सीबीआई : साख पर सवाल

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प्रमोद भार्गव

शीर्ष न्यायालय द्वारा शीर्ष जांच एजेंसी के प्रमुख को शीर्ष 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच से सेवानिवृत्ति के ठीक 12 दिन पहले हटाया जाना आश्चर्य में डालने वाली घटना है। इससे सीबीआई प्रमुख रहे रंजीत सिन्हा की किरकिरी तो व्यक्तिगत स्तर पर हुई, लेकिन विश्वसनीयता देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी की भंग हुई। हालांकि यह और भी शर्मनाक स्थिति है कि संदेह के आरोप के आधार पर जांच प्रक्रिया से अलग कर देने के बावजूद सिन्हा को कोई शर्म का अनुभव नहीं हो रहा है। जबकि यह पहला अवसर है, जब सीबीआई के किसी शीर्षस्थ अधिकारी को इस तरह से हटाना पड़ा है। 2जी स्पेक्ट्रम की जांच प्रक्रिया सिन्हा के पूरे कार्यकाल के दौरान कठघरे में आती रही है। यहां तक की अदालत को सीबीआई को बार-बार फटकार लगाने के बावजूद यह तक कहना पड़ा कि संस्था प्रमुख केंद्र सरकार की ‘कठपुतली’ हैं और सीबीआई सरकारी पिंजरे में कैद ‘तोता’ है। देश की सबसे विश्वसनीय एजेंसी को भविष्य में ऐसे दौर से न गुजरना पड़े, इसके लिए जरुरी है कि मौजूदा राजग सरकार सीबीआई प्रमुख के चयन में पारदर्शिता व निष्पक्षता से पेश आए, जिससे इस संस्था की साख दोबारा स्थापित हो ?

रंजीत सिन्हा का विवादों और आरोपों से गहरा वास्ता रहा है। बावजूद उनका केंद्रीय जांच ब्यूरो के शीर्ष पद पर पहुंचना इस बात का स्पश्ट संकेत है कि हमारी मौजूदा नियुक्ति प्रणाली पारदर्शी व निष्पक्ष नहीं है या फिर केंद्र सरकार जान-बूझकर ऐसे अधिकारियों की तैनाती करती है, जो कर्तव्य के प्रति नहीं, बल्कि सरकार के प्रति वफादारी निभाएं ? सिन्हा आरोपियों को बचाने के विवादों से जुड़े होने के बावजूद इस सर्वोच्च पद पर आसीन हुए, तो साफ है कि उन्हें राजनेताओं को आरोपों से बरी हो जाने कि पृष्ठभूमि रचने के लिए ही इस प्रभावशाली पद पर बिठाया गया था। जबकि उन्हें नौवें दशक में उच्च न्यायालय पटना ने चारा घोटाले की जांच से अलग कर दिया था। क्यांेकि उन पर चारा घोटाले के प्रमुख आरोपी और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालूप्रसाद यादव को बचाने का आरोप लगा था। इस आरोप का पुख्ता आधार रंजीत सिंह की पत्नी रीना सिंह की एक सरकारी विद्यालय की प्राचार्य बना देने की नियुक्ति को बनाया गया था। यह नियुक्ति बिहार की तत्कालीन राबड़ी देवी सरकार ने सभी कायदे-कानूनों को खूंटी पर टांग कर सीधे कर दी थी। जाहिर है, राबड़ी देवी लालू की धर्म-पत्नी होने के साथ खड़ाऊॅ मुख्यमंत्री थीं और पति – धर्म के आगे उनके लिए कानून की मर्यादा का कोई लिहाज नहीं रह गया था। गोया, इस मुद्दे पर विवाद गहरा गया और हाई कोर्ट ने सिन्हा को चारा घोटाले की जांच से रुखसत कर दिया।

1974 बैच के बिहार काडर के इस आला पुलिस अधिकारी की सीबीआई निदेशक के पद पर नियुक्ति के दौरान भी विवाद गहराया था। तबकि मनमोहनसिंह सरकार ने काॅलेजियम प्रणाली के क्रियान्वित होने से ठीक पहले रंजीत सिन्हा की नियुक्ति की थी। जबकि इस सिलसिले में केंद्रीय सतर्कता आयोग की सिफारिशों को पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया था। अब अदालत द्वारा सिन्हा को हटा दिए जाने से इस बात की पुष्टि हुई है कि संप्रग सरकार का यह फैसला पक्षपात पूर्ण होने के साथ, गलत मंशा से किया गया फैसला था। इसी तर्ज पर सप्रंग सरकार ने केंद्रीय सतर्कता आयोग के पद पर पीजे थॉमस की तैनाती की थी। जिसका जबरदस्त विरोध संसद में प्रमुख विपक्षी दल भाजपा ने किया था। बावजूद नियुक्ति की गई। थॉमस को अदालत के हस्तक्षेप के कारण हटना पड़ा था।

2 जी स्पेक्ट्रम से जुड़े घोटाले की जांच शुरुआत से ही कठघरे में रही है। जांच पर राजनीतिक और प्रशासनिक दबाव के आरोप लगते रहे हैं। कभी-कभी तो ये दोनों पक्ष एक ही सिक्के के दो पहलू नजर आते रहे हैं। लिहाजा जांच रिपोर्ट दूध का दूध और पानी का पानी के रुप में सामने आए इस मंशा के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट को यह जांच अपनी निगरानी में लेनी पड़ी थी। बावजूद हैरानी यह रही कि जो जांच सीधे देश की सर्वोच्च अदालत की निगरानी में थी, उसे भी प्रभावित करने के आरोप मनमोहन सिंह सरकार और सीबीआई प्रमुख सिन्हा पर निरंतर लगते रहे हैं। जांच को सही उद्देश्य से भटकाने की कोशिश बार-बार हुई है। जांच को दिशा-भ्रमित करने की कोशिशें निजी कंपनियों के सीईओ और शक्तिशाली राजनेता हमेशा करते रहे हैं। इसका गवाह कोई और नहीं रंजीत सिन्हा के घर का वह रजिस्टर बना है, जिसमें आरोपी मुलाकातियों का ब्यौरा दर्ज है। सुप्रीम कोर्ट में ‘सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन’ एनजीओ ने एक जनहित याचिका दायर कर कहा था कि 2 जी मामले के अनेक आरोपी सिन्हा से घर पर मिलते रहे हैं। एक प्रमुख आरोपी ने तो 90 मर्तबा मुलाकातें की थीं। बतौर सबूत याचिकाकर्ता के वकील प्रशांत भूषण ने मुलाकाती रजिस्टर में दर्ज ब्यौरे अदालत में प्रस्तुत किए थे।

रजिस्टर में दर्ज इन ब्यौरों पर रंजीत सिन्हा की दलील थी कि ये रजिस्टर असली नहीं हैं। उन्हें बदनाम करने के लिए साजिशन इनकी कूट-रचना की गई है। हालांकि विरोधाभास यह रहा कि अपने जवाब में रजिस्टर में दर्ज कुछ प्रविष्टयों को उन्होंने सही भी माना। यहां सवाल उठता है कि जब आंगुतक रजिस्टर में कुछ लोगों का आवागमन सही है तो रजिस्टर नकली कैसे हुआ ? जब इस मजबूत साक्ष्य और अपने ही बयान में रंजीत सिन्हा खुद उलझ गए तो उन्होंने मुलाकाती रजिस्टर की प्रतिलिपि उपलब्ध कराने वाले व्यक्ति का नाम उजागर करने की जिद पकड़ ली। एक दफा तो अदालत ने सिन्हा की इस मांग को मंजूर कर भी लिया था, किंतु याचिकाकर्ता सूत्रधार का नाम न बताने पर अड़े रहे। उनकी दलील थी कि नाम सार्वजनिक होने पर विसलब्लोअर को जान के लाले पड़ सकते हैं। अदालत में यह दलील भी दी गई कि इससे गलत संदेश जाएगा और लोग भ्रष्टाचार संबंधी जानकारियां देने के लिए भविष्य में आगे नहीं आएंगे।

अदालत इन तर्कों से सहमत हुई और उसने विसलब्लोअर के नाम का खुलासा करने से इंकार कर दिया। बाद में खुद सिन्हा ने घर का भेदिया करार देते हुए सीबीआई के अधिकारी संतोश रस्तोगी का नाम उजागर किया और दण्डस्वरुप उनका तबादला भी कर दिया। जाहिर है, रंजीत सिन्हा की इन हरकतों से वे सब मानवीय कमजोरियां सामने आ गईं, जो सामान्य व्यक्ति के चरित्र व प्रवृत्ति का हिस्सा होती हैं। वे इन कमजोरियों से ऊपर उठकर पद की प्रतिष्ठा के अनुरुप असाधारण व निर्विवाद व्यक्तित्व के रुप में पेश आने में पूरी तरह असफल रहे। यदि सिन्हा पुख्ता सबूत सामने आने के तत्काल बाद ही पद से त्याग-पत्र दे देते, तो शायद उनकी और संस्था की साख में भी सुराख नहीं होता ? लेकिन ऐसा करने की बजाय वे यह साबित करने की फिराक में लगे रहे कि उनके खिलाफ षडयत्र रचा जा रहा है, जबकि वे पाक-साफ हैं। दरअसल पौने दो लाख करोड़ के 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच हमेशा ही संदेह के घेरे में रही है। इसी परिप्रेक्ष्य में सीबीआई को अदालत ने पिंजरे का तोता कहा और उसकी स्वायत्तता की पुरजोरी से संसद में मांग भी उठी। लिहाजा अब समय आ गया है कि नरेंद्र मोदी सरकार रंजीत सिन्हा के आचरण की स्वतंत्र रुप से जांच तो करे ही, सीबीआई को स्वायत्त संस्था बनाने की जिम्मेबारी भी निभाए। जिससे देश की इस सर्वोच्च जांच संस्था की साख पर भविष्य में कभी बट्टा न लगे।

 

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