चिल्ल-पो जारी है…


वीरेन्द्र सिंह परिहार
नये राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अपने शपथ ग्रहण समारोह के दौरान गांधी के साथ पंडित दीनदयाल उपाध्याय का नाम लेकर जैसे कोई बड़ा अपराध कर दिया हो। विरोधियों का कहना है कि महात्मा गांधी की तुलना दीनदयाल से कैसे की गई? इसके साथ कांग्रेसजनों की इस बात की भी बड़ी तकलीफ रही कि नये राष्ट्रपति ने इस अवसर पर पंडित जवाहरलाल नेहरु और श्रीमती इंदिरा गांधी का उल्लेख क्यों नहीं किया? इसके पहले जब भाजपा द्वारा उन्हें राष्ट्रपति का उम्मीदवार घोषित किया गया तब भी तरह-तरह की बातें सुनने को मिली। जैसे वह नरेन्द्र मोदी की निजी पसंद हैं, उन्हें लोग ठीक से जानते तक नहीं। उनकी काबिलियत पर सवाल उठाये गए। इस संबंध में यह बता देना आवश्यक है कि जहां तक नरेन्द्र मोदी की निजी पसंद का सवाल है, उसका कहीं अस्तित्व ही नहीं है। क्योंकि नरेन्द्र मोदी की राजनीति न तो व्यक्ति केन्द्रित है और न परिवार केन्द्रित, वह विचारधारा केन्द्रित है। जहां तक विचारधारा का सवाल है, तो वह राष्ट्रवादी विचारधारा है जो राष्ट्र को सम्पन्न, समर्थ और शक्ति सम्पन्न बनाना चाहती है। कुछ ऐसी ही विचारधारा नये राष्ट्रपति की भी है, क्योंकि दोनों ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंध रखते हैं। इस तरह से मोदी की पसंद तो हो सकती है, पर निजी पसंद नहीं। यानी वह पसंद राष्ट्र और समाज के व्यापक परिपेक्ष्य पर आधारित होती है। रामनाथ कोविंद सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता रह चुके हैं। दो-दो बार राज्यसभा में रह चुके हैं। बिहार के राज्यपाल थे ही, जहां उनकी योग्यता के कायल स्वतः बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कमार थे। उनकी योग्यता का सबसे बड़ा मापदण्ड यही है कि वह 1977 के दौर में तात्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के विशेष सहायक रह चुके हैं। इसमें कोई दोमत नहीं कि मोरारजी जैसे सख्त मिजाज और दृाड़ू लगा सकता हॅू। उन्होंने कभी ऐसा भी नहीं कहा कि किसी खानदान या व्यक्ति विशेष का सेवक हॅू। अब रहा सवाल दूसरी बात का कि अपने शपथ ग्रहण के दौरान उन्होंने गांधी के साथ पंडित दीनदयाल की तुलना क्यों की? पहली बात तो यह कि गांधी के साथ किसी और के योगदान की तुलना करना उनसे तुलना करना नहीं है। दूसरे यदि सचमुच में गांधी के साथ किसी की तुलना हो सकती है, तो वह एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल ही हो सकते हैं। जहां तक व्यक्तिगत स्तर का प्रश्न है, तो चाहे चरित्र का प्रश्न हो, ईमानदारी का सवाल हो, शुचिता और सादगी का प्रसंग हो? वहां पंडित दीनदयाल कहीं भी गांधी से उन्नीस नहीं ठहरते। गांधी यदि लंगोटी लगाते थे, तो पंडित दीनदयाल भी भारतीय जनसंघ के महामंत्री होते हुए रेल्वे के तृतीय श्रेणी में यात्रा करते थे। गांधी का तो अपना परिवार था, पर पंडित दीनदयाल का कोई परिवार नहीं था, वरन सम्पूर्ण राष्ट्र ही उनका परिवार था। निस्संदेह देश की आजादी में गांधी जी का बहुत बड़ा योगदान है। पर पंडित दीनदयाल जी ने अनुशासन, जीवन मूल्यों और राष्ट्रवाद के आधार पर ऐसा दल खड़ा किया जो आज देश का सबसे बड़ा ही नहीं सम्पूर्ण बहुमत के साथ शासन में है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का ‘‘एकात्म मानववाद’’ एक ऐसा जीवनदर्शन है, जो भारतीय जीवन मूल्यों पर आधारित है और जीवन को सम्पूर्णता से देखता है। निस्संदेह जब आज के दौर में पूॅजीवाद, साम्यवाद, समाजवाद जैसी विचारधाराएॅ एक तरह से कालवाह्य हो चुकी हैं, वहां एकात्म जीवन दर्शन ही पूरी तरह प्रासंगिक दिखता है। पर कुछ लोगों के लिए पंडित दीनदयाल को गांधी के साथ इसलिए नहीं रखा जा सकता कि उनकी दृष्टि में पंडित दीनदयाल साम्प्रदायिक थे, क्योंकि वह हिन्दुत्व के विचारों से ओत-प्रोत थे। वह मुसलमानों की पृथक पहचान पर भरोसा न कर उन्हें सम्पूर्ण राष्ट्र-जीवन का ही अंग मानते थे। सवाल यह है कि क्यां गांधी हिन्दुत्व के विचारों से ओत-प्रोत नहीं थे? तभी तो वह धर्मविहीन राजनीति को शव के समान मानते थे। उनका कहना था कि गीता के श्लोक और रामायण की चैपाइयाॅ उन्हें सूरज न डूब सकने वाले ब्रिटिश साम्राजय से टकराने की ताकत देती हैं। 24 अक्टूवर 1909 को लंदन के एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा था जिस देश में राम जैसे महापुरुष पैदा हुए हों, उस पर हिन्दू-मुसलमान सभी को गर्व करना चाहिए। गांधी और दीनदयाल दोनों ही स्वदेशी घोर पक्षधर थे। सवाल यह कि नये राष्ट्रपति ने पंडित जवाहरलाल नेहरु और श्रीमती इंदिरा गांधी के योगदान को क्यों नहीं स्मरण किया? तो क्या महामहिम को उक्त अवसर पर यह बताना उचित होता कि पंडित नेहरु ने पंजाब के तात्कालीन मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरो के भ्रष्टाचरण के मुद्दे पर कहा था कि देश का पैसा देश में ही है, यानी इस तरह से देश के प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचार से समझौता किए, जबकि उसे वह शुरुआती दौर में ही समाप्त कर सकते थे। कुलदीप नैयर ने अपनी किताब ‘विटबीन द लाइन्स’ में स्व. लाल बहादुर शास्त्री के द्वारा यह कहा गया है कि वह इन्दु अर्थात इन्दिरा गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर देखना चाहते थे। इस तरह से स्वतंत्र भारत में पंडित नेहरु को भ्रष्टाचार के साथ वंशवाद का भी जनक मानना चाहिए। कश्मीर समस्या, मुस्लिम तुष्टीकरण, रक्षा तैयारियों की अनदेखी के लिए सबसे ज्यादा पंडित नेहरु ही जिम्मेदार कहे जा सकते हैं। सबसे बड़ी बात यह कि जो व्यक्ति यह कहे कि मैं दुर्घटनावश हिन्दू हॅू, राष्ट्रपति कोविंद उसका उल्लेख कैसे कर सकते हैं? क्योंकि हिन्दू का मतलब इस देश की संस्कृति और राष्ट्रीयता से है, जिसकी पुष्टि भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी कर चुका है। रहा सवाल इंदिरा गांधी का तो भ्रष्टाचार को संस्थागत रुप देना, वंशवाद को सिद्धांत बतौर राजनीति में प्रतिष्ठित करने के लिए इन्दिरा गांधी ही मूलतः जिम्मेदार है। संविधान या राष्ट्र के प्रति निष्ठा और समर्पण की जगह यह सब खानदान विशेष के लिए होना चाहिए, यह सब काम इन्दिरा गांधी के दौर में ‘खुला खेल फर्रुखावादी’ की तर्ज पर हुआ। संवैधानिक संस्थाओं की जैसी गरिमा नष्ट की गई और उनमें अपने हिसाब से काम करने वाले लोग बैठाए गए, इसके चलते पंडित दीनदयाल के शब्दों में राष्ट्र की ‘विराट’ शक्ति का ह्रास हुआ। जिसके चलते राष्ट्र एक गहरे दलदल में धंस गया और उनके उत्तराधिकारी लूट को ही अपना अभीष्ट मानने लगे। बड़ी बात यह कि जो लागे नए राष्ट्रपति से ऐसी शिकायत है, तो उनके पास इस बात का क्या जवाब है कि एक खानदान के सिवा सुभाषचंद बोस और सरदार पटेल जैसे महान विभूतियों के लिए भी उनके यहां कोई जगह क्यों नहीं थी? अब जब मोदी दौर में सरदार पटेल की महत्ता को रेखांकित किया जा रहा है तो भी इनके पेट में दर्द होता है, कि सरदार पटेल हमारी विरासत हंै, जो हमसे छीनी जा रही है। गांधी के बारे में इनका दृष्टिकोण ऐसा है जैसे गांधी कोई इनकी निजी प्रापर्टी हों। ऐसे तत्वों को यह बखूबी पता होना चाहिए कि वर्तमान दौर में चाहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हों या राष्ट्रपति कोविंद हों, वह संघ की पृष्ठभूमि के हैं, इसलिए वह कोई बात संघ की दृष्टि से ही कहेंगे। यानी जिन्होंने राष्ट्र को सही दिशा देने का प्रयास किया है, उन्हीं का स्मरण करेंगे। इसके लिए उन्हें जनादेश भी प्राप्त है। ऐसे लोगों को कोई भी आलोचना के पहले ऐसे लोगों को अपना दौर भी याद कर लेना चाहिए।

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