प्रवक्ता न्यूज़

परिवर्तन की पटरी पर आ रही माखनलाल विश्‍वविद्यालय की गाड़ी

‘सिंह इज किंग’ का सिंहासन हिला

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय… एशिया का एक मात्र हिन्दी पत्रकारिता को समर्पित विश्वविद्यालय. इस विश्वविद्यालय को हिन्दी पत्रकारिता का देवालय कहा जाता है. जहां देश के तमाम मीडिया संस्थान ज्यादातर अंग्रेजीदां पत्रकार पैदा कर रहे हैं वहीं ये विश्वविद्यालय अकेले हिन्दी पत्रकारों की फौज खड़ी कर रहा है.

लेकिन दुख की बात ये है कि आजकल पत्रकारिता का ये देवालय कुछ और वजहों से सुर्खियां बटोर रहा है. सुर्खियां एक लेकिन सुर अनेक. इस सारे घटनाक्रम पर खबरदार मीडिया ने बेहद पैनी रखी. पर्दे के पीछे की जो कहानी छन कर बाहर आई वो बेहद चौंकानेवाली है. हो सकता है ये कहानी बहुतों को हजम ना हो. हो सकता है इस विश्वविद्यालय से परोक्ष और अपरोक्ष रूप से जुड़े लोगों को ये सब पहले से मालूम हो. वे दबी जुबान से इसे स्वीकारें भी. बहरहाल मुद्दा बस इतना है क्यों और कैसे इस पत्रकारिता विश्वविद्यालय के नवोदित पत्रकारों की कलम मजबूत करवाने की बजाय नेतागिरी का पाढ पढाया जा रहा है. आइये पड़ताल करते है इस हंगामे और महाभारत के पीछे क्या और कौन हैं? क्यों इस सुनियोजित मुहिम को सियासी रंग देने की वकालत की जा रही है?

हंगामा है क्यूं बरपा

विश्वविद्यालय के कुलपति बी के कुठियाला. इनकी नियुक्ति को लेकर शुरू से ही कुछ लोग नाराज चल रहे थे. सूत्र बताते हैं कि कुछ लोगों को शुरू से ही ये गवारा नहीं था कि कुठियाला साहब कुलपति बने. खैर बी के कुठियाला की नियुक्ति हुई और उन्होंने अपने तरीके से कामकाज शुरू किया. अमूमन जो होता है. सूत्रों के अनुसार, अनुशासन प्रिय और थोड़ा कठोर प्रशासक के रूप में जाने जानेवाले कुठियाला को विश्वविद्यालय में जो चीजें बेतरतीब लगी उसे हटाने की कवायद शुरू की. व्यवस्था पर वर्षो से पड़ी धूल जैसे ही हटनी शुरू हुई उसी वक्त से इस हंगामे की पटकथा लिखी जाने लगी.

कुठियाला हाय-हाय, कुठियाला बाय-बाय

तारीख 18 अगस्त 2010 : पहली बार विश्वविद्यालय शिक्षक संघ और कर्मचारियों की कुलपति के खिलाफ लामबंदी. अगुवा शिक्षक संघ के अध्यक्ष. मुद्दा कुलपति का तानाशाही रवैया.

तारीख 31 अगस्त 2010 : छात्रो का सुनियोजित ढंग से कुलपति हटाओ अभियान में आगे आना. हंगामा शुरू. घिनौनी राजनीति के तहत विश्वविद्यालय के स्टुडेंट को कैंपस में प्रदर्शन. तालेबंदी. पढाई ढप.

तारीख 3 सितम्बर 2010 : इस मुहिम को सियासी रंग देने की कोशिश. एनएसयूआई(NSUI) का कुलपति के पुतले को विश्वविद्यालय के कैंपस के बाहर फूंका जाना.

मीडिया की पाठशाला बना राजनीति की पाठशाला

माखनलाल विश्वविद्यालय को करीब से जानने वालों को ये अच्छी तरह मालूम है कि कैंपस के अंदर का सूरत-ए-हाल क्या है? वो बड़ी साफगोई से स्वीकारतें हैं कि जब उजड़े चमन को संवारने की बात शुरू हुई तो कुछ लोगों के पेट में दर्द शुरू हो गया. उन्हें लगता है कि अगर इस पर परिवर्तन का चोखा रंग चढ गया तो उनका सिंहासन हिलना तय है. इसी डर से कुछ लोग नहीं चाहते है कि व्यवस्था बदले.

शिक्षक संघ के अध्यक्ष का ये कहना है कि कुलपति से जो अपेक्षाएं थी वे उसपर बिल्कुल खरे नहीं उतरे. सूत्र कहते है कि ये तो अध्यक्ष ही समझे कि क्या अपेक्षाएं थी बस उनके या कुछ शिक्षक के मन मुताबिक काम नहीं हुआ है और परिवर्तन हो रहा है तो शायद यही डर उन्हें सता रहा है. जिससे कि वे लामबंद हो रहे है. अगर परिवर्तन सकारात्मक है इसे सियासी रंग देने की जरूरत क्या है.

इस पत्रकारिता विश्वविद्यालय में कुलपति हटाओ मुहिम में अब बस एक ही एजेंडा है पढाई ताक पर राजनीति चरम पर. सूत्र बताते हैं कि प्रोफेसर कुठियाला की बर्खास्तगी की मांग को लेकर शिक्षक, कर्मचारी, स्टूडेंट से लेकर एनएसयूआई का प्रदर्शन किया गया. उससे छात्रों का एक बड़ा तबका भी खासा नाराज हैं और एतराज जताया है. छात्रो का कहना है कि कुछ लोग जबरन कुलपति हटाओ मुहिम को सियासी रंग दे रहे हैं. इस प्रदर्शन की स्क्रिप्ट भी विश्विद्यालय के एक विभागाध्यक्ष के इशारों पर लिखी गयी थी. एनएसयूआई को प्रदर्शन कराने के एवज में मोटी रकम दी गयी थी. प्रदर्शन के माध्यम से जो भी मांगो का ज्ञापन सौंपा जा रहा है वो वीसी को नहीं मिल रहा है.सूत्र ये भी बड़ा खुलासा करते हैं कि इस विभागाध्यक्ष के इशारों पर इस मुहिम में इस विभाग के पूर्व स्टुडेंट को घसीटा जा रहा है. हस्ताक्षर अभियान के तहत जोड़ा जा रहा है और ये हस्ताक्षर अभियान कुठियाला हटाओ मुहिम का एक बड़ा हिस्सा है. अब आप खुद ही सोचिये इस फालतू के मुहिम को किस अंजाम तक पहुंचाने की तैयारी है.

भाजपा बनाम कांग्रेस

एनएसयूआई के भोपाल प्रदर्शनों में हमेशा से लाठीचार्ज होता आया है. एनएसयूआई के प्रदर्शन के बहाने माखनलाल की लड़ाई को भाजपा बनाम कांग्रेस में बदलने की राजनीति की जा रही है. सूत्र आगे बताते है कि अगर वीसी के पुतला दहन कार्यक्रम में एनएसयूआई के कार्यकर्ताओं को लाठियां पड़ जाती तो वीसी की कुर्सी खतरे में पड़ सकती थी. क्योंकि कांग्रेस इसे मध्य प्रदेश की विधानसभा में उठाकर शिवराज सिंह चौहान पर दबाव बना सकती थी. इन सबके पीछे कुछ नेता किस्म के शिक्षको का डर्टी माइंड काम कर रहा था. लेकिन कुलपति के साथ छात्रों के बड़े तबके के साथ आ जाने के बाद इनका रास्ता आसान हो गया. अब आप खुद ही देख लीजिये कि अपने निजी हितों को साधने के लिए किस तरह का घिनौना खेल खेला जा रहा है.

छात्रों को बनाया जा रहा है मोहरा

अपने निजी हितों को साधने के लिए युवा शक्ति और नवोदित पत्रकारों का दुरूपयोग किस प्रकार किया जाता है, ये कोई एशिया के पहले हिंदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुछ विभागाध्यक्षों से सीखे. पहले तो कुलपति को हटाने में आसमान सिर पर उठा लिया फिर स्टडी सेंटर के संचालाकों के साथ कर्मचारियों को लामबंद किया लेकिन फिर भी बात नहीं बनी तो अपनी इस घिनौनी राजनीति में उभरते हुए पत्रकारों को भी साझा करने की नाकाम कोशिश की.

हुड़दंग मचाते और मुस्कुराते ये छात्र है देश के भावी पत्रकार… पूर्व से नाराज विश्विद्यालय के दो डिपार्टमेंट (अधिकतर प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक के पत्रकार यहीं से पैदा होते है) के एचओडी ने छात्रों को कुलपति हटाओ अभियान में जबरन घसीटा और जो 31 अगस्त को छात्रों का उग्र प्रदर्शन हुआ. वो पूर्व नियोजित था. सूत्र आंखों देखा हाल बयां करते है कि इस प्रदर्शन में सिर्फ और सिर्फ एक ही डिपार्टमेंट के छात्र मौजूद थे बाकी नदारद. छात्रों को मोहरा बनाकर आगे लाने की कवायद में इनमें से दूसरे डिपार्टमेंट के एचओडी भी पर्दे के पीछे से इस काम को अंजाम देने में लगे थे. इन दोनों को शतरंज की बिसात पर प्रचारित और जन संपर्क की गोटी सेट करने में मदद कर रहे थे एक तीसरे विभाग के एचओडी. छात्रों के एक गुट ने इस एचओडी से इस घटनाक्रम में छात्रों को अलग रखने का अनुरोध भी किया. लेकिन उन्होंने इस पटकथा को अपनी स्वीकृति दे दी. सूत्र बताते है कि छात्रों के मन में कुठियाला को हटाने का जहर इस कदर भरा गया कि ये मीडिया के सामने कुलपति के बारे में अनर्गल बयानबाजी करने लगे. जरा सोचिए कि इन दिग्भ्रमित छात्रों का बयान खुद ही मीडिया के सामने ये खुलासे कर रहा है कि किस तरह युवा जोश को अपने व्यक्तिगत स्वार्थो को पूरा करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. जब अधिकांश नव प्रवेशी छात्रों ने स्वयं को इस आंदोलन से अनभिज्ञता व्यक्त की तो क्यों इन मासूम बच्चों को कलम की जगह प्रदर्शन की पट्टियां और माइक की जगह पर्चियां थमाई जा रही है.

सिंह इज किंग का सिंहासन हिला

सूत्र बताते हैं कि विश्वविद्यालय के कुलपति को हटाये जाने की महाभारत को बढाने में दो सिंह इज किंग का मास्टर माइंड काम कर रहा हैं. कहते है कि विश्वविद्यालय में आमतौर पर दोनों एक दूसरे के घोर विरोधी हैं और दोनों के बीच छत्तीस का आंकड़ा है लेकिन इस बार कुलपति के सख्त मिजाज ने दोनो के होश फाख्ता कर दिये हैं. कहानी उसी दिन से शुरू हो गयी जब स्वच्छन्दतापूर्वक काम कर रहे सभी कर्मचारियों को नियमित और समयबद्धकाम करने का निर्देश दिया गया और पल-पल की अपडेट ली जाने लगी. सूत्र बताते है कि ये दोनों सिंह इससे पहले किंग हुआ करते थे और विश्विद्यालय को अपने इशारे पर नचाया करते थे. लेकिन नये बने कुलपति ने जब नाजायज चीज़ों पर अंकूश लगाने के लिए इनके पर कतरना शुरू किया तो इनका सिंहासन डोलने लगा. तभी से ये अपने आप को असुरक्षित महसूस करने लगे और अपनी महत्वाकांक्षा को अमलीजामा पहनाने और निजी हितों को साधने के लिए सभी के साथ युवा शक्ति को भी इस ओर धकेल दिया. दरअसल कुलपति के आने के बाद खुद इनकी साख और मनमानी पर खतरा उत्पन्न हो गया है. इन दोनों सिंहो के अधिकारों में कटौती कर दी गयी है. जिससे कि ये भन्नाएं हुए हैं. कुलपति कुछ बुनियादी क्रायटेरिया को खंगालने में भी लगे है जिससे इन सिंहों को अपना सिंहासन हिलता हुआ नजर आ रहा है. सूत्र ये भी बताते है कि सिंह इज किंग का जुमला फीका पड़ गया है इसलिए दोनों ने अपनी कुर्सी खतरे में जान इस मुहिम में विश्वविद्यालय के सभी कर्मचारियों के साथ स्टूडेंट को भी बली का बकरा बनाने पर तुले है. सूत्र ये भी बताते है कि आज दो सिंह हैं. कल कई सिंह पैदा हो जायेंगे जो किंग बन जायेंगे. इसलिए संभव है कि इन सिंहों का तबादला कर उनके पर कतरा जाए जिससे अकादमिक स्तर और विश्वविद्यालय की गुणवत्ता में सुधार लाया जाये.

परिवर्तन का डर

जब-जब परिवर्तन होता है… व्यवस्थाएं बदलती है तो चरमराहट होती ही है. शायद यही डर कुछ लोगों को सता रहा है. कुलपति का काम के प्रति समर्पण के साथ संघ से जुड़ाव एक अहम कारण रहा है जो विश्वविद्यालय के कुछ बनावटी एचओडी से कहीं बेहतर है. कुठियाला की साफगोई विश्वविद्यालय के कुछ विभागाध्यक्ष को भा नहीं रही है. जिसके कारण वे कुठियाला से दो-दो हाथ करने के लिए मीडिया के साथ विश्विद्यालय के कर्मचारियों को भी अपनी इस गंदी मुहिम में लामबंद करने में लगे है. सूत्र ये भी बताते हैं कि कुलपति से भी फैसले लेने में कुछ गलतियां हुई है. ऐसा नहीं कि वे हमेशा सही ही हो. कम्युनिकेशन के माहिर खिलाड़ी कुठियाला को जब नीतिगत फैसले लेने थे, तो उन्हें जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए थी. शायद विचार विमर्श का एक कोना उन्होंने खाली छोड़ दिया. माखनलाल में सरकारी तंत्र को पटरी पर लाने के लिए पहले उन्हें वस्तुस्थिति समझनी चाहिए थी. क्योंकि वो कहते हैं ना कि सितार के तार को उतना ही कसा जाये जिससे कि मधुर संगीत निकले. नाकि तार की डोर ही टूट जाये. शायद माहौल को समझे बिना कुठियाला से यहीं चूक हो गयी. बहरहाल परिवर्तन से नहीं डरने और घबराने वाले कर्मचारियों में से अधिकतर सकारात्मक परिवर्तन के हिमायती हैं. उन्हें बखूबी मालूम है कि सही और गलत क्या है.

प्रॉब्लम और इगो हटाओ, पत्रकार बनाओ

इस विश्वविद्यालय में जो कुछ भी चल रहा है उसका फायदा उठाने में कोई पीछे नहीं रहना चाहता है. आरोप प्रत्यारोप की होली खेली जा रही है. कुछ सज्जन अपने पूर्वाग्रहों को मजबूत बनाने में लगे हुए है. छात्र की फिक्र किसी को नहीं. सब अपनी-अपनी पोलिटिक्स में लगे हैं और अपनी डफली अपना राग अलाप रहे हैं. जो काम कल तक नेता करते थे वो आज पदासीन कर रहे है. विश्वविद्यालय जोर आजमाइश का अखाड़ा बन चूका है. इसमें सबसे ज्यादा पीस रहे हैं स्टूडेंट. क्या डिपार्टमेंट के अंदर चलने वाले शीतयुद्ध बंद नहीं किया जा सकता है? क्या कोई प्रॉब्लम है तो उसे टेबल पर बैठकर खत्म नहीं किया जा सकता है? जब हर चीज़ का सोल्यूशन बातचीत है तो क्यों अपनी-अपनी इगो को लेकर ओछी राजनीति की जा रही है? उन आकाओं को ये जरूर सोचना चाहिए कि जितनी उर्जा इन व्यर्थ के बनावटी हरकतों में खर्च कर रहे है, वो अगर इन युवा शक्ति को एक बेहतर पत्रकार बनाने में करेंगे तो देश और समाज को एक नया भविष्य मिलेगा. कम से कम उन्हें माखनलाल का बीस सालों के इतिहास को भूलना नहीं चाहिए बल्कि इस इतिहास को और मजबूत बनाने की दिशा में पहल करनी चाहिए. अगर गलतियां या गड़बड़ी किसी भी स्तर पर है तो उसे दुरूस्त करने की दिशा में पहल ना की विरोध. ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में सभी मुखियाओं को समझना चाहिए कि अगर विश्वविद्यालय को एक उंचाई देनी है तो शीतयुद्ध, प्रदर्शन, लामबंदी और घिनौनी राजनीति की बर्फ को पिघलाना होगा. सवाल ये भी है कि नवोदितों के दिल में जिस तरह राजनीति और हड़ताल का बीज बोया जा रहा है क्या वो विश्वविद्यालय के भविष्य के लिए शुभ संकेत है? जब ज्यादातर स्टूडेंट पढाई के पक्षधर है तो क्यों कुछ हाथ इस विश्वविद्यालय के शैक्षणिक माहौल में मिर्ची डालने की कोशिश कर रहे हैं? इन सभी विद्वानों को एक मंच पर आकर काम करना चाहिए ना कि स्टुडेंट और कर्मचारियों को अपने निजी स्वार्थ के लिए मोहरा बनाने का काम. काम करने के मिजाज को एक पटरी पर लाकर कम्युनिकेशन के इस इकलौते विश्वविद्यालय से अच्छे पत्रकार पैदा करने के जज्बे को अमलीजामा पहनाना चाहिए जिससे कि देश के चौथे खंभे को मजबूत करने की दिशा में अग्रसर इस पाठशाला को शकुनी की पाठशाला बनने से बचाया जाय.