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बिहार का भविष्य अनिश्चिता के गर्त में

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डॉ.नर्मदेश्वर प्रसाद चौधरी बिहार में नेताओं के अपने परिवारवाद को विकसित करने की वजह से बिहार का भविष्य अंधकार में चला गया। केवल नेताओं के वंश विकसित हो सके लेकिन बिहार अंदर से खोखला होता गया।  वैसे तो बिहार में आजादी के बाद से स्थिति में सुधार सामाजिक और आर्थिक तौर पर बाकी राज्यों की अपेक्षा कमतर ही रहा है। जब झारखंड बिहार का हिस्सा था, फिर भी बिहार में हटिया या बोकारो स्टील प्लांट या जमशेदपुर के अलावा कोई भी औद्योगिक क्षेत्र विकसित नही हो पाया। बिहार में सबकुछ होते हुए भी राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में बिहार का विकास समुचित तरीके से नहीं हो पाया। बिहार की विडंबना ये रही कि बिहार जातीय भेदभाव में ही उलझ कर रह गया। कोई भी नेता बिहार में ऐसा नही हो पाया जो बिहारी अस्मिता की बात करता हो। जयप्रकाश नारायण या राजेन्द्र प्रसाद के अलावा सभी नेता जातीय समीकरण को ही आगे बढ़ाने में तुले रहे। बिहार का कोई भी नेता राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने में नाकाम रहा । बिहार के किसी भी नेता वह माद्दा नहीं रहा कि वह राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व दे सकें। बिहार के सारे नेता पिछलग्गू नेता ही बने रहे। बिहार का दुर्भाग्य रहा कि कांग्रेस के बाद राजद की सत्ता रही जिसने पंद्रह सालों तक बिहार को केवल अराजकता की स्थिति में डाले रखा। उसके बाद जब उस अराजकता से मुक्ति मिली तो नीतीश कुमार की सरकार रही। नीतीश कुमार की सरकार ने शुरुआत के पाँच सालों तक बिहार में थोड़ा-  बहुत विकास का काम जरूर किया लेकिन पिछले दस सालों में नीतीश कुमार की सरकार  भी राजद  के पदचिन्हों पर चलती हुई नजर आ रही है।आज बिहार की स्थिति बद से बदतर है। नीतीश कुमार की बिहार के प्रशासन पर पकड़ एकदम  ढीली पड़ गई है। दरअसल नीतीश कुमार अचेतावस्था में सरकार की बागडोर संभाले हुए हैं। बीजेपी का बिहार में क्या रोल है ये उनको भी पता नहीं है। केवल नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाये रखना उनकी प्राथमिकता है। दरअसल बिहार में बीजेपी का कोई सशक्त नेता भी नहीं है जिसके चेहरे पर बीजेपी अपने दम पर चुनाव लड़ सके। बीजेपी अपने दम पर बिहार में चुनाव जीत जाए, ये असंभव है। बिहार अपने जातीय समीकरण से अभी तक उभर नहीं पाया है। बिहार में पहले अपनी जाति है, तब बिहार की अस्मिता की बात आती है। बिहार के गौरव की बात करने वाला एक भी बिहारी आपको  नहीं मिलेगा।एक तो बिहार की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि हर साल बिहार बाढ़ से प्रभावित रहता है जिसके कारण बहुसंख्यक बिहारिओं को अन्य राज्यों में जाकर मजदूरी करनी पड़ती है। इसके अलावा बिहार में भूमिहीन किसानों की तादाद बहुत ज्यादा है। बिहार में भूदान हो या चकबंदी का कोई ज्यादा फायदा नहीं हो पाया। बिहार में जिसकी भी सरकार रही वह केंद्र से अपना हक मांगने में विफल रही। बिहार पर्यटन के मामले में भी फिसड्डी रहा है। बोधगया, वैशाली या पावापुरी के अलावा कुछ भी नहीं है और ये  जैनियों और बौद्धों का धार्मिक स्थल है। यहाँ ना कोई धार्मिक मंदिर या कोई पौराणिक किला बगैरह कुछ भी नहीं है। बिहार में एक भी दर्शनीय स्थल नहीं है जहाँ कोई पर्यटक आ – जा सके। बिहार में अपराध के अलावा चर्चा का कोई विषय नहीं रहता है। पिछले तीस सालों में बिहार में अपराधियों की पौ बारह रही है। राजद  के राज्य में अपहरण और अपराध एक उद्योग का रूप ले चुका था।अभी वर्तमान में अपराध की वैसी ही स्थिति निर्मित हो गई है। बिहार का अधिकारी जब ये बोलने लगे कि किसान फुर्सत में है इसलिए अपराध की घटना बढ़ रही है  तो इससे शर्मनाक बयान और क्या हो सकता है। दरअसल बिहार को जबतक योगी जैसा मुख्यमंत्री नहीं मिलेगा, तबतक बिहार का कुछ भी भला नही हो सकता है।आज योगी ने उत्तरप्रदेश को सुधार दिया है।गुंडों की हेकड़ी निकल गई है। शुक्र मनाइए न्यायालय की कि केवल हाफ एनकाउंटर हो रहा वरना अबतक कितने अपराधी स्वर्ग सिधार चुके होते। प्रशासन कैसे किया जाता है ये योगी आदित्यनाथ ने दिखला दिया है। इसी ढर्रे पर बाकी मुख्यमंत्रियों को चलना होगा। जनसुराज पार्टी जिसके कर्ता धर्ता प्रशांत किशोर हैं वे भी कोई छाप छोड़ने में अभी तक असफल नजर आ रहे हैं। बिहार की राजनीति में उन्हें भी अभी बहुत पापड़ बेलने होंगें। दरअसल इसके पीछे की वजह  जातीय समीकरण है।आज बिहार में अगड़ी जाति का कोई नेता अपने दम पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकता। बिहार में अगड़ी जाति और पिछड़ी जातियों के बीच एक गहरी खाई निर्मित हो गई है जिसे पाटना बहुत मुश्किल है। उसके लिए जयप्रकाश नारायण जैसा कोई सर्वमान्य नेता चाहिए जो आज की परिस्थितियों में नामुमकिन है। बिहार में राजपूत भूमिहार को देखना नहीं चाहते तो यादव राजपूतों को नहीं। उसी तरह सभी जातियाँ एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते हैं। बिहार में जातियों का गणित लगाना मुश्किल है। बिहार के चुनाव में जाति ही प्रमुख मुद्दा रहता आया है। बिहार के लोगों को ना तो देश से कोई मतलब है, ना को उनके राज्य से। अपनी जाति का नेता कितना भी खराब या अपराधी हो, वोट वे उसी को देंगें। बिहार में चुनाव कभी भी मुद्दे के आधार पर नहीं लड़ा गया है। आज बिहार की राजधानी पटना अपराधियों के लिए उपजाऊ स्थल हो गया है। […]

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क्या छात्र-छात्राओं की खुदकुशी पर सुप्रीम कोर्ट की चिंता से शिथिल प्रशासनिक मिशनरी में कोई नई हलचल पैदा होगी?

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कमलेश पांडेय देश के शिक्षण संस्थानों में छात्र-छात्राओं (स्टूडेंट्स) की आत्महत्या और उनमें बढ़ती मानसिक स्वास्थ्य (मेंटल हेल्थ) की समस्याओं पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) ने शुक्रवार को जो चिंता जताई है, वह अकारण नहीं है बल्कि इसके पीछे उन हजारों परिवारों और लाखों लोगों की बेदना छिपी हुई है जो ऐसे मामलों में […]

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सौ वर्ष बाद भी संघ आत्ममुग्ध नहीं

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सचिन त्रिपाठी  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शताब्दी वर्ष की दहलीज पर खड़ा है। यह केवल किसी संस्था के 100 वर्ष पूरे होने की औपचारिकता नहीं है बल्कि भारत के आधुनिक इतिहास, समाज और विचारधारा की उस यात्रा की समीक्षा का अवसर है जिसमें संघ की भूमिका निर्णायक, विवादास्पद, किंतु निर्विवाद रूप से प्रभावशाली रही है। सौ वर्षों की यात्रा में संघ चाहे जितना बड़ा, शक्तिशाली और विस्तृत हुआ हो, वह आत्ममुग्ध नहीं हुआ है। यह वाक्य एक प्रशंसा नहीं, बल्कि एक वैचारिक अवलोकन है। संघ की मूल प्रवृत्ति आत्मप्रशंसा या आत्ममुग्धता नहीं, आत्मसाधना है। आज की दुनिया में जहां संस्थाएं कुछ दशकों के भीतर ही ‘इमेज ब्रांडिंग’, ‘स्मार्ट मैसेजिंग’ और ‘गौरवोत्सव’ के चक्कर में अपना आत्मावलोकन खो बैठती हैं, वहीं संघ अपने आलोचकों की भी उतनी ही सावधानी से सुनता है जितनी श्रद्धा से स्वयंसेवकों की बात करता है। यह गुण उसे ‘संगठन’ से ‘संघ’ बनाता है। 1930 के दशक में जब यह ‘आंदोलन’ ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के समय में पनपा, तब इसके सामने राष्ट्रवाद को व्यावहारिक सामाजिक जीवन में उतारने की चुनौती थी। आज, जब वह राष्ट्र के नीति-निर्धारकों, शैक्षणिक परिसरों, मीडिया विमर्शों और वैश्विक मंचों पर प्रभावी भूमिका में है, तब भी वह सतत आत्मसमीक्षा करता रहा है। संघ ने कभी अपने सौ साल के संघर्ष को ‘विजय यात्रा’ की तरह प्रस्तुत नहीं किया। उसका कार्यकर्ता आज भी स्वयं को ‘स्वयंसेवक’ ही मानता है, नायक नहीं।  यह आत्ममुग्ध न होने का भाव उसकी कार्यपद्धति में स्पष्ट झलकता है। संघ कार्यालय आज भी उतने ही साधारण हैं जैसे 1925 में नागपुर में थे। किसी भव्यता, बैनर या नारेबाजी की ज़रूरत उसे नहीं लगती। संघ शिक्षा वर्गों, शाखाओं और प्रकल्पों के ज़रिये समाज निर्माण में रमा रहता है। वह जानता है कि दिखावे से नहीं, चरित्र से परिवर्तन आता है। संघ के आलोचकों ने अक्सर उसे ‘पुरुषप्रधान’, ‘हिंदू केंद्रित’, ‘गुप्तवादी’ या ‘राजनीतिक आकांक्षाओं से प्रेरित’ संस्था कहा है किंतु आत्ममुग्धता कभी उसकी आलोचना नहीं रही। आत्ममुग्धता वह होती है जब कोई संस्था अपनी ही छाया से अभिभूत हो जाए। संघ इसके ठीक उलट, अपनी सीमाओं का निरंतर आंकलन करता रहा है। चाहे वह सामाजिक समरसता के क्षेत्र में दलितों के लिए कार्य हो, महिलाओं की भूमिका पर विचार हो या मुस्लिम समाज से संवाद की नई पहल,  संघ हमेशा इन विषयों पर आत्मसंवाद करता रहा है। सौ वर्षों की इस यात्रा में संघ को बहुत कुछ प्राप्त हुआ है। लाखों स्वयंसेवक, हजारों संगठन, राजनीतिक शीर्ष, शैक्षणिक नेटवर्क और सांस्कृतिक प्रभाव। फिर भी, संघ अपने आपको ‘समाप्त यात्रा’ नहीं मानता। उसकी दृष्टि में यह सब ‘कार्य विस्तार का माध्यम है, लक्ष्य नहीं।’ यह विचार ही उसे आत्ममुग्ध होने से रोकता है। संघ का सबसे बड़ा सामाजिक योगदान यह रहा है कि उसने राष्ट्रीय चेतना को केवल भाषणों में नहीं, जीवन में उतारा। उसने स्वयंसेवक को मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर या किसी भी पूजा पद्धति से ऊपर एक भारतीय के रूप में गढ़ा। संघ की आत्मा उसके शाखा जीवन में बसती है जहां न कोई टीवी कैमरा होता है, न कोई उत्सव। वहां केवल साधना होती है तन, मन और राष्ट्र की। आज जब वह शताब्दी की दहलीज़ पर खड़ा है, तो आत्ममुग्ध होने का अवसर उसके पास भरपूर है लेकिन वह नहीं है। न तो संघ ने अपनी 100 साल की यात्रा को कोई भव्य उत्सव बनाया, न ही मीडिया कैम्पेन। वह जानता है कि ‘कार्य की पूजा’ ही उसका मूल है, न कि प्रचार की आरती। यह उस गहराई का संकेत है, जो भारत के पारंपरिक ज्ञान और तपस्या की विरासत से जुड़ी है। संघ का यह आत्मसंयम ही उसे दीर्घकालिक बनाता है। वह जानता है कि भारत के पुनर्जागरण की यात्रा केवल राजनीतिक सत्ता या सामाजिक संगठन से नहीं चलेगी, यह एक आत्मिक संघर्ष भी है और यह आत्मिकता, आत्ममुग्धता की दुश्मन होती है। शायद इसीलिए, जब संघ अपने 100वें वर्ष में प्रवेश करता है तो वह कोई घोषणा नहीं करता, बल्कि एक मौन साधक की तरह समाज के साथ चल पड़ता है “बिना थके, बिना रुके, बिना डिगे।” संघ आत्ममुग्ध नहीं है क्योंकि वह जानता है कि सच्चा राष्ट्रनिर्माण आरंभिक होता है, समाप्त नहीं। वह जानता है कि समाज को हर दिन एक नई शाखा, एक नई चेतना और एक नया संकल्प चाहिए। इसलिए सौ वर्षों बाद भी वह रास्ते में है, मंच पर नहीं। इसी में उसकी मौलिकता है। इसी में उसका तप है। इसी में उसकी भारतीयता है। सचिन त्रिपाठी 

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