बढ़ती गर्मी से हो रहा है जलवायु परिवर्तन

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संदर्भः 60 देशों के 200 वैज्ञानिकों द्वारातैयार की गई रिपोर्ट-

प्रमोद भार्गव

     दुनिया के कई देश पिछले कुछ महीनों से भीषण गर्मी, सूखा, आग, तूफान, बर्फबारी, बाढ़ और बादल फटने व बिजली गिरने की घटनाओं से दो-चार हो रहे हैं। हजारों लोगों की मौतें हो चुकी हैं और करोड़ों की संपत्ति का नाश हुआ है। इसके लिए धरती के बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन को संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट ने जिम्मेबार ठहराया है। 60 देशों के 200 वैज्ञानिकों ने यह रिपोर्ट तैयार की है। इस रिपोर्ट में दावा किया है कि अगले 20 साल में धरती का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। वैज्ञानिकों ने पहले अंदाज लगाया था कि यह तापमान 2050 तक बढ़ेगा लेकिन अब यह दस साल पहले मसलन 2040 तक ही बढ़ जाएगा। तेज गर्म हवाओं के चलते 50 साल में बढ़ने वाला तापमान अब हर दस साल में बढ़ रहा हैं। संयुक्त राष्ट्र के अंतर सरकारी जलवायु परिवर्तन पैनल की इस रिपोर्ट को दुनिया की अब तक की सबसे बड़ी रिपोर्ट कहा जा रहा है।

     भीषण बारिश के बावजूद भारत के कई इलाकों में इस समय भीषण गर्मी हैं। उत्तराखंड के किन्नौर में भू-स्खलन से एक बस व दो कारें मलबे में दब गई हैं। ग्रीस पिछले 30 साल में सबसे भीषण आग का सामना कर रहा है। यहां आग से हजारों एकड़ जंगल खाक हो चुके हैं। यही हाल तुर्की का है। कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया और अमेरिका के वाशिंगटन व ओरेगन में तेज गर्मी के चलते सैकड़ों लोग मर चुके हैं। कोलंबिया में 49 डिग्री से ऊपर पहुंचे पारे ने 486 लोगों को निगल लिया। यहां के जंगल अचानक जल उठे नतीजतन 1000 से ज्यादा लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया है। गर्मी से राहत देने के लिए सड़कों पर फव्वारे चलाए जा रहे हैं। इस ऐतिहासिक गर्मी ने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए है। ऐसा माना जा रहा है कि 10 हजार साल में एक बार चलने वाली गर्म हवाओं के कारण यह स्थिति यूरोपीय देशों में बनी है। इसके उलट न्यूजीलैंड में सर्दी ने 55 साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया है, जो बर्फबारी अक्टूबर में होती है, वह मध्य और दक्षिणी न्यूजीलैंड में आजकल हो रही है। यहां बर्फीला तूफान आया हुआ है। इस कारण बर्फ से सड़के और हवाई अड्डे पट गए हैं। इस समय न्यूजीलैंड का तापमान 11 से 15 डिग्री रहता है, जो घटकर एक से चार डिग्री नीचे चला गया है। आर्कटिक की ओर से आ रहीं बर्फीली हवाओं ने समुद्र की लहरों में 12 मीटर की ऊंचाई तक ज्वार ला दिया है। ओलावृष्टि के साथ भयंकर बारिश भी हो रही है। वैज्ञानिक यह मानकर चल रहे हैं कि अंटाकर्टिका महासागर में जो विशाल हिमखंड टूटा है, वह भी यहां के तापमान में परिवर्तन का कारण हो सकता है, क्योंकि यहां के उत्तरी धु्रव पर हमेशा माइनस 80 डिग्री तापमान रहता है। ज्यादातर समय ठंडे रहने वाले साइबेरिया के कई इलाकों में लू चल रही है, इन बदलावों को जलवायु परिवर्तन की वजह भी माना जा रहा है। अमेरिका में चल रही गर्म हवाओं की मुख्य वजह प्रशांत महासागर क्षेत्र के पूर्व और पश्चिम के बीच तापमान में आया बड़ा अंतर माना जा रहा है। इस तरह की ढलान (गे्रडिएंट) बनाने वाले पानी की गति ग्लोबल वार्मिंग के कारण बदल जाती है। अमेरिका के नेशनल ओशिनक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन ने यह दावा किया है कि यदि किसी क्षेत्र में तीन दिन तक तापमान ऐतिहासिक औसत से ज्यादा हो जाता है तो लू के संकेत हैं।

पोट्सडैम जलवायु प्रभाव शोध संस्थान के वैज्ञानिक-प्राध्यापक एंडर्स लीवरमैन ने धरती के बढ़ते तापमान की वजह से भारत में बारिश पर होने वाले प्रभावों का अध्ययन किया है। एंडर्स के मुताबिक जितनी बार धरती का पारा वैश्विक तापमान के चलते एक डिग्री सेल्सियस ऊपर चढ़ेगा, उतनी ही बार भारत में मानसूनी बारिश 5 प्रतिशत अधिक होगी। मानसूनी बारिश का वास्तविक अंदाजा लगाना भी कठिन हो जाएगा। यह अध्ययन ‘अर्थ सिस्टम डायनेमिक्स’ जर्नल में छपा है। भारत में आमतौर पर बारिश का सीजन जून के महीने से शुरू होता है और सितंबर के अंत तक चलता है। एंडर्स का कहना है कि इस सदी के अंत तक साल दर साल वैश्विक तापमान की वजह से तापमान बढ़ेगा। नतीजतन भारत में मानसूनी बारिश तबाही मचाएगी। इससे ज्यादा बाढ़ आएगी, जिससे लाखों एकड़ में फैली फसलें खराब होंगी। अगस्त के पहले सप्ताह में हम देख चुके हैं कि मध्य-प्रदेश का ग्वालिया चंबन अंचल जबरदस्त बाढ़ की चपेट में रहा। यह इस पीढ़ी का जलवायु परिवर्तन का नमूना है, जो भारत की मानसूनी बारिश के अगले चार सालों का अनुमान लगाता है। यह अनुमान वैश्विक तापमान के बढ़ते क्रम के आधार पर लगाया जाता है। पेरिस जलवायु समझौते के अनुबंध के तहत अधिकतम तापमान दो डिग्री सेल्सियस को तय मानक माना जाता है। इसी नमूने से दुनिया के अलग-अलग देशों में मानसूनी या तूफानी बारिश की गणना की जाती है। इस अध्ययन के अनुसार पिछले जलवायु नमूना की तुलना इस मॉडल से करें तो भारत में मौसमी बारिश ज्यादा शक्तिशाली व अनियमित होने जा रही है।

     इस अध्ययन के अलावा संयुक्त राष्ट्र द्वारा 2020 में किए गए एक अध्ययन से भी स्पष्ट हुआ था कि जलवायु परिवर्तन और पानी का अटूट संबंध है। इस रिपोर्ट के मुताबिक दक्षिण एशिया को 2030 तक बाढ़ों की कीमत प्रत्येक वर्ष चुकानी पड़ेगी। इनसे करीब सालाना 15.6 लाख करोड़ की हानि उठानी पड़ सकती है। साफ है, वैश्विक तापमान के बढ़ते खतरे ने आम आदमी के दरवाजे पर दस्तक दे दी है। दुनिया में कहीं भी एकाएक बारिश, बाढ़, बर्फबारी, फिर सूखे का कहर यही संकेत दे रहे हैं। आंधी, तूफान और फिर यकायक ज्वालामुखियों के फटने की हैरतअंगेज घटनाएं भी यही संकेत दे रही हैं कि अदृश्य खतरे इर्दगिर्द ही कहीं मंडरा रहे हैं। समुद्र और अंटाकर्टिका जैसे बर्फीले क्षेत्र भी इस बदलाव के संकट से दो-चार हो रहे हैं। दरअसल वायुमंडल में अतिरिक्त कार्बन डाइआॅक्साइड महासागरों में भी अवशोषित होकर गहरे समुद्र में बैठ जाती है। यह वर्षों तक जमा रहती है। पिछली दो शताब्दियों में 525 अरब टन कचरा महासागरों में विलय हुआ है। इसके इतर मानवजन्य गतिविधियों से उत्सर्जित कार्बनडाइआॅक्साइड का 50 फीसदी भाग भी समुद्र की गहराइयों में समा गया है। इस अतिरिक्त कार्बनडाइआॅक्साइड के जमा होने के कारण अंटार्कटिका के चारों ओर फैले दक्षिण महासागर में इस कॉर्बन डाइआॅक्साइड को सोखने की क्षमता निरंतर कम हो रही है। इस स्थिति का निर्माण खतरनाक है। ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वेक्षण के मुताबिक वैज्ञानिकों का कहना है कि दक्षिण महासागर में कार्बन डाइआॅक्साइड से लबालब हो गया है। नतीजतन अब यह समुद्र इसे अवशोषित करने की बजाय वायुमंडल में ही उगलने लग गया है। अगर इसे जल्दी नियंत्रित नहीं किया गया तो वायुमंडल का तापमान तेजी से बढेगा, जो न केवल मानव प्रजाति, बल्कि सभी प्रकार के जीव-जंतुओं के अस्तित्व के लिए खतरनाक होगा।

     हिमालय पर कई वर्षों से अध्ययन कर रहे ‘वाडिया भू-विज्ञान संस्थान’ की रिर्पोट के अनुसार हिमालय के हिमखंडों में काले कार्बन की मात्रा लगातार बढ़ रही है। यह मात्रा सामान्य से ढाई गुना बढ़कर 1899 नैनोग्राम हो गई है। दरअसल काले कार्बन से तापमान में वृद्धि होती है। यह सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करने में अत्यंत प्रभावी है। इससे हिमालय और आर्कटिक जैसे हिमखंडों में बर्फ पिघलने लगती है। बीती बरसात में औसत से कम बारिश होने के कारण बर्फ पिघलने की मात्रा और अधिक बढ़ गई है। वायु प्रदूषण से भी हिमखंड दूषित कार्बन की चपेट में आए हैं। उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र ने निष्कर्ष निकाला है कि पिछले 37 सालों में हिमाच्छादित क्षेत्रफल में 26 वर्ग किलोमीटर की कमी आई है। इस क्षेत्र में पहले स्थाई स्नोलाईन 5700 मीटर थी, जो अब 5200 मीटर के बीच घट-बढ़ रही है। यही बजय है कि नंदादेवी जैव-मंडल (बायोस्फियर) आरक्षित ऋषि गंगा के दायरे का कुल 243 वर्ग किमी क्षेत्र बर्फ से ढका था, लेकिन यह 2020 में 217 वर्ग किमी ही रह गया है। साफ है, तापमान बढ़ने का सिलसिला बना रहा और यदि बर्फ इसी तरह पिघलती रही तो जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के संकट में आने का सिलसिला भी बना रहेगा।

     ‘बढ़ते तापमान को लेकर एक नई आशंका यह भी जताई जा रही है कि इससे दुनिया में कीड़े-मकोड़े और जीवाणु-विषाणु की संख्या अत्याधिक मात्रा में बढ़ेगी। कीड़ों के जीवन-चक्र पर बहुत ज्यादा वैज्ञानिक शोध नहीं हुए हैं। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि 10 मिलीग्राम से कम वजन के कीड़े वैज्ञानिकों की रडार प्रणाली में नहीं आते हैं। इस सच्चाई को जानने के लिए दक्षिण इंग्लैंड में एक रडार लगाया गया था। दरअसल वैज्ञानिकों का ऐसा अनुमान है कि इसी स्थल से यूरोप और अफ्रीका के लिए 35 अरब कीड़े प्रवास यात्रा पर निकलते हैं। इस रडार से 70,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में कीड़ों के स्थान परिवर्तन का पता चला है। कीटों पर हालांकि अभी तक व्यापक स्तर पर शोध नहीं हुए हैं। परंतु जितने भी हुए हैं, उस आधार पर सबसे अधिक आबादी धरती पर कीड़ों की ही है। जिस तेजी से ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है, उसमें निश्चित रूप से कीड़ों की संख्या और तेजी से बढ़ेगी, क्योंकि गर्म वातावरण में कीड़े तेजी से बढ़ते हैं। कीड़ों के प्रवास के लिए प्राकृतिक चयन के सिद्धांत को जिम्मेवार माना जा रहा है। लुंड विश्व-विद्यालय की सुसैन एकीसन के अनुसार, प्रवास के पीछे मुख्य रूप से अनुवांशिक और आहार प्रणाली जिम्मेवार होते हैं। चीन से निकला कोरोना विषाणु कोविड-19 भी दूषित आहार प्रणाली का कारक माना जा रहा है। चमगादड़ या पेंगोलिन को चीनियों द्वारा आहार बनाए जाने के कारण यह पहले चीनियों और फिर हवाई व जहाजी यात्राओं के जरिए दुनिया में फैल गया। वैज्ञानिकों का दावा है कि यदि वैश्विक तापमान बढ़ता है तो उसी अनुपात में इनकी संख्या में बढ़ोतरी होना तय है। क्योंकि गर्भ वातावरण इनके पनपने में अनुकूल रहता है। इसलिए यदि तापमान बढ़ने का सिलसिला निरंतर बना रहता है तो यह दुनियाभर के परिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित कर मानव समुदायों के लिए अत्यंत हानिकारक साबित होगा। साफ है, धरती, पानी और हवा का जिस तरह से हम क्रूरता के साथ दोहन कर रहे हैं, उसके चलते प्रकृति गुस्से में है। यह कोई एक दिन में नहीं हुआ बल्कि बीते पचास सालों में हुआ है। इसका साक्ष्य यह है कि दुनिया के सभी विकसित और विकासशील देश जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंतित तो है, लेकिन समझौते की शर्तों को पालन करने के लिए तैयार नहीं हैं। इसीलिए प्राकृतिक आपदाओं की आवृति बढ़ने के साथ भयावह हो रही है।

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