चेन्‍नई आपदा मौसम के अतिवादी होने का सबूत या नसीहत

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पहले मुम्‍बई फिर उत्‍तराखण्‍ड ,जम्‍मूकश्‍मीर और अब तमिलनाडु की राजधानी
जैसे सम्‍पन्‍न इलाके चेन्‍नई मे जिस तरह प्रकृति के आगे समूचा तंत्र
बेबस नजर आया उसने प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की हमारी तैयारियों पर
सवाल खड़ा कर दिया है ।साथ ही प्रकृति से छेड़छाड़ कर अंधाधुन शहरीकरण की
सरकारों की विकास नीति पर भी सवाल खड़े कर दिये हैं । भारी बारिश की
चेतावनी और तबाही की आशंका पहले ही जता देने के बाद भी मजबूत नेता और
अम्‍मा के रूप मे पहचानी जानेवाली जयललिता का ये कहना कि जब भारी बारिश
होती है तब ऐसे हालात पैदा होते ही हैं ।ये साबित करता है कि हम भले ही
मंगल पर पताका फहरा कर इस मामले मे कई बड़े देशों को पछाड़ चुके हों
लेकिन कुदरती आपदा को देखने और समझने का हमारा नजरिया नही बदला है ।यानी
कुदरती आपदा के लिये अपने को जिम्‍मेदार मानने के बजाय प्रकृति और मौसम
के बदले मिजाज़ को ही गुनहगार बताना सरकारी तंत्र और जिम्‍मेदार लोगों के
बचने के लिये आसान रास्‍ता हैं ।जल की निकासी और नदियों के कुदरती बहाव
के नियमों को ताक पर रख कर हर जगह ताबड़तोड़ शहरी विकास हो रहा है ।इस
लिये अब जब भी सामान्‍य से अधिक बरसात लगातार हो जाती है तो आने वाली
बाढ़ की मारक क्षमता कहीं तेज दिखती है ।आंकड़े बताते हैं कि देश मे
पिछले 62 सालों मे मौसम के अतिवाद खासकर बाढ़ ने बड़ी तबाही मचायी है
।हज़ारों करोड़ की फसलें चौपट हुयी तो लाखों मकान ज़मीदोज़ हो गये ।अभी
देश मे विकास का नया दौर शुरू होने वाला है जिसके तहत लगभग 100 शहरों को
आधुनिक और स्‍मार्ट किया जाना है ।इस लिये जरूरी है कि पिछले छह दशकों के
बाढ़ की तबाही के मंज़र से सबक लिया जाये और स्‍मार्ट शहरों की बसाहट मे
जल निकासी का पुख्‍ता इंतजाम किया जाये ।क्‍यों कि इन शहरों मे ऐसे शहरों
की तादात ज्‍़यादा है जो बड़ी नदियों के किनारे आबाद हैं ।इन नदियों और
ऐसे शहरों का बाढ़ का अपना इतिहास भी है ।सरकार को चाहिये कि वह तीस –
चालिस साल के आंकड़ों के बजाय बीते सौ साल मे नदियों के रूख और जल फैलाव
को ध्‍यान मे रख कर योजना बनाये।क्‍यों कि नदियों का जीवन मानव सभ्‍यता
जैसा ही हजारों साल पुराना है ।
पिछली कई बड़ी तबाहियों से सबक ना लेने का
ही नतीजा है कि तरक्‍की और आधुनिकता की मिसाल समझे जाने वाले चेन्‍नई मे
वहां का प्रशासन भौचक्‍का ही रह गया और देखते – देखते तमाम सड़कें ,भव्‍य
इमारतें ,रेल लाईन ,सरकारी दफ्तर यहां तक की राज्‍य की शान समझा जाने
वाला हावाई अड्डा भी पानी – पानी हो गया ।इस लिये ये सवाल बड़ी तेजी से
गूंज रहा है कि कहीं पर्यावरण को नजर अंदाज़ कर लगातार किये जारहे इस तरह
के विकास पर ये अट्टाहस तो नही है ! कहा जाता है कि अंग्रेजों के समय
पेरियार नदी पर जब बांध बनाया गया था तो साथ मे 25 किलोमीटर लम्‍बी एक
नहर भी तैयार की गयी थी ।लेकिन मेकइन चेन्‍नई के लकदक नारो के बीच अब वह
नहर महज 7-8 किलो मीटर ही शेष है ।समुद्र तक पानी जाने के लिये कुदरती
तौर पर रही कई किलोमीटर लम्‍बी दलदली जमीन को जबरन सुखा कर इमारतें तान
दी गयीं ।बाढ़ के कारणें की पड़ताल करती हुयी एक रपट के मुताबिक फटाफट
बेतरतीब विकास के राजनीतिक वादों की पूर्ती के लिये शहर के कई बड़े
सरोवरों को भी सूखे होने के नाम पर पाट दिया गया ।जिसके चलते दलदली
क्षेत्र सिकुड़ कर एक चौथाई भी नही बचा ।रपट के मुताबिक बाढ़ की तबाही
बता रही है कि जिस चेन्‍नई को देश मे शहरों के विकास और आधुनिकिकरण का
आईना माना जाता है वहां सबसे अधिक र्निमाण कार्य जलसंचयन स्‍थलों और उन
जगहों पर हुये जो जल मार्ग के तौर पर जाने जाते थे । प्रकृति की बनायी
व्‍यवस्‍था से जब भी खिलवाड़ किया जायेगा तो वही हष्र होगा जो चेन्‍नई का
हुआ है ।‘सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट’ (सीएसई) ने भी माना है कि
चेन्नई में अगर उसके प्राकृतिक जलाशय तथा जल निकासी नाले सुरक्षित एवं
संरक्षित होते तो इस विकसित शहर में आज हालात कुछ और होते। सीएसई के
महानिदेशक सुनीता नारायण ने कहा कि हमने इस तथ्य की ओर बार बार ध्यान
आकृष्ट किया है कि दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, चेन्नई, श्रीनगर तथा अन्य
हमारे शहरी इलाकों में उनके प्राकृतिक जलाशयों पर समुचित ध्यान नहीं दिया
गया है। सीएसई का मानना है कि चेन्नई में उसकी प्रत्येक झील में
प्राकृतिक तरीके से बाढ़ का पानी निकालने के चैनल हैं जो बाढ़ के समय
उपयोगी होते हैं। लेकिन तरक्‍की के नाम पर इन जलाशयों पर निर्माण कर पानी
का निर्बाध बहाव ही बाधित कर दिया। हड़पपा की सभ्‍यता से चली आ रही
नालियों की कला को भूला दिया गया ।इस लिये इमारतों के लिए केवल जमीन ही
दिखाई देती है, पानी नहीं।

दरअसल हजारों करोड़ के बजट के सामने पुरखों की सहज बुद्धि के आधार पर बने
तालाबों की क्या औकात।बताया जाता है कि अंग्रेजों के समय तक मद्रास
प्रेसिडेंसी में 53,000 तालाब थे।उस समय की मद्रास प्रेसिडेंसी मे
तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, केरल और कर्नाटक का कुछ हिस्सा आता था।ये
सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि क्या आज ये तालाब बचे होंगे।क्‍या ये
सही नही है कि तबाही ऊपर से नहीं आती बल्‍कि हम तबाही का कारण खुद से
जुटा कर रखते हैं। जब भी कहीं मौसम के अतिवादी होने की घटना से तबाही
होती है तो सब का सारा ध्‍यान राहत और बचाव कार्य के किस्सों पर ही टिक
जाता है और उसी की वाहवाही के बाद सब कुछ सामान्य हो जाता हैं।इसी लिये
सरकार को भी बचकर निकल जाने का मौका मिल जाता है। ।
जनता भी उन मुद्दों पर ख़ूब उछलती जिनका
दूरगामी परिणाम नही होता है, वह पर्यावरण जैसी गम्भीर बात पर नही लड़ती
है। हिमालय के ग्लेशियरों की नाज़ुक हालत और भविष्य में उससे होने वाले
ख़तरों पर पिछले बीस-पच्चीस सालों में न जाने कितने शोध हो चुके हैं ।
लेकिन कौन सुनता है इन बातों को,उलटे सवाल खड़ा कर दिया जाता है कि विकास
बड़ा या पर्यावरण? हाल के वर्षों में पहाड़ों में होनेवाली प्रकृतिक
आपदाओं की संख्या तेज़ी से और लगातार बढ़ी है। उत्तराखंड की भयावह
त्रासदी के बावजूद पहाड़ों में सब कुछ वैसा ही अन्धाधुन्ध चल रहा
है।हरिदूवार से आगे बढ़ने पर मसूरी और उससे उूपर,नैनिताल , गढ़वाल या फिर
हिमांचल मे कहीं भी देखा जा सकता है कि किसी ने कुछ नहीं सीखा !नेता ,
बिल्‍डर और अफसरों का गठजोड़ नदियों के तट , पहाड़ों की घाटी यहां तक की
पहाड़ों को पाट या समतल कर के विशाल इमारतें खड़ी कर रहा है ।सड़कों के
किनारे के गांव रेस्‍टोरेन्‍ट और दुकानों से शहरी बाजार मे तब्‍दील हो
गयें हैं ।हालात यहां तक पहुंच गये हैं कि जलधारा के बीच मे भी खानेपीने
की दुकाने लगाने की अनुमति भी वैध तरीके से देदी गयी है ।पहाड़ों की
आमदनी से अपना खज़ाना भरने वाले राज्‍यों के अलावा उत्‍तर भारत के दूसरे
राज्‍यों मे भी आज विकास के नाम पर पहाड़ काटे या समतल किये जा रहे हैं
।गैर जरूरी सड़कें बनाने के लिये पहाड़ों को चीरा जा रहा है और उसकी
चट्टानों से खायी पाट कर सुंदरता का आवरण चढ़ाया जा रहा है ।जरा गौर
करिये समतलीकरण से पहाड़ तो गया ही जंगल भी कट गया ।मुनाफा केंद्रित
व्यवस्था में पर्यावरणविदों की आवाज को विकास विरोधी बता कर दबाया जा रहा
है । दरअसल इससे नदी घाटियों की ढलानें नंगी हो रही हैं जिसके दुष्परिणाम
रूवरूप भूस्खलन, भूक्षरण, बाढ़ आती है । मौसम और आपदा पर नजर रखने वाली
संसथा सीएसइ ने अपनी रिपोर्ट में खुलासा किया है कि देश में की
प्राकृतिक विपदा भयावह रूप से बढ़ गयी हैं।सन 1900 के दशक में जहाँ मौसम
की अति की केवल दो-तीन घटनाएँ हर साल होती थीं, वहीं अब साल में दर्जनों
ऐसी घटनाएँ हो जाती हैं, जहाँ हमें मौसम की मार झेलनी पड़ती है। इसी के
चलते पिछले दस सालों में देश में पांच से अधिक तबाही फेलाने वाले हादसे
हो चुके हैं। 2005 में मुम्बई, 2010 में लेह, 2013 में उत्तराखंड फिर
जम्मू-कश्मीर और अब चंन्‍नई में वर्षा की अति से तबाही आयी । क्या
शसनतंत्र और नीति नियनताओं को इससे भी बड़े कुछ और सबूत चाहिए, यह मानने
के लिए कि कहीं कुछ गड़बड़ है।दरअसल कोई चेतावनी, कोई त्रासदी हमें डराती
नहीं, न हादसे के पहले, न हादसे के बाद।ये सबसे बड़ा सवाल हमेशा खड़ा
रहता है कि पर्यावरण को लेकर वतर्मान काहे को चिन्ता करे, उसे आज जो करना
है कर ले।क्‍यों कि उसे कुर्सी पाने और जनता को लुभाने के लिये तमाम जतन
करने हैं । पर्यावरण बिगड़ने का नतीजा आते-आते सालों लगेंगे तब जो होगा
वह जिम्‍मेदार होगा और भुगतेगा ।पिछले कई दशकों से देश मे यही दस्‍तूर चल
पड़ा है ।
बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश और
पूर्वोत्तर के राज्यों में भी बाढ़ की समस्या हर साल पैदा होती है, पर अब
तक बाढ़ को नियंत्रित करने की कोई कारगर योजना नहीं बन पाई है।इसलिए जब
वर्षा कम होती है, तो सूखा पड़ जाता है और जब अधिक होती तो बाढ़ आ जाती
है।उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र और हरियाणा के कुछ भागों में जल निकासी बाधित
होने के कारण बाढ़ आ जाती है। महानदी में ज्वार-भाटा की लहरों और भागीरथी,
दामोदर में तट के कटाव के कारण बड़े-बड़े क्षेत्र जलमग्न हो जाते हैं। अब
रेगिस्तानी प्रदेश राजस्थान और गुजरात में भी बाढ़ आने लगी है। यह नई
विकास नीतियों और बड़े-बड़े बांधों का नतीजा है। बाढ़ के प्राकृतिक कारण तो
हमेशा से रहे हैं, लेकिन विकास की विसंगतियों से यह समस्या गहराई है।देश
की लगभग चार करोड़ हेक्टेयर जमीन बाढ़ प्रभावित है।हाल मे जारी एक सरकारी
रिपोर्ट के मुताबिक देश में पिछले 62 वर्षों के दौरान बाढ़ के कारण प्रति
वर्ष औसतन 2130 लोग मारे गए और 1.2 लाख पशुओं का नुकसान हुआ। जबकि औसतन
82.08 लाख हेक्टेयर इलाका प्रभावित हुआ और 1499 करोड़ रूपये मूल्य की
फसलें बर्बाद हुईं ।तो वहीं 739 करोड़ रुपये के मकानों को नुकसान पहुंचा
और सार्वजनिक सेवाओं को 2586 करोड़ रुपये के नुकसान का सामना करना पड़ा।
दरअसल, बाढ़ और सूखे की समस्याएं एक-दूसरे से जुड़ी हैं। इसलिए इनका समाधान
जल प्रबंधन की कारगर और बेहतर योजनाएं बना कर किया जा सकता है।आंकड़ों के
मुताबिक राष्ट्रीय बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रम के अंर्तगत डेढ़ सौ लाख
हेक्टेयर क्षेत्र को एक सीमा तक बाढ़ से सुरक्षित बनाने की व्यवस्था की जा
चुकी है। इसके लिए 12,905 किमी लंबे तटबंध 25,331 किमी लंबी नालियां और
4,694 गांवों को ऊंचा उठाने का कार्य किया गया है। इस पर 1,442 करोड़ रुपए
खर्च किए गए हैं। पिछले पचास वर्षों में कुल मिला कर बाढ़ पर सत्तर हजार
करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं। पर हमारे देश में जिस बड़े पैमाने पर बाढ़
आती है, उस हिसाब से अभी बहुत काम बाकी है।
** शाहिद नकवी **

4 COMMENTS

    • आर सिंह सर लेख पढ़ने के लिये सादर आभार ।मै भी कुछ ऐसा ही सोचता हूं। लेकिन कलम है कि मानती नही और मन का गुस्‍सा शांत होता नही ।इस लिये लिखना मेरी मजबूरी है ।एक धुंधली सी उम्‍मीद है कि शायद चेतना जाग जाये ।

  1. विडम्बना है की तबाही के इन संकेतों का राजनीति में कोई स्थान नहीं।
    कैसा दुर्भाग्य है की जो भारत संसार के प्राणियों, वनस्पतियों और प्राकृतिक संसाधनों की पूजा करता था वो भी पश्चिमी विकास का अंधा चश्मा लगा कर आगे जाना चाह रहा है॥
    फिर भी कुछ मानवों की देह में देव अपना निष्काम कर्म कर रहे हैं और संसार की रक्षा हेतु अपना योगदान दे रहे हैं….

    सादर धन्यवाद शाहिद बंधु…..

    • राम सिंह यादव जी लेख पढ़ने और उस पर प्रतिक्रिया देने के सादर आभार ।एक अच्‍छा खासा पहाड़ सड़क चौड़ी करने के नाम चीर दिया गया । जबकि उस सड़क से अभी भी एक साथ दो वाहन निकल सकते हैं ।मरम्‍मत और सुधार से भी बेहतर काम हो सकता था । लेकिन बेरहमी से पहाड़ को उजाड़ा जा रहा है ।

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