओर बढ़े और बहादुर शाह जफर को अपना नेता घोषित किया। इसके बाद लखनऊ में भीषण संघर्ष हुआ, जहां भारतीय सैनिकों ने ब्रिटिश रेजीडेंसी पर हमला किया।  इस दौरान बेगम हज़रत महल और अन्य नेताओं ने विद्रोह का नेतृत्व किया। मेरठ और लखनऊ के बाद विद्रोह की आज कानपुर तक आ पहुंची ,जहां नाना साहेब ने कानपुर में विद्रोह का नेतृत्व किया और ब्रिटिश सैनिकों पर हमला किया। यह विद्रोह अत्यधिक हिंसक था और  इसमें कई ब्रिटिश नागरिक भी मारे गए। महान स्वाधीनता सेनानी रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी में विद्रोह का नेतृत्व किया।             इसके बाद आजादी की लड़ाई का दायरा पूरे बुंदेलखंड तक पहुंच गया।  इस विद्रोह को कुचलना के लिए अंग्रेजी सेना ने झांसी पर हमला कर दिया जहां रानी लक्ष्मीबाई ने बहादुरी से ब्रिटिश सेना का सामना किया और अंततः लड़ते हुए शहीद हो गईं। प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान देश के कई हिस्सों में हुए इस विद्रोह के बाद अंग्रेजों को स्पष्ट संदेश मिल गया कि अब भारत पर राज्य करना उतना आसान नहीं है। देश की आजादी के लिए क्रांति की ज्वाला को प्रज्वलित करने वाले मां भारती के इस वीर सपूत मंगल पांडे की आज जयंती है। भारत में पांडे को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में याद किया जाता है। अमर शहीद मंगल पांडे की स्मृति में बैरकपुर में उनके नाम पर एक पार्क है। यही नहीं वर्ष 1984 में भारत सरकार द्वारा उनकी छवि वाला एक स्मारक डाक टिकट भी जारी किया गया था। इसके अलावा वर्ष 2005 में मंगल पांडे के जीवन और उनकी शहादत पर आधारित फिल्म मंगल पांडे : ” द राइजिंग” भी बनी,जिसमें आमिर खान ने मंगल पांडे की भूमिका निभाई।

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मनोरंजन महत्वपूर्ण लेख समाज साक्षात्‍कार

सुनता नहीं कोई हमारी, क्या जमाना बहरा हो गया

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डा. विनोद बब्बर  गत दिवस देश की राजधानी से सटे नोएडा के एक ओल्डऐज होम में लोगों की दुर्दशा के समाचार ने मानवता के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। वृद्धाश्रम पहुंची पुलिस और समाचार कल्याण विभाग की टीम हैरान थी। एक बुजुर्ग महिला को बांध के रखा गया था तो बेसमेंट के कमरों में जो वृद्ध पुरुष कैद थे, उनके वस्त्र मल मूत्र से सने हुए और दुर्गंध दे रहे थे। पूरा दृश्य किसी नर्क से बढ़कर था। विशेष यह कि इस ओल्ड होम में दयनीय हालत रहने वाले वृद्धों के परिजनों की ओर से मासिक शुल्क भी दिया जा रहा था।  प्रश्न यह है कि जब परिजन हजारों रुपया प्रतिमा शुल्क देने की स्थिति में है तो वे अपने बुजुर्ग माता-पिता को अपने साथ क्यों नहीं रखते? जिन माता-पिता ने उन्हें पाला संभाला, शिशुपन में उनके मल मूत्र साफ किया और स्वयं कष्ट सहकर भी उनके सुख सुविधा का पूरा ध्यान रखा, उन्हें अपने से अलग करते हुए क्या उन कलयुगी संतानों ने जरा भी नहीं सोचा? पाषाण हृदय संतानों को स्वतंत्रता पसंद है या वे अपने वृद्ध अभिभावकों को बोझ मानते हैं? दुखद आश्चर्य यह है कि जिस भारत में बुजुर्गो की सेवा-सम्मान की परम्परा रही है। जहां लगातार गाया, दोहराया जाता है- अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम।। जो अपने बुजुर्गों की सेवा और सम्मान करते हैं उनकी आयु, विद्या, कीर्ति और बल में वृद्धि होती है। वहाँ तेजी से वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ रही है। इस नैतिक पतन के लिए कुछ लोग ऋषि संस्कृति की भूमि भारत में पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव को जिम्मेवार ठहराते हैं तो अधिकांश लोगों के मतानुसार विखण्डित होते संयुक्त परिवार, शहरीकरण, बेलगाम सोशल मीडिया और उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण स्थित बदली है। आश्चर्य है कि आज शहर से गांव तक प्रत्येक व्यक्ति दिन में कई कई घंटेअपने स्मार्टफोन को देता है लेकिन उनके पास अपने ही वृद्ध माता-पिता के पास बिताने के लिए कुछ मिनट भी नहीं है। शायद मान्यताओं में बदलाव के कारण बुजुर्गों को बोझ  बना दिया है। उन्हें न अच्छा खाना दिया जाता है न ही साफ-सुथरे कपड़े। यहां तक कि उनके उपचार को भी जरूरी नहीं समझा जाता। उचित देखभाल के अभाव में वृद्धों को शारीरिक व मानसिक कष्ट बढ़ जाता है। वे छोटे-छोटे कामों और जरूरतों के लिए दूसरों के मोहताज हो जाते हैं। हर कली अपने यौवन में फूल बनकर अपनी सुगंध बिखेरती है तो एक सीमा के बाद उसमें मुरझाहट दिखाई देने लगती है। मनुष्य जीवन भी प्रकृति के इस चक्र के अनुसार ही चलता है।  बचपन, जवानी के बाद वृद्धावस्था प्रकृति का सत्य है। वृद्धावस्था को जीवन का अभिशाप मानते हैं क्योंकि इस अवस्था के आते-आते शरीर के सारे अंग शिथिल पड़ जाते हैं और इंसान की जिंदगी दूसरों की दया-कृपा पर निर्भर करती है। दूसरों पर आश्रित जिंदा रहना उस बोझ महसूस लगने लगता है और वह चाहता है कि उसे जितनी जल्दी हो सके, ज़िंदगी से छुट्टी मिल जाए। प्रत्येक व्यक्ति जीवन भर कड़ी मेहनत कर जो कुछ भी बनाता है ताकि जीवन की सांझ सम्मान सहित कम से कम कठिनाई से बीते। लेकिन, जब हम अपने परिवेश में नजर दौड़ाते हैं तो इसके विपरीत दृश्य देखने को मिलते हैं। अनेक बुजुर्गों को बुढ़ापे में दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं। उन्हें न तो सिर छिपाने के लिए छत, खाने को दो जून की रोटी और तन ढकने के लिए कपड़ा भी उपलब्ध नहीं हो पाता। बुढ़ापा आते ही वह अकेला पड़ने लगता है जहां उसकी सुनने वाला कोई नहीं होता। यहाँ तक कि जिन बच्चों की खातिर वह अपना सब कुछ लुटाता है, वही उसे सिरदर्द समझने लगते हैं। उसकी उपेक्षा करते हं। यह दृश्य किसी एक घर, गाँव, या नगर की विेशेष समस्या नहीं है बल्कि हर तरफ ऐसा या लगभग ऐसा देखने, सुनने को मिलता है। वर्तमान की संस्कारविहीन शिक्षा के कारण अपनी संतान ही अपनी नन्हीं अंगुलियां थामने वाले बूढ़े माँ-बाप से छुटकारा पाने के बहाने तलाशने लगी है। उन्हें यह स्मरण नहीं रहता कि वह उन्हीं माँ-बाप की कड़ी मेहनत, त्याग, समर्पण के कारण ही किसी मुकाम तक पहुंचे हैं। जिन्होंने अपनी संतान को सुखी, समृद्ध, सम्मानपूर्वक जीवन जीने के योग्य बनाने का सपना साकार करने के लिए अपना जीवन होम किया हो, यदि वे जीवन की संध्या में असहाय, अभावग्रस्त है तो लानत है उस संतान पर। वास्तव में वे संताने अधम हो धरती पर बोझ हैं। वृक्ष जब तक छायादार और फलदार रहता है, अपनी सेवाएं देता है। सूखने और जर्जर होने पर भी वह जाते जाते लकड़ी देकर जाता है। वृद्धावस्था जीवन का अखिरी चरण है, जब परिवार को उन्हें ऐसा वातावरण उपलब्ध कराना चाहिए जिससे उन्हें अपनी संतति पर गर्व हो। उनके पास अनुभवों, संस्मरणों, स्मृतियों की अमूल्य धरोहर हैं जिसे प्रापत कर सुरक्षित, संरक्षित करना उनके बाद की पीढ़ी का कर्तव्य है। ऐसा भी नहीं है कि समाज से वृद्धों के सम्मान की भावना लृप्त हो चुकी है। आज भी अनेकानेक ऐसे परिवार है जहां अपने बुजुर्गों का बहुत सम्मान होता है। लेकिन ऐसे परिवारों की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है। आज विवाह के पश्चात ‘पति-पत्नी ही संसार है, शेष सब बेकार है’ की अवधारणा बलवती हो रही है। वृद्धों के सम्मान की श्रेष्ठ मानवीय गुणों को प्रसारित करने वाली भारतीय संस्कृति से विचलित होने के दुष्परिणाम समाज को उस रहे हैं। श्रवण कुमार के देश में आत्मकेन्द्रित होती पीढ़ी संयुक्त परिवार के तमाम गुणों और लाभों को समझने को तैयार ही नहीं है। एकाकी परिवार भी लगता है पीछे छूट रहा है। हर व्यक्ति एकाकी हो रहा है। क्योंकि उन्हें स्वतंत्रता नहीं, ‘स्वच्छन्दता’ चाहिए। सुविधाएं तो सारी चाहिए लेकिन जिम्मेवारी एक भी नहीं। ऐसे में वृद्धावस्था उपेक्षित हो रही है। यह स्थिति केवल वृद्धों के लिए ही कष्टकारी नहीं है बल्कि भावी पीढ़ी के साथ भी बहुत बढ़ा अन्याय और अत्याचार है। आज जब माता-पिता दोनो कामकाजी हैं ऐसे में बच्चे क्रैच में या नौकरों के हवाले। उन्हें लाड़ और संस्कार कौन दें? यदि हम दादा-दादी को पाते-पोतियों से जोड़ दें तो ‘विवशता’ और ‘आवश्यकता’ मिलकर समाज की ‘कर्कशता’ को काफी हद तक दूर कर सकते हैं।  शहरों की इस नई आधुनिक शैली में लोग अपने-आपको इतना व्यस्त पाते है कि उनके पास परिवार में एक-दूसरे से बात करने का समय तक नहीं है या वे एक- दूसरे के साथ बैठकर बातचीत करने की जरूरत ही नहीं समझते। बूढ़ों से बातचीत करना तो आज के युवक समय की बर्बादी ही समझते हैं तो क्या वृद्धों की समाज में उपयोगिता नहीं? पूरे जीवन में अनगिनत कष्ट उठाकर अर्जित किया गया अनुभव क्या समाज के किसी काम का नहीं? यह सही है कि आज के जीवन में मनुष्य की व्यस्तताएं बहुत बढ़ गई हैं। लेकिन सोशल मीडिया और टीवी में डूबे रहने वाले समय की कमी का बहाना नहीं बना सकते। आज बुजुर्गों की स्थिति उस कैलेण्डर जैसी हो गई है जिसे नये वर्ष का केलेण्डर आते ही रद्दी की टोकरी में डाल दिया जाता है या फिर कापी किताबों पर जिल्द चढ़ाने के काम में लिया जाता है। इसे ‘पीढ़ियों का अंतर’ कहकर अनदेखा करना मानव होने पर प्रश्नचिन्ह है। तेजी से स्मार्ट (?) हो रहे दौर में परिवार के मुखिया रहे व्यक्ति की दुर्दशा स्मार्टनेस का नहीं, शेमलेस होने का प्रमाण है। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह किसी एक परिवार, एक नगर, प्रदेश अथवा देश की कहानी नहीं है।पूरे विश्व में बुजुर्गों के समक्ष न केवल अपने आपको बचाने बल्कि शारीरिक सक्रियता, आर्थिक विपन्नता की बढ़ी चुनौती है। यूरोप के विकसित देशों में वृद्धों को सरकार की ओर से अनेक प्रकार की सुविधा दी जाती है लेकिन हमारे अपने देश में रेल यातायात में मिलने वाली छूट को हटाने की ताक में बैठे नौकरशाहों को कोरोना ने अवसर उपलब्ध करा दिया। आज देश भर में बुजुर्गों को यातायात के नाम पर कोई छूट नहीं है। गुजरात सहित कुछ राज्यों में तो राज्य परिवहन की बसों में महिलाओं के लिए तो कुछ सीटे आरक्षित है परंतु वृद्धों के लिए एक भी सीट आरक्षित नहीं है। भारत जैसे देश में जहां वृद्धों की संख्या तेजी से बढ़ रही है परंतु उनकी समस्याओं की ओर समाज और सरकार का ध्यान बहुत कम है।  पश्चिम के समृद्ध देशों की छोड़िये, भारतीय मूल के छोटे देश मॉरीशस में भी वृद्धों के कल्याण के लिए अनेक कार्यक्रम है। वहां प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक को आकर्षक पेंशन, आजीवन निःशुल्क यातायात और स्वास्थ्य सेवाएं सहित अनेक सुविधाएं प्रदान की जाती है जबकि दूसरी ओर हमारे यहां  बुजुर्ग महिलाओं तथा ग्रामीण क्षेत्र में रहनेवाले बुजुर्गो आर्थिक संकटों से जूझने को विवश है। यदि कही पेंशन योजना है भी तो नाममात्र की राशि के साथ बहुत सीमित लोगों को ही उपलब्ध है। ऐसे में वे किसी तरह जीवन को घसीट रहे हैं। अकेले रहने को विवश बुजुर्गों को नित्य प्रति बढ़ रहे अपराधों से हर समय खतरा बना रहता है। इधर सर्वत्र ऑनलाइन लेन-देन के कारण उनके विरूद्ध साइबर क्राइम भी बढ़ रहे है। यह संतोष की बात है मोदी सरकार ने 70 से अधिक आयु वाले सभी नागरिकों के उपचार की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए आयुष्मान योजना लागू की है। इस योजना के अंतर्गत केंद्र सरकार की ओर से पांच लाख रुपए तक के वार्षिक उपचार निजी अस्पताल में करने का प्रावधान है। दिल्ली सहित कुछ राज्यों ने इस योजना में अपना अंशदान देते हुए उपचार की राशि को 5 से बढ़कर 10 लख रुपए कर दिया है  लेकिन सरकार स्वयं 60 वर्ष के व्यक्ति को सेवानिवृत्ति कर देती है तो असंगठित क्षेत्र की स्थिति को समझा जा सकता है। अच्छा हो यदि इस  योजना का लाभ सभी वरिष्ठ नागरिकों को दिया जाए। इस योजना के अंतर्गत अस्पताल में दाखिल होने पर ही उपचार के प्रावधान को बदल जाना चाहिए ताकि जीवन भर परिवार समाज को अपना श्रेष्ठ देने वाले वरिष्ठ नागरिकों की नियमित जांच सुनिश्चित हो सके। कुछ राज्य सरकारें कुछ वरिष्ठ नागरिकों को बुढ़ापा पेंशन देती है जबकि आवश्यकता है कि प्रत्येक वृद्ध व्यक्ति को बुढ़ापा पेंशन के साथ-साथ, अकेले वृद्धों का पुनर्वास सुनिश्चित करना चाहिए। वृद्धाश्रम (ओल्डहोम) में रहने वालों के लिए देहदान का नियम हो ताकि माता-पिता की उपेक्षा करने वालों को उनकी मृत्यु के बाद नाटक करने और नकली टस्सुए बहाने का मौका ही न मिलें। जीते जी माँ-बाप को न पूछने वालों द्वारा आयोजित दिखावे के श्राद्ध का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए।   वरिष्ठ नागरिकों को भी अपनी सक्रियता और वाणी में मधुरता बरकरार रखनी चाहिए। यदि वे समाज ‘उपयोगी’ बने रहेंगे तो उनकी स्थिति निश्चित रूप से बेहतर होगी। अपने पास यदि कुछ धन, सम्पत्ति है तो उसकी वसीयत जरूर करें लेकिन सब सौंपने से पूर्व भावना के बहाव में बहने से बचते हुए गंभीर होकर निर्णय करें।  डा. विनोद बब्बर 

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