Category: राजनीति

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सनातन हिंदू संस्कृति का पूरे विश्व में फैलना आज विश्व शांति के लिए आवश्यक है

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यूरोप में हाल ही में सम्पन्न हुए चुनावों में दक्षिणपंथी कहे जाने वाले दलों की राजनैतिक ताकत बढ़ी है। हालांकि सत्ता अभी भी वामपंथी एवं मध्यमार्गीय नीतियों का पालन करने वाले दलों की ही बने रहने की सम्भावना है परंतु विशेष रूप से फ्रान्स एवं जर्मनी में इन दलों को भारी नुक्सान हुआ है। इटली की देशप्रेम से ओतप्रोत दल की मुखिया जोरजीया मेलोनी को अच्छी सफलता हासिल हुई है। कुल मिलाकर यूरोपीय देशों के नागरिकों में देशप्रेम का भाव धीमे धीमे लौट रहा है एवं वे अब अपने अपने देश में अवैध रूप से रह रहे प्रवासियों का विरोध करने लगे हैं। विशेष रूप से यूरोप के आस पास के मुस्लिम बहुल देशों से भारी संख्या में मुस्लिम नागरिक अवैध रूप से इन देशों में शरण लिए हुए हैं एवं अब वे इन देशों की कानून व्यवस्थ के लिए एक बहुत बड़ी समस्या बन गए हैं। जर्मनी एवं फ्रान्स ने मुस्लिम नागरिकों को मानवीय आधार पर अपने देश में बसाने में शिथिल नीतियों का पालन किया था और अब ये दोनों देश इस संदर्भ में विभिन्न समस्याओं का सबसे अधिक सामना कर रहे हैं।  आज जब कई मुस्लिम देश शिया एवं सुन्नी सम्प्रदाय के नाम पर आपस में ही लड़ रहे हैं तो उनका ईसाई पंथ को मानने वाले नागरिकों के साथ सामंजस्य किस प्रकार रह सकता है, अतः यूरोपीयन देशों के नागरिकों को अब अपने किए पर पश्तावा होने लगा है। ब्रिटेन में भी आज मुस्लिम समाज की आबादी बहुत बढ़ गई है एवं यहां का ईसाई समाज अपने आप को असुरक्षित महसूस करने लगा है क्योंकि मुस्लिम समाज द्वारा ईसाई समाज पर कई प्रकार के आक्रमण किया जाना आम बात हो गई है। ब्रिटेन के कई शहरों में तो मेयर आदि जैसे उच्च प्रशासनिक अधिकारियों के पदों पर भी मुस्लिम समाज के नागरिक ही चुने गए है अतः इन नगरों में सत्ता की चाबी ही अब मुस्लिम समाज के नागरिकों के हाथों में है, जिसे ईसाई समाज के नागरिक बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। इसी प्रकार, इजराईल (यहूदी समुदाय) एवं हम्मास (मुस्लिम समुदाय) के बीच युद्ध लम्बे समय से चल रहा है। ईरान (शिया समुदाय) – सऊदी अरब (सुन्नी समुदाय) के आपस में रिश्ते अच्छे नहीं है। पाकिस्तान में तो अहमदिया समुदाय एवं बोहरा समुदाय को मुस्लिम ही नहीं माना जाता है एवं इनको गैर मुस्लिम मानकर इन पर सुन्नी समुदाय द्वारा खुलकर अत्याचार किए जाते हैं। कुल मिलाकर, मुस्लिम समाज न केवल अन्य समाज के नागरिकों (यहूदी, ईसाई, हिंदू आदि) के साथ लड़ता आया है बल्कि इस्लाम के विभिन्न फिर्कों के बीच भी इनकी आपसी लड़ाई होती रही है।     इसके ठीक विपरीत, सनातन हिंदू संस्कृति का अनुपालन करते हुए कई भारतीय मूल के नागरिक भी अन्य देशों में रह रहे हैं एवं लम्बे समय से स्थानीय स्तर पर ईसाई समाज एवं अन्य धर्मों के अनुयायियों के साथ मिल जुलकर रहते आए हैं। इन देशों में भारतीय मूल के नागरिकों एवं स्थानीय स्तर पर अन्य धर्मों के अनुयायियों के बीच कभी भी बड़े स्तर पर आक्रोश उत्पन्न होता दिखाई नहीं दिया है, क्योंकि सनातन हिंदू संस्कृति में “वसुधैव कुटुम्बकम” एवं “सर्वे भवंतु सुखिन:” का भाव हिंदू नागरिकों में बचपन से ही भरा जाता है।  इसी प्रकार के भाव का संचार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी पिछले 99 वर्षों से अपने स्वयंसेवकों में जगाता आया है। संघ चाहता है कि संसार में सद्गुणों का बोलबाला हो। 27 सितम्बर 1933 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक पूजनीय डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार, शस्त्र पूजा समारोह में अपने उदबोधन में कहते हैं कि “संघ एक हिंदू संगठन है। संसार के सभी धर्मों में हिंदू धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जिसका मुख्य गुण सद्गुण है और जो ‘आत्मवत् भूतेषु’ (सभी प्राणियों में अपने को देखना) की भावना से सभी जीवों के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करना सिखाता है। यह धर्म संसार में व्याप्त हिंसा और अन्याय को स्वीकार नहीं करता। इसलिए स्वाभाविक है कि प्रत्येक हिंदू ऐसी घटनाओं पर अंकुश लगाना चाहता है। लेकिन केवल उपदेश देने से संसार का स्वभाव नहीं बदलेगा। जब संसार को लगेगा कि हिंदू समाज सुसंगठित और सशक्त हो गया है, तो हमारे प्रति जो अनादर का भाव सर्वत्र दिखाई देता है, वह समाप्त हो जाएगा और संसार हमारी बात सुनेगा। हिंदू धर्म अनादि काल से यही करता आ रहा है और ऐसे पवित्र धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए ही संघ की शुरुआत हुई है।” “आजकल हिंदू समाज बहुत अव्यवस्थित हो गया है। संघ का एकमात्र उद्देश्य हिंदू समाज को इस तरह संगठित करना है कि हिंदू, हिंदुस्तान में गर्वित हिंदू के रूप में खड़े हो सकें और दुनिया को यह विश्वास दिला सकें कि हिंदू कोई ऐसी जाति नहीं है जो मरणासन्न अवस्था में हो। संघ चाहता है कि संसार में सद्गुणों का बोलबाला हो। संघ का लक्ष्य मानव जाति में व्याप्त राक्षसी प्रवृत्ति को दूर करना और उसे मानवता सिखाना है। संघ का गठन किसी से घृणा करने या उसे नष्ट करने के लिए नहीं हुआ है।” हाल ही में जारी की गई प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद की रिपोर्ट में ‘धार्मिक अल्पसंख्यकों की हिस्सेदारी का देशभर में विश्लेषण’ नामक विषय के माध्यम से बताया गया है कि बहुसंख्यक हिंदुओं की आबादी 1950 और 2015 के बीच 7.82% घट गई है। जबकि मुस्लिमों की आबादी में 43.15% की वृद्धि हुई है। मुस्लिमों की 1950 में 9.84% रही आबादी 14.09% पर पहुंच गई है। ईसाई धर्म के लोगों की आबादी की हिस्सेदारी 2.24% से बढ़कर 2.36% हुई है। ठीक ऐसे ही सिख समुदाय की आबादी 1.24% से बढ़कर 1.85% हो गई है। भारत में सद्गुणों से ओतप्रोत हिंदू नागरिकों की जनसंख्या यदि इस प्रकार घटती रही तो यह भारत के साथ पूरे विश्व के लिए भी अच्छा संकेत नहीं है क्योंकि अल्पसंख्यक के नाम पर मुस्लिम आबादी (जो कि अपने धर्म के प्रति एक कट्टर कौम मानी जाती है तथा अन्य धर्मों के लोगों के प्रति बिलकुल सहशुण नहीं है और वक्त आने पर अन्य समाज के नागरिकों का कत्लेआम करने में भी हिचकिचाते नहीं है)  में बेतहाशा वृद्धि होना, पूरे विश्व के लिए एक अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता है।  यह बात ध्यान रखने वाली है कि ईरान कभी आर्यों का अर्थात पारसियों का देश था। इराक, सऊदी अरब ,पश्चिम एशिया के समस्त मुस्लिम देश 1400 वर्ष पूर्व भारतीय संस्कृति और सभ्यता को मानने वाले देश थे। तलवार के बल पर 57 देश इस्लाम को स्वीकार कर चुके हैं इनमें से कोई भी ऐसा देश नहीं है जो 1400 वर्ष पहले से अर्थात सनातन की भांति सृष्टि के प्रारंभ से मुस्लिम देश था। 1398 ईसवी में ईरान भारत से अलग हुआ, 1739 में नादिरशाह ने अफगानिस्तान को अपने लिए एक अलग रियासत के रूप में प्राप्त कर लिया, बाद में 1876 में यह एक स्वतंत्र देश के रूप में अस्तित्व में आ गया,1937 में म्यांमार बर्मा अलग हुआ, 1911 में श्रीलंका अलग हुआ और 1904 में नेपाल अलग हुआ। सांप्रदायिक आधार पर देश विभाजन का यह सिलसिला यहीं नहीं रुका इसके पश्चात 1947 में पश्चिमी एवं पूर्वी पाकिस्तान देश बना। पूर्वी पाकिस्तान आज बांग्लादेश के रूप में मानचित्र पर उपलब्ध है। आज एक बार पुनः भारत के भीतर जहां-जहां इस्लाम को मानने वाले लोगों की संख्या बहुलता को प्राप्त हो गई है, वहां वहां पर अनेक प्रकार की सामाजिक विसंगतियां, दमन और शोषण के नए-नए स्वरूप देखे जा रहे हैं। केरल, कश्मीर, पूर्वोत्तर भारत, बंगाल जहां जहां उनकी संख्या बहुलता में है, वहां -वहां दूसरे धर्म और जाति के लोग परेशान हैं। उपस्थित तथ्यों से सत्य को समझना चाहिए। इन आंकड़ों के आलोक में हमें समझना चाहिए कि हमारी बहू, बेटियां, महिलाओं की इज्जत कब तक सुरक्षित रह सकती है? निश्चित रूप से तब तक जब तक कि भारतवर्ष सनातनी हिंदुओं के हाथ में है। हमें इतिहास से शिक्षा लेनी चाहिए कि अब हम सांप्रदायिक आधार पर देश का पुनः विभाजन नहीं होने दें। नोवाखाली जैसे नरसंहारों की पुनरावृत्ति अब हमारे देश में नहीं होनी चाहिए। भारत-पाकिस्तान के विभाजन के समय जिस प्रकार लाखों करोड़ों लोगों को घर से बेघर होना पड़ा था, उस इतिहास को अब दोहराया नहीं जाना चाहिए। भारत में आंतरिक स्थिति ठीक नजर नहीं आती है परंतु विश्व के कई अन्य देशों में सनातन संस्कृति को तेजी से अपनाया जा रहा है, तभी तो कहा जा रहा है कि विश्व में आज कई समस्याओं का हल केवल हिंदू सनातन संस्कृति को अपना कर ही निकाला जा सकता है।   प्रहलाद सबनानी

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आर्थिकी राजनीति

भारत की सावरेन क्रेडिट रेटिंग को अपग्रेड करने पर हो रहा है विचार

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वैश्विक स्तर पर विभिन्न देशों की सावरेन क्रेडिट रेटिंग पर कार्य कर रही संस्था स्टैंडर्ड एंड पूअर ने हाल ही में भारतीय अर्थव्यवस्था का आंकलन करते हुए भारत के सम्बंध में अपने दृष्टिकोण को सकारात्मक किया है एवं कहा है कि वह भारत की सावरेन क्रेडिट रेटिंग को अपग्रेड करने के उद्देश्य से भारत के आर्थिक विकास सम्बंधी विभिन्न पैमानों का एवं भारत के राजकोषीय घाटे से सम्बंधित आंकड़ों का लगातार अध्ययन एवं विश्लेषण कर रहा है। यदि उक्त दोनों क्षेत्रों में लगातार सुधार दिखाई देता है तो भारत की सावरेन क्रेडिट रेटिंग को अपग्रेड किया जा सकता है। वर्तमान में भारत की सावरेन क्रेडिट रेटिंग BBB- है, जो निवेश के लिए सबसे कम रेटिंग की श्रेणी में गिनी जाती है।  किसी भी देश की सावरेन क्रेडिट रेटिंग को यदि अपग्रेड किया जाता है तो इससे उस देश में विदेशी निवेश बढ़ने लगते हैं क्योंकि निवेशकों का इन देशों में पूंजी निवेश तुलनात्मक रूप से सुरक्षित माना जाता है। साथ ही, अच्छी सावरेन क्रेडिट रेटिंग प्राप्त देशों की कम्पनियों को अन्य देशों में पूंजी उगाहना न केवल आसान होता है बल्कि इस प्रकार लिए जाने वाले ऋण पर ब्याज की राशि भी कम देनी होती है। किसी भी देश की जितनी अच्छी सावरेन क्रेडिट रेटिंग होती है उस देश की कम्पनियों को कम से कम ब्याज दरों पर ऋण उगाहने में आसानी होती है।  भारत में हाल ही में केंद्र में नई सरकार के गठन सम्बंधी प्रक्रिया सम्पन्न हो चुकी है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद मोदी सहित केंद्रीय मंत्रीमंडल के समस्त सदस्यों को विभागों का आबंटन भी किया जा चुका है। केंद्र सरकार द्वारा पिछले दस वर्षों के दौरान लिए गए आर्थिक निर्णयों का भरपूर लाभ देश को मिला है। इससे देश के आर्थिक विकास को गति मिली है एवं आज भारत,  विश्व में सबसे तेज गति से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था बन गया है। गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले नागरिकों की संख्या में अपार कमी दृष्टिगोचर है। देश में बहुत बड़े स्तर पर वित्तीय समावेशन हुआ है, जनधन योजना के अंतर्गत 50 करोड़ से अधिक बैंक बचत खाते खोले जा चुके हैं एवं इन बचत खातों में आज लगभग 2.50 लाख करोड़ रुपए की राशि जमा है, इस राशि का उपयोग देश के आर्थिक विकास के लिए किया जा रहा है। रोजगार के नए अवसर भारी संख्या में निर्मित हुए हैं। देश में प्रति व्यक्ति आय भी बढ़कर लगभग 2200 अमेरिकी डॉलर प्रतिवर्ष तक पहुंच गई है। देश के कुछ राज्यों में तो किसानों की आय दुगने से भी अधिक हो गई है। भारत में विदेशी निवेश भारी मात्रा में होने लगा है एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपनी विनिर्माण इकाईयों की स्थापना भारत में ही करने लगी हैं। इससे देश में विनिर्माण इकाईयों (उद्योग क्षेत्र) की विकास दर 8-9 प्रतिशत के पास पहुंच गई है। मंदिर की अर्थव्यवस्था एवं लगातार तेज गति से आगे बढ़ रहे धार्मिक पर्यटन के चलते भारत में आर्थिक विकास की दर वित्तीय वर्ष 2023-24 में 8 प्रतिशत से भी अधिक रही है।  भारत, अपने आर्थिक विकास की गति को और अधिक तेज करने के उद्देश्य से आधारभूत ढांचें को विकसित करने के लगातार प्रयास कर रहा है। वित्तीय वर्ष 2022-23 के बजट में 7.5 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान देश के आधारभूत ढांचे को विकसित करने हेतु किया गया था, जिसे वित्तीय वर्ष 2023-24 में 33 प्रतिशत से बढ़ाकर 10 लाख करोड़ रुपए कर दिया गया था एवं वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए इसे और अधिक बढ़ाकर 11.11 लाख करोड़ रुपए का कर दिया गया है। आधारभूत ढांचे को विकसित करने से देश में उत्पादकता में सुधार हुआ है एवं विभिन्न उत्पादों की उत्पादन लागत में कमी आई है। जिससे, कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियां  अपनी विनिर्माण इकाईयों को भारत में स्थापित करने हेतु आकर्षित हुई हैं। स्टैंडर्ड एंड पूअर का तो यह भी कहना है कि भारत जिस प्रकार की आर्थिक नीतियों को लागू करते हुए आगे बढ़ रहा है और केंद्र में नई सरकार के आने के बाद से अब सम्भावनाएं बढ़ गई हैं कि भारत में आर्थिक सुधार कार्यक्रम बहुत तेजी के साथ किए जाएंगे इससे कुल मिलाकर भारत की आर्थिक विकास दर को लम्बे समय तक 8 प्रतिशत से ऊपर बनाए रखा जा सकता है।    भारत ने अपने आर्थिक विकास की गति को तेज रखते हुए अपने राजकोषीय घाटे पर भी नियंत्रण स्थापित कर लिया है। वित्तीय वर्ष 2022-23 में भारत का राजकोषीय घाटा 17 लाख 74 हजार करोड़ रुपए का रहा था जो वित्तीय वर्ष 2023-24 में घटकर 16 लाख 54 हजार करोड़ रुपए का रह गया है। यह राजकोषीय घाटा वित्तीय वर्ष 2022-23 में 5.8 प्रतिशत था जो वित्तीय वर्ष 2023-24 में घटकर 5.6 प्रतिशत रह गया है। भारत के राजकोषीय घाटे को वित्तीय वर्ष 2024-25 में 5.1 प्रतिशत एवं वित्तीय वर्ष 2025-26 में 4.5 प्रतिशत तक नीचे लाने के प्रयास केंद्र सरकार द्वारा सफलता पूर्वक किए जा रहे हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रान्स, जर्मनी जैसे विकसित देश भी अपने राजकोषीय घाटे को कम नहीं कर पा रहे हैं परंतु भारत ने वित्तीय वर्ष 2023-24 के दौरान यह बहुत बड़ी सफलता हासिल की है। सरकार का खर्च उसकी आय से अधिक होने पर इसे राजकोषीय घाटा कहा जाता है। केंद्र सरकार ने खर्च पर नियंत्रण किया है एवं अपनी आय के साधनों में अधिक वृद्धि की है। यह लम्बे समय में देश के आर्थिक स्वास्थ्य की दृष्टि से एक बहुत महत्वपूर्ण तथ्य उभरकर सामने आया है। भारत के कुछ राज्यों (पंजाब, पश्चिम बंगाल, केरल, आदि) में राजकोषीय घाटे को लेकर चिंता व्यक्त की जा रही है, परंतु केंद्र सरकार एवं कुछ अन्य राज्य (उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु आदि) जरूर अपने राजकोषीय घाटे को सफलता पूर्वक नियंत्रित कर पा रहे हैं। राजकोषीय घाटा मलेशिया, फिलिपीन, इंडोनेशिया, थाईलैंड, वियतनाम जैसे देशों में 4 प्रतिशत से कम है जबकि भारत में केंद्र सरकार एवं समस्त राज्यों का कुल मिलाकर राजकोषीय घाटा 7.9 प्रतिशत है। उक्त वर्णित समस्त देशों की सावरेन क्रेडिट रेटिंग BBB है जबकि भारत की सावरेन क्रेडिट रेटिंग BBB- है। अतः भारत के कुछ राज्यों को तो अपने राजकोषीय घाटे को कम करने हेतु बहुत मेहनत करने की आवश्यकता है।    राजकोषीय घाटे को कम करने में भारत को सफलता इसलिए भी मिली है कि देश 20 से अधिक करों को मिलाकर केवल एक कर प्रणाली, वस्तु एवं सेवा कर प्रणाली, को सफलता पूर्वक लागू किया गया है। आज वस्तु एवं सेवा कर के रूप में भारत को औसत 1.75 लाख करोड़ रुपए की राशि प्रतिमाह अप्रत्यक्ष कर के रूप में प्राप्त हो रही है। साथ ही, प्रत्यक्ष कर के संग्रहण में भी 20 प्रतिशत की भारी भरकम वृद्धि परिलक्षित हुई है। भारत में बैकिंग व्यवस्थाओं के डिजिटलीकरण को ग्रामीण इलाकों तक में लागू करने से भारतीय अर्थव्यवस्था का औपचारीकरण बहुत तेज गति से हुआ है, जिससे प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कर संग्रहण में भारी भरकम वृद्धि हुई है। जबकि केंद्र सरकार एवं कुछ राज्य सरकारों ने अपने गैर योजना खर्च की मदों पर किए जाने वाले व्यय पर नियंत्रण करने में सफलता भी पाई है। इसके कारण राजकोषीय घाटे को लगातार प्रति वर्ष कम करने में सफलता मिलती दिखाई दे रही है।  कुल मिलाकर, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न देशों की सावरेन क्रेडिट रेटिंग का आंकलन करने वाले विभिन्न संस्थान भारत की आर्थिक प्रगति को लेकर बहुत उत्साहित हैं एवं आर्थिक प्रगति के साथ साथ राजकोषीय घाटे को कम करते हुए भारत द्वारा जिस प्रकार अपनी वित्त व्यवस्था को नियंत्रण में रखने का काम सफलता पूर्वक किया जा रहा है, इससे यह संस्थान भारत की सावरेन क्रेडिट रेटिंग को अपग्रेड करने हेतु गम्भीरता से विचार करते हुए दिखाई दे रहे हैं।  स्टैंडर्ड एंड पूअर ने तो घोषणा भी कर दी है कि आगे आने वाले दो वर्षों तक वह भारत की आर्थिक प्रगति, आधारभूत ढांचे को विकसित करने एवं राजकोषीय घाटे को कम करने सम्बंधी प्रयासों का गम्भीरता से विवेचन कर रहा है और बहुत सम्भव है कि वह आगामी दो वर्षों में भारत की सावरेन क्रेडिट रेटिंग को अपग्रेड कर सकने की स्थिति में आ जाए।   

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आर्थिकी राजनीति

भारत सहित विभिन्न देशों के केंद्रीय बैंक बढ़ा रहे है अपने स्वर्ण भंडार

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हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा विदेशी बैंकों में रखे भारत के 100 टन सोने को ब्रिटेन से वापिस भारत में ले आया गया है। यह सोना भारत ने ब्रिटेन के बैंक में रिजर्व के तौर पर रखा था और इस पर भारत प्रतिवर्ष कुछ फीस भी ब्रिटेन के बैंक को अदा करता रहा है।    समस्त देशों के केंद्रीय बैंक अपने यहां सोने के भंडार रखते हैं ताकि इस भंडार के विरुद्ध उस देश में मुद्रा जारी की जा सके (भारत में 308 टन सोने के विरुद्ध रुपए के रूप में मुद्रा जारी की गई है, यह सोने के भंडार भारतीय रिजर्व बैंक के पास जमा हैं) और यदि उस देश की अर्थव्यवस्था में कभी परेशानी खड़ी हो एवं उस देश की मुद्रा का तेजी से अवमूल्यन होने लगे तो इस प्रकार की परेशानियों से बचने के लिए उस देश को अपने स्वर्ण भंडार को अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचना पड़ सकता है। इस कारण से विभिन्न देशों के केंद्रीय बैंक अपने पास स्वर्ण के भंडार रखते हैं। पूरे विश्व में उपलब्ध स्वर्ण भंडार का 17 प्रतिशत हिस्सा विभिन्न देशों के केंद्रीय बैंकों के पास जमा है। भारतीय रिजर्व बैंक के पास भी 822 टन के स्वर्ण भंडार हैं। सुरक्षा की दृष्टि से इसका 50 प्रतिशत से अधिक भाग, अर्थात लगभग 413.8 टन, भारत के बाहर अन्य केंद्रीय बैंकों विशेष रूप से बैंक आफ इंग्लैंड एवं बैंक आफ इंटर्नैशनल सेटल्मेंट  के पास रखा गया है। उक्त वर्णित 308 टन के अतिरिक्त 100.3 टन स्वर्ण भंडार भी भारतीय रिजर्व बैंक के पास जमा है। वर्ष 1947 में भारत के राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व ही भारत ने अपने स्वर्ण के भंडार बैंक आफ इंग्लैड में रखे हुए हैं। इसके बाद 1990 के दशक में भी भारत ने अपनी आर्थिक परेशानियों के बीच अपने स्वर्ण भंडार को बैक आफ इंग्लैंड में गिरवी रखकर अमेरिकी डॉलर उधार लिए थे। विभिन्न देशों द्वारा लंदन में स्वर्ण भंडार इसलिए रखे जाते हैं क्योंकि लंदन पूरे विश्व का सबसे बड़ा स्वर्ण बाजार है और यहां स्वर्ण को सुरक्षित रखा जा सकता है। यहां के बैकों द्वारा विभिन्न देशों को स्वर्ण भंडार के विरुद्ध अमेरिकी डॉलर एवं ब्रिटिश पाउंड में आसानी से ऋण प्रदान किया जाता है बल्कि यहां पर स्वर्ण भंडार को आसानी से बेचा भी जा सकता है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वर्ण के कई खरीदार यहां आसानी से उपलब्ध रहते हैं। कुल मिलाकर इंग्लैंड स्वर्ण का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत बड़ा बाजार हैं। लंदन के बाद न्यूयॉर्क को भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वर्ण का एक बड़ा बाजार माना जाता है।  भारत को इस स्वर्ण भंडार को सुरक्षित रखने के लिए प्रतिवर्ष फी के रूप में कुछ राशि बैंक आफ इंग्लैंड को अदा करनी होती थी अतः अब भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा 100 टन स्वर्ण भंडार को भारत लाने के बाद इस फी की राशि को अदा करने से भी भारत बच जाएगा। दूसरे अपने यहां स्वर्ण भंडार रखने से भारत के पास सदैव तरलता बनी रहेगी। जब चाहे भारत इस स्वर्ण भंडार का इस्तेमाल स्थानीय अथवा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने हित के लिए कर सकता है।  वर्ष 2009 में भारत ने 200 टन का स्वर्ण भंडार अंतरराष्ट्रीय बाजार में 670 करोड़ अमेरिकी डॉलर की राशि अदा कर खरीदा था। 15 वर्ष वर्ष बाद पुनः भारत ने अपने स्वर्ण भंडार में वृद्धि करने का निश्चय किया है। स्वर्ण भंडार सहित आज भारत के विदेशी मुद्रा भंडार 65,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर के उच्चत्तम स्तर पर पहुंच गए हैं और यह भारत के लगभग एक वर्ष के आयात के बराबर की राशि है। अतः अब भारत को अपने स्वर्ण भंडार बेचने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी इसलिए भी भारत ने ब्रिटेन में स्टोर किए गए अपने स्वर्ण भंडार को भारत में वापिस लाने का निर्णय किया है।     विश्व में आज विभिन्न देश अपने विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाने के उद्देश्य से अपने पास स्वर्ण के भंडार भी बढ़ाते जा रहे हैं। आज पूरे विश्व में अमेरिका के पास सबसे अधिक 8133 मेट्रिक टन स्वर्ण के भंडार है, इस संदर्भ में जर्मनी, 3352 मेट्रिक टन स्वर्ण भंडार के साथ दूसरे स्थान पर एवं इटली 2451 मेट्रिक टन स्वर्ण भंडार के साथ तीसरे स्थान पर है। फ्रान्स (2437 मेट्रिक टन), रूस (2329 मेट्रिक टन), चीन (2245 मेट्रिक टन), स्विजरलैंड (1040 मेट्रिक टन) एवं जापान (846 मेट्रिक टन) के बाद भारत, 812 मेट्रिक टन स्वर्ण भंडार के साथ विश्व में 9वें स्थान पर है। भारत ने हाल ही के समय में अपने स्वर्ण भंडार में वृद्धि करना प्रारम्भ किया है एवं यूनाइटेड अरब अमीरात से 200 मेट्रिक टन स्वर्ण भारतीय रुपए में खरीदा था। हाल ही के समय में चीन का केंद्रीय बैंक भारी मात्रा में अंतरराष्ट्रीय बाजार में स्वर्ण की खरीद कर रहा है। कुछ अन्य देशों के केंद्रीय बैंक भी अपने स्वर्ण भंडार में वृद्धि करने में लगे हैं। इसके चलते अंतरराष्ट्रीय बाजार में स्वर्ण के दामों में बहुत अधिक वृद्धि देखने में आई है और यह 2400 अमेरिकी डॉलर प्रति आउंस तक पहुंच गई है।      कई देश संभवत: अपने विदेशी मुद्रा के भंडार में अमेरिकी डॉलर की तुलना में स्वर्ण भंडार को अधिक महत्व दे रहे हैं, क्योंकि अमेरिकी डॉलर पर अधिक निर्भरता से कई देशों को आर्थिक नुक्सान झेलना पड़ रहा है। यदि अमेरिकी डॉलर अंतरराष्ट्रीय बाजार में मजबूत हो रहा हो तो उस देश की मुद्रा का अवमूल्यन होने लगता है। इससे उस देश में वस्तुओं का आयात महंगा होने लगता है और उस देश में मुद्रा स्फीति के बढ़ने का खतरा बढ़ जाता है। इन विपरीत परिस्थितियों में घिरे देश के लिए स्वर्ण भंडार बचाव का काम करते हैं। इसलिए आज लगभग प्रत्येक देश के केंद्रीय बैंक अपने स्वर्ण भंडार को बढ़ाने के बारे में विचार करते हुए नजर आ रहे हैं।      प्रहलाद सबनानी 

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आर्थिकी राजनीति

अधिक ऋण के बोझ तले वैश्विक अर्थव्यवस्था कहीं चरमरा तो नहीं जाएगी

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विश्व के समस्त नागरिकों एवं विभिन्न संस्थानों पर लगभग 320 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का ऋण है। कुल ऋण की उक्त राशि में विभिन्न देशों की सरकारों के ऋण एवं नागरिकों के व्यक्तिगत ऋण भी शामिल है। कई देशों को मुद्रा स्फीति पर नियंत्रण पाने में बहुत कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है। साथ ही,  विकास करने का दबाव विभिन्न देशों की सरकारों पर है अतः सरकारों के साथ साथ व्यक्ति भी बहुत अधिक मात्रा में ऋण ले रहे हैं। परंतु, कितना ऋण प्रत्येक व्यक्ति अथवा सरकार पर होना चाहिए, इस विषय पर भी अब गम्भीरता से विचार किए जाने की आवश्यकता है। आज विश्व की कुल जनसंख्या 810 करोड़ है और विश्व पर कुल ऋण की राशि 320 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है इस प्रकार औसत रूप से विश्व के प्रत्येक नागरिक पर 39,000 अमेरिकी डॉलर का ऋण बक़ाया है। 320 लाख करोड़ रुपए के ऋण की राशि में विभिन्न देशों की सरकारों द्वारा लिया गया ऋण, व्यापार एवं उद्योग द्वारा लिया गया ऋण एवं व्यक्तियों द्वारा लिया गया ऋण शामिल है। पूरे विश्व में परिवारों/व्यक्तियों द्वारा 59 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का ऋण लिया गया है। व्यापार एवं उद्योग द्वारा 164 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का ऋण लिया गया है। साथ ही, सरकारों द्वारा 97 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का ऋण लिया गया है, ऋण की इस राशि में एक तिहाई हिस्सा विकासशील देशों की सरकारों द्वारा लिया गया ऋण भी शामिल है। सरकारों द्वारा लिए गए ऋण की राशि पर प्रतिवर्ष 84,700 करोड़ अमेरिकी डॉलर का ब्याज का भुगतान किया जाता है। विश्व में प्रत्येक 3 देशों में से 1 देश द्वारा कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च की गई राशि से अधिक राशि ऋण पर ब्याज के रूप में खर्च की जाती है। आकार में छोटी अर्थव्यवस्थाओं के लिए अधिक ऋण लेना सदैव ही बहुत जोखिमभरा निर्णय रहता आया है। पूरे विश्व में सकल घरेलू उत्पाद का आकार 109 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का है जबकि ऋणराशि का आकार 320 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का है। इस प्रकार, एक तरह से आय की तुलना में खर्च की जा रही राशि बहुत अधिक है। इसे संतुलित किया जाना अब अति आवश्यक हो गया है अन्यथा कुछ ही समय में पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था चरमरा सकती है।      पूरे विश्व में लिए गए भारी भरकम राशि के ऋण के चलते अमीर वर्ग अधिक अमीर होता चला जा रहा है एवं गरीब वर्ग और अधिक गरीब होता चला जा रहा है, क्योंकि अमीर वर्ग ऋण का उपयोग अपने लाभ का लिए कर पा रहा है एवं इस ऋण राशि से अपनी सम्पत्ति में वृद्धि करने में सफल हो रहा है। जबकि, गरीब वर्ग इस ऋण की राशि का उपयोग अपनी देनंदिनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु करता है और ऋण के जाल में फंसता चला जाता है। इसके साथ ही, हालांकि विश्व में दो विश्व युद्ध हो चुके हैं, वर्तमान में भी रूस यूक्रेन युद्ध एवं इजराईल हमास युद्ध चल ही रहा है। परंतु, फिर भी इस सबका असर अमीर वर्ग पर नहीं के बराबर हो रहा है। हां, गरीब वर्ग जरूर और अधिक गरीब होता जा रहा हैं क्योंकि विश्व के कई देशों में, ब्याज दरों में लगातार की जा रही बढ़ौतरी के बाद भी, मुद्रा स्फीति नियंत्रण में नहीं आ पा रही है। मुद्रा स्फीति का सबसे अधिक बुरा प्रभाव गरीब वर्ग पर ही पड़ता है। अमीर वर्ग (जिनकी सम्पत्ति 2 करोड़ 28 लाख अमेरिकी डॉलर से अधिक है), इनकी संख्या वर्ष  2023 में 5.1 प्रतिशत से बढ़ गई है और इनकी कुल सम्पत्ति 86.8 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर हो गई है और यह भी 5 प्रतिशत की दर से बढ़ गई है। वर्ष 2020 के बाद से विश्व के 5 सबसे अधिक अमीर व्यक्तियों की संपत्ति दुगुनी हो गई है। साथ ही, वर्ष 2020 के बाद से विश्व के बिलिनायर की सम्पत्ति 3 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर से बढ़ गई है। इन कारणों के चलते अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ती जा रही है। जिस रफ्तार से विश्व में गरीबी कम हो रही है, इससे ध्यान में आता है कि इस धरा से गरीबी को हटाने में अभी 229 वर्ष का समय लगेगा। जैसे जैसे विश्व में विकास की दर तेज हो रही है अमीर व्यक्ति अधिक अमीर होते जा रहे हैं एवं गरीब व्यक्ति अधिक गरीब होते जा रहे हैं। आज से पहिले विश्व में कभी भी इतने अधिक अमीर नागरिक नहीं रहे हैं। वैश्विक स्तर पर उक्त वर्णित ऋण सम्बंधी भयावह आंकड़ों के बीच अन्य विकसित देशों की तुलना में भारत की स्थिति नियंत्रण में नजर आती है। वैसे भी, ऋण का उपयोग यदि उत्पादक कार्यों के लिए किया जाता है एवं इससे यदि धन अर्जित किया जाता है तो बैकों से ऋण लेना कोई बुरी बात नहीं है। बल्कि, इससे तो व्यापार को विस्तार देने में आसानी होती है और पूंजी की कमी महसूस नहीं होती है। साथ ही, भारतीय नागरिक तो वैसे भी सनातन संस्कृति के अनुपालन को सुनिश्चित करते हुए अपने ऋण की किश्तों का भुगतान समय पर करते नजर आते हैं इससे भारतीय बैकों की अनुत्पादक आस्तियों में कमी दृष्टिगोचर हो रही है। भारत के बैकों की ऋण राशि में हो रही अतुलनीय वृद्धि के बावजूद, भारत में ऋण:सकल घरेलू उत्पाद अनुपात अन्य विकसित देशों की तुलना में अभी भी बहुत कम है। हालांकि यह वर्ष 2020 में 88.53 प्रतिशत तक पहुंच गया था, क्योंकि पूरे विश्व में ही कोरोना महामारी के चलते आर्थिक व्यवस्था चरमरा गई थी। परंतु, इसके बाद के वर्षों में भारत के ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात में लगातार सुधार दृष्टिगोचर है और यह वर्ष 2021 में 83.75 प्रतिशत एवं वर्ष 2022 में 81.02 प्रतिशत के स्तर पर नीचे आ गया है। साथ ही, भारत के ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात के वर्ष 2028 में 80.5 प्रतिशत के निचले स्तर पर आने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। यदि अन्य देशों के ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात की तुलना भारत के ऋण सकल घरेलू उत्पाद अनुपात के साथ की जाय तो इसमें भारत की स्थिति बहुत सुदृढ़ दिखाई दे रही है। पूरे विश्व में सबसे अधिक ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात जापान में है और यह 255 प्रतिशत के स्तर को पार कर गया है। इसी प्रकार यह अनुपात सिंगापुर में 168 प्रतिशत है, इटली में 144 प्रतिशत, अमेरिका में 123 प्रतिशत, फ्रान्स में 110 प्रतिशत, कनाडा में 106 प्रतिशत, ब्रिटेन में 104 प्रतिशत एवं चीन में भी भारी भरकम 250 प्रतिशत के स्तर के आसपास बताया जा रहा है। अर्थात, विश्व के लगभग समस्त विकसित देशों में ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात 100 प्रतिशत के ऊपर ही है। भारत में इस अनुपात का 81 प्रतिशत के आसपास रहना संतोष का विषय माना जा सकता है। हाल ही के समय में भारत में विनिर्माण इकाईयों की उत्पादन क्षमता का उपयोग बहुत तेजी से बढ़ा है, वित्तीय वर्ष 2022-23 के चौथी तिमाही में विनिर्माण इकाईयों द्वारा अपनी उत्पादन क्षमता का 76.3 प्रतिशत उपयोग किया जा रहा था,  जिसके कारण उद्योग जगत को ऋण की अधिक आवश्यकता महसूस हो रही है। बढ़े हुए ऋण की आवश्यकता की पूर्ति भारतीय बैंकें आसानी से करने में सफल रही हैं। यह तथ्य इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि विकसित देशों में भी प्रायः यह देखा गया है कि बैंकों द्वारा प्रदत्त ऋण में वृद्धि के साथ उस देश के सकल घरेलू उत्पाद में भी तेज गति से वृद्धि दृष्टिगोचर हुई है। भारत में भी अब यह तथ्य परिलक्षित होता दिखाई दे रहा है। भारत में आर्थिक गतिविधियों में आ रही तेजी के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में भी  ऋण की मांग लगातार बढ़ रही है। फिर भी, भारत में कोरपोरेट को प्रदत ऋण का सकल घरेलू उत्पाद से प्रतिशत वर्ष 2015 के 65 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2023 में 50 प्रतिशत हो गया है। इसका आशय यह है कि इस दौरान कोरपोरेट ने अपने ऋण का भुगतान किया है एवं उन्होंने सम्भवत: अपनी लाभप्रदता में वृद्धि दर्ज करते हुए अपने लाभ का पूंजी के रूप में पुनर्निवेश किया है। दूसरे, भारत में विभिन्न बैंकों द्वारा प्रदत्त लम्बी अवधि के ऋण सामान्यतः आस्तियां उत्पन्न करने में सफल रहे हैं, जैसे गृह निर्माण हेतु ऋण अथवा वाहन हेतु ऋण, आदि। इस प्रकार के ऋणों के भविष्य में डूबने की सम्भावना बहुत कम रहती है। बैकों द्वारा खुदरा क्षेत्र में प्रदत्त ऋणों में से 10 प्रतिशत से भी कम ऋण ही प्रतिभूति रहित दिए गए हैं जैसे सरकारी कर्मचारियों को पर्सनल (व्यक्तिगत) ऋण, आदि। पर्सनल ऋण प्रतिभूति रहित जरूर दिए गए हैं परंतु चूंकि यह सरकारी कर्मचारियों सहित नौकरी पेशा नागरिकों को दिए गए हैं, जिनकी मासिक किश्तें समय पर अदा की जाती हैं, अतः इनके भी डूबने की सम्भावना बहुत ही कम रहती है। इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि भारत में अब बैकों द्वारा ऋण सम्बंधी व्यवसाय बहुत सुरक्षित तरीके से किया जा रहा है। इसी कारण से हाल ही के समय में यह पाया गया है कि भारतीय बैंकों की अनुत्पादक आस्तियों की वृद्धि पर अंकुश लगा है। यह भी संतोष का विषय है कि हाल ही के समय में भारतीय बैकों से प्रथम बार ऋण लेने वाले नागरिकों की संख्या में भी वृद्धि दर्ज की गई है। इसका आशय यह है कि भारतीय नागरिक जो अक्सर बैकों से ऋण लेने से बचते रहे हैं वे अब बैकों से ऋण लेने के लिए प्रोत्साहित हो रहे हैं क्योंकि इस बीच बैंकों द्वारा प्रदान किए जा रहे ऋण सम्बंधी शर्तों को आसान बनाया गया है।   कुल मिलाकर भारत के संदर्भ में यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए कि भारतीय नागरिकों में सनातन संस्कृति के संस्कार होने के कारण बैकों से ऋण के रूप में उधार ली गई राशि का समय पर भुगतान  किया जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया की तरह माना जाता है, जिसके कारण भारतीय बैंकों के अनुत्पादक आस्तियों की राशि अन्य देशों की बैंकों की तुलना में कम हो रही है। अतः वैश्विक स्तर पर गम्भीर होती ऋण सम्बंधी समस्या का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर सीधे सीधे पड़ता दिखाई नहीं दे रहा है। 

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