सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद आखिरकार देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी की खुले आकाश में उड़ान भरने की कानूनी प्रकि्रया शुरू हो गर्इ है। इस पुनीत उददेष्य की पूर्ति के लिए वित्तमंत्री पी. चिदंबरम की अध्यक्षता में एक मंत्री समूह का गठन किया गया है, जो सीबीआर्इ की स्वतंत्रता के लिए एक कानूनी प्रारुप तैयार करेगा। इसमें ऐसे सुझाव होंगे, जिससे इस संस्था की स्वायत्ता का मार्ग प्रशस्त हो। किंतु यहां गौरतलब है कि किसी भी मंत्री समूह का काम विधेयक का मसविदा तैयार करके उसे संसद में पेश करना है, मंजूर तो वह संसद के दोनों सदनों में बहुमत की सहमति से ही होगा। ऐसे में कांग्रेस ही नहीं, केंद्र में जिन दलों की भी सरकारें सत्ता में होती हैं, वे सब सीबआर्इ के राजनीतिक दुरुपयोग में लिप्त रही हैं। इसलिए संसद में जब यह प्रारुप प्रस्तुत होगा, तो राजनीतिक इसमें छेद देखने का काम करेंगे और इसका हश्र लोकपाल विधेयक की तर्ज पर होना संभव है। यथास्थिति बनाए रखने के संकेत खुद सीबीआर्इ निदेशक रंजीत सिन्हा के बदले हुए बयान से सामने आए हैं। सिन्हा कह रहे हैं, लोकतंत्र में किसी भी संस्था को पूरी तरह आजाद नहीं होना चाहिए, क्योंकि इससे उसके निरंकुश होने का खतरा है। तय है, सीबीआर्इ सरकार के दबाव में है।
देश की सबसे बड़ी अदालत के ठोस हस्तक्षेप के बाद भी फिलहाल यह कहना मुमकिन नहीं है कि तोता रुपी सीबीआर्इ पिंजरे से मुक्त हो जाएगी। संविधान के मुताबिक हमारे लोकतंत्र के संस्थागत तीन आधार-स्तंभ हैं। कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। संविधान में इन सभी के अधिकार और कार्यप्रणाली परिभाषित हैं। न्यायापालिका को यह हक तो है कि वह संविधान के अनुच्छेदों की विधि-सम्मत व्याख्या कर सके, लेकिन वह उल्लेखित संहिता की किसी धारा अथवा उपधारा के एक भी शब्द को बदल नहीं सकती। इसी तरह संसद और विधानसभाओं द्वारा पारित जो नए कानून उसकी नजर में लाए जाते हैं, इस पर वह यह तो टीप दे करती है कि ये संविधान में दर्ज परंपराओं और मान्यताओं के अनुरुप हैं अथवा नहीं, लेकिन उसमें खुद संशोधन नहीं कर सकती। हां, संविधान की कसौटी पर खरा नहीं उतरने पर उसे असंवैधानिक कहकर नए संशोधनों के लिए लौटा जरुर सकती है। इसलिए आखिर तक न्यायापालिका को सीबाआर्इ की स्वायत्तता के लिए निर्भर विधायिका पर ही रहना होगा।
इसमें कोर्इ दो राय नहीं कि हम दुनिया के सबसे बड़े और प्रगतिशील लोकतंत्र हैं। किंतु जमीनी धरातल पर अभी भी लोकतांत्रिक पंरपराएं या मान्यताएं विकास की स्थिति में हैं। भ्रष्टाचार और अनैतिक्ता परंपराओं की परिपक्वता के लिए बड़ी बाधाएं हैं। सीबीआर्इ की अनेक विभागों पर परावलंबता भी इसके निष्पक्ष काम में बड़े रोड़े हैं। इसका अपना कोर्इ स्वतंत्र अधिनियम न होना भी इसे दुविधा की हालत में ला खड़ा करता है। दरअसल 1941 में अंग्रेजों ने ‘स्पेशल पुलिस इस्टेबिलशमेंट संस्था दिल्ली पुलिस विधेयक के तहत ही बनार्इ थी। इसकी जवाबदेही केवल भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों की जांच करना था। आजादी के बाद 1963 में एक सरकारी आदेश के जरिए महज इसका नाम बदलकर ‘केंद्रीय अन्वेशण ब्यूरो मसलन सीबीआर्इ कर दिया गया। यह बदलाव भी संसद के मार्फत नहीं हुआ, इसलिए इसकी कोर्इ संविधान-सम्मत मान्यता नहीं है। इसे संवैधानिक संस्था का रुप देने वाला विधेयक बीते तीन दशक से विचाराधीन है। यह पारित हो, तब इसकी स्वायत्तता बहाल हो ?
चूंकि सीबीआर्इ कोर्इ स्वतंत्र संस्था है ही नहीं, इसलिए इसे कानूनी सलाह-मशविरे से लेकर अपनी अपनी ढांचागत व्यवस्था को चलाने के लिए विभिन्न मंत्रालयों पर निर्भर रहना होता है, जो इसकी लाचारगी की बड़ी वजह हैं। इस पर प्रशासनिक नियंत्रण कार्मिक मंत्रालय का है। सीबीआर्इ द्वारा अदालत में दर्ज किए मामले की पैरवी कौन वकील करेगा, इसका निर्धारण कानून मंत्रालय करता है। इसका खर्च वित्त मंत्रालय उठाता है। कोर्इ अपराधी यदि देश की सीमा पार कर जाता है, तो सीबीआर्इ की निर्भरता विदेश मंत्रालय पर केंदि्रत हो जाती है। कोर्इ मामला यदि राजनेता या बड़े अधिकारी के भ्रष्टाचार से जुड़ा है तो जांच के लिए केंद्रीय सतर्कता आयोग से इजाजत लेनी होती है। सीबीआर्इ अधिकारियों का अपना कोर्इ प्रशासनिक दर्जा नहीं है, इसलिए उसे प्रतिनियुकित पर भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी लेने होते हैं। कौन आर्इपीएस प्रतिनियुकित पर जाएगा, इसकी जवाबदेही केंद्रीय गृह मंत्रालय पर है। जाहिर है, सीबीआर्इ को अपनी जांच शुरू करने से लेकर अदालत में चालान पेश करने तक अनेक लाचार पेचदगियों से गुजरना होता है।
तय है, सीबीआर्इ की शक्ति, कार्यप्रणाली और जिम्मेबारियों को नए सिरे से परिभाषित करते हुए, इसकी स्वत्तता से पारदर्शी प्रारुप सामने आए। जिससे बाहरी दखल की उम्मीद ही न रह जाए। जिससे इसे चुनाव आयोग, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक और लोक सेवा आयोग जैसा दर्जा मिल सके। मंत्री मण्डल समूह का काम कानूनी प्रावधान सुझाना है, कानूनी रुप इसे संसद से ही मिलेगा। न्यायमूर्ति आरएम लोढ़ा, मदन बी लोकुर और कुरियन जोसेफ की खण्डपीठ ने सीबीआर्इ की स्वायत्तता संबंधी कानून बनाने के साथ, शायद सरकार की मुश्किलें का अंदाजा लगाते हुए परोक्ष रुप से यह सुझाव भी दिया था कि सरकार चाहे तो अध्यादेश लाकर भी ऐसी कानूनी व्यवस्था कर सकती है, जिससे सीबीआर्इ को स्वतंत्र जांच की सुविधा हासिल हो जाए। मसलन संसद-सत्र के इंतजार की जरुरत नहीं है ? वैसे भारतीय पुलिस अधिनियम के तहत ही सीबीआर्इ का असितत्व है। इसी कारण सरकार से उसका रिश्ता पुलिस सेवा की तरह है। इस अधिनियम में प्रावधान है कि किसी भी अपराध की जांच प्रकि्रया में सरकार व उसके अधिकारी हस्तक्षेप नहीं कर सकते । यदि इसी प्रावधान का निष्पक्ष र्इमानदारी से पालन किया जाए तब भी सीबीआर्इ एक हद तक जांच प्रकि्रया को निर्भय तटस्थता के साथ आगे बढ़ा सकती है।
हालांकि यह पहला अवसर नहीं है कि जब शीर्ष न्यायालय ने सीबीआर्इ की स्वतंत्र भूमिका पर जोर दिया है। जैन हवालाकांड से जुड़े विनीत नारायण मामले में अदालत ने उस एकल निर्देश को रदद कर दिया था, जिसके तहत सीबीआर्इ को केंद्र सरकार से जांच की इजाजत के लिए बाध्य होना पड़ता है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो भाजापार्इ सीबीआर्इ की स्वायत्तता को लेकर हाय-तौबा मचा रहे हैं, उन्हीं की अटलबिहारी वाजपेयी नेतृत्व वाली राजग सरकार ने एक विधायी प्रावधान लाकर इस न्यायिक निर्देश को निष्क्रिय कर दिया था। जाहिर है, सीबीआर्इ को केंद्र सरकार के शिकंजे से मुक्त करना कोर्इ भी सरकार नहीं चाहती। लेकिन अब वक्त का तकाजा है कि संसदीय बहुमत के आधार पर जो गलत मान्यताएं चली आ रहीं, उनकी जड़ता टूटनी ही चाहिए। देखें 10 जुलार्इ को यह रुढि़ टूटती दिखार्इ देती है अथवा नहीं ?
जो सरकार अपने गुनाहों के भंडाफोड़ के डर से जन लोकपाल नहीं लाई,उससे यह कैसे उम्मीद की जा सकती है क़ि वह सीबीअई को स्वायतता देगी? अगर देना भी चाहे तो विपक्ष खासकर बीजेपी उसमे अडंगा लगाएगी,जैसा क़ि जन लोकपाल बिल के समय देखा गया था.बीजेपी सब दोष भले ही कांग्रेस के मत्थे मढ़ दे ,पर जन लोकपाल बिल के मामले में वह भी कम दोषी नहीं है.सीबीअई के मामले में भी यही कुछ होने वाला है.
सी बी आई को पूरी स्वतंत्रता मिलनी संभव है ही नहीं.यह तो कोर्ट का आदेश है,इसलिए यह सब दिखावे का करम कांड किया जा रहा है.इसे भी कमजोर रूप में प्रस्तुत कर रखा जायेगा,फिर कोर्ट संतुष्ट नहीं होगा अगली लम्बी तारीख डलवा कर ठंडे बसते में रख दिया जायेगा.इतने सरकार के जाने की चला चली बेल आ जाएगी,इस सरकार को जो अपने खरे खोते जो करने कराने हैं,वह करके अपना उल्लू सीधा कर लेगी.जनता एक बार फिर बेवकूफ बना दी जाएगी.फिर नयी सरकार आएगी,नए सिरे से कवायद की जाएगी,…… जय श्री राम…हो गयाअपना काम,….अब सब करो आराम…..