डॉ. पी.सी.एलेक्जेंडर (20 मार्च 1921 – 10 अगस्त 2011) से पांचजन्य साप्ताहिक पत्र (30 जनवरी 2005) ने लंबी बातचीत की थी। चूंकि यह बातचीत भारतीय विचार को पुष्ट करनेवाली और सभ्यतामूलक विमर्श की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, इसलिए हम इसे यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। (सं.)
अगर सोनिया गांधी विरोध न करतीं तो निश्चित था कि डॉ. एलेक्जेंडर भारत के राष्ट्रपति होते। परन्तु “त्यागमयी” सोनिया की सोच थी कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री, दोनों पदों पर ईसाई नहीं हो सकते, इसलिए उन्होंने डा. एलेक्जेंडर के राष्ट्रपति बनने का विरोध किया। यानी तभी से वे प्रधानमंत्री पद पर नजर गढ़ाए हुए थीं।
उन्हें क्या कहा जाए, एक वरिष्ठ कूटनीतिक, सफल लोकसेवक, राजनेता, प्रभावी उच्चायुक्त, पूर्व राज्यपाल या सांसद ? डा. पदिनजरेथलकल चेरियन एलेक्जेंडर का व्यक्तित्व है ही बहुआयामी। मावेलीकारा (केरल) में जन्मे डा. एलेक्जेंडर देश और विदेश के प्रतिष्ठित संस्थानों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद वाणिज्य मंत्रालय में सचिव रहे, दो प्रधानमंत्रियों के प्रमुख सचिव के रूप में काम किया, स्वर्गीया श्रीमती इंदिरा गांधी के तो वे सचिव कम निकट सलाहकार अधिक थे, यू.के. में भारत के उच्चायुक्त रहे, तमिलनाडु और महाराष्ट्र के राज्यपाल रहे, संयुक्त राष्ट्र में वरिष्ठ पद की जिम्मेदारी निभाई और जुलाई, 2002 से राज्यसभा के सांसद हैं। धीमा और मीठा बोलने वाले, सामने वाले की बात को गंभीरता से सुनने वाले और गंभीर व्यक्तित्व के धनी हैं डा. एलेक्जेंडर। उनके पढ़ने-लिखने के कमरे में उनकी कुर्सी के पीछे दीवार पर कांची मठ के ब्राह्मलीन परमाचार्य स्वामी चंद्रशेखरेन्द्र सरस्वती का चित्र लगा है तो एक छोटी सी ईसा मसीह की छवि भी है। वे भारतीय विद्या भवन (अंतरराष्ट्रीय) के न्यासी एवं वरिष्ठ उपाध्यक्ष हैं। छह पुस्तकों के लेखक डा. एलेक्जेंडर की पिछले दिनों प्रकाशित हुई आत्मकथा “थ्रू द कोरिडोर्स आफ पावर” काफी चर्चा में रही। पाञ्चजन्य ने डॉ. एलेक्जेंडर से विभिन्न आयामों पर लम्बी बातचीत की। यहां प्रस्तुत हैं उसी के प्रमुख अंश-(आलोक गोस्वामी)
आपकी दृष्टि में भारतीय संस्कृति क्या है?
संस्कृति की यूं तो अनेक प्रकार से व्याख्या की गई है। लेकिन इन सबमें एक भूल जो समान रूप से दिखाई देती है, वह है शिक्षा या कहें साहित्य, संगीत, कला, काव्य आदि विधाओं में सिद्धता हासिल करने को ही संस्कृति से जोड़ कर देखा गया है। पर वास्तव में समाज के एक सदस्य के नाते किसी व्यक्ति द्वारा एक बहुत परिष्कृत रूप में की जाने वाली प्रतिक्रिया ही उसकी संस्कृति का परिचय देती है। वैदिक और उसके बाद के साहित्य में एक शब्द है-संस्कार। बौद्धिक परिष्कार ही संस्कार कहलाता है और इस निखरे बौद्धिक ज्ञान के आधार पर की जाने वाली प्रतिक्रिया दरअसल संस्कृति का दर्शन कराती है। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति साहित्य की दृष्टि से अथवा संगीत, काव्य की दृष्टि से बहुत सुसंस्कृत हो, पर हो सकता है वह अपने परिवार या अन्य व्यक्तियों से व्यवहार में बड़ा रूखा और अक्खड़ हो। ऐसे व्यक्ति को संस्कारी कैसे कहा जा सकता है।
सभ्यता और संस्कृति में क्या अंतर है?
संस्कृति और सभ्यता में एक गहन अंतर है, लेकिन आमतौर पर दोनों को एक-दूसरे के समान देखा जाता है। सभ्यता किसी एक व्यक्ति के नहीं बल्कि पूरे समाज संदर्भ में आंकी जाती है।
राज्य व्यवस्था के उदय से पहले यानी राज्य और सरकार के एक संस्था के रूप में उदय से पहले लोगों की पहचान उनकी सभ्यता से होती थी। उस समय भौगोलिक सीमाएं नहीं होती थीं। यह तो जब राज्य और राष्ट्र की अवधारणा का उदय हुआ तब भौगोलिक सीमाएं महत्वपूर्ण हो गर्इं। पुराने समय में भौगोलिक सीमाएं तो महज व्यक्तिगत गौरव का बखान करते समय ही चर्चा में आती थीं अन्यथा लोगों की पहचान उनकी सभ्यता से ही होती थी। इजिप्ट की सभ्यता, मैसोपोटामिया की सभ्यता, हिन्दू सभ्यता और बाद में ग्रीक सभ्यता, रोमन सभ्यता आदि से लोगों की पहचान होती थी। खुद भारत की कोई निश्चित भौगोलिक सीमा नहीं थी, हालांकि तीन तरफ महासागर और एक तरफ विशाल हिमालय होने के कारण भूगोल ने हमारे लिए भौगोलिक स्थिति की पहचान आसान कर दी थी। लेकिन उस समय, उदाहरण के लिए, भारत और अफगानिस्तान में अलग से भौगोलिक सीमा का निर्धारण नहीं था। अत: संस्कृति, सभ्यता और किसी व्यक्ति की साहित्य, कला, संगीत में निपुणता के बीच जो अंतर है हमें उसका ध्यान रखना चाहिए।
हमारी संस्कृति का विशिष्ट आयाम क्या है? हमारी वास्तविक पहचान क्या है?
हमारी संस्कृति का विशिष्ट आयाम है वेदों का ज्ञान। हर वह बात जिसे हम नैतिक व अपने पारंपरिक मूल्यों के अनुसार उचित मानते हैं, बहुत स्पष्ट रूप से वेदों और उपनिषदों की व्याख्याओं में वर्णित है। इसके बाद “स्मृति काल” में वेदों के ज्ञान-भण्डार का वर्णन और व्याख्याएं दी गर्इं। फिर महाकाव्यों के रचना काल यानी रामायण, महाभारत काल की ओर देखते हैं तो अयोध्या के राजा राम का उच्च आदर्श दिखाई देता है या फिर कृष्ण के विराट स्वरूप का दर्शन होता है। हिन्दू इन्हें भगवान के अवतार के रूप में देखते हैं, क्योंकि वे वेदों में वर्णित सत्यता, नैतिकता, मूल्य, दर्शन और आदर्श के साक्षात् स्वरूप थे। अगर आप राम और कृष्ण को अवतार रूप से अलग एक पूर्ण पुरुष के रूप में देखें तो पाएंगे कि वेदों में केवल विशुद्ध दर्शन या गुफाओं, जंगलों में रहने वाले व्यक्तियों के जीवन का वर्णन नहीं है बल्कि जीवन से सभी व्यावहारिक पक्षों, चाहे वह प्रशासन का कार्य हो, समाज के बीच नेता के रूप में व्यवहार हो, राजा हो या प्रजा हो, सभी के लिए संदेश है। जीवन जीने का दर्शन है। अवतारी पुरुषों की महानता इसी में थी कि उन्होंने वेदों की सत्यता का व्यवहार रूप सबके सामने रखा। एक साधारण मनुष्य के लिए वेदों के अनुसार जीवन जीना कितना व्यावहारिक है, यह उन अवतारी पुरुषों ने अपने जीवन से सिद्ध किया था।
मैंने वेदों की टीका और महाभारत का अध्ययन किया है। इसमें एक जगह पितामह भीष्म युधिष्ठिर को राजा का धर्म, उसका कर्तव्य समझाते हैं। महाभारत में हर उस बात का वर्णन है जो धर्म के, सत्य के मार्ग पर चलने का ज्ञान देती है। लेकिन महाभारत भी वेदों का ही एक अंश है। दरअसल वेद ही भारतीय संस्कृति, मूल्यों का मूलस्रोत हैं। वेदों में जीवन की सत्यता और उसे व्यवहार में उतारने का ज्ञान है।
गीता का संदेश भी तो यही है…।
गीता वेदों का कर्म रूप है। वेदों और गीता के मर्म का गहन अध्ययन करने वाले स्वामी विवेकानन्द ने बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा था-कृष्ण वेदों के अधिष्ठाता नहीं हैं, बल्कि वेद, कृष्ण के अधिष्ठाता हैं। कुरुक्षेत्र में कौरव-पाण्डव सेनाएं युद्ध के लिए आमने-सामने खड़ी थीं। अर्जुन का रथ लेकर श्रीकृष्ण बीचोंबीच आए। अर्जुन ने अपने ही परिजन के विरुद्ध हथियार उठाने से मना कर दिया। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से एक ही वाक्य कहा-तुम अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करो। तुम क्षत्रिय हो, शस्त्र उठाओ। श्रीकृष्ण ने तब गीता का उपदेश दिया था। गीता तो वेदों में वर्णित सत्य का ही एक अंश है। श्रीकृष्ण ने कहा था-“धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे”। संस्थापना का अर्थ है पहले से ही मौजूद किसी चीज को सुदृढ़ करना। तो कृष्ण ने कहा, “धर्म की संस्थापना के लिए मैं फिर-फिर अवतार लूंगा।”
भगवान के अवतार लेने का उद्देश्य धर्म की स्थापना और संरक्षण होता है। धर्म हमारी संस्कृति का मूल है। जब भगवान देखते हैं कि धर्म पर खतरा है, लोग अधर्म और पतन की ओर बढ़ रहे हैं तो धर्म की स्थापना के लिए वे अवतरित होते हैं। भगवान यह वायदा भी करते हैं कि इस बार ही नहीं, आगे भी जब-जब धर्म पर आंच आएगी तो मानवता की रक्षा के लिए मैं फिर-फिर आऊंगा। यह मानवता को उसके सर्जक का आश्वासन है।
आप ईसाई पंथ के अनुयायी हैं, लेकिन तब भी वेदों, उपनिषदों, गीता, रामायण को इतनी सहजता से उद्धत करते हैं। इनके अच्छे जानकार हैं। यह कैसे संभव हुआ?
नहीं, नहीं भई। मैं इतना गहन जानकार नहीं हूं। हां, बचपन से ही मैं इन ग्रंथों के प्रति दिलचस्पी रखता था। मैंने अपनी हाल में प्रकाशित पुस्तक “थ्रू द कोरिडोर्स आफ पावर” में इस बात का जिक्र किया है। वह मेरी आत्मकथा है, जिसमें मैंने अपने जीवन पर पड़े विभिन्न प्रभावों की चर्चा की है। केरल में मावेलीकारा में हमारे घर से कुल 150 गज की दूरी पर प्रसिद्ध भगवती मंदिर था जो अत्यंत प्राचीन मंदिरों में से एक है। घर से चर्च 200 गज दूर था। मुझे बचपन की अच्छी तरह याद है, हमारा घर भगवती मंदिर और चर्च के बीच में था। मंदिर के उत्सव मेरे लिए उतने ही महत्वपूर्ण होते थे जितने हमारे चर्च के उत्सव। उस समय मुझे इस बात की कोई परवाह नहीं थी कि मैं एक ईसाई हूं। मैंने मन्दिर के उत्सव-समारोहों में भाग लिया तो चर्च के भी उत्सवों में शामिल हुआ। मेरे अंदर धीरे-धीरे मंदिर के प्रति रुचि बढ़ती गई, आध्यात्मिकता की ओर रुझान बढ़ता गया। तब मैंने इन ग्रंथों का अध्ययन शुरू किया। मुझे लगता है कि स्वामी विवेकानंद के वचनों का मेरे जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा है। मैंने उनकी सभी पुस्तकें पढ़ी हैं। मैंने डा. राधाकृष्णन द्वारा लिखा गीता भाष्य, उसकी विस्तृत व्याख्या तथा उनके द्वारा की गयी दार्शनिक मीमांसा का अध्ययन किया। डा. राधाकृष्णन हमारे देश की महानतम बौद्धिक विभूति थे। इसी तरह मेरी दिलचस्पी धर्म ग्रंथों में बढ़ती गई। लेकिन मैं उस तरह से इनका गहन जानकार नहीं हूं।
वेद, उपनिषद, ग्रंथों का भारत में अत्यंत आदर का स्थान है। सभी समुदाय उनके प्रति श्रद्धा-भाव रखते हैं।
बिल्कुल ठीक कहा आपने। लेकिन अंग्रेजों ने वेदों का उस तरह का आदर नहीं किया था जितना कि उनका किया जाना चाहिए। अंग्रेज प्राचीन ग्रीक साहित्य को ही ज्ञान का शिखर मानते थे और रोम के कानून ही उनके लिए मान्य थे। अत: रोम और ग्रीस ही उनको संस्कृति के मूलमंत्र देने वाले लगते थे। यही कारण था कि उच्च शिक्षा में ग्रीक और लैटिन ज्ञान उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण था, अनिवार्य था। ग्रीक और लैटिन ज्ञान रखने वाले को ही वे सही मायनों में शिक्षित समझते थे। उन्होंने कभी पूरब के दर्शन को और मत-पंथों को जानने की कोशिश नहीं की।
जिस समय अंग्रेज भारत में आए, उस समय हिन्दुत्व की क्या स्थिति थी?
जब वे हमारे देश को उपनिवेश बनाने आए उस समय यहां हिन्दुत्व उतना प्रभावशाली नहीं था। हम जानते हैं कि हिन्दुत्व में समय-समय पर उतार-चढ़ाव आते रहे हैं। 17वीं सदी के उत्तराद्र्ध और 18वीं सदी में हिन्दुत्व के नाम पर अनेक तरह के विकार दिखाई देते थे। सभी तरह के दुष्कर्म हो रहे थे, अस्पृश्यों से दुव्र्यवहार होता था, कर्मकांडों में हल्की सी भी भूल होने पर धर्म के नाम पर सजा दी जाती थी, दलितों को मंदिर में जाने की मनाही थी, महिलाओं के लिए वेदों का अध्ययन मना था, गैर-ब्राह्मण वेदों का अध्ययन-अध्यापन नहीं कर सकते थे। धर्म के नाम पर सभी तरह के विकार थे। कुछ लोग योग्य न होते हुए भी अपनी साख बढ़ाने, समाज में अपनी जाति को ऊंचा रखने के लिए धर्म की अपनी ही व्याख्या करते रहे। उन्होंने धर्म की अवधारणा को दूषित किया। भारत की पूरी सभ्यता को उस कालखण्ड में इन गलत विचारों ने प्रभावित किया हुअा था। यूं तो हर सभ्यता में उतार-चढ़ाव दिखते रहे हैं, उसी तरह भारत की सभ्यता उस कालखण्ड में बहुत निम्न स्तर पर थी।
ब्रिटिश जब भारत आए तब यहां के लोगों के प्रति उनके मन में कई तरह के पूर्वाग्रह थे, जैसे- यहां के लोग तो सांपों की पूजा करते हैं, गाय की पूजा करते हैं, इनके हजारों भगवान हैं आदि-आदि। उन्होंने कभी भी भारत की असली संस्कृति को जानने की कोशिश नहीं की।
19वीं सदी में जब ओपेनहेमर, मैक्स मूलर और अन्य जर्मन विद्वानों ने भारतीय संस्कृति की, साहित्य की महत्ता को पहचाना। संस्कृत साहित्य ने उन दार्शनिकों के दशकों से उलझे सवालों के हल का रास्ता दिखाया। जीवन क्या है? भगवान कहां हैं? आत्मा और परमात्मा में क्या संबंध है? दुनिया में इतना अन्याय क्यों है? क्यों आखिर कुछ लोग जीवन के आनंद का भोग किए बिना अपनी इहलीला समाप्त कर लेते हैं? आदि अनेक गूढ़ सवालों के जवाब भारतीय साहित्य के अध्ययन से उन्हें मिले।
हमारे प्राचीन साहित्य का अन्य भाषाओं में अनुवाद भी तो किया गया।
हां, इन जर्मन विद्वानों ने जब हमारे प्राचीन भारतीय साहित्य के महत्व को जाना तो सबसे पहले उसे जर्मन भाषा में रूपांतरित किया। जर्मनी से यह ब्रिटिश विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी में रूपांतरित करने के लिए भेजा गया। लेकिन जब भारत को उपनिवेश बनाने का क्रम चला तब यहां की सांस्कृतिक विरासत तक अंग्रेजों की पहुंच नहीं थी। उन्होंने तो भारत में केवल अधकचरापन ही देखा था। बाल विवाह, विधवा विवाह, सती आदि सामाजिक कुप्रथाएं उस समय प्रचलित थीं। उन्हें लगा कि यही हिन्दू धर्म है, यही भारत की राष्ट्रीय सभ्यता है। भारत की बिगड़ी हुई छवि ही उन्हें दिखाई दी।
धन्यवाद है उन जर्मन विद्वानों का जिन्होंने भारतीय साहित्य का अध्ययन किया, रूपान्तरण किया और विदेशियों के लिए महान भारतीय संस्कृति, सांस्कृतिक विरासत का द्वार खोला।
हमारे धर्म ग्रंथों ने प्रेम का, सच्चाई का मार्ग दिखाया। सभी मत-पंथों द्वारा उनका आदर किया गया। आप स्वयं कह चुके हैं कि आपने अपने बचपन में मंदिर के उत्सवों में भी भाग लिया तो चर्च के उत्सवों में भी। आखिर क्यों हमें आज मत-पंथों के बीच अविश्वास और विद्वेष दिखाई देता है? इस विद्वेष की जड़ क्या है?
इस विद्वेष की जड़ है पंथों का राजनीतिकरण। पहले तो राजा और उसके अधीन राज्यकर्मी ही सत्ता की बागडोर सम्भालते थे। लेकिन बाद में चुनावी राजनीति के उदय के साथ सरकारें चुनी जाने लगीं, चुनाव व्यवस्था शुरू हुई, प्रतिनिधि सरकारें बनने लगीं और चुनाव सत्ता तक पहुंचने का मार्ग बन गए। इसी के साथ साम्प्रदायिकता का उदय हुआ। पंथ का राजनीतिक महत्व बढ़ गया।
पंथ-मजहब के आधार पर विधानक्षेत्रों का गठन हुआ। मिंटो-मोर्ले सुधार बड़े हिस्से में लागू थे और सीमित मात्रा में सत्ता का हस्तांतरण था। मुसलमानों और हिन्दुओं में अंग्रेजों ने भेद पैदा किए। बंगाल का बंटवारा हुआ, मुसलमानों के लिए अलग विधानक्षेत्रों का मसौदा वायसराय को भेजा गया। हालांकि उसकी कोई मांग नहीं की गई थी पर फिर भी प्रस्ताव किया गया। 1906 में मुसलमानों के अलग विधानक्षेत्र बना दिए गए थे और 1909 में मिंटो-मोर्ले सुधार लागू हुए थे। चुनावी राजनीति शुरू होने के साथ ही साम्प्रदायिकता बढ़ने लगी और अंग्रेजों द्वारा इसे बढ़ावा दिया गया।
और अधिक सत्ता मिलने से लोगों को पंथ, साम्प्रदायिकता और अब जाति, उपजाति सत्ता प्राप्ति के सरल तरीके लगने लगे। मैं मानता हूं कि देश के लिए जातिवाद अब साम्प्रदायिकता से भी बढ़ा खतरा बनकर उभर रहा है। राजनीतिक दल जातिवाद को उकसाकर वोट हासिल कर रहे हैं।
यह दुखद है, क्योंकि हमें लगता था अधिक शिक्षित और पढ़ा-लिखा होने के बाद हम इन सब बुराइयों से छुटकारा पा लेंगे, लेकिन दु:ख की बात है कि शिक्षा ने हमें इन पूर्वाग्रहों से मुक्त करने की बजाय हमें और ज्यादा साम्प्रदायिक, जातिवादी बना दिया है। इसमें निहित स्वार्थ जुड़े हैं। पदोन्नति, आरक्षण आदि स्वार्थ प्रभावी हो गए हैं।
कम्युनिस्टों ने समाज को वर्गों के आधार पर बांटने की कोशिश की। 19वीं सदी के बाद से लोग परिस्थितियों को वाम, मध्य और दक्षिण झुकाव से प्रभावित देखते थे। कम्युनिस्टों ने खुद को भारतीय राजनीति के वाम में रखा। यह सब आर्थिक दृष्टिकोण से अधिक हुआ था। शुरुआत में लोगों में वर्गों के आधार पर बंटवारा था। उदाहरण के लिए पूर्वी बंगाल में लोग वर्गों में बंटे थे, कोई बुनकर था, कोई श्रमिक था, लघु उद्यमी था, कामगार था। वे समाज में अपने काम के अनुसार बंटे हुए थे। बाद में जब ब्रिटिश आए, उन्होंने समाज को साम्प्रदायिक आधार पर बांटा।
…लेकिन कम्युनिस्टों ने हमेशा धर्म के विरुद्ध रुख अपनाया है। वे धर्म को “अफीम” कहते हैं?
माक्र्स और एंजिल्स ऐसा मानते थे, इसलिए यहां के कम्युनिस्ट भी धर्म को “अफीम” बताने लगे। लेकिन आज के सभी कम्युनिस्ट धर्म-विरोधी नहीं हैं, कुछ रूढ़िवादी मान्यताओं के कम्युनिस्ट हैं जो धर्म को “अफीम” मानते हैं।
समुदायों में इस विद्वेष को खत्म कैसे किया जा सकता है? नफरत को दूर कैसे किया जा सकता है?
मैं तो कहूंगा कि उचित शिक्षा से ये सब बुराइयां दूर हो सकती हैं। चिंतन में बदलाव, युवा पीढ़ी के रवैये में सकारात्मक बदलाव की जरूरत है।
रा.स्व.संघ पूरे भारत को सांस्कृतिक रूप से एक ही इकाई मानता है, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करता है। क्या आपको नहीं लगता कि यही भाव उचित है?
मुझे इस बारे में ज्यादा नहीं पता कि रा.स्व.संघ की सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की क्या व्याख्या है। मेरा हमेशा से विश्वास रहा है कि केवल हमारी सांस्कृतिक पहचान या अधिक विस्तृत रूप में कहें तो सभ्यतामूलक पहचान ही हमें एक राष्ट्र के रूप में एक सूत्र में पिरो सकती है। हम विभिन्न मत-पंथों, जातियों-उपजातियों, चर्चों, भाषाओं आदि में बंटे हुए हैं। लेकिन इन सब बातों को समेटते हुए हमारी एक सांस्कृतिक-सभ्यतामूलक पहचान है। जब हम एक राष्ट्र की बात करते हैं तो बेहतर हो कि हम उसकी सभ्यतामूलक पहचान की बात करें।
भारतवासी चाहे जम्मू-कश्मीर का हो, पंजाब का या कन्याकुमारी का, किसी परिस्थिति विशेष में आमतौर पर एक ही तरह से प्रतिक्रिया करता है। जब आप भारत से बाहर होते हैं तब इस बात का अहसास ज्यादा कर पाते हैं। अन्याय के प्रति हमारा रवैया, बड़ों का आदर, माता-पिता की आज्ञा पालन, किसी जीवनशैली के प्रति अरुचि आदि के बारे में आमतौर पर हमारी सबकी एक जैसी मान्यता है। हमें इसको मजबूत करना होगा। राष्ट्र के संदर्भ में एकसूत्रता ही हमारी पहचान है। हम अब तक अपनी जिस विशिष्ट सभ्यतामूलक पहचान के कारण एक राष्ट्र के नाते बने हुए हैं, वह जीवन के कुछ मूल्यों पर आधारित है। अगर हम उन आधारभूत मूल्यों को बनाए रखें तो जुड़ाव का इससे बेहतर कोई तरीका नहीं है। साथ ही, हम वैश्विक सभ्यता के काल में जी रहे हैं जहां सीमाएं खत्म होती जा रही हैं, फिर भी हमें ध्यान रखना होगा कि हम ऐसा राष्ट्र हैं जो अब भी निर्माण की स्थिति में है। हमें अभी 55 वर्ष ही तो हुए हैं एक राष्ट्र के रूप में उभरे। उससे पहले तो हम उपनिवेश ही थे, हमारी कोई पहचान कहां थी। इसलिए हमें एक इकाई के रूप में राष्ट्र बनना है, जिसके लिए सही शिक्षा जरूरी है। हम अमरीका से बहुत कुछ सीख सकते हैं। उन्होंने शिक्षा को राष्ट्रीय एकता के एक साधन की तरह इस्तेमाल किया। वहां अलग-अलग जगह के लोग जाकर बसे। लेकिन जब उन्होंने लोकतांत्रिक संस्थाएं स्थापित कीं, उदार दर्शन स्वीकारा और नए संविधान का निर्माण किया तब उन्होंने शिक्षा को राष्ट्रीय एकता मजबूत करने के साधन के रूप में सोच-समझकर इस्तेमाल किया। उन्होंने यह भाव प्रसारित किया कि आप भले किसी समुदाय के, पंथ के, भाषा के हों, आप सब पहले अमरीकी हैं। हमें अपने देश में कुछ ऐसा ही करने की जरूरत है।
क्या आप भारत के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य से संतुष्ट हैं?
नहीं, मैं बिल्कुल संतुष्ट नहीं हूं।
कहां कमी है? क्या करना चाहिए?
बहुत कुछ किया जाना है। हमें राष्ट्र के सामने दिख रहे नए खतरों से लड़ना होगा। जातिवाद एक गंभीर खतरा है, क्योंकि यह लोगों को, समाज को और बांटता जाएगा। हमें राजनीतिक दलों के स्तर पर अपने राजनीतिक तंत्र में सुधार करना होगा। हम लोकतंत्र की बातें करते हैं, संसदीय लोकतंत्र की बात करते हैं लेकिन एक बेहतर, स्वस्थ दलीय व्यवस्था के बिना आप लोकतंत्र कैसे चला पाएंगे? हमारे यहां अधिकांश दलों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है।
शिक्षा के जरिए हमें सुधार लाने होंगे ताकि युवा पीढ़ी अपने भारतीय होने पर और गर्व कर सके।
डॉ पी सी अलेक्जेंडर बेशक उच्च आदर्शों और बेहतरीन प्रशासनिक क्षमता वाले ब्यूरोक्रेटस में शुमार किये जाते हैं. वे न केवल राष्ट्रपति बल्कि किसी भी पद के योग्य हैं किन्तु भारतीय प्रजातंत्र का मूल सिद्धांत – व्यक्तिनिष्ठता से ऊपर ‘ लोक्सत्तात्मकता’ को स्वीकार करता है.लोकसत्ता वोट के माध्यम से बहुमत के रास्ते सत्ता शिखर पर पहुँचती है. सोनिया जी चाहें तो आज अभी प्रधान मंत्री बन सकती हैं भले ही उन्हें भारतीय संविधान की प्रस्तावना का प्रथम पेराग्राफ भी मुखाग्र न हो.श्री पी सी अलेक्ज़ेन्दर साब न केवल संविधान वेत्ता.न केवल प्रशाशनिक नियमावली के विद्ववान, बल्कि भारतीय वेद-वेदांग ,कुरआन,बाइबिल और जिन्दवेस्ता समेत विश्व दर्शन के अध्येता हैं वे ईमानदार और गौरवशाली व्यक्तित्व के धनी हैं किन्तु विना चुनाव लड़े या बिना किसी बहुमत प्राप्त दल की अनुकम्पा के वे राष्ट्रपति तो क्या नगर निगम के पार्षद भी नहीं बन सकते. सोनिया जी ने नहीं बनाया ,क्यों नहीं बनाया ? देश के log jaante हैं.