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हाइड्रोपोनिक खेती: भविष्य की दिशा या सीमित समाधान?

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सचिन त्रिपाठी  भारत कृषि प्रधान देश है परंतु कृषि आज भी एक असुरक्षित, अनिश्चित और घाटे का सौदा बनी हुई है। भूमि क्षरण, जल संकट, मौसम की मार, लागत में वृद्धि और बाजार की अस्थिरता ने किसानों को वैकल्पिक तकनीकों की ओर देखने के लिए मजबूर कर दिया है। ऐसे में ‘हाइड्रोपोनिक’ खेती अर्थात मिट्टी रहित, नियंत्रित वातावरण में पौधों की खेती को कृषि क्षेत्र के भविष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है लेकिन प्रश्न यह है कि क्या यह तकनीक भारत के किसानों के लिए व्यावहारिक और टिकाऊ समाधान बन सकती है? हाइड्रोपोनिक खेती की शुरुआत नीदरलैंड, इजरायल और अमेरिका जैसे देशों में हुई जहां भूमि और जल की सीमित उपलब्धता ने वैज्ञानिकों को नियंत्रित खेती की दिशा में प्रयोग के लिए प्रेरित किया। आज इजरायल इस तकनीक में वैश्विक अगुवा है जहाँ रेगिस्तानी क्षेत्रों में अत्याधुनिक हाइड्रोपोनिक फार्म फसल उत्पादन कर रहे हैं। अमेरिका और कनाडा में यह तकनीक शहरी कृषि, सुपरमार्केट और ग्रीन रेस्टोरेंट्स के लिए ताज़ी सब्जियों की आपूर्ति का मुख्य आधार बन चुकी है। जापान और सिंगापुर जैसे देश जहां कृषि भूमि सीमित है, वहां हाइड्रोपोनिक्स वर्टिकल फार्मिंग के साथ जोड़ा गया है। भारत में इस तकनीक को अब धीरे-धीरे अपनाया जा रहा है, विशेष रूप से बड़े शहरों और कुछ विकसित राज्यों में। बेंगलुरु, पुणे, हैदराबाद, गुरुग्राम, अहमदाबाद जैसे शहरों में कई निजी स्टार्टअप शहरी हाइड्रोपोनिक फार्मिंग को बढ़ावा दे रहे हैं। महाराष्ट्र, तमिलनाडु, हरियाणा और तेलंगाना की सरकारों ने इस तकनीक के लिए कुछ प्रोत्साहन योजनाएं भी चलाई हैं। हालांकि भारत में अब तक यह तकनीक प्रायोगिक और व्यावसायिक सीमित क्षेत्रों तक ही केंद्रित है। गांवों या छोटे किसानों में इसका प्रसार नगण्य है। भारत सरकार की ‘स्मार्ट एग्रीकल्चर’ और ‘डिजिटल इंडिया’ पहल के तहत नवीन कृषि तकनीकों को बढ़ावा देने की दिशा में कुछ प्रयास हो रहे हैं। कृषि मंत्रालय ने ‘प्रिसिजन फार्मिंग’ और ‘कंट्रोल्ड एनवायरनमेंट एग्रीकल्चर’ को प्राथमिकता क्षेत्र बताया है और विभिन्न राज्य सरकारें स्टार्टअप्स को सहायता दे रही हैं परंतु, जमीनी स्तर पर इसे अपनाने में अभी भी कई बाधाएं हैं ,खासकर पूंजी, प्रशिक्षण और बुनियादी ढांचे की सीमाओं के कारण। हाइड्रोपोनिक सिस्टम की स्थापना में प्रति एकड़ ₹25 लाख से अधिक का खर्च आता है। 86% भारतीय किसान सीमांत और छोटे हैं जिनकी वार्षिक कृषि आय ₹1 लाख से भी कम है। यह तकनीक उनके लिए सुलभ नहीं है। यह खेती ‘लो टेक’ नहीं है। पीएच बैलेंस, इलेक्ट्रिकल कंडक्टिविटी, नमी नियंत्रण, पोषक घोल का ज्ञान  ये सब आवश्यक हैं। ग्रामीण किसानों के पास इसके लिए प्रशिक्षण और संसाधन नहीं हैं। सतत और गुणवत्ता युक्त जल तथा बिजली की उपलब्धता इस तकनीक की रीढ़ है। भारत के अनेक गांवों में अभी भी ये आधारभूत सुविधाएं बाधित रहती हैं। हाइड्रोपोनिक उत्पादों की मांग फिलहाल शहरी उच्च वर्ग तक सीमित है। बाजार की सीमाएं और मूल्य अस्थिरता इसे जोखिम भरा बना देती हैं। भारत में एक समान नीति लागू नहीं की जा सकती। जल संकट से जूझते राज्यों (जैसे राजस्थान, तमिलनाडु) और शहरी क्षेत्रों के पास स्थित बेल्ट्स को प्राथमिकता दी जाए।  एफपीओ, एसएचजी या कृषि स्टार्टअप्स के माध्यम से साझा हाइड्रोपोनिक यूनिट्स को प्रोत्साहित किया जाए ताकि लागत और जोखिम का बंटवारा हो। केवीके और कृषि विश्वविद्यालयों के माध्यम से व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाए। अनुसंधान संस्थानों को भारतीय जलवायु के अनुकूल प्रणाली विकसित करने की दिशा में कार्य करना चाहिए।  नाबार्ड और अन्य वित्तीय संस्थानों को हाई रिस्क कृषि निवेश के लिए विशेष स्कीम लानी चाहिए। बीमा सुरक्षा और मूल्य गारंटी योजना तकनीक को अपनाने में सहायक होगी। हाइड्रोपोनिक खेती कोई ‘मैजिक बुलेट’ नहीं है जो सभी समस्याओं का समाधान कर दे। परंतु यह तकनीक भारत के बदलते कृषि संदर्भ में एक महत्वपूर्ण उपकरण बन सकती है यदि इसे व्यवस्थित, नीति-सहायक और क्षेत्रीय जरूरतों के अनुसार लागू किया जाए। यह तकनीक उन किसानों के लिए व्यवहारिक है जो शहरी मांगों से जुड़े हैं, पूंजी और तकनीकी पहुंच रखते हैं, या जो संगठित समूहों के तहत काम करते हैं। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में, एक तकनीक सभी के लिए नहीं हो सकती, लेकिन सही क्षेत्र, सही समूह और सही नीति के तहत हाइड्रोपोनिक खेती भविष्य की दिशा तय कर सकती है। सचिन त्रिपाठी 

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खेत-खलिहान पर्यावरण लेख

स्वच्छता एवं नशामुक्ति के क्षेत्र में अतुलनीय कार्य करते सामाजिक संगठन

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इस धरा पर जन्म लेने वाले प्रत्येक जीव के लिए प्रकृति ने पर्याप्त खाद्य पदार्थ दिए हैं परंतु अति लालच के चलते मानव ने प्रकृति का शोषण करना शुरू कर दिया है। इसमें कोई अब कोई संदेह नहीं रह गया है कि मानव ने अपनी जिंदगी को आसान बनाने के लिए पर्यावरण का अत्यधिक नुक्सान किया है और इसका परिणाम आज उसे ही भुगतना भी पड़ रहा है। कई देशों में तो भयंकर गर्मी में वहां के जंगलों में आग लगने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं जिनसे जान और माल की भारी हानि हो रही है। हम पर्यावरण के सम्बंध में बढ़ चढ़ कर चर्चाएं तो करते हैं परंतु आज हमारे गावों में खेत, प्लाटों में परिवर्तित हो गए हैं। हमारे खेतों पर शोपिंग काम्प्लेक्स एवं माॅल खड़े हो गए हैं जिससे हरियाली लगातार कम होती जा रही है।   बीते कुछ वर्षों में कंकरीट की इमारतों में अत्यधिक वृद्धि एवं भूमि प्रयोग में बदलाव के चलते भारत में भी तापमान लगातार बढ़ रहा है। देश के महानगर अर्बन हीट आइलैंड बन रहे हैं। अर्बन हीट आइलैंड वह क्षेत्र होता है जहां अगल-बगल के इलाकों से अधिक तापमान रहता है। कई स्थानों पर अत्यधिक गर्मी के पीछे अपर्याप्त हरियाली, अधिक आबादी, घने बसे घर और इंसानी गतिविधियां जैसे गाडियों और गैजेट से निकलने वाली हीट आदि कारण जिम्मेदार हो सकते हैं। कार्बन डाईआक्साइड और मेथेन जैसी ग्रीन हाउस गैसों एवं कूड़ा जलाने से भी गर्मी बढ़ती है। राजधानी दिल्ली का उदाहरण हमारे सामने है। जहां चारों दिशाओं में बने डंपिंग यार्डों में आग लगी ही रहती है और लोगों का सांस लेना भी अब दूभर हो रहा है।  भारत ने वर्ष 2070 तक नेट जीरो यानी कार्बन उत्सर्जन रहित अर्थव्यवस्था का लक्ष्य तय किया हुआ है। यद्यपि पर्यावरण रक्षा में भारत के प्रयास बहुआयामी रहे हैं लेकिन यह प्रयास तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक देशवासी प्राकृतिक संसाधनों का अनावश्यक अत्यधिक शोषण करना बंद नहीं करते। शहरों के बढ़ते तापमान की रोकथाम हेतु जरूरी है कि मौसम और वायु प्रवाह का ठीक तरह से नियोजन किया जाए। हरियाली का विस्तार, जल स्रोतों की सुरक्षा, वर्षा जल संचय, वाहनों एवं एयर कंडीशंस की संख्या की कमी से ही हम प्रचंड गर्मी को कम कर सकते हैं। पृथ्वी का तापमान घटेगा तभी मानव सुरक्षित रह पाएगा। उक्त संदर्भ में यह हम सभी भारतीयों के लिए हर्ष का विषय होना चाहिए कि हमारे देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन मौजूद हैं जो सदैव ही सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सेवा कार्य करने वाले संगठनों को साथ लेकर, देश पर आने वाली किसी भी विपत्ति में आगे आकर, सेवा कार्य करना प्रारम्भ कर देते हैं। भारत के पर्यावरण में सुधार लाने की दृष्टि से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने तो बाकायदा एक नई पर्यावरण गतिविधि को ही प्रारम्भ कर दिया है। जिसके अंतर्गत समाज में विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाले संगठनों को साथ लेकर संघ द्वारा देश में प्लास्टिक का उपयोग बिल्कुल नहीं करने का अभियान प्रारम्भ किया गया है और देश में अधिक से अधिक पेड़ लगाने की मुहिम प्रारम्भ की गई है। साथ ही, विभिन्न शहरों को स्वच्छ एवं नशामुक्त बनाने हेतु भी विशेष अभियान प्रारम्भ किए हैं। उदाहरण के तौर पर ग्वालियर को स्वच्छ, नशामुक्त एवं प्लास्टिक मुक्त शहर बनाने का बीड़ा उठाया गया है। इसी संदर्भ में ग्वालियर महानगर में विविध संगठनों के दायित्ववान कार्यकर्ताओं का दो दिवसीय शिविर आयोजित किया गया था। इस शिविर के एक विशेष सत्र में इस बात पर विचार किया गया कि ग्वालियर महानगर को स्वच्छ एवं नशामुक्त बनाया जाना चाहिए। उक्त शिविर के समापन के पश्चात उक्त समस्याओं के हल हेतु विविध संगठनों के दायित्ववान कार्यकर्ताओं की तीन बैठकें आयोजित की गईं। इन बैठकों में विस्तार से विचार करने के उपरांत यह निर्णय लिया गया कि कुछ चिन्हित कार्यकर्ताओं को विभिन्न मठ, मंदिरों, स्कूलों, संस्थानों आदि में विषय प्रस्तुत करने हेतु भेजा जाए ताकि उक्त समस्याओं के हल में समाज की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके। इस संदर्भ में चुने गए 60 कार्यकर्ताओं के लिए एक वक्ता कार्यशाला का आयोजन भी किया गया। इन चिन्हित कार्यकर्ताओं को विभिन संस्थानों में विषय प्रस्तुत करने हेतु भेजा गया था ताकि उक्त समस्याओं के हल करने हेतु समाज को भी साथ में लेकर कार्य को सम्पन्न किया जा सके।   साथ ही, ग्वालियर को प्रदूषण मुक्त सुंदर नगर बनाए जाने के अभियान को स्थानीय जनता के बीच ले जाने हेतु, माननीय श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के जन्म दिवस के शुभ अवसर पर दिनांक 25 दिसम्बर 2024 को, ग्वालियर के चुने हुए 29 चौराहों पर मानव शृंखलाएं बनाई गई थी, लगभग 8,000 नागरिकों ने इस मानव शृंखला में भागीदारी की थी। इसी प्रकार, ग्वालियर को व्यसन मुक्त नगर बनाए जाने के अभियान को स्थानीय जनता के बीच ले जाने हेतु, स्वामी विवेकानंद जी के जन्म दिवस एवं अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस के शुभ अवसर पर, दिनांक 12 जनवरी 2025 को एक विशाल मेराथन दौड़ का आयोजन किया गया था। इस कार्यक्रम के आयोजन में स्थानीय प्रशासन का भरपूर सहयोग प्राप्त हुआ एवं लगभग 6,000 नागरिकों ने इस मेराथन दौड़ में भाग लिया था।   संघ के ग्वालियर विभाग द्वारा ग्वालियर महानगर में अधिक से अधिक पेड़ लगाए जाने की मुहिम प्रारम्भ की गई। जिसके अंतर्गत ग्वालियर के कई विद्यालयों में वहां के शिक्षकों एवं विद्यार्थियों को साथ लेकर स्वयंसेवकों द्वारा नगर में भारी मात्रा में पौधारोपण किया गया। ग्वालियर की पहाड़ियों पर भी इस मानसून के मौसम के दौरान हजारों की संख्या में नए पौधे रोपे गए हैं। गजराराजा स्कूल, केआरजी महाविद्यालय एवं गुप्तेश्वर मंदिर की पहाड़ियों को तो पूर्णत: हरा भरा बना दिया गया है।  नगर के प्रबुद्ध नागरिकों द्वारा नगर के विद्यालयों, महाविद्यालयों, सामाजिक संगठनों, व्यावसायिक संगठनों, धार्मिक संगठनों, एवं नगर के विभिन्न चौराहों पर नागरिकों को शपथ दिलाई जा रही है कि “मैं ग्वालियर नगर को प्लास्टिक मुक्त बनाने हेतु, आज से प्लास्टिक का उपयोग बिल्कुल नहीं करूंगा”। अभी तक एक लाख से अधिक नागरिकों को यह शपथ दिलाई जा चुकी है। कई स्कूल, कई मंदिर एवं कई महाविद्यालय (लक्ष्मीबाई राष्ट्रीय शिक्षण संस्थान – एलएनआईपीई सहित) पोलिथिन मुक्त हो चुके हैं। इसी प्रकार, ट्रिपल आईटीएम प्रबंधन के प्रयास से संस्थान के आसपास दुकानदारों द्वारा मादक पदार्थों के बिक्री करना बंद कर दिया गया है। साथ ही, ग्वालियर महानगर में एक लाख से अधिक नागरिक, नशा नहीं करने का संकल्प ले चुके हैं। विभिन्न मठ, मंदिरों एवं गुरुद्वारों में भंडारों का आयोजन किया जाता है। इन भंडारों में अब प्रसादी को दोनों, पत्तलों में परोसा जाने लगा है एवं प्लास्टिक का उपयोग लगभग बंद कर दिया गया है। साथ ही, इन मंदिरों के आसपास प्रशासन एवं जनप्रतिनिधियों द्वारा डस्टबिन रखवाये गए हैं, ताकि कचरे को यहां वहां न फैला कर इन डस्टबीन में डाला जा सके। इससे, मठ, मंदिरों एवं गुरुद्वारों के आसपास के इलाके स्वच्छ रहने लगे हैं। ग्वालियर महानगर के जनप्रतिनिधि विभिन्न मैरिज गार्डन में जाकर इनके मालिकों से लगातार चर्चा कर रहे हैं कि इन मैरिज गार्डन में अमानक पॉलीथिन का उपयोग बिलकुल नहीं होना चाहिए। इसका असर यह हुआ है कि अब मैरिज गार्डन में होने वाले विभिन्न कार्यक्रमों में प्लास्टिक का उपयोग धीरे धीरे कम होता हुआ दिखाई दे रहा है।  नागरिकों को कपड़े से बने थैले भी उपलब्ध कराए जा रहे हैं, ताकि बाजारों से सामान खरीदते समय इन कपड़े के थैलों का इस्तेमाल किया जा सके और प्लास्टिक के उपयोग को तिलांजलि दी जा सके। प्लास्टिक के उपयोग को खत्म करने के उद्देश्य से गणेशोत्सव के पावन पर्व पर नगर में विभिन्न गणेश पांडालों में बच्चों द्वारा नाटक भी खेले गए। साथ ही, संघ ने अपने स्वयंसेवकों को आग्रह किया है कि संघ द्वारा आयोजित किए जाने वाले किसी भी कार्यक्रम में प्लास्टिक का इस्तेमाल बिल्कुल नहीं किया जाना चाहिए। और, अब संघ के कार्यक्रमों में इस बात का ध्यान रखा जाने लगा है कि प्लास्टिक का उपयोग बिल्कुल नहीं किया जाय।  ग्वालियर के नागरिकों, विविध संगठनों, सामाजिक संस्थानों एवं प्रशासन द्वारा लगातार किए गए प्रयासों के चलते ग्वालियर महानगर को स्वच्छ सर्वेक्षण 2024 के अंतर्गत राज्य स्तरीय मिनिस्ट्रीयल अवार्ड के लिए चुना गया है। यह पुरस्कार 17 जुलाई 2025 को दिल्ली स्थित विज्ञान भवन में आयोजित एक विशेष कार्यक्रम में राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू द्वारा प्रदान किया जाएगा। इसी प्रकार, सिविल अस्पताल, हजीरा, जिला ग्वालियर को स्थानीय नागरिकों को उच्च स्तर की गुणवत्ता पूर्ण संक्रमण रहित स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने हेतु राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, मध्य प्रदेश से प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ है।     जब पूरे देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन आगे आकर समाज के अन्य संगठनों को साथ लेकर देश के पर्यावरण में सुधार लाने हेतु कार्य प्रारम्भ करेंगे तो भारत के पर्यावरण में निश्चित ही सुधार दृष्टिगोचर होने लगेगा। प्रहलाद सबनानी 

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आर्थिकी खान-पान खेत-खलिहान

कृषि क्षेत्र में करवट बदलता भारत

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भारत में लगभग 60 प्रतिशत आबादी आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है और अपनी आजीविका के लिए कृषि क्षेत्र पर निर्भर है। जबकि, कृषि क्षेत्र का भारत के सकल घरेलू उत्पाद में योगदान केवल 18 प्रतिशत के आस पास बना हुआ है। इस प्रकार, भारत में यदि गरीबी को जड़ मूल से नष्ट करना है तो कृषि के क्षेत्र में आर्थिक सुधार कार्यक्रमों को लागू करना ही होगा। भारत ने हालांकि आर्थिक क्षेत्र में पर्याप्त सफलताएं  अर्जित की हैं और भारत आज विश्व की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है तथा शीघ्र ही अमेरिका एवं चीन के बाद विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है। साथ ही, भारत आज विश्व में सबसे अधिक तेज गति से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था भी बन गया है। परंतु, इसके आगे की राह अब कठिन है, क्योंकि केवल सेवा क्षेत्र एवं उद्योग क्षेत्र के बल पर और अधिक तेज गति से आगे नहीं बढ़ा जा सकता है और कृषि क्षेत्र में आर्थिक विकास की दर को बढ़ाना होगा।      भारत में हालांकि कृषि क्षेत्र में कई सुधार कार्यक्रम लागू किए गए हैं और भारत आज कृषि के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन गया है। परंतु, अभी भी बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है। किसानों के पास पूंजी का अभाव रहता था और वे बहुत ऊंची ब्याज दरों पर महाजनों से ऋण लेते थे और उनके जाल में जीवन भर के लिए फंस जाते थे, परंतु, आज इस समस्या को बहुत बड़ी हद्द तक हल किया जा सका है और किसान क्रेडिट कार्ड के माध्यम से किसान को आसान नियमों के अंतर्गत बैकों से पर्याप्त ऋण की सुविधा उपलब्ध है और इस सुविधा का लाभ आज देश के करोड़ों किसान उठा रहे हैं। दूसरे, इसी संदर्भ में किसान सम्मान निधि योजना भी किसानों के लिए बहुत लाभकारी सिद्ध हो रही है और इस योजना का लाभ भी करोड़ों किसानों को मिल रहा है। इससे किसानों की कृषि सम्बंधी बुनियादी समस्याओं को दूर करने के सफलता मिली है।  भारतीय कृषि आज भी मानसून पर निर्भर है। देश के ग्रामीण इलाकों में सिंचाई सुविधाओं का अभाव है। इस समस्या को हल करने के उद्देश्य से भारत सरकार प्रति बूंद अधिक फसल की रणनीति पर काम कर रही है एवं सूक्ष्म सिंचाई पर बल दिया जा रहा है ताकि कृषि के क्षेत्र में पानी के उपयोग को कम किया जा सके तथा जल संरक्षण के साथ सिंचाई की लागत भी कम हो सके।  देश में कृषि जोत हेतु पर्याप्त भूमि का अभाव है और देश में सीमांत एवं छोटे किसानों की संख्या करोड़ों की संख्या में हो गई है। जिससे यह किसान किसी तरह अपना और परिवार का भरण पोषण कर पा रहे हैं इनके लिए कृषि लाभ का माध्यम नहीं रह गया है। इन तरह की समस्याओं के हल हेतु अब केंद्र सरकार विभिन्न उत्पादों के लिए प्रतिवर्ष न्यूनतम समर्थन मूल्य में, मुद्रा स्फीति को ध्यान में रखकर, वृद्धि करती रहती है, इससे किसानों को अत्यधिक लाभ हो रहा है। भंडारण सुविधाओं (गोदामों एवं कोल्ड स्टोरेज का निर्माण) में पर्याप्त वृद्धि दर्ज हुई है एवं साथ ही परिवहन सुविधाओं में सुधार के चलते किसान कृषि उत्पादों को लाभ की दर पर बेचने में सफल हो रहे है अन्यथा इन सुविधाओं में कमी के चलते किसान अपने कृषि उत्पादों को बाजार में बहुत सस्ते दामों पर बेचने पर मजबूर हुआ करता था। खाद्य प्रसंस्करण इकाईयों की स्थापना भारी मात्रा में की जा रही है इससे कृषि क्षेत्र में मूल्य संवर्धन को बढ़ावा मिल रहा है एवं कृषि उत्पादों की बर्बादी को रोकने में सफलता मिल रही है।  आज भारत में उच्च गुणवत्ता वाले बीजों के उपयोग पर ध्यान दिया जा रहा है ताकि उर्वरकों के उपयोग की आवश्यकता कम हो एवं कृषि उत्पादकता बढ़े। इस संदर्भ में मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना भी किसानों की मदद कर रही है इससे किसान कृषि भूमि पर मिट्टी के स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर कृषि उत्पाद कर रहे हैं। राष्ट्रीय कृषि बाजार को स्थापित किए जाने के प्रयास किए जा रहे हैं ताकि किसान सीधे ही उपभोक्ता को उचित दामों पर अपनी फसल को बेच सके। साथ ही, कृषि फसल बीमा के उपयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है ताकि देश में सूखे, अधिक वर्षा, चक्रवात, अतिवृष्टि, अग्नि आदि जैसी प्रकृतिक आपदाओं के चलते प्रभावित हुई फसल के नुक्सान से किसानों को बचाया जा सके। आज करोड़ों की संख्या में किसान फसल बीमा योजना का लाभ उठा रहे हैं।   देश में खेती किसानी का काम पूरे वर्ष भर तो रहता नहीं है अतः किसानों के लिए अतिरिक्त आय के साधन निर्मित करने के उद्देश्य से डेयरी, पशुपालन, मधु मक्खी पालन, पोल्ट्री, मत्स्य पालन आदि कृषि सहायक क्षेत्रों पर भी ध्यान दिया जा रहा है, ताकि किसानों को अतिरिक्त आय की सुविधा मिल सके। विश्व के विभिन्न देशों ने अपनी आर्थिक प्रगति के प्रारम्भिक चरण में कृषि क्षेत्र का ही सहारा लिया है। औद्योगिक क्रांति तो बहुत बाद में आती है इसके पूर्व कृषि क्षेत्र को विकसित अवस्था में पहुंचाना होता है। भारत में भी आज कृषि क्षेत्र, देश की अर्थव्यवस्था का आधार है, जो न केवल खाद्य सुरक्षा प्रदान करता है बल्कि करोड़ों नागरिकों के लिए रोजगार के अवसर भी निर्मित करता है। साथ ही, औद्योगिक इकाईयों के लिए कच्चा माल भी उपलब्ध कराता है। वैश्विक स्तर पर कृषि क्षेत्र की महत्ता आगे आने वाले समय में भी इसी प्रकार बनी रहेगी क्योंकि इस क्षेत्र से पूरी दुनिया के नागरिकों के लिए भोजन, उद्योग के लिए कच्चा माल एवं रोजगार के अवसर कृषि क्षेत्र से ही निकलते रहेंगे। हां, कृषि क्षेत्र में आज हो रही प्रौद्योगिकी में  प्रगति के चलते किसानों को कम भूमि पर, मशीनों का उपयोग करते हुए, कम पानी की आवश्यकता के साथ भी अधिक उत्पादन करना सम्भव हो रहा है। इससे उत्पादन क्षमता में वृद्धि के साथ कृषि उत्पाद की लागत कम हो रही है और किसानों के लिए खेती एक उद्योग के रूप में पनपता हुआ दिखाई दे रहा है और अब यह लाभ का व्यवसाय बनता हुआ दिखाई देने लगा है। केला, आम, अमरूद, पपीता, नींबू जैसे कई ताजे फलों एवं चना, भिंडी जैसी सब्जियों, मिर्च, अदरक जैसे प्रमुख मसालों, जूट जैसी रेशेदार फसलों, बाजरा एवं अरंडी के बीज जैसे प्रमुख खाद्य पदार्थों एवं दूध के उत्पादन में भारत पूरे विश्व में प्रथम स्थान पर आ गया है। दुनिया के प्रमुख खाद्य पदार्थों यथा गेहूं एवं चावल का भारत विश्व में दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। भारत वर्तमान में कई सूखे मेवे, कृषि आधारित कपड़े, कच्चे माल, जड़ और कांड फसलों, दालों, मछली पालन, अंडे, नारियल, गन्ना एवं कई सब्जियों का पूरे विश्व में सबसे बड़ा उत्पादक है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत 80 प्रतिशत से अधिक कृषि उपज फसलों (काफी एवं कपास जैसी नकदी फसलों सहित) के साथ दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा उत्पादक देश बन गया था। साथ ही, भारत सबसे तेज विकास दर के साथ पशुधन एवं मुर्गी मांस के क्षेत्र में दुनिया के पांच सबसे बड़े उत्पादक देशों में शामिल हो गया है। कुल मिलाकर भारतीय अर्थव्यवस्था में किसी भी दृष्टि से कृषि क्षेत्र के योगदान को कमतर नहीं आंका जा सकता है क्योंकि उद्योग एवं सेवा क्षेत्र का विकास भी कृषि क्षेत्र के विकास पर ही निर्भर करता है। अधिकतम उपभोक्ता तो आज भी ग्रामीण इलाकों में ही निवास कर रहे हैं एवं उद्योग क्षेत्र में निर्मित उत्पादों की मांग भी ग्रामीण इलाकों से ही निकल रही है। अतः देश में कृषि क्षेत्र को बढ़ावा देना ही होगा।  प्रहलाद सबनानी

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खान-पान खेत-खलिहान

‘मखाना खेती’ को केंद्र की सौगात

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डॉ. रमेश ठाकुर  ‘मखाना उत्पादक’ देशों में हिंदुस्तान का स्थान विश्व में अव्वल पायदान पर पहले से है ही, केंद्र की नई पहल ने अब और पंख लगा दिए हैं। दशकों से वैश्विक पटल पर भारतीय मखानो का समूचे संसार में निर्यात होता आया है। डिमांग में अब और बढ़ोतरी हुई है। ताल, तालाबों व जलाशयों में की जाने वाली मखाने की खेती बिहार में सर्वाधित होती है। ये खेती पूरे बिहार में नहीं, बल्कि मात्र 10 जिलों तक ही सीमित हैं जिनमें दरभंगा, सहरसा, मधुबनी, सुपौल, कटिहार, अररिया, पूर्णिया, मधेपुरा, किशनगंज, और खगड़िया जिले प्रमुख हैं। एक वक्त था जब मात्र दो जिले अररिया और मधुबनी में ही मखाना उगाया जाता था। पर, बढ़ती आमदनी को देखते हुए अब 10 जिलों में मखाने की खेती होने लगी है।  मखाने की खेती में बूस्टर डोज के लिए अब केंद्र सरकार ने भी अपने दरवाजे खोले हैं। ‘मखाना बोर्ड’ स्थापित करने का निर्णय हुआ है। बीते महीने आम बजट-2025-26 में केंद्रीय मंत्री निर्मला सीतारमण ने बकायदा संसद में ‘मखाना बोर्ड’ स्थापित करने की घोषणा की। मखाने की खेती में वृद्धि हो, बीज-खाद में सरकारी सब्सिडी मिले और फसल में भरपूर आमदनी हो, जैसी तमाम मांगों को लेकर किसान लंबे समय से सरकार से डिमांड कर रहे थे, जिसे अब पूरा किया गया। पहले क्या था? जब मखाने की फसल पककर तैयार होती थी, तो बिचौलिए और ठेकेदार औने-पौने दामों में मखाना खरीदकर विदेशी बाजारों में उच्च भाव में बेचते थे। ऐसी हरकतों पर निगरानी की कोई सरकारी व्यवस्था नहीं थी? किसानों की मेहनत को बिचौलिए खुलेआम लूटते थे। इन सभी से छुटकारा पाने के लिए केंद्र व राज्य सरकार से किसान ‘मखाना बोर्ड’ बनाने की मांग लंबे समय से कर रहे थे, जिसे केंद्रीय स्तर पर अब जाकर स्वीकार किया गया है। बिहार के अलावा मखाने की खेती हल्की-फुल्की उत्तर प्रदेश, झारखंड व मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भी की जाती है। पर, वहां किसान ज्यादा रूचि नहीं लेते। विदेशों में भारतीय मखाने की ब़ढ़ती मांग को देखते हुए केंद्र सरकार ने अपने मौजूदा बजट में मखाना बोर्ड बनाने का निर्णय लिया। भारत में अमूमन एक किलो मखाने की कीमत 25 सौ से लेकर 4 हजार रुपए तक है। जबकि, विदेशों में पहुंचते-पहुंचते मखाना की कीमत दोगुनी हो जाती है। किसानों के अलावा केंद्र सरकार को भी परस्तर फायदा होने लगा है। मखाने का तकरीबन उत्पादन भारत में होती है, यूं कहें इस खेती पर एकछत्र राज्य है। यूरोप के कुछ निचले भागों में मखाना उगाया जाने लगा है। लेकिन वो स्वादिष्ट नहीं होता, स्वाद वाला मखाना सिर्फ भारत का होता है। बिहार में अब करीब 4000 गांवों, जिनमें 870 ग्राम पंचायतों और 70 प्रखंड़ों में मखाने की खेती होने लगी है। मखाने की खेती से करीब 10 हजार से ज्यादा किसान अब जुड़ चुके हैं।  मखाने के लिए ‘उत्तम तालाब प्रणाली’ की आवश्यकता होती है, जो सिर्फ बिहार के तराई इलाकों में ही मिलती है। केंद्र सरकार मखाने की खेती पर इसलिए भी ज्यादा फोकस करके चल रही है क्योंकि इससे देश को सालाना 25 से 30 करोड़ की विदेशी मुद्रा जो प्राप्त होने लगी है। विदेशों से मांग में बेहताशा बढ़ोतरी हुई है। चिकित्सा रिपोर्ट के मुताबिक मखाना सेहत के लिए बेहद लाभदायक बताया गया है जिसमें प्रोटीन की 9.7 फीसदी, कार्बोहाइड्रेट 76 फीसदी, नमी 12.8 प्रतिशत, वसा 0.1 फीसदी, खनिज लवण 0.5 फीसदी, फॉस्फोरस 0.9 और लौह के मात्रा 1.4 मिली ग्राम तक होती है। मखाने के इस्तेमाल से हार्ट-अटैक जैसे गंभीर बीमारी से भी बच जा सकता है। मखाने की उन्नती के लिए केंद्र सरकार द्वारा ‘बोर्ड’ बनाने का निर्णय निश्चित रूप से बूस्टर डोज जैसा है इससे मखाना किसानों की आमदनी में न सिर्फ इजाफा होगा, बल्कि उनके उधोग से जुड़े हिताकारों और उपभोक्ता कानून के संरक्षण में उत्साहवर्धक सुखद परिणाम भी देखने को मिलेंगे। मौजूदा आंकड़ों पर नजर डाले तो भारत मखाना की वैश्विक मांग का तकरीबन 90 से 95 फीसदी भरपाई करता है। बजकि, मखाने का उत्पादन सिंगापुर, यूएसए,कनाडा,जर्मनी, मलेशिया और एशियाई देशों में भी होता है। लेकिन डिमांड भारतीय मखानो की सर्वाधिक होती है। अकेला अमेरिका ही भारत से करीब 25 फीसदी मखानस खरीदता है। ग्लोबल स्तरीय स्वास्थ्य की एक सर्वे रिपोर्ट की माने तो अमेरिकी नागरिक सब्जियों में भी मखाने का इस्तेमाल करते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक मखाना सर्वाधिक अमेरिकी लोग खाते हैं। उन्हें सिर्फ भारतीय मखाने चाहिए होते हैं। यही कारण है कि भारत में पिछले एक दशक में मखाने का उत्पादन 180 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ा है। खेती में लगातार किसान विस्तार कर रहे हैं। निश्चित रूप से ‘मखाना बोर्ड’ बनने के बाद और इस फसल में और पंख लगेंगे।  नई पहल के बाद भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की टीमें भी लगातार मखाना खेती का दौरा कर रही हैं। मखाना को वह वैज्ञानिक ढंग से कराने लगे हैं। किसानों के लिए मखाने का उत्पादन अब अन्य फसलों के मुकाबले फायदे का सौदा बन गया है। एक एकड़ मखाने की खेती में किसान कम से कम 3 से 4 लाख रूपए प्रत्येक फसल में कमा लेते हैं। मखाने की नर्सरी नवंबर माह में लगती है। बिहार में मखाने की खेती को ‘पानी की फसल’ भी कहते हैं। क्योंकि ये शुरू से अंत तक जलमग्न रहती है। मखाने की करीब 4 महीने बाद, फ़रवरी-मार्च में रोपाई होती है। रोपाई के बाद पौधों में फूल लगने लगते हैं। अक्टूबर-नवंबर में फसल पक जाती है और उसकी कटाई शुरू होती है। मखाने की खेती में तीन से चार फ़ीट पानी हमेशा भरा रहता है। मखाने के फल कांटेदार होते हैं। उन्हें कीटनाशकों से बचाना किसी चुनौती से कम नहीं होता। अच्छी बात ये है कुदरती आपदाएं जैसे औले पड़ना, बेमौसम बारिश का होना, मखाने की फसल का कुछ नहीं बिगाड़ पाती। कुलमिलाकर मखाना बोर्ड बनने के बाद भारतीय किसानों का ध्यान इस मुनाफे की खेती की ओर तेजी से आर्कर्षित जरूर हुआ है। डॉ. रमेश ठाकुर

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